भारत की उदारवादी परम्परा के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। हमारे संसद भवन की भीत पर कहीं अंकित है- ''उदार चरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम्''। स्कूल के दिनों में ही हर विद्यार्थी को इस विषय पर निबंध लिखना ही होता है। आज फिर यह देखना है कि इस सूक्ति को हम अपने जीवन में कहां तक उतार पाते हैं। एक तरफ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से पलायन कर भारत आ रहे भयभीत हिन्दू हैं, दूसरी तरफ उत्तरपूर्व में एक बार फिर उत्तेजना और हिंसा का माहौल है, तीसरी ओर पुणे, हैदराबाद और बंगलुरू में उत्तरपूर्व प्रदेशों के निवासियों के बीच पनप रहा भय और पलायन है और चौथी ओर मुम्बई में हुआ हिंसक प्रदर्शन है। इस सबके बीच शासकों, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के तोता-रटंती बयान हैं जिन पर किसी को भरोसा नहीं होता और आग में घी डालने के लिए 24#7 का मीडिया है जिसमें नाममात्र को भी आत्मनियंत्रण नहीं है। हम घटनाचक्र की बारीकियों पर नहीं जाना चाहते। पाठकों के पास सूचनाओं की कमी नहीं है। मीडिया और सोशल मीडिया जो कुछ परोस रहा है उसमें तथ्यों को निकालना व घटनाओं का विश्लेषण करना आसान नहीं है, लेकिन विवेकशील नागरिकों को यह कष्ट उठाना ही चाहिए। उन्हें हम कहना चाहते हैं कि ऐसे कठिन समय भावनाओं में बहने से अपना याने देश का ही नुकसान होता है। यह समझना जरूरी है कि विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास, घृणा और हिंसा का माहौल बनाने के पीछे कौन सी ताकतें हैं और उनके मंसूबे क्या हैं। काश्मीर, पंजाब और असम से लेकर केरल और तमिलनाडु तक पूरे देश में समय-समय पर हमने हिंसा की वाला को न सिर्फ महसूस किया है बल्कि उसमें बार-बार जले भी हैं। यह सामान्य बुध्दि कहती है कि जब पड़ोसी का घर जलता है तो उसकी लपटों से हमारा घर भी नहीं बच सकता। इसलिए अपने पाठकों से निवेदन है कि वे किसी भी तरह से भावनाओं के उन्माद में न आएं और फेसबुक, टि्वटर, एसएमएस आदि का उपयोग भड़काने वाले बयानों के लिए न होने दें। जैसा कि जाहिर है, कानून व्यवस्था को संभालने की फौरी जिम्मेदारी प्रशासन और पुलिस की है। यह दुर्भाग्य की बात है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस को अपना काम सही ढंग से अंजाम देने के लिए जिस स्वायत्तता की जरूरत होती है वह धीरे-धीरे खत्म होती गई है। बड़े-छोटे अधिकारी अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनेताओं के साथ अवांछित गठजोड़ कर लेते हैं। अभी जैसी स्थितियां हैं उनमें यही एक मुख्य कारण है जिसके चलते प्रशासन तंत्र अपने कर्तव्य को ठीक से नहीं निभा पाया, बात चाहे मुम्बई की हो चाहे बेंगलुरू की। मुम्बई में आजाद मैदान पर संदिग्ध किस्म के लोगों को रैली निकालने की अनुमति क्यों दी जानी चाहिए थी? बंगलुरू और हैदराबाद में गुवाहाटी के लिए रेलगाड़ियों में आरक्षण की मांग एकाएक क्यों बढ़ गई? अतिरिक्त ट्रेनों की व्यवस्था करने वाले रेल अधिकारियों को इसमें कुछ भी असामान्य क्यों नहीं लगा? इन प्रदेशों का खुफिया तंत्र क्या कर रहा था? भड़काऊ पर्चे बांटने की अफवाह फैलाई गई लेकिन एक भी पर्चा क्यों नहीं मिला और राजदीप सरदेसाई कल रात प्रवीण तोगड़िया का जो पर्चा टीवी पर दिखा रहे थे वह कैसे प्रसारित होने दिया गया? इन सारे सवालों के जवाब आज नहीं तो कल मिलेंगे, लेकिन यह तो सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने वाली बात हो गई। हिन्दुस्तान को अपनी सहिष्णुता की परम्परा पर बहुत गर्व रहा है। हम बताते हैं कि यही एकमात्र देश है जहां यहूदियों पर अत्याचार नहीं हुए, यही देश है जहां पारसियों को आश्रय मिला, यहां जो विदेशी आए वे भी यहां के रंग में रंग गए। हमने अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़ाई लड़ी, लेकिन अंग्रेजों से घृणा नहीं की। मुहम्मद अली जिन्ना ने अपनी महत्वाकांक्षा के चलते पाकिस्तान तो बनवा लिया, लेकिन हिन्दुस्तान के अधिकतर मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना कुबूल नहीं किया। आज जो कुछ हो रहा है उसे इस पृष्ठभूमि में देखने और समझने की जरूरत है। असम और पूर्वोत्तर प्रांतों की समस्या आज की नहीं है। वहां सिर्फ हिन्दू और मुसलमान का प्रश्न नहीं है, बात सिर्फ बंगलादेशियों के अवैध अप्रवासन की नहीं है। पूर्वोत्तर में असमिया और गैर-असमियों के बीच खाई रही है; बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से गए चाय बागानों के किसानों को भी वहां ढेरों मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। स्थानीय जनजातियों के बीच भी हिंसक संघर्ष होते रहे हैं। इस सबके बावजूद पूर्वोत्तर धीरे-धीरे एक वृहद भारतीय परिवेश में अपने आपको ढालने में यत्न से जुटा हुआ है। इसमें समय लगेगा। हमने द्रविड़ आन्दोलन देखा है और खालिस्तान की मांग को। काश्मीर तो आए दिन खबरों में रहता ही है। गुलामी से मुक्त हुए हमें अभी पैंसठ साल ही हुए हैं। एक व्यक्ति के लिए यह लंबी उम्र हो सकती है, लेकिन एक देश के लिए यह समय का छोटा सा हिस्सा है। इसे समझकर सब्र से काम लेने की जरूरत है। एक तरफ कानून और व्यवस्था की मशीनरी को अपना काम करना चाहिए तो दूसरी ओर बहुसंख्यक समाज को अपने बीच के अल्पसंख्यकों के साथ सद्भाव और सौमनस्य कायम करने का यत्न करना चाहिए। सबसे बडी ज़िम्मेदारी भारत सरकार और संसद की है। आज के हालात में कुछ ठोस नीतिगत निर्णय लिए जाना चाहिए। इस बारे में हमारे कुछ सुझाव हैं- 1. दुनिया में जहां भी भारतवंशी हैं, उन्हें दोहरी नागरिकता दी जाए। फिर वह चाहे पाकिस्तान का हिन्दू हो या श्रीलंका का तमिल। पीआईओ की अवधारणा सम्पन्न एनआरआई तक सीमित नहीं रहना चाहिए। 2. बंगलादेश या अन्य पड़ोसी देश से भारत आने वाला हर व्यक्ति आतंकवादी या अपराधी नहीं होता। अधिकतर लोग बेहतर जीवन की तलाश में भारत आते हैं। वे चाहे नेपाल के गोरखा हों या बंगलादेश के किसान। इन्हें आप नागरिकता का हक भले न दें, लेकिन भारत में काम करने के लिए इन्हें बाकायदा परमिट दिए जाएं। 3. स्मरणीय है कि आव्रजन की समस्या अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, जर्मनी आदि तमाम देशों में है। भारत से ही हर वर्ष कितने लोग अवैध रूप से यूरोप अथवा अमेरिका जाकर बस जाते हैं। याद कीजिए देवानंद-टीना मुनीम की फिल्म ''देस-परदेस''। 4. वर्क परमिट देने के लिए सीमा पर इसके लिए आवश्यकतानुसार दफ्तर खोले जा सकते हैं। इससे आने वाला व्यक्ति निर्भय होकर अपना जीवनयापन भी कर सकेगा और यथासमय वापिस अपने देश लौट जाएगा। 5. देश में आंतरिक आव्रजन भी भारी संख्या में होता है। राज्यों को इसके लिए सूचना और निगरानी तंत्र विकसित करना चाहिए। छत्तीसगढ़ के मजदूर यदि अनंतनाग में काम कर रहे हैं तो वहां छत्तीसगढ़ सरकार का कोई अधीक्षक क्यों नहीं रह सकता? जिन प्रदेशों में पूर्वोत्तर के नागरिक बड़ी संख्या में कार्यरत हैं वहां भी उन प्रदेशों के अफसर तैनात होना चाहिए। सिर्फ दिल्ली में रेसीडेंट कमीश्नर रखना पर्याप्त नहीं है। 6. इस सबसे बढ़कर हमारा सुझाव है कि देश के युवाओं के बीच सौहार्द्र, समरसता व समन्वय स्थापित करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए विनिमय कार्यक्रम चलाया जाए। हजारों युवाओं को प्रतिवर्ष अपने प्रदेश के बाहर जाकर देश को जानने-समझने के अवसर मिलना आवश्यक है। राज्य सरकारों को और खासकर राज्य के विवि को भी अपनी ओर से पहल करना लाजिमी है। जब देश के विभिन्न हिस्सों के नवयुवक एक-दूसरे से मिलेंगे तो अपने आप उनके बीच मित्रता बढ़ेगी और भ्रांतियां दूर होंगी। पाठक इन उपायों में कुछ और नए उपाय जोड़ सकेंगे तो अच्छा ही होगा। |
देशबंधु में 18 अगस्त 2012 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय
पलायन एक यह एक राष्ट्रीय शर्म है
ReplyDeleteपलायन के खिलाफ सभी दल मिलकर इस दिशा में ठोस प्रयास के लिए आगे आएं। इसे एक राष्ट्रीय शर्म मानकर केवल आरोप-प्रत्यारोप में न उलझें। विपक्ष केवल आरोप लगाकर खामोश न बैठे। उसका काम आरोप लगाकर बैठ जाना ही नहीं है। बल्कि सरकार के साथ तालमेल बिठाकर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास करना होता है। जिस विश्वास के साथ पूर्वोत्तर के लोग देश के अन्य राज्यों में जाकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है, अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ किया है,उस विश्वास को बनाए रखना सरकार का ही काम है। पूर्वोत्तर के लोगों पर की जाने वाली फब्तियों को लेकर अदालत ने एक सख्त निर्णय लिया है। पर इससे नस्लीय हिंसा पर तो काबू नहीं पाया जा सकता। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। धीमी गति से लिए गए निर्णय पर कभी भी तेजी से अमल नहीं होता। नई आजादी की पहली सुबह यही कह रही है कि पल्लू पकड़ राजनीति के दिन लद गए, अब समय है त्वरित गति से ठोस निर्णय लेने का। कच्छप गति से दौड़ तो जीती जा सकती है, पर दिलों को नहीं जीता जा सकता।
डॉ. महेश परिमल
आपके सुझाव सरहनीय है, आज के युवाओ में सौहार्द्र, समरसता व समन्वय स्थापित करने की अति आवश्यकता है, जिसमे राष्ट्रीय कैडेट कोर बहुत महत्वपुर भूमिका निभा रही है.
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