Monday 1 July 2013

उत्तराखंड: भविष्य के सवाल



उत्तराखंड ने जून 2013 में अभूतपूर्व विनाशलीला देखी और भुगती है। यह तो निश्चित है कि विपत्ति के दौर से गुजर चुकने के बाद प्रदेश का नवनिर्माण होगा। मनुष्य की फितरत ही ऐसी है कि वह कभी हार नहीं मानता, लेकिन भविष्य की मंजिल पर पहला कदम रखने के इस पल प्रदेश को बहुत से अनसुलझे सवालों का जवाब ढूंढने के लिए मानसिक तैयारी कर लेना चाहिए।  ''मेरा दागिस्तान''  में रसूल हमजातोव ने लगभग इन शब्दों में लिखा था- ''हमारे पहाड़ों में ऐसी प्रथा है कि बाहर जाते समय घुड़सवार गांव की सीमा तक घोड़े की रास हाथ में थामे पैदल चलता है ताकि अगर यात्रा की तैयारी में कोई कमी रह गई हो, कोई सामान छूट गया हो, घरवालों से कोई बात कहना भूल गया हो तो वह याद आ जाए।''  उत्तराखंड भी एक नए सफर पर निकल रहा है और इसके लिए तैयारी मुकम्मल होना चाहिए ताकि किसी कमी के कारण यात्रा में रुकावट न आए। पिछले दिनों प्राकृतिक आपदा के दौरान जो सवाल उठे, इनमें से बहुत से तो पहले से उत्तर की तलाश में थे, कुछेक नए सवाल भी खड़े हो गए हैं। इनका सामना करने से ही आगे की यात्रा निरापद और कुशलतापूर्वक हो सकेगी।

सबसे पहले तो यही जानने की कोशिश की जाए कि ये कहर बरपा तो क्यों। इसका आंशिक उत्तर हमें दक्षिण के समुद्र तट पर 2004 में आई सुनामी के कारणों में भी मिल सकता है। उस वक्त यह तथ्य सामने आया था कि मैंग्रोव के जो कुंज समुद्र की तूफानी लहरों से तट की रक्षा किया करते थे उनको बेरहमी से काट दिया गया था ताकि ऐन समुद्र की छाती पर विलासी पर्यटकों के लिए सुविधाओं का निर्माण किया जा सके। महासागर के साथ जो मर्यादापूर्ण आचरण करना चाहिए था वह लोभी मनुष्य ने नहीं किया। गुजरात के भूकम्प में भी यह देखने मिला था कि ऊंची अट्टालिकाओं के निर्माण में तकनीकी और पारिस्थितिकी मानकों की अवहेलना की गई। इसके बाद भी हम नहीं सुधरे। आज भी मुंबई  समुद्र तट स्थित नमक के खेतों पर भूमाफिया की गिध्द निगाहें लगी हुई हैं। उत्तराखंड ने भी देश में अन्यत्र हुई प्राकृतिक विपदाओं से अब तक कोई सबक नहीं लिया, लेकिन क्या आगे भी यही चलते रहेगा?

यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड में धार्मिक पर्यटन को जमकर बढ़ावा दिया गया। हमें पता था कि आदि शंकर ने भारत में चार धाम स्थापित किए थे- बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, द्वारिका और दक्षिण में शृंगेरी। पिछले सौ एक सालों में जिस तरह से अनेक स्वयंभू शंकराचार्य प्रकट हो गए, उसी तरह उत्तराखंड में ही चार धाम का प्रचार हो गया; गंगोत्री, यमुनोत्री व केदारनाथ का अपना महत्व था, लेकिन उनकी गिनती चार मूलधामों में नहीं थी। कुछ पर्यटन को बढावा देने के लिए, कुछ पंडे-पुरोहितों को प्रसन्न करने के लिए इनका प्रचार किया गया, वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के राजिम में पांचवां कुंभ भरने लगा। जाहिर है कि यात्रियों की आवाजाही बढ़ी तो उनके लिए वैसी व्यवस्थाएं भी जुटाना पड़ीं। इन सारे तीर्थ स्थानों पर और रास्ते के पड़ावों पर अंधाधुंध तरीके से होटल इत्यादि खुलने लगे, लेकिन आजकल के फैशनेबल तीर्थयात्रियों के लिए इतना पर्याप्त नहीं था।

पुराने समय के तीर्थयात्री ऋषिकेश से हनुमानचट्टी, गरुड़चट्टी आदि पड़ावों को पार करते हुए पैदल बद्रीनाथ जाते थे या फिर पहाड़ी खच्चरों का सहारा लेते थे। इसमें न तो चौड़ी सड़कों की आवश्यकता होती थी और न वाहनों का प्रदूषण फैलता था; यात्री भी भक्तिभाव में गहरे रम कर इस पथ पर जाते थे। उन्हें पांच सितारा होटलों की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन पिछले पचास साल में शनै: शनै: परस्थिति बदल गई। मैंने 2005 में इस अंचल की यात्रा से लौटकर लिखा था कि ऋषिकेश से बद्रीनाथ के बीच सेना व आवश्यक सामग्री के परिवहन के अलावा मोटर यातायात पूरी तरह बंद कर देना चाहिए। मोटर यातायात से उस इलाके का तापमान लगातार बढ़ रहा था, जिसके चलते वहां की पहाड़ियों पर साल भर जमा रहने वाली बर्फ मई-जून आते-आते पिघलने लगी थी। जाहिर है कि ऐसा सुझाव किसी के काम का नहीं था।

यही नहीं, पिछले दस-पंद्रह सालों में एक नया चलन यह भी आया कि सम्पन्न तीर्थयात्री अपना परलोक सुधारने के लिए हेलीकाप्टर से यात्रा करने लगे। मंदिर न हुआ, वेंडिंग मशीन हो गई। भेंट पूजा चढ़ाई, बटन दबाया और स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट हाथ में आ गया।  बहरहाल, आज जरूरत इस बात की है कि हेलीकाप्टर से तीर्थ यात्रा पूरी तरह से बंद की जाए। तीर्थयात्रियों को पैदल पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया जाए। यह पूरी तरह से संभव न हो तो यात्रियों की संख्या को प्रतिबंधित किया जाए। इसके अलावा अब जो भी होटल, दूकान, मकान बनें उनमें तमाम आवश्यक नियम-कायदों का कड़ाई के साथ पालन किया जाए। इसी तरह जो सैलानी औली (जोशी मठ) में स्कीइंग करने आते हैं अथवा फूलों की घाटी जाते हैं, उन्हें भी बेतहाशा बढ़ावा न दिया जाए।

पिछले दिनों बार-बार कहा गया कि कारपोरेट पूंजी द्वारा जो पनबिजली परियोजनाएं निर्मित की जा रही हैं वे भी इस आपदा का एक बड़ा कारण था। यह बात सही है। इस तरह उत्तराखंड में बड़ी पूंजी और छोटी पूंजी दोनों ने अपनी-अपनी ताकत के अनुसार त्रासदी को न्यौता दिया। यहां प्रश्न उठता है कि जिस पनबिजली को अब तक सुरक्षित और पर्यावरण के अनुकूल माना जा रहा था, उसे रोकने के क्या परिणाम होंगे। उत्तराखंड ही नहीं, देश के सारे पर्वतीय प्रदेशों में इन परियोजनाओं को आंख मूंदकर अनुमति पिछले सालों दी गई और इनके प्रायोजकों ने जमकर सरकारी सब्सिडी  लूटी। देश में ऊर्जा की मांग दिनोंदिन जिस तरह बढ़ रही है, उसमें सरकार के पास क्या विकल्प है यह एक विचारणीय प्रश्न है। ताप विद्युत नहीं, जल विद्युत नहीं, परमाणु ऊर्जा नहीं तो फिर देश की बढ़ती हुई जरूरत की पूर्ति कैसे की जाए? इस बारे में वैज्ञानिकों और तकनीकीविदों को गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा।

एक अन्य सवाल का सीधा संबंध उत्तराखंड की आर्थिक सेहत से है। उत्तराखण्ड की कमाई का एक प्रमुख स्रोत पर्यटन उद्योग है। पनबिजली संयंत्रों से भी लोगों को रोजगार मिल रहा होगा। अब यदि इन पर किसी भी सीमा तक रोक लगती है तो उसका सीधा असर स्थानीय जनता के जीवनयापन पर पड़ेगा। यह ऐसी विकट समस्या है जिसका हल ढूंढ़ने में बड़े-बड़े अर्थविशेषज्ञों को पसीना आ जाएगा। उत्तराखण्ड के युवक पारंपरिक तौर पर भारत की थलसेना में सेवाएं देते रहे हैं। इसके अलावा इस दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में रोजगार के अवसर बहुत कम मिलते हैं। पर्यटन उद्योग से अब तक कुछ न कुछ प्रतिपूर्ति होती रही है लेकिन आने वाले दिनों में क्या तस्वीर बनेगी, यह समझना कठिन है। यूं उत्तराखण्ड के दोनों क्षेत्रों कुमाऊं और गढ़वाल अपनी बौध्दिक प्रखरता के लिए जाने जाते हैं। इस प्रदेश ने देश को नामीगिरामी लेखक, पत्रकार, अध्यापक और अधिकारी दिए हैं। मुझे लगता है कि इन विद्वानों का ध्यान इस आने वाली समस्या की ओर जरूर गया होगा और वे इस पर मंथन कर रहे होंगे!

उत्तराखण्ड के प्राकृतिक परिवेश व पर्यावरण को समुचित रूप से संभालना भी आज की एक  बड़ी चुनौती है। यूं तो हिमालय नगाधिराज है, पर्वतों का पर्वत है, किन्तु पृथ्वी की आयु के अधिमान से हिमालय की पर्वतमालाएं बहुत पुरानी नहीं हैं एवं नाजुक हैं। यहां के हिमखण्डों से प्रवाहित होने वाली नदियां भारत के एक बड़े भू-भाग को सिंचित करती हैं। किंतु पिछले तीन दशक से हम लगातार सुन रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते ये हिमखण्ड तेज रफ्तार से पिघल रहे हैं। फिर नदियों पर बनने वाले बांधों से भी पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। सड़कों-सुरंगों का निर्माण, उनका रखरखाव, भारी वाहनों की आवाजाही, नित नये निर्माण कार्य- ये भी अपना असर डाल ही रहे हैं। इस स्थिति में यह देखना जरूरी है कि प्रदेश के प्राकृतिक परिवेश के साथ छेड़खानी को रोका जाए। प्रकृति से उतना ही लिया जाए जितना वह खुशी-खुशी हमें दे दे तथा उस पर किसी भी तरह का अत्याचार न किया जाए। चंडीप्रसाद भट्ट जैसे अनुभवी विद्वानों की बातों को आज हमें गंभीरता से लेना चाहिए।

उत्तराखण्ड की इस त्रासदी में देश का ध्यान पंद्रह-बीस दिनों तक लगातार तीर्थयात्रियों की ओर लगा रहा। यह स्वाभाविक था। जो भी लोग उत्तराखण्ड के पहाड़ों में आपदा के बीच फंसे थे, उनके सकुशल लौट आने की प्रार्थना और प्रतीक्षा उनके बंधु-बांधव कर रहे थे। राय सरकारों ने भी इसे अपना कर्तव्य माना कि उनके प्रदेश के नागरिक जो मुसीबत में पड़े हों उन्हें तत्काल मदद दी जाए। इस देशव्यापी चिंता के बीच इस तथ्य को लगभग भुला दिया गया कि बाढ़ और बरसात की मार झेलने वालों में उत्तराखण्ड प्रदेश के निवासी भी शामिल थे। केदारनाथ, बद्रीनाथ, गौरीकुण्ड, हरसिल इत्यादि गांवों के निवासियों का क्या हुआ? जो जीवित बचे हैं उनके सामने क्या भविष्य है? स्थानीय टैक्सी ड्राइवर, बोझा ढोने वाले, खच्चरों के मालिक, छोटे-मोटे दूकानदार- इन सबकी ओर भी ध्यान देना जरूरी है, बल्कि उन्हें अपने पुर्नवास के लिए शायद कहीं ज्यादा मदद की दरकार है।

इस अभूतपूर्व विपदा के दौरान जो राजनैतिक खेल हुआ और मीडिया ने जितना रस लेकर बढ़ा-चढ़ा कर उसे पेश किया, वह एक कड़वा स्वाद छोड़ गया। प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ गठबंधन की अध्यक्ष द्वारा हवाई सर्वेक्षण करना जरूरी था, लेकिन इनके अलावा किसी और राजनेता को वहां जाने की कतई जरूरत नहीं थी। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने एक अच्छी मिसाल पेश की कि अपने प्रदेश के नागरिकों की मदद के लिए अधिकारियों की  एक टीम लगा दी और वह अपना काम करती रही। ऐसी समझदारी नरेन्द्र मोदी भी दिखा सकते थे, लेकिन उन्हें तो प्रधानमंत्री बनने की जल्दी है और वे येन-केन-प्रकारेण सिध्द करना चाहते हैं कि देश में उनसे ज्यादा समझदार कोई दूसरा व्यक्ति है ही नहीं। उनके इस अहंकार का ही परिणाम था तक एक दिन में पंद्रह हजार गुजरातियों को सुरक्षित निकाल लेने की अविश्सवनीय कहानी प्रचारित की गई और दूसरे श्री मोदी केदारनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण का टेंडर भरने में रुचि दिखाकर आ गए। जहां एक लाख पीड़ितों को सकुशल बचाने की जद्दोजहद चल रही हो, वहां उस पल उन्हें पत्थर के मंदिर की चिंता हो रही थी।

भारत की थलसेना, वायुसेना व अर्ध्दसैनिक बलों ने संकट के इस दौर में जिस साहस, सूझबूझ, दक्षता व कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया वह अपने आपमें एक मिसाल है। इसके लिए हमारे जांबाज सैनिकों की जितनी भी सराहना की जाए, उन्हें जितना भी पुरस्कृत किया जाए, कम है। इसमें हमें इस तथ्य को बराबर स्मरण रखना होगा कि सेना को ऐसी परिस्थितियों का सामना करने के लिए ही प्रशिक्षित किया जाता है। जब अमन चैन वापिस लौट आए तो उनकी भूमिका भी वहीं स्थगित हो जाती है। दूसरे शब्दों में सैन्य बलों से हमें नागरिक प्रशासन संभालने की अवांछित आशा या अपेक्षा नहीं करना चाहिए। दूसरी बात जो देखने में आई कि इस तरह की प्राकृतिक आपदा से निपटने में हमारा प्रशासन तंत्र अपने आपको सक्षम सिध्द नहीं कर पाया। लेकिन यह दुर्दशा किस प्रदेश में नहीं है? एक तो देश-प्रदेश की नौकरशाही का जो हाल-बेहाल है उसे सब जानते हैं, ऐसे मौकों पर वह और खुलकर दिखने लगता है। किन्तु इससे बढ़कर चिंता की बात यह है कि केन्द्र और राज्यों के स्तर पर आपदा प्रबंधन का जो तंत्र विकसित किया गया है वह भी विशेषज्ञों के जिम्मे न होकर रिटायर्ड अफसरों के हवाले छोड़ दिया गया है। इस संबंध में जिस राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय दिया जाना चाहिए वह हम नहीं दे पाते। यह शोचनीय स्थिति है।

एक चिंताजनक बात जो पिछले दिनों बार-बार सुनने मिली कि उत्तराखंड के स्थानीय निवासियों के एक वर्ग ने मुसीबतजदा  यात्रियों की मदद करने के बजाय उन्हें लूटने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। संभव है कि ये खबरें अतिरंजित हों, लेकिन यदि इनमें थोड़ी भी सच्चाई है तो इसके क्या सामाजिक, मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, इसकी विवेचना होना चाहिए।  केदारनाथ मंदिर के पुर्ननिर्माण की बात भी है तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसमें अपनी रुचि जाहिर कर दी है। वह ऐसे काम को समर्पित  विशेषज्ञ एजेंसी है। उचित यही होगा कि उसे ही यह काम सौंपा जाए।

देशबंधु में 30 जून 2013 को प्रकाशित 

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