Wednesday, 26 June 2013

छत्तीसगढ़ : राजनीति में माटीपुत्र (और पुत्रियां)



युयुत्सु कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने पिछले दिनों रायपुर की एक सभा में एक तरफ कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर वार किया, तो दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह पर। उन्होंने इशारों-इशारों में दोनों पर बाहरी होने का आरोप मढ़ते हुए छत्तीसगढ़ की राजनीति में इनकी भूमिका पर एतराज जताया। श्री जोगी, इस टिप्पणी के माध्यम से, जाहिर है कि राजनीतिक लाभ हासिल करना चाहते थे, किन्तु प्रदेश के राजनीतिक हलकों में उनकी इस बात को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। दिग्विजय सिंह राज्य पुर्नगठन के बाद तकनीकी रूप से भले ही अन्य प्रदेशवासी हो गए हों, लेकिन वे सात साल उस प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, जिसमें छत्तीसगढ़ शामिल था। इस नाते यहां के कांग्रेस संगठन में यदि उनके समर्थक हैं और इस प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों में श्री सिंह की दिलचस्पी बनी हुई है तो इस पर आपत्ति की कोई बात मुझे समझ नहीं आती। जहां तक डॉ. रमन सिंह की बात है, वे तो किसी दृष्टि से बाहरी नहीं हैं। जिस व्यक्ति का जन्म इस प्रदेश में हुआ हो और जिसका सारा जीवन यहीं बीता हो, उसे बाहरी कहने का कोई औचित्य नहीं बनता।

बहरहाल, श्री जोगी की यह टिप्पणी स्थानीय और आप्रवासी के व्यापक विमर्श की ओर चलने का निमंत्रण देती है। अपने और पराए, हम और वे, स्थानीय और आव्रजक जैसी द्वंद्वात्मक श्रेणियां न तो छत्तीसगढ़ के लिए नई हैं, न भारत के लिए और न दुनिया के लिए। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जब अपनी राजनैतिक वैधता स्थापित करने के लिए राजसत्ता द्वारा इन विभाजक श्रेणियों का उपयोग किया गया है। रंगभेद, नस्लभेद आदि इस सोच की ही उपज हैं। इजरायल और पाकिस्तान का निर्माण ऐसी भावनाओं को उभारने से ही संभव हुआ। अमेरिकी जनतंत्र में बैरी गोल्डवाटर जैसे नस्लवादी नेता हुए तो ब्रिटिश जनतंत्र में इनॉक पॉवेल।  हमारे देश में भी ऐसा विभेद पैदा कर राजनैतिक लाभ उठाने  वाली शक्तियां कम नहीं हैं। एक समय तमिलनाडु में तमिल श्रेष्ठता का नारा गूंजा, तो असम में ''बहिरागत'' के खिलाफ लंबे समय तक आंदोलन चलता रहा, जो आज भी नए-नए रूपों में प्रकट होते रहता है। महाराष्ट्र में शिवसेना का गठन और विकास इसी भावना पर हुआ। आज भी उध्दव ठाकरे हों या राज ठाकरे, वे महाराष्ट्र से गैर-मराठी लोगों को बेदखल कर देना चाहते हैं।

जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब कांग्रेस के युवा तुर्क भूपेश बघेल ने भी स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा उठाया था। ''घर कहां है'' नामक नाटक में इसकी अनुगूंज सुनाई दी थी। याने राजनैतिक स्तर पर यह मुद्दा पिछले तेरह साल से कहीं न कहीं जीवित है। इसमें एक दिलचस्प पहलू नजर आता है कि श्री जोगी और श्री बघेल पार्टी के भीतर भले एक-दूसरे के विरोधी हों, एक भावनात्मक मुद्दे का लाभ लेने की प्रवृत्ति दोनों में दिखी। संभव है कि श्री बघेल के विचारों में इस लंबी अवधि में कोई परिवर्तन आया हो! लेकिन इस प्रश्न को यहीं तक सीमित न रख इसके कुछ और पहलुओं पर विचार करना चाहिए।

आज भारत के विभिन्न प्रदेशों में राजसत्ता के सूत्र मोटे तौर पर उन लोगों के हाथ में है जो स्थानीय निवासी होने का दावा कर सकते हैं। शुरुआती दौर में जिन लोगों ने स्वाधीनता संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, उनकी त्याग तपस्या का सम्मान करते हुए जनता ने उन्हें सत्ता की चाबी सौंप दी। इनमें से अधिकतर शहरी, संभ्रांत शिक्षित वर्ग के प्रतिनिधि थे- गोविन्द वल्लभ पंत और बिधानचन्द्र राय से लेकर, मोरारजी देसाई और राजाजी तक। पंडित रविशंकर शुक्ल भी इसी वर्ग से थे। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था होने के बाद और चुनावी राजनीति में आम जनता की भागीदारी होने के कारण धीरे-धीरे देश में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ तथा चौथे आम चुनाव के बाद से ऐसे तबकों का संसदीय राजनीति में वर्चस्व बढ़ते चला गया, जिन्होंने संभ्रांत राजनीति के घेरे को तोड़ा। महाराष्ट्र में वसंतराव नाइक, बिहार में कर्पूरी ठाकुर आदि इस नई चलन के प्रारंभिक प्रतिनिधि माने जा सकते हैं।

वर्तमान समय की बात करें तो शरद यादव, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, मायावती, अशोक गहलोत, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह जैसे नाम हमारे सामने हैं। आशय यह कि पिछले चालीस साल में भारतीय राजनीति का चेहरा बदला है। ग्रामीण भारत यदि पूरी तरह से राजनीति में काबिज नहीं भी है तो भी उसका दबदबा काफी है। कृषक समाज के प्रतिनिधियों में भी भूस्वामी नहीं, बल्कि खेतिहर वर्ग के प्रतिनिधि बड़ी संख्या में चुने जा रहे हैं। इस राजनीति में दलित समाज ने जिस प्रखरता और मुखरता के साथ अपनी पहचान बनाई है वह स्पष्ट दिख रही है, यद्यपि आदिवासी समाज अभी भी अपनी राजनीतिक संभावनाओं को पूरी तरह प्रस्फुटित नहीं कर पाया है।

इस पृष्ठभूमि में अन्य प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ कहां है, यह विश्लेषण किया जा सकता है। सन् 2000 में गठित तीन नए राज्यों में से दो आदिवासी बहुल थे। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अपने आदिवासी नेता अजीत जोगी को मुख्यमंत्री चुना तो झारखण्ड में भारतीय जनता पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को। भाजपा ने वरिष्ठ नेता करिया मुंडा की उपेक्षा कर बाबूलाल मरांडी को क्यों चुना, इस बारे में कहा गया कि व्यापारिक लॉबी के दबाव में ऐसा किया गया; जबकि छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को अपने से कहीं ज्यादा वरिष्ठ के मुकाबले तरज् ाीह दी गई। खैर! इसके बाद झारखण्ड में लगातार आदिवासी ही मुख्यमंत्री बनता रहा, जबकि छत्तीसगढ़ में पिछले दस साल से एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री है, यद्यपि उसकी अपनी पृष्ठभूमि ग्रामीण है।

किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री आदिवासी है या गैर-आदिवासी, सवर्ण है या दलित, द्विज है या ओबीसी, इस तुलना से यादा मायने यह बात रखती है कि प्रदेश में आम जनता का राजनैतिक सशक्तिकरण किस सीमा तक हुआ है। इस पैमाने पर विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ में आम जनता की राजनीति में सक्रिय भागीदारी नहीं के बराबर है। यूं तो प्रदेश में 2004 और 2009 में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी विधिपूर्वक हुए हैं तथापि उस बुनियादी स्तर पर भी आम जनता का राजनीति में वर्चस्व लगभग शून्य है। यह एक ऐसी स्थिति है जिस पर अजीत जोगी और डॉ. रमन सिंह दोनों को ही चिंता करना चाहिए। श्री जोगी को ज्यादा  इसलिए क्योंकि स्थानीय और बाहरी का प्रश्न उन्होंने ही उठाया है। डॉ. सिंह को इसलिए  कि उनके दस साल के कार्यकाल की स्थायी उपलब्धि यही हो सकती थी।

मुझे अक्सर इस बात पर आश्चर्य होता है कि छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र (और पुत्रियों) को अपनी राजनीति चलाने के लिए ठेकेदारों और दलालों का मोहताज क्यों होना पड़ता है। हमारे ग्रामीण परिवेश से चुनाव जीतकर आने वाले नेता का प्रतिनिधि या प्रवक्ता अक्सर कोई व्यापारी ही क्यों होता है? कभी कोई शराब ठेकेदार, कभी कोई ट्रांसपोर्ट ठेकेदार, कभी कोई जमीन-जायदाद का कारोबारी- इनके बिना हमारे चुने हुए नेता एक  कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते? ऐसा क्यों है कि छत्तीसगढ़ के व्यापार-व्यवसाय में, यहां तक कि पारंपरिक व्यवसायों में भी यहां के माटीपुत्रों का हिस्सा बहुत छोटा है? वे न तो आर्थिक रूप से सशक्त बन पाए हैं और न राजनीतिक रूप से, वे न तो समाज परिवर्तन के आंदोलनों का नेतृत्व कर पाते हैं, न प्रशासन में वे शीर्ष पर हैं और न बौध्दिक-अकादमिक जगत में उनकी कोई आवाज बन पाती है। इसे ध्यान में रख हम अपने नेताओं से यही निवेदन कर सकते हैं कि वे छायायुध्द छोड़कर बुनियादी सवाल पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।

देशबंधु में 27 जून 2013 को प्रकाशित 

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