आज महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। यह याद कर मन में विचार उठता है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में उनके विचारों के लिए क्या स्थान है। यह तो तय है कि देश में आज एक भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है, जो उनके जीवन और दर्शन से प्रभावित होने का सार्वजनिक उद्धोष न करता हो। लेकिन क्या लोग ऐसी बात सच्चे मन से कह रहे होते हैं? अभी जो घटनाचक्र चला हुआ है उसमें यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है। दरअसल बापू हमारे सामने बहुत सी मुश्किलें खड़ी करते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने अपनी तरह से एक अनूठा जीवन जिया है, जिसकी और कोई मिसाल मिलना मुश्किल है। हर महापुरुष की तरह उनका जीवन एकपक्षीय नहीं था। उनके कर्मक्षेत्र में जो विविधता थी वह दुलर्भतर थी। ऐसी व्यापकता के बीच अन्तर्विरोधों का आभास मिलना भी स्वाभाविक है। फिर, जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, गांधीजी ने जो विपुल लेखन किया उसकी कोई तुलना विश्व के राजनीतिक इतिहास में किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती।
गांधी के कृतित्व और व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली इस व्यापकता, विविधता और बहुलता का ही परिणाम है कि गांधी दर्शन से हर व्यक्ति अपनी-अपनी सोच के मुताबिक विचार उठा सकता है। इसका एक प्रमाण तो हमें इस तथ्य में ही मिलता है कि गांधी की व्याख्या करने के लिए हर साल एकाध दर्जन नई किताबें तो बाजार में आ ही जाती हैं। यह जानना रोचक है कि विदेशी अध्येता इस दिशा में कहीं ज्यादा रुचि लेते हैं। उनके अध्ययन में तार्किकता और गंभीरता भी देखने मिलती है। भारतीय अध्येताओं की जहां तक बात है अधिकतर का लक्ष्य कुछ और ही होता है। वे जानते हैं कि गांधी का नाम लेने के इस देश में फायदे बहुत हैं। इसलिए कोई गांधी के नाम से संस्था बना लेता है, कोई उनके नाम पर पत्रिका निकाल लेता है, कोई-कोई तो महज दस-बारह पन्नों का पम्फलेट छपवाकर उसे शोध पत्रिका का नाम दे देते हैं, कोई उनकी एक सौ पच्चीसवीं जयंती मना रहा है, तो कोई हिन्द स्वराज की शताब्दी।
मैं अपने कॉलेज जीवन में खादी का कुर्ता-पैजामा पहना करता था। उसे देखकर मेरे एक प्राध्यापक ने प्रस्ताव दिया कि मुझे कॉलेज की गांधी सेवा समिति का अध्यक्ष बन जाना चाहिए। आशय यह कि गांधी की माला जपने से जीवनयापन और सामाजिक सम्मान मिलने के बहुत से अवसर अपने आप जुट जाते हैं। विदेश जाकर गांधी पर व्याख्यान देने का मौका या पद्मश्री या राय सरकार के किसी उपक्रम की अध्यक्षता मिल जाए, फिर तो कहना ही क्या है? आजकल कढ़ाही वगैरह का चलन कम हो गया है, फिर भी कहावत दोहराई जा सकती है, पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाही में। भारत में गांधी दर्शन पर अध्ययन करने वालों की एक खासियत यह भी है कि वे जल्द से जल्द समय में और कम से कम तकलीफ उठाकर अपना काम पूरा कर लेना चाहते हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में होने वाले अधिकांश शोधकार्य इस प्रवृत्ति का साक्षात प्रमाण हैं। खैर!
वर्तमान राजनीतिक घटनाचक्र का सरसरी तौर पर परीक्षण करने से ही ध्यान आ जाता है कि अन्ना हजारे को थोड़े समय पहले ही गांधी के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया गया था। अपनी इस भूमिका को निभाने में अन्ना ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे राजघाट पर जाकर बैठे। उन्होंने दिल्ली से लेकर मुंबई तक एक के बाद एक कितने ही अनशन किए तथा यह संदेश देने की कोशिश की कि जिस तरह गांधी ने देश को आजादी दिलवाई उसी राह पर चलकर वे अब भारत को तीसरी, चौथी या पांचवी आजादी दिलवाने जा रहे हैं। सच पूछिए तो महात्मा गांधी का पहला अवतार बनने का प्रयत्न तो जयप्रकाश नारायण ने किया था या शायद उन्हें इसके लिए प्रेरित किया गया था और वे ऐसा करने वालों के मंसूबों को तुरंत नहीं भांप पाए थे। जो भी हो, जेपी बापू की विरासत के सही अर्थों में आंशिक उत्तराधिकारी तो थे ही और वे अति भावुकता में जिनके साथ चले गए थे उनसे उनका मोहभंग होने में भी अधिक समय नहीं लगा था।
स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास के इस विपर्यय को हमेशा याद रखना चाहिए कि बापू ने स्वयं जिसे अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया उसकी छवि विकृत करने में जेपी का साथ देने वाली उपरोक्त शक्तियों ने कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक दौर में गांधी, पटेल और सुभाष की त्रिमूर्ति सायास गढ़ी गई। जनता को यह समझाने की निष्फल कोशिशें हुईं कि नेहरू नहीं, सरदार अथवा सुभाष ही गांधी के सच्चे वारिस हैं। यह युक्ति जब काम नहीं आई तो फिर गांधी-लोहिया-दीनदयाल की एक नई त्रिमूर्ति स्थापित करने की पहल की गई। इन दोनों अवसरों पर भारत के तत्कालीन जूट प्रेस ने बढ़चढ़ कर वैसा ही उत्साह प्रदर्शित किया जैसा कि आज के मीडिया मालिक एक नहीं तो दूसरा नया अवतार सिरजने में दिखा रहे हैं। यदि अतीत के प्रसंगों की तुलना में आज मीडिया अपनी दुरभिसंधि में कहीं सफल होता हुआ नज् ार आ रहा है तो उसका कारण है कि आज मीडिया के औजार पहले की तुलना में किसी हद तक चमत्कारी हैं तथा उनमें जनता को तत्काल मंत्रमुग्ध कर लेने की अपार क्षमता है।
अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के महानायक अरविंद केजरीवाल देश की राजधानी में बड़े जोश-खरोश के साथ धरने पर बैठे। मैं नहीं जानता कि वे 'नायक' फिल्म में अनिल कपूर की भूमिका से कितने प्रभावित थे, लेकिन मुख्यमंत्री बनते समय उनके तेवर वही थे। प्रशासनतंत्र की कठोर वास्तविकता से जब वे रूबरू हुए तो उन्हें समझ आया कि फिल्मी हीरो के अंदाज में सरकार नहीं चलाई जा सकती। इससे कुपित और क्षुब्ध होकर उन्होंने धरना देने का रास्ता अपनाया। उनके पार्टी प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने टीवी पर चर्चा करते हुए श्री केजरीवाल का बचाव इन शब्दों के साथ किया कि महात्मा गांधी को भी चंपारण सत्याग्रह व दांडी यात्रा का सहारा लेना पड़ा था। श्री यादव समाजवादी विचारों के विद्वान हैं। उनके कथन को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या वे सचमुच यह बात मन की गहराई से कह रहे थे।
मुझे अपने पाठकों को यह स्मरण कराने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए कि गांधी चंपारण और दांडी दोनों स्थानों पर अंग्रेजीराज याने विदेशी हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे थे। दक्षिण अफ्रीका, भारत, यहां तक कि इंग्लैंड की धरती पर भी उन्होंने विदेशी सत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि श्री यादव ने इस मूल बिंदु को कैसे भुला दिया। श्री केजरीवाल अन्ना के साथ और अन्ना के बाद आंदोलनकारी के रूप में या राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सत्ता के विरोध में सड़क पर उतरे, वहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन एक मुख्यमंत्री कैसे उस तंत्र के खिलाफ पद पर रहते हुए आ सकता है जिसका कि वह स्वयं उसका हिस्सा है? श्री यादव अपने तर्क देते समय यह भी भूल गए कि महात्मा गांधी ने स्वयं के लिए सत्ता की चाहत कभी नहीं रखी। अनेक पाठकों को तो शायद याद न हो कि कि गांधी भले ही कांग्रेस के एक तरह से डिक्टेटर रहे हों, लेकिन वे तो पार्टी के चवन्नी सदस्य भी नहीं थे। है न मजे की बात!
बापू के जीवन का अध्ययन करने से हमें यह भी पता चलता है कि उन्होंने दूसरों को असुविधा पहुंचाने वाला कोई काम कभी नहीं किया। वे सच्चे अर्थों में सत्याग्रही थे और अहिंसा में उनका विश्वास अटूट था इसलिए वे जब अनशन पर बैठे तो या तो अपने आश्रम में या फिर जेल में। जब दांडी मार्च हुआ तो गांधीमार्गियों के जत्थे के जत्थे पुलिस की लाठियां खा-खाकर भी आंदोलन करते रहे। उन्होंने एक बड़ा अनशन उस समय किया जब उग्र सत्याग्रहियों ने चौरी-चौरा में थाना जलाने की हिंसक वारदात की। इस इतिहास को जानने के लिए जो लोग किताब पढ़ने का कष्ट उठाने तैयार न हों, वे कम से कम गांधी फिल्म तो देख ही सकते हैं। दरअसल आज उनकी पुण्यतिथि पर इतना पर्याप्त नहीं है कि सुबह ग्यारह बजे दो मिनट का मौन रखा जाए या ऐसे ही प्रतीकों के माध्यम से उन्हें श्रध्दांजलि दी जाए। आज देश में गांधी का नाम लेकर जो छद्म चल रहा है, दुकानदारी की जा रही है, पाखंड हो रहा है और गांधी को मारने वाले तक उनका नाम लेकर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं, उसे समझने के लिए गांधी साहित्य को पढ़ने से बेहतर और क्या हो सकता है?
कितना अच्छा हो कि आज गांधी पर श्रध्दा रखने वाले हर परिवार में बड़े-बूढ़े घर के बच्चों को गांधी की आत्मकथा ''सत्य के प्रयोग'' के दो-चार पन्ने पढ़कर ही सुनाएं!!
देशबंधु में 30 जनवरी 2014 को प्रकाशित
"सत्यमेवजयतेनानृतम्।" बापू को विनम्र श्रध्दाञ्जलि । प्रशंसनीय आलेख ।
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