भारत और दक्षिण अफ्रीका के आपसी संबंध एक विशेष दर्जा रखते हैं। मेरी समझ में इसके तीन मुख्य कारण हैं- महात्मा गांधी, दक्षिण अफ्रीका के स्वाधीनता संग्राम में भारत का समर्थन और नेल्सन मंडेला। महात्मा गांधी ने उस देश में अपने जीवन के लगभग पच्चीस साल गुजारे; रंगभेदी सरकार के खिलाफ लड़ाई में भारत ने वहां की जनता को तन-मन-धन से सहयोग किया और नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत के साथ आत्मीयता बढ़ाने का हरसंभव प्रयत्न किया गया। आज जो ब्रिक्स (ब्राजील, भारत, रशिया, चाईना और साऊथ अफ्रीका) के नाम से अंतरराष्ट्रीय सहयोग संगठन बना है, उसे इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। हमारे दो देशों के बीच संबंधों का यह जो विशेष दर्जा है उसमें इस तथ्य पर कभी गौर नहीं किया जाता कि दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों की आबादी बहुत कम है, संभवत: जनसंख्या के दो प्रतिशत के आसपास। इनमें से भी अधिकतर क्वाजुलू - नटाल प्रांत में ही निवास करते हैं।
यूं अफ्रीका महाद्वीप के साथ भारत के व्यापारिक संबंध बहुत पहले से रहे हैं। केन्या, यूगांडा आदि कुछ देशों में भारतीय व्यापारियों ने अपनी पेढ़ियां भी डाल ली थीं। गुजराती मूल के अनेक भारतीय इन देशों मेें लगभग दो सौ साल से निवास करते आए हैं और उन्हीं में से बहुत से आगे चलकर इंग्लैण्ड व अमेरिका में जाकर बस गए। मॉरिशस अफ्रीका का एक ऐसा द्वीप देश है, जहां भारतीय बंधुआ मजदूर बनकर गए और 1965 में स्वतंत्रता हासिल होने के बाद से वे लगातार देश की जनतांत्रिक राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं।
दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण इनसे थोड़ा अलग है। वहां एक तरफ भारतीय मजदूर बेगारी करने के लिए जबरिया ले जाए गए तो दूसरी ओर सम्पन्न भारतीय व्यापारियों के व्यवसायिक संबंध भी दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के साथ बन गए थे। महात्मा गांधी स्वयं ऐसी ही एक भारतीय फर्म के वकील के नाते दक्षिण अफ्रीका गए थे। वे अगर न गए होते तो दक्षिण अफ्रीका की राजनीति शायद कुछ और ही होती और शायद भारत की भी! दक्षिण अफ्रीका धन-धान्य की धरती है। हिन्द महासागर और भूमध्य सागर दोनों यहां आकर मिलते हैं। हीरा, सोना और अनेक बेशकीमती पत्थर यहां की रत्नगर्भा धरती में छिपे हैं। इनकी खदानों में लगभग सबके सब अफ्रीकी मजदूर ही दारुण परिस्थितियों में काम करते हैं। जब अंग्रेजों ने यहां गन्ने की खेती शुरू की तो उसके लिए वे मुख्यत: भारत से मजदूर लेकर आए।
दक्षिण अफ्रीका में इस तरह भारतवंशियों की सात-आठ पीढ़ियां बीत चुकी हैं। इनमें बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के अलावा तमिलनाडु से लाए गए व्यक्तियों की ही संख्या अधिक थी। हमारी यात्रा के दौरान अनूप सिंह पथ प्रदर्शक के रूप में हमारे साथ थे। अनूप सिंह के लकड़दादा रीगु शिवचंद 1892 में यहां लाए गए थे। शिवचंद का पैतृक निवास भोजपुर इलाके के किसी गांव में है। गन्ने के खेत में काम करते हुए दो तीन साल बाद उन्होंने जिस युवती से विवाह किया वह भी उसी इलाके से बिना परिवार अकेली लाई गई थी। आज शिवचंद की आठवीं-नवीं पीढ़ी तक आकर उनके खानदान के लगभग नौ सौ सदस्य दक्षिण अफ्रीका में आबाद हैं। अनूप सिंह थोड़ा गर्व से बताते हैं कि महात्मा गांधी और शिवचंद लगभग एक ही समय में दक्षिण अफ्रीका आए थे। उनके ही परिवार के एक अत्यंत सम्मानित व्यक्ति मेवा रामगोबिन से इला गांधी का विवाह हुआ था। डरबन से पीटर मॉरित्जबर्ग जाते समय बस में अनूपसिंह ने हमें एक पुस्तक दिखलाई जिसमें उनके परिवार का वंशवृक्ष और आद्योपांत इतिहास अंकित था। शिवचंद का यह बडा कुनबा अब दो साल में एक बार पारिवारिक मिलन का आयोजन करता है, ताकि सब लोग एक दूसरे से जान पहचान और संपर्क बनाए रख सकें।
इस पुस्तक के अवलोकन से ज्ञात हुआ कि दक्षिण अफ्रीका के इन भारतवंशियों के बीच जात-पांत का कोई बंधन नहीं है। दो-तीन पीढ़ी पहले तक भारत से लाए जो रीति-रिवाज चल रहे थे, वे भी लगभग अब टूट गए हैं। एक तरह से ये भारतवंशी अपने लिए एक नई पहचान गढ़ रहे हैं। मुझे ध्यान आया कि ऐसा ही कुछ तो मैंने अंडमान निकोबार में भी देखा था। अपने घर से काले कोसों से दूर मुसीबत के मारे लोग किस तरह भाईचारा या बहनापा या संबंधों की एक नई बुनियाद डाल लेते हैं तथा इस तरह एक अनुकरणीय मिसाल भी पेश करते हैं, इस पर गौर किया जाना चाहिए।
लुथुली गांव और फीनिक्स की यात्रा में हमारे साथ जय याने प्रोफेसर जयनाथन गोविन्दर थे। जय नेल्सन मंडेला विवि में समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं। उनसे मैंने 'गोविन्दर' सरनेम के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। उन्होंने बताया कि उनकी परदादी भी अकेले ही कोई सवा सौ साल पहले यहां आईं थीं। उनका परिवार मूलत: बंगलुरू के पास किसी गांव से है। इससे अनुमान होता है कि मूलरूप में नाम गोविन्द राजू या गोविन्दन रहा होगा, जो लिखने में किसी भ्रांति के कारण गोविन्दर बन गया। अनूप और जय के इन दोनों आत्मवृत्तांतों से मालूम पड़ता है कि गुलामी के उस दौर में भारत की गरीब औरतों को भी न जाने कितनी यंत्रणाओं का सामना करना पड़ा होगा। डरबन में डॉ. निर्वाधा सिंह के घर आने का भी न्यौता मुझे मिला। उनका परिवार का मूल स्थान जयपुर, राजस्थान के पास किसी गांव में हैं, जबकि निर्वाधा के पति गुजराती मूल के हैं, जिनके कोई पुरखे दर्जी का काम करने के लिए यहां आए थे। इस तरह इस भारतवंशी समाज में अनायास ही एक लघु भारत का दर्शन होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, दर्जी, कोयरी, चर्मकार, यादव, तेली सबके सब मुसीबतों के मारे यहां आए और न सिर्फ एकसूत्र हुए, बल्कि कठोर मेहनत व भांति-भांति की यातना झेलने के बाद उन्होंने अपने वजूद को इस तरह बचाकर रखा कि आज उनकी संतानें दक्षिण अफ्रीकी समाज में अपने लिए एक सम्मानजनक स्थान हासिल कर सकी।
यह दिलचस्प तथ्य है कि इन भारतवंशियों की अपनी कोई भाषा है तो वह प्रथमत: अंग्रेजी और फिर जुलू है। वे आपस में भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं। यहां भोजपुरी, तमिल या गुजराती लगभग व्यवहार में नहीं आती। यद्यपि ये भारतवंशी नागरिक पूरी तरह से दक्षिण अफ्रीकी ही हैं और उन्हें नागरिकता के सारे अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन यह जानकर चिंता होती है कि मूल अफ्रीकियों और भारतवंशियों के बीच संबंध बहुत सौहार्द्रपूर्ण नहीं है। इसके कई कारण हैं - युवाओं के लिए रोजगार के अवसर नहीं है, उनका इतिहास ज्ञान भी सीमित है; मंडेला की महात्मा गांधी की तरह धीरे-धीरे जीवित आदर्श के बजाय दीवार पर टंगी तस्वीर में बदलते जा रहे हैं; अधिकतर पढ़े-लिखे नौजवान अब विदेशों का रूख कर रहे हैं; हम भारतीय भी दक्षिण अफ्रीका सैर सपाटे के लिए ही जाते हैं। ऐसे में जब तक दक्षिण अफ्रीका की सरकार अपने इन समुदायों के बीच तादात्म्य बढाने के लिए ठोस उपाय नहीं करती, भारतवंशी वहां उस तरह निर्भय होकर नहीं रह पाएंगे जिसका कि उन्हें हक हैं।
देशबंधु में 23 अगस्त 2012 को प्रकाशित
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