छत्तीसगढ़ की नब्बे विधानसभा सीटों में से अठारह पर 12 नवंबर को मतदान के साथ विधानसभा चुनावों का पहला चरण सम्पन्न हुआ। बस्तर संभाग के पांच जिलों और राजनांदगांव जिले की इन सीटों के बारे में राजनीतिक पर्यवेक्षकों को खासी दिलचस्पी थी। इसका एक कारण तो राजनांदगांव क्षेत्र से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का स्वयं उम्मीदवार होना था जहां उनके मुकाबले में भाजपा छोड़ कांग्रेस में आईं पूर्व सांसद और अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला मैदान में थीं। जहां तक बस्तर की बात है अबूझमाड़ इस विशाल प्रांतर का एक हिस्सा ही है, लेकिन बाकी दुनिया के लिए समूचा बस्तर ही अबूझ और रहस्यमय इलाका है। बस्तर अनेक कारणों से दिलचस्पी का केन्द्र रहा है, लेकिन चुनावी संदर्भ में यह मान्यता बन गई है कि छत्तीसगढ़ में राजनीति की दिशा बस्तर के चुनाव परिणामों से तय होती है। यह कुछ-कुछ वैसी ही बात है जैसे कभी कहा जाता था कि बंगाल की राजनीति भारत की दिशा तय करती है।
बस्तर के बारे में यह मान्यता शायद 2003 के विधानसभा चुनाव परिणामों के चलते बन गई और अभी तक चली आ रही है। यही वजह है कि दिल्ली हो या चेन्नई, कोलकाता हो या मुंबई, जो भी पत्रकार या शोधार्थी छत्तीसगढ़ आता है तो सबसे पहले बस्तर का रुख करता है। इस इलाके में लंबे अरसे से चली आ रही नक्सली गतिविधियों ने भी बस्तर के प्रति एक रूमानियत का भाव सा जगा दिया है। राजनांदगांव जिला चूंकि बस्तर की सरहद को छूता है इसीलिए वहां भी नक्सलियों की उपस्थिति लगातार बनी हुई है। इस मुकाम पर विषयांतर की जोखिम लेकर भी एक ताजा किस्सा पाठकों से साझा करने के लोभ से मैं नहीं बच पा रहा हूं। पिछले दिनों एक नामी-गिरामी चैनल के एक वरिष्ठ पत्रकार ने रिपोर्ट जारी की कि उसने कैसे सीआरपीएफ के साथ घूमकर अपनी जान को खतरे में डालकर नक्सली क्षेत्र की रिपोर्टिंग की। बाद में खुलासा हुआ कि यह एक पूरा नाटक रचा गया था और इसमें वास्तविकता का लेशमात्र भी नहीं था। मैंने जिस रूमानियत की बात की यह उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बहरहाल पहले चरण का मतदान सम्पन्न हो गया। बस्तर में शायद चौबीस हजार सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे ताकि चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो सके। मतदान दलों को बीहड़ इलाकों में हेलीकाप्टर से भेजा गया। जिन गांवों में नक्सली वारदातों का खतरा था उनके लिए कई किलोमीटर दूर सुरक्षित समझे जाने वाले इलाके पर मतदान केन्द्र बनाए गए और पुलिस की भारी चौकसी के बीच मतदाताओं को वहां तक लाने के प्रबंध किए गए। छत्तीसगढ़ अकेला राज्य है जहां दो चरणों में मतदान हो रहा है उसकी वजह यही है कि बस्तर के संवेदनशील इलाकों की सुरक्षा प्रबंध करना लाजिमी था। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। नक्सलवादी हर आम चुनाव के पहले बदस्तूर मतदान बहिष्कार की अपील करते हैं। उसके जवाब में सरकार जनता को उसके मताधिकार का प्रयोग करने के लिए हरसंभव प्रयत्न करती है।
इस बार के प्रबंध पिछली बार के मुकाबले कहीं ज्यादा सघन थे। उम्मीद की गई थी कि इन प्रबंधों को देखते हुए मतदान प्रतिशत में अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। प्रारंभिक रिपोर्टों में बताया गया कि नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान का कोई फर्क नहीं पड़ा और मतदाताओं ने बढ़-चढ़ कर मतदान में भाग लिया। मतदान के एक-दो दिन पहले छुटपुट हिंसक वारदातें भी हुईं, जो पिछली बार भी हुई थीं। लेकिन 2013 और 2018 की तुलना करें तो ऐसा लगता नहीं है कि इस बार पहले के मुकाबले मतदान के प्रतिशत में कोई अधिक बढ़ोतरी हुई हो; बल्कि पहले कम मतदान की सूचना आई थी और बाद में मिले संशोधित आंकड़े पिछली बार के आसपास ही हैं।
मतदान के एक दिन पहले याने 11 नवंबर की रात को एकाएक खबर फैली कि सत्तारूढ़ पार्टी मतदान में भारी धांधली करवाने जा रही है। यह खबर क्यों और कैसे फैली इसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आया। एक जानकारी अवश्य यह मिली कि नक्सली खेमे से ही खबर फैलाई गई थी, जिसे छत्तीसगढ़ तो क्या दिल्ली के भी कुछ पत्रकारों ने लपक लिया। सोशल मीडिया पर खबर फैल गई। कुल मिलाकर इससे कांग्रेस खेमे में एकाएक हड़कंप मच गया। मेरा अनुमान है कि यह अफवाह कांग्रेसियों का मनोबल गिराने के लिए फैलाई गई थी। वरना मेरे सूत्रों का कहना है कि छोटी-मोटी गड़बड़ियां तो चलती रहती हैं, बड़े पैमाने पर कहीं कोई गड़बड़ियां नहीं हुई हैं। चूंकि चुनावों के समय विरोधियों को पस्त करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं तो मानना चाहिए कि यह खबर या अफवाह भी उसी तरह की एक चाल थी। आने वाले दिनों में ऐसे नजारे और भी देखने मिलेंगे!
खैर! अब सबका ध्यान दूसरे चरण के मतदान और शेष चार प्रदेशों के चुनावों पर लग गया है। इस बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि हार-जीत की भविष्यवाणियों के परे प्रदेश और प्रदेश के बाहर के पत्रकारों ने इस पहले चरण को किस तरह देखा है। मेरी जितने लोगों से बात हुई है उन सभी का लगभग एक स्वर से कहना है कि परिवर्तन की बयार बह रही है। वे इसके कुछ कारण भी गिनाते हैं जो उन्होंने चुनावी दौरों में आम जनता से बातचीत कर समझे हैं। सबका कहना है कि भ्रष्टाचार इस बार एक बहुत बड़ा मुद्दा है। नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने के चाहे जितने दावे करते रहें, छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है और डॉ. रमन सिंह अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद उस पर रोक नहीं लगा सके हैं।
भ्रष्टाचार के साथ अहंकार भी एक गंभीर मुद्दा बन कर उभरा है। भाजपा के छुटभैया नेताओं ने आम जनता को ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों को भी त्रस्त कर रखा है। मंत्रियों का तो कहना ही क्या! एकाध को छोड़कर कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। सुनते हैं कि डॉ. रमन सिंह इस बार बहुत से मंत्रियों और विधायकों के टिकट काट देना चाहते थे, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने अलग पैमाने बनाए और उस आधार पर टिकटों का वितरण हुआ। युवाओं के बीच में बेरोजगारी का प्रश्न भारी है। पिछले कुछ समय में अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी है, कितने ही कारखाने बंद हो गए हैं या ले-दे कर चल रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय में दीपावली के बाद भी चमक नहीं आई है। ऐसे में नौजवान या तो ताश खेलकर समय काट रहे हैं या स्मार्टफोन से मन बहला रहे हैं। उनका आंतरिक क्षोभ क्या रंग लाएगा यह देखने वाली बात होगी।
एक दिलचस्प बात यह सुनने को मिली कि छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी का कोई जादू नहीं है। उनकी बातों पर जनता ने एतबार करना बंद कर दिया है। वे जनसभाओं में जिस तरह बात करते हैं वह छत्तीसगढ़ की जनता के मिजाज के खिलाफ है। वही हाल अमित शाह का है। चुनाव में अगर भाजपा का कोई चेहरा है तो वह रमन सिंह का है। वे कल तक तो राजनांदगांव में ही फंसे हुए थे। अगले पांच-सात दिनों में वे अपनी पार्टी के लिए जितनी मेहनत संभव है करेंगे ही, लेकिन भाजपा ने स्टार प्रचारकों की जो फौज उतारी है वह नाकाम हो रही है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण व्यापारी वर्ग त्रस्त है। टिकट वितरण में भी व्यापारी समाज से नए चेहरों को सामने न लाने की नाराजगी ही दिखाई दे रही है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कुछेक ''सै'' प्रत्याशी आराम फरमा रहे हैं; कहीं-कहीं तीसरी ताकत की चुनौती है; कुछ अभी से खुद को मुख्यमंत्री मान बैठे हैं। ऐसे में सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि भाजपा कितनी दक्षतापूर्वक इलेक्शन मैनेजमेंट कर पाती है!
देशबंधु में 15 नवंबर 2018 को प्रकाशित
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