Sunday, 4 November 2018

'रोशनी का घोषणापत्र'

                                        

 "समय करीब है
जब हर पौधा पेड़ बनेगा
तब हर मां गहरी नींद सोएगी
और उसके जवान बेटे
खेत पर बने मचानों पर
अकाल के जाल को
मिट्टी-सने हाथों से काटेंगे
भूख की यह खिड़की
अब बार-बार नहीं खुलेगी
छीन ली जाएगी
उस हर तथाकथित आदमी से
सज्जनता की वर्दी
जो हर सच्चे शब्द की गर्दन काट लेता है
नहीं गल सकेगी दाल
अब निकम्मे अर्थशास्त्र की
क्योंकि यहां से वहां तक 
अंधेरे की हर पीठ पर
रोशनी का घोषणा-पत्र
चिपकाया जा चुका है।''
उपरोक्त पंक्तियां नारायणलाल परमार की लंबी कविता 'रोशन हाथों की दस्तक है' से ली गई है जो उनके इसी नाम से प्रकाशित संकलन की पहली कविता है। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इसे 1980 प्रकाशित किया था। अस्तु,
पिछले सप्ताह इस कॉलम में ''मेरा चुनावी घोषणापत्र'' छपा था। मैं उसी को आगे बढ़ाते हुए इस सप्ताह अनेक नए बिन्दुओं को जोड़ना चाहता था। लेकिन जब दीपावली का त्योहार आ गया हो तब यह समयोचित है कि चुनावी घोषणापत्र के बजाय रोशनी के घोषणापत्र पर बात की जाए। वैसे दोनों में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है। आम चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है तथा घोषणापत्र एक तरह से संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों, मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के प्रति राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता को ही दोहराते हैं।
संविधान  समतामूलक, न्याय आधारित, मानवीय गरिमा से भरपूर, सुखी, शांतिमय, सुरक्षित भविष्य के प्रति वचनबद्धता को प्रतिबिंबित करता है। हमने जो एक सौ नब्बे साल की गुलामी झेली, अकाल, भुखमरी, गरीबी, फूट डालो और राज करो, अशिक्षा, बीमारी आदि का सामना किया, उस अंधकार से निकलकर खुली हवा और रोशनी में जी सकने की गारंटी का ही तो दूसरा नाम संविधान है। यह अवश्य है कि राजनीतिक ताकतें सर्वशक्तिमान होने के अहंकार में डूबकर इस गारंटी का तिरस्कार जब-तब करती हैं। ऐसे में सत्ताधारियों को याद दिलाने के लिए कवि की वाणी मुखरित होती है कि वह आम जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूलने का अपराध न करें। "रोशनी का घोषणापत्र" महज कविता नहीं है। वह सत्ताधीशों को उनके प्रमाद के विरुद्ध एक चेतावनी है।
कवि ने तो अपनी बात कह दी। हमारा दायित्व है कि सही संदर्भों में उसकी परिभाषा करें। मैं यहां से बात शुरू करना चाहूंगा कि दुनिया की आधी आबादी जब तक अंधेरे की कैद में रहेगी तब तक एक रोशन दुनिया की कल्पना साकार नहीं हो सकती। हमारे देश में स्त्री जाति की जो स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है। कहने के लिए कानून तो बहुत बन गए हैं और यही नहीं, कानूनों को कठोर से कठोरतम बनाने की मांग भी हमेशा उठती रहती है; लेकिन जब तक समाज के नज़रिए में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा तब तक कानून बेमानी रहे आएंगे। प्रश्न उठता है कि समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए क्या सचमुच आवश्यक परिवर्तन किए जा रहे हैं; क्या उनमें तकनीकी विकास के चलते आ रहे सामाजिक बदलावों का ध्यान रखा जा रहा है; क्या देश के राजनीतिक दल गौर करेंगे कि घिसी-पिटी युक्तियों से बात नहीं बनेगी।
मैं देखता हूं कि मूल रूप में मातृसत्तात्मक रहे आदिवासी समाजों में भी पितृसत्ता की पकड़ मजबूत हो रही है। यह चिंताजनक है। ध्यान देना होगा कि बचपन से स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के भाव को बढ़ाया जाए, पुरुष वर्चस्व को नकारा जाए, लड़के-लड़की दोनों का लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा इत्यादि में भेद न किया जाए, उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाया जाए। हमारी स्कूली किताबें भेदभाव को बढ़ाती हैं। विशेषज्ञ इनका परीक्षण करें और वर्चस्ववाद के बजाय नर-नारी समता का संदेश देने वाले पाठ पुस्तकों में रखें जाएं। सिनेमा और टीवी में आदर्श भारतीय नारी की जो कपोल-कल्पित छवि बना दी गई है उसे तोड़ा जाए। मैं यहां तक कहूंगा कि लड़के के लिए बंदूक और लड़की के लिए गुड़िया जैसे खिलौने की मानसिकता का भी त्याग किया जाए। इस सबके लिए राजनीतिक दलों को पूर्वाग्रह त्यागकर नई सामाजिक नीति बनानी होगी।
हाल के वर्षों में हुई तकनीकी प्रगति के चलते संचार माध्यमों ने स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर विकृतियां फैलाने का काम बड़े स्तर पर किया है। मैंने पहले भी लिखा है कि महान दार्शनिक प्लूटो ने होमर रचित महाकाव्यों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी क्योंकि उसका किशोर मन पर दुष्प्रभाव पड़ता है। आज हम उस सीमा तक नहीं जाएंगे, लेकिन सोशल मीडिया का जो दुरुपयोग हो रहा है वह वीभत्स और भयानक रूप से चिंताजनक है। कल्याणकारी शासन की जवाबदेही बनती है कि वह पोर्नोग्राफी पर रोक लगाए ताकि दुर्बल मन विकृति का शिकार होने से बच सकें। पश्चिम में बहुत कुछ अच्छा है, लेकिन हम उनकी हर चीज आंख मूंदकर  नहीं ले सकते। दूसरी ओर यह भी नहीं है कि हमारी  संस्कृति में सब कुछ अच्छा ही अच्छा है। अपनी सामाजिक संरचना की सड़ांध को दूर तो करना ही होगा।
रोशनी का घोषणापत्र लागू तभी होगा, जब समाज के कमजोर वर्गों के प्रति हमारी सोच सकारात्मक और सक्रिय सहानुभूति की होगी। यहां आंखें चुराने से काम नहीं चलेगा। आश्रम शालाएं, अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रावास, मलिन बस्तियां और अन्य स्थितियां चीख-चीख कर कहती हैं कि आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक- इनके प्रति हमारा रवैया अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। कामकाजी, मेहनतकश समाज के प्रति हमारा रवैया तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक होता है। कोऑपरेटिव सोसायटियां मृतप्राय हैं। अब जो कालोनियां बस रही हैं उनमें यह वर्गविभेद तुरंत दिखाई दे जाता है। राजनीतिक शक्तियों का दायित्व बनता है कि वे सामाजिक विभेद को खत्म करने के लिए समुचित नीतियां व कार्यक्रम बनाएं।
यहां पर मीडिया के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक लगता है। शासक वर्ग की सोच बन गई है कि मीडिया उसकी जी हुजूरी करता रहे। अगर स्वस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष मीडिया नहीं होगा तो सत्ता  की चकाचौंध में खोए शासकों को पता ही नहीं चलेगा कि आम जनता किस अंधेरे में जी रही है। दुर्भाग्य से आजकल नीतिगत आलोचना को भी निजी आलोचना मान लिया जाता है। अधिकतर राजनेता उतना ही जानते हैं जो उन्हें उनके अफसर और चाटुकार बताते हैं। अगर कहा जाए कि सत्तावर्ग में सूरज का सामना करने की ताब नहीं है, तो गलत नहीं होगा।  लेकिन  इसमें अंतत: नुकसान सत्ताधीशों को ही होना है। अगर अभी भी कहीं थोड़ी समझदारी की उम्मीद बची हो तो हम कहेंगे कि मीडिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष रहकर काम करने की गारंटी मिले। सुरक्षा की गारंटी तो उतनी ही चाहिए जितनी आम जनता को उपलब्ध है।
बातें अभी भी पूरी नहीं हुई है, लेकिन उन पर फिर कभी। 
देशबंधु में 05 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

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