Thursday 30 August 2012

यात्रा वृत्तांत : डरबन की झलकियां





दक्षिण अफ्रीका में जून-जुलाई-अगस्त में ठंड का मौसम रहता है। जोहान्सबर्ग विमानतल पर उतरते साथ ही ठंड का अहसास हुआ। स्वेटर के ऊपर कोट और फिर कानों में मफलर लपेटा तो राहत मिली। ठंड डरबन में भी बहुत थी। दिन के समय मौसम खुशगवार रहता था, लेकिन रातें काफी सर्द होती थीं। उसमें भी यदि तेज हवाएं चलने लगे तो फिर कहना ही क्या।

डरबन नगर पहली ही नजर में लुभा लेता है। एक तरफ हिन्द महासागर का पश्चिमी तट और दूसरी ओर ऊंची-नीची पहाड़ियों पर बसी दूर-दूर तक फैली बस्तियां। डरबन का विमानतल बहुत बडा नहीं है, लेकिन टर्मिनल भवन सुंदर और सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाया गया है। विमानतल से बाहर आकर शहर के लिए रवाना हुए तो घेरदार-घुमावदार राजमार्ग के दोनों ओर हरियाली देखकर मन प्रसन्न हो उठा। दोनों तरफ गन्ने के खेत फैले हुए हैं और विभिन्न फूलों वाले ऊंचे-ऊंचे पेड़ रास्ते की शोभा बढ़ाते हैं। ऐसे अनेक फूल जो भारत में अलग-अलग ऋतुओं में खिलते हैं वे यहां एक साथ देखने मिल रहे थे। मालूम नहीं यह डरबन की मिट्टी का कमाल था या वहां के मौसम का! एक फूल जो बहुत  ज्यादा देखने में आया वह था- इरिथ्राइना इंडिका। नारंगी रंग के इस फूल को हम मंदार के नाम से भी जानते हैं। भारत में अक्सर यह पुष्प फरवरी-मार्च के महीने में फूलता है। किसी ने बताया कि क्वाजुलू-नटाल प्रांत का यह  राज्य पुष्प है। महात्मा गांधी के फीनिक्स आश्रम में सफेद और गुलाबी फूलों से लदे कचनार के वृक्षों ने हमारा स्वागत किया।

एक तरफ प्रकृति की यह छटा है तो दूसरी ओर डरबन शहर अपने आप में साफ-सुथरा और व्यवस्थित है। भारत की ही तरह यातायात बांई ओर से चलता है। वीरान सड़क पर भी कोई वाहन चालक न तो अपनी लेन छोड़कर ओवरटेकिंग करता है और न चौराहे पर लाल सिग्नल तोड़कर आगे बढ़ता है। हमें सड़क पर एक भी दिन यातायात पुलिस का कोई सिपाही नजर नहीं आया। जहां ऐसी व्यवस्था हो वहां सड़क पर अनावश्यक खड़े होने की जरूरत ही क्या? लेकिन इस तस्वीर का तीसरा पहलू है कि डरबन में कोई भी घर शायद सुरक्षित नहीं है। हर घर में अलार्म सिस्टम लगा हुआ है और हर गेट पर किसी सिक्युरिटी एजेंसी का चेतावनी पटल कि अनाधिकार प्रवेश की कोशिश का जवाब बंदूक (आर्म्ड रिस्पांस)से दिया जाएगा।

हमें डरबन से जोहान्सबर्ग वाले राजमार्ग को पकड़कर पीटर मॉरित्सबर्ग (पीएमबी) जाना था। बताया गया था कि लगभग साठ किलोमीटर की बस यात्रा पैंतालीस-पचास मिनट में पूरी हो जाएगी। फोरलेन हाईवे पर फर्राटे से गाड़ियां दौड़ रही थीं कि एकाएक ट्रैफिक जाम का सामना करना पड़ा। कुछ किलोमीटर आगे एक वाहन दुर्घटनाग्रस्त हुआ, उसने अपनी चपेट में कुछ अन्य वाहनों को ले लिया, कुछ लोग घायल हो गए और एयर एंबुलेंस घायलों को ले जाने के लिए वहां पहुंच गई। उसके लिए यातायात रोक दिया गया था। हमारे बस ड्रायवर ने आगे कहीं मौका देखकर बस वापिस लौटाई, फिर हम एक देहाती सड़क पकड़कर पीएमबी की तरफ चले। यह सड़क 'वैली ऑफ थाउजैंड हिल्स' याने हजार पहाड़ियों की घाटी से होकर गुजरती है। इस पर यात्रा करना एक आनंददायक अनुभव था मानो पिपरिया से पचमढ़ी या पेण्ड्रा रोड से अमरकंटक के रास्ते पर जा रहे हों। इस रास्ते पर जगह-जगह शुतुरमुर्ग के फार्म थे और हिरण आदि को बचाने की चेतावनी के बोर्ड भी लगे थे, लेकिन हमें इनके दर्शन नहीं हो सके। हमारी तरह सैकड़ों गाड़ियां इस रास्ते से पीएमबी की तरफ जा रही थीं, जबकि सामने से आने वाली लेन लगभग खाली थी, लेकिन क्या मजाल कि एक ड्रायवर ने भी अपनी लेन तोड़ी हो। 

ऐसे मौके पर अनायास ही मन में सवाल उठता है कि ऐसे अनुशासन का पालन हम भारतीय क्यों नहीं कर पाते। इंग्लैण्ड, अमेरिका, जापान की बात छोड़िए, क्या हम दक्षिण अफ्रीका से इस बारे में कुछ नहीं सीख सकते! प्रकृति का कुछ ऐसा ही वैभव हमने लुथुली ग्राम आते-जाते देखा। उस रास्ते पर एक जगह यह पता चला कि वहां देश-विदेश से हाट बैलून याने गरम गुब्बारे में सैर करने के लिए पर्यटक आते हैं। वही एक स्थान था जहां हमें कुछ दूर तक समतल भूमि दिखाई दी। वरना तो चारों तरफ पहाड़ियां ही पहाड़ियां नजर आ रही थीं।

एक तरफ डरबन की सुंदरता और नागरिक अनुशासन है तो दूसरी ओर उस इलाके की गरीबी  जो पर्यटकों की नजर से अक्सर ओझल रही आती है।  शहर के बाहरी छोर पर मलिन बस्तियां हैं। सरकार द्वारा उनके स्थान पर व्यवस्थित आवासीय कालोनियां बनाने का क्रम चल रहा है, लेकिन वह शायद कभी पर्याप्त नहीं होगा। इन बस्तियों में, जैसा कि आप समझ सकते हैं, शहर की मेहनत-मजदूरी करने वाली जनता निवास करती है। दक्षिण अफ्रीका में प्रति व्यक्ति औसत आय तीन हजार रेंड के आसपास है और यह बाजार में विभिन्न सामग्रियों की कीमत देखते हुए पर्याप्त नहीं है। मुझे यह देखकर हैरत हुई कि निजी अस्पताल बहुत बडी संख्या में हैं और नए-नए अस्पताल खुल रहे हैं। इनमें गरीब तो अपना इलाज करवा भी नहीं सकता। यही स्थिति  शिक्षा की भी है।

डरबन में अपने प्रवास के आखिरी दिन हम समुद्र तट पर गए। हिन्द महासागर को अपने सामने देखकर मन रोमांचित हुआ। समुद्र तट के आसपास ही डरबन का वृहद खेल परिसर है, जिसमें 2010 में फीफा वर्ल्डकप का आयोजन हुआ था। यहां कैसिनो भी है, पांच सितारा होटल भी और समुद्र तट पर सस्ती उपहार सामग्रियों की दर्जनों दूकानें। दूकानदारों के चेहरे-मोहरे, बातचीत से अनुमान लगा कि वे उन्हीं मलिन बस्तियों से यहां आते हैं। सैलानियों ने खरीदारी कर ली तो दिन अच्छा कट गया, अन्यथा फिर अगले दिन का इंतजार। हमारे मार्गदर्शक ने कहा कि हम इस इलाके में अकेले बिल्कुल न घूमें, लूटपाट हो सकती है। पूरे शहर में सात बजते न बजते बाजार बंद होने लगता है। उस रात हमने समुद्रतट पर ही एक ऐसे रेस्तरां में भोजन किया, जिसका मालिक पाक-अधिकृत काश्मीर का था। एक बैरा नेपाली, दूसरा बंगलादेशी, और ग्राहकों में हम तीन भारतीय, एक केन्याई भारतीय और एक आस्ट्रेलियाई भारतीय। हिन्द महासागर में तैरकर स्वदेश लौटने की गुंजाइश तो थी ही नहीं, सो हम भोजन करके होटल वापिस आए और अगली सुबह लगभग बारह घंटे की यात्रा कर डरबन से जोहान्सबर्ग होते हुए मुम्बई लौट आए।                                       

देशबंधु में 29 अगस्त 2012 को प्रकाशित 




 

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