Thursday, 16 August 2012

यात्रा वृत्तांत : गांधी की विरासत पर सम्मेलन



विश्व इतिहास में महात्मा गांधी ही संभवत: एकमात्र ऐसे जननेता हैं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में एक नहीं बल्कि दो देशों के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय और निर्णायक भागीदारी की। जीवन के पूर्वार्ध्द में यदि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को अपनी कर्मभूमि के रूप में चुना तो उत्तरार्ध्द में मातृभूमि भारत को। इस संदर्भ में परवर्ती समय में शायद एक व्यक्ति की ही तुलना किसी सीमा तक उनसे की जा सकती है- चे ग्वेवारा की, जिन्होंने सिर्फ अपने देश बोलीविया ही नहीं, संपूर्ण लैटिन अमेरिका को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। इस दृष्टि से देखने पर गांधीजी के विराट व्यक्तित्व को शायद और बेहतर तरीके से परिभाषित किया जा सकता है।

जैसा कि विदित है गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में लगभग एक चौथाई सदी बिताने के बाद 1915 में भारत लौट आए थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की थी, जिसने आगे चलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस याने एएनसी के नए नाम से एक वृहत्तर रूप ग्रहण कर लिया था। दक्षिण अफ्रीका में गोरे शासकों और रंगभेद के खिलाफ लड़ाई मुख्यत: इसी पार्टी के बैनर तले लड़ी गई और आज देश में इस पार्टी का ही शासन कायम है। एएनसी के सबसे कद्दावर नेता के रूप में हम नेल्सन मंडेला के नाम और काम से भलीभांति परिचित हैं, लेकिन इस मंच को खडा करने में डरबन क्षेत्र के ही कुछ और जीवनदानी स्वाधीनता सेनानियों की महती भूमिका रही है। एएनसी के पहले अध्यक्ष जॉन दुबे थे। डरबन विमानतल से बाहर राजमार्ग पर आते साथ ही सामने दुबे विलेज का नाम पटल दिखाई देता है। यह एक रोचक संयोग है कि भारत का एक प्रचलित कुलनाम या सरनेम दक्षिण अफ्रीका के एक महान नेता के साथ जुड़ा हुआ है, यद्यपि दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है।

एएनसी के दूसरे प्रमुख नेता थे चीफ अल्बर्ट लुथुली। डरबन से कोई पचपन-साठ किलोमीटर दूर लुथुली का गांव है। वे एक आदिवासी कबीले के मुखिया थे, इसीलिए चींफ की उपाधि से उन्हें जाना जाता है। दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक सत्याग्रह के द्वारा आाादी की लड़ाई का नेतृत्व करते हुए उन्हें 1960 में नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। उस एकांत गांव में उनके निवास स्थान को ही अब एक म्यूजियम का रूप दे दिया गया है। आप घर का दरवाजा खोलते ही, और टेबल पर बैठ पुस्तक पढ़ते लुथुली आपका स्वागत करते हैं। चौकिए मत! यह तो इस महानायक की मोम से बनी जीत-जागती प्रतिमा है, जिसे गांव की ही किसी महिला कलाकार ने बनाया है। 1967 में लुथुली की मृत्यु संदिग्ध परिस्थिति में हो गई थी। इस म्यूजियम में हमने लुथुली को नोबल पुरस्कार प्राप्ति के समय का व्याख्यान सुना।  यह समझकर सुखद आश्चर्य हुआ कि लुथुली ने अपनी पत्नी क ा व्याख्यान के दौरान दो-तीन बार भाव विह्वल होकर उल्लेख किया। ओस्लो में लुथुली और उनकी पत्नी से कहा गया कि आप शेष जीवन सुख शांतिपूर्वक नार्वे में बिता सकते हो, लेकिन यह प्रस्ताव उन्होंने शालीनता से ठुकरा दिया। कहना न होगा कि महात्मा गांधी एएनसी के इन सभी दिग्गजों के प्रेरणास्रोत रहे हैं।

हमने लुथुली ग्राम की यह यात्रा महात्मा गांधी की पौत्री-उनके दूसरे बेटे मणिलाल की छोटी बेटी इला गांधी के साथ की थी। गांधी जी जब भारत आ रहे थे तो मणिलाल भाई को उन्हाेंने दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष और आदर्शों की विरासत सौंप दी थी। उनका जीवन फिर डरबन के निकट फीनिक्स आश्रम में ही बीता। इस जगह पर उनके बेटे अरुण (तुषार गांधी के पिता), बेटी सीता और इला का जन्म हुआ। मणिलाल भाई स्वयं रंगभेदी सरकार के खिलाफ आन्दोलनरत रहे। उन्हें जेल यात्राएं भी करनी पड़ीं। उनकी संतानों ने भी अपने पितामह और पिता के पदचिन्हों पर ही चलना तय किया। आगे जाकर अरुण भारत आ गए थे। यहां उन्होंने कुछ साल पत्रकारिता की और फिर अमेरिका चले गए, लेकिन सीता और इला दोनों बहनों के लिए तो डरबन ही उनका घर बन गया। सीता जी का निधन  बारह वर्ष पूर्व हो गया, लेकिन इला गांधी आज बहत्तर साल की उम्र में भी बेहद स्फूर्ति और परिश्रम के साथ बापू के मिशन को आगे बढ़ाने में लगी हैं। वे राजनैतिक रूप से भी सक्रिय रहीं, गोरी सरकार में उन्हें नारबंदी झेलना पड़ी, फिर आम चुनाव हुए तो वे संसद सदस्य भी चुनी गईं, जिसे उन्होंने जल्दी ही छोड़ दिया।

मेरी दक्षिण अफ्रीका की यह यात्रा इला गांधी के निमंत्रण पर ही हुई थी। वे पिछले अनेक वर्षों से अपने सीमित साधनों में 'सत्याग्रह' नामक अंग्रेजी पत्रिका निकाल रही हैं, जिसमें गांधी दर्शन पर यदा-कदा मेरे लेख भी छपे हैं।  इला जी ने 'गांधी डेवलपमेंट ट्रस्ट' नाम से एक न्यास गठित किया है, जिसके अंतर्गत सत्याग्रह के प्रकाशन के अलावा गांधी दर्शन पर अन्य आयोजन भी होते रहते हैं। फीनिक्स आश्रम की देखभाल का जिम्मा भी इसी ट्रस्ट पर है।  डरबन टेक्निकल यूनिवर्सिटी में ट्रस्ट को दफ्तर के लिए जगह दी गई है तथा इस विश्वविद्यालय में ही ''अहिंसा के लिए विश्व केन्द्र'' नाम से एक विभाग भी संचालित होता है। इला जी ने इसी ट्रस्ट के माध्यम से अहिंसा पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन 31 जुलाई से 2 अगस्त के बीच किया था। इस सम्मेलन में भाग लेना मेरे लिए अनुपम अवसर था। इसमें लगभग बीस देशों के सौ से यादा प्रतिनिधि शामिल हुए थे। अमेरिका से मार्टिन लूथर किंग के सहयोगी रहे डॉ. बर्नार्ड लफाएट आए थे तो एशिया, अफ्रीका, यूरोप के विभिन्न देशों से आए गांधी दर्शन के अध्येता व शांति कार्यकर्ता शामिल थे। इनमें अध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर, पत्रकार, वकील, विद्यार्थी, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता- सभी तरह के व्यवसायों के प्रतिनिधि थे। मुझे उद्धाटन सत्र में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि डरबन नगर के 'यूथ मेयर' ने भी कार्यक्रम में शिरकत की। दरअसल दक्षिण अफ्रीका में प्रतिवर्ष हर नगर में बारहवीं कक्षा के किसी प्रतिभाशाली विद्यार्थी को यूथ मेयर चुना जाता है।

इस सम्मेलन का विषय था 'रूट्स टू फ्रूटस :नॉन -वायोलेंस इन एक्शन' अर्थात् 'बीज से फल: अहिंसा प्रयोग में'।  मकसद था कि अगर कम उम्र से ही अहिंसा की आवश्यकता के बारे में शिक्षित किया जाए तो विश्व शांति का रास्ता यादा आसान हो सकेगा। आश्चर्य नहीं कि सम्मेलन में देश-विदेश के शिक्षाशास्त्रियों की खासी उपस्थिति थी। भारतीय दल में सेवा मंदिर उदयपुर के अध्यक्ष अजय मेहता और उनकी सहयोगी प्रियंका सिंह थे जिन्होंने राजस्थान के आदिवासी बच्चों के बीच सेवा मंदिर द्वारा किए जा रहे रचनात्मक प्रयोगों पर अपन परचा प्रस्तुत किया। इसी तरह मेरठ विवि के पूर्व कुलपति डॉ. रविन्द्र कुमार और लखनऊ विवि की पूर्व प्रोफेसर किरण डंगवाल ने भारतीय दर्शन में अहिंसा पर अपना आलेख पढ़ा। एक पर्चा जिससे मैं विशेष तौर से प्रभावित हुआ वह डरबन की डॉ. निर्वाधा सिंह का था जिसमें उन्होंने लोक स्वास्थ्य और अहिंसा के बीच के संबंध को परिभाषित किया था। भारतीय मूल की यह युवा डॉक्टर दक्षिण अफ्रीकी सरकार में लोक स्वास्थ्य सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं। अन्य आलेखों में भी इसी तरह अहिंसा से जुड़े विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया गया था, लेकिन सम्मेलन का केन्द्रीय स्वर यही था कि जब तक प्राकृतिक संसाधनों का कुविचारित दोहन होता रहेगा, जब तक कार्पोरेट घरानों के बेइंतहा लालच पर नकेल नहीं कसी जाएगी, जब तक सार्वभौम सरकारें पूंजीतंत्र के सामने घुटने टेकते रहेंगी तब तक विश्व समाज में हिंसा और अशांति को दूर करना एक असाध्य लक्ष्य होगा। मेरे अपने आलेख का स्वर भी यही था कि अहिंसा के विचार को फैलाने में पूंजी-पोषित मीडिया की भूमिका संदिग्ध है।  

देशबंधु में 15 अगस्त 2012 को प्रकाशित 



-- 
Lalit Surjan
Chief Editor
DESHBANDHU
RAIPUR 492001
C.G. India

1 comment:

  1. Very well written and again i started visualizing all moments of South Africa. Nice to see my name in your write up.

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