Wednesday 28 November 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं-1

                                       

 इस वक्त क्या यह बेहतर नहीं होगा कि विधानसभा चुनावों में जीत-हार के बारे में अटकलबाजी करने के बजाय बात इस पर की जाए कि हम सरकार बनाने के लिए जिन्हें चुनेंगे उनसे भविष्य के प्रति हमारी क्या अपेक्षाएं हैं? सरकार कांग्रेस की बने या भाजपा की या किसी गठजोड़ की, उसमें लोग तो वही होंगे जिन्हें हमने चुना होगा। मैंने इसी कॉलम में कुछ समय पूर्व 'मेरा चुनावी घोषणापत्र' और 'रोशनी का घोषणापत्र' शीर्षक से दो लेख लिखे थे।  इनमें मैंने  संक्षेप में और अधिकतर संकेतों में आगामी सरकार के विचारार्थ कुछ बिन्दु रखे थे। आज उनमें से कुछ बिन्दुओं पर मैं विस्तारपूर्वक बात करना चाहूंगा। मकसद यही है कि हम एक सजग और सतर्क नागरिक समुच्य के रूप में अपनी भूमिका निभाएं। सिर्फ वोट डाल कर आ जाने से हमारा काम पूरा नहीं होता। हमें स्वयं याद रखना चाहिए और सत्ताधीशों को समय-समय पर स्मरण कराते रहना चाहिए कि हम सिर्फ मतदाता या मूकदर्शक नहीं हैं; और यह भी कि जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पांच साल तक चुप बैठे रहना ठीक नहीं है।

मेरा पहला प्रस्ताव छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में है और यह इस प्रदेश में दशकों से विद्यमान नक्सल समस्या को लेकर है। मैं चाहूंगा कि अगली सरकार जिस भी पार्टी की हो, वह इस जटिल मुद्दे पर पूरी ईमानदारी और गंभीरता के साथ विचार करे। एक नई पहल के लिए मैं एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की सिफारिश करता हूं जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक अध्यक्ष हों तथा सदस्य के रूप में प्रोफेसर दीपक नैय्यर (दिल्ली वि.वि. के पूर्व कुलपति व अर्थशास्त्री), एम.एल. कुमावत (पूर्व महानिदेशक सीमा सुरक्षा बल) व प्रोफेसर नदीम हसनैन (विख्यात समाजशास्त्री) शामिल हों।  ये सभी अपने-अपने क्षेत्र की जानी-मानी हस्तियां हैं व इनकी विवेक बुद्धि व विवेचन क्षमता असंदिग्ध है।
यह समिति छत्तीसगढ़ में नक्सल मोर्चे पर की गई अब तक की तमाम नीतियों व कार्रवाईयों का पुनरीक्षण करे और बस्तर में शांति के लिए अपने सुझाव दे। सलवा जुड़ूम, पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों द्वारा की गई कार्रवाईयां, आदिवासियों की गिरफ्तारियां, पत्रकारों व नागरिक समूहों के साथ टकराव, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, निर्मला बुच कमेटी के समक्ष आए सुझाव जैसे तमाम मुद्दों पर यह समिति विचार करे। मैं इसमें एक प्रस्ताव अपनी ओर से  भी जोड़ना चाहूंगा कि बस्तर में मुख्य सचिव स्तर का एक शक्तिसम्पन्न अधिकारी पदस्थ किया जाए ताकि स्थानीय स्तर पर आवश्यकता पड़ने पर अविलंब निर्णय लिए जा सकें।
अगला बिंदु स्थानीय स्वशासन के बारे में है। इसमें 73वां व 74वां दोनों संविधान संशोधन विधेयक शामिल हैं।  चूंकि ये विधेयक राज्य सरकारों को अपने स्तर पर नियम-उपनियम बनाने की शक्ति देते हैं, इसलिए यहां पुनर्विचार करना वांछित है कि प्रदेशों में जो नियम लागू हैं वे संविधान की भावनाओं के अनुकूल हैं या नहीं। मुझे दो बड़े अंतर्विरोध स्पष्ट दिखाई देते हैं। जब केन्द्र और राज्य में मुखिया का निर्वाचन चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं तो नगरीय निकायों और पंचायतीराज संस्थाओं में सरपंच से लेकर महापौर तक के चुनाव सीधे करने में क्या तुक है? इनके चुनाव भी पंचों और पार्षदों के बीच में से होना चाहिए। दूसरे पंचायती राज संस्थाओं में गैरदलीय पद्धति से चुनाव करवाना भी वांछित नहीं है। अगर गांव-गांव में पंचों के चुनाव दलगत आधार पर हो तो इससे जमीनी स्तर पर पार्टी भी मजबूत होगी और पंचायत के प्रबंध में भी किसी हद तक अनुशासन बना रहेगा। यह भी विवेचना का विषय है कि स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को आगे और कैसे मजबूत किया जाए।
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में धान का समर्थन मूल्य पच्चीस सौ रुपया और सोयाबीन का पांच हजार रुपए करने का वचन दिया है। किसानों की कर्जा माफी की बात तो की ही गई है। वह खैर, एक बार की बात है। इससे अधिक महत्वपूर्ण घोषणा समुचित समर्थन मूल्य की है। इस बारे में निरंतर समीक्षा होते रहना चाहिए ताकि किसानों को बिना आंदोलन किए यथासमय युक्तिसंगत कीमत प्राप्त होती रहे। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय कृषि मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. दिनेश मरोठिया जैसे विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। ऐसे विद्वानों की राय से कृषि क्षेत्र के लिए एक दीर्घकालीन नीति बनाई जा सकती है ताकि किसानों को बार-बार ऋणग्रस्तता के दलदल में न फंसना पड़े और न उन्हें क्षणिक लाभ के लिए बीच-बीच में झुनझुने पकड़ाने की जरूरत आन पड़े। गैरकृषक निम्न आय वर्ग को सस्ता अनाज कैसे उपलब्ध हो अर्थात सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सही ढंग से लागू करना  इसी विषय का दूसरा एवं अनिवार्य पहलू है। 
हमारे यहां एक कहावत चली आ रही है-पैडी एण्ड पावर्टी गो टूगेदर अर्थात धान और गरीबी साथ-साथ चलते हैं। यह बात सरासर झूठ है। अन्यथा चावल मिल मालिक कैसे करोड़पति और अरबपति हो जाते हैं? मैं अपने पुराने सुझाव को दोहराऊंगा कि राईस मिल को जॉब वर्क की तरह सिर्फ मिलिंग करना चाहिए जिसका एक रेट तय किया जा सकता है। धान से लेकर चावल तक पर किसान का अधिकार हो। उसमें पंचायत, सहकारी बैंक, ग्रामीण बैंक, सहकारी संस्थाएं, भारतीय खाद्य निगम और वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन नीतिगत मदद करें ताकि किसान को खाद, बीज खरीदने से लेकर चावल बेचने तक किसी तरह की अनावश्यक कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसे सुनिश्चित करने में ग्राम पंचायत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
भारत एक कृषिप्रधान देश होने के अलावा पशुप्रधान देश भी है। गोवंश का पालन और संरक्षण आम भारतीय की भावनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है, लेकिन यहां भी जनता सब कुछ सरकार पर छोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लेती है।  दूसरी ओर गोवंश संरक्षण के नाम पर देश में गौ-गुंडों की एक फौज खड़ी हो गई है। मेरा मानना है कि हरेक ग्राम पंचायत को एक वृहद गौशाला परिसर का निर्माण करना चाहिए जिसमें हर स्तर पर मवेशियों की देखभाल हो। एक तरफ दुग्ध उत्पादन, दूसरी ओर गोबर गैस से बिजली का उत्पादन, दो तरह से लाभकारी आर्थिक गतिविधियां संचालित हो सकती हैं। महात्मा गांधी ने तो मरे हुए जानवरी की खाल और हड्डी के उपयोग को भी स्वीकार किया था। अभी आवारा मवेशियों के कारण जो सड़क दुर्घटनाएं होती हैं वे बहुत चिंताजनक हैं। सुचारु गौशाला परिसर होने से इस पर रोक लगेगी। गोबर गैस का उपयोग होने से बिजली उत्पादन में पर्यावरण को होने वाली क्षति में भी कमी आएगी।
कांग्रेस और भाजपा दोनों शराबबंदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन यह काम सरल नहीं है क्योंकि हर व्यक्ति को कोई न कोई व्यसन होता है। भारत में एक समय अफीम, भांग, गांजा, चरस इन पर कोई रोक नहीं थी। किसी समय हमने अमेरिका की देखा-देखी इन पर रोक लगा दी थी। ये व्यसन न तो महंगे हैं और न ही बहुत ज्यादा नुकसानदायक। अब मैक्सिको, कोलंबिया, बोलीविया इत्यादि देशों के अलावा अमेरिका के भी अनेक राज्यों में भांग और चरस के उपभोग की आंशिक अनुमति दे दी गई है। इस बारे में राज्यों और केन्द्र को मिलकर विचार करना चाहिए कि शराब के विकल्प के रूप में क्या भांग इत्यादि के सीमित उपभोग की अनुमति दी जा सकती है? वृद्धजन, पर्यटन, मीडिया, उद्योग, कुटीर उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर भी सुझाव हैं, वे अगले अंक में। (कल जारी)
देशबंधु में 29 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

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