Wednesday, 1 January 2014

दिल्ली में विश्वास मत

दिल्ली के नए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व उनकी अपनी आम आदमी पार्टी को तीन जनवरी को विधानसभा में विश्वासमत हासिल करना होगा। क्या वे इस परीक्षा में सफल हो पाएंगे? यह सवाल इसलिए कि स्वयं श्री केजरीवाल व उनके सहयोगी बार-बार इस बारे में शंका प्रकट कर रहे हैं। यह शंका स्वाभाविक भी हो सकती है या फिर अपनी नैतिक श्रेष्ठता सिध्द करने की पूर्व-पीठिका! यह तो सबको पता है कि ''आप '' सरकार के पास बहुमत नहीं है। इस नाते उसे गिरा देना कोई मुश्किल बात नहीं है किन्तु जिस पार्टी के बाहरी समर्थन से आप सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ वह भला उसे क्यों गिराना चाहेगी? क्या सिर्फ इसलिए कि एक बार विश्वास मत हासिल हो जाने के बाद अगले छह महीने तक अविश्वास प्रस्ताव लाना संभव नहीं होगा और इस बीच में लोकसभा चुनाव आ जाएंगे? 

अभी जैसा माहौल है एवं जैसी चर्चाएं सबेरे-शाम चल रही हैं उसमें शायद कांग्रेस पार्टी को यह शंका फिलहाल हो कि अगर 'आप' सरकार टिक गई तो लोकसभा चुनाव में वह ज़यादा ताकत के साथ उभरकर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। यह दूर की कौडी है। अगर 'आप' सरकार टिकती है तो उसके सामने अगले कुछ हफ्तों में अपने वायदों और कार्यक्रमों पर खरा उतरने की कड़ी चुनौती होगी। वह अगर अपनी घोषणाओं को अमल में ला पाती है तभी लोकसभा चुनावों के समय उसे मतदाताओं का विश्वास हासिल हो पाएगा। अगर वह असफल होती है तो दिल्ली में एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा ही आमने-सामने होंगे। ऐसी स्थिति उत्पन्न हो इसके बजाय कांग्रेस के लिए फिलहाल शायद यही बेहतर है कि केजरीवाल मैदान में बने रहें ताकि कांग्रेस-विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण न हो सके। 


कांग्रेस ने 'आप' को समर्थन देकर एक सही कदम उठाया है। वह जनभावना के अनुकूल था। यदि कांग्रेस समर्थन न देती तो दोबारा चुनाव की नौबत आ जाती जिसे न तो मतदाता पसंद करते, न स्वयं कांग्रेस के विधायक। वैसे तो भाजपा के बत्तीस विधायकों को भी कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने उन्हें दुबारा चुनाव मैदान में जाने से बचा लिया। बहरहाल, कांग्रेस ने अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह विश्वास प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेगी। इस लिहाज से अरविंद केजरीवाल की शंका बेबुनियाद ही प्रतीत होती है। श्री केजरीवाल की राजनीति क्या है इसके बारे में अभी हमें कुछ भी नहीं पता। उनका सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का है।  संभव है कि दिल्ली में उसका असर हुआ हो, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं माना, यह स्पष्ट है। 


ठोस राजनीतिक प्रश्नों पर श्री केजरीवाल के विचार शायद आगे चलकर स्पष्ट हों, लेकिन योगेन्द्र यादव और प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे उनके साथियों को देखकर अनुमान होता है कि वे यूरोपीय समाजवादी ढांचे से प्रभावित हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरतचंद्र बेहार को अपना सलाहकार बनाने का प्रस्ताव भी इसी सोच से प्रभावित है। एक मुकम्मल राय के बदले दिल्ली को एक शहर की शक्ल में देखें तो 'आप' पार्टी के एजेंडा में बहुत से लोक-लुभावन तत्व हैं। इनमें से कुछ को दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश में आधे-अधूरे मन से बल्कि सिर्फ प्रसिध्दि पाने के लोभ में लागू किया था! उन्हें 'स्टॉकहोम चैलेंज अवार्ड' जैसा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल गया था, लेकिन प्रदेश का क्या हुआ, इसके बारे में ज़यादा कहने की जरूरत नहीं है। इस लिहाज से श्री केजरीवाल को बहुत संभल कर व बहुत सूझबूझ के साथ आगे कदम उठाना  होंगे। 


आज हम कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से अपेक्षा रखते हैं कि 'आप' सरकार बनने के लिए उसने जिस सदाशय के साथ साथ दिया वह उस पर कायम रहे तथा विश्वासमत पर श्री केजरीवाल का समर्थन करने में किसी भी तरह से पीछे न हटे। आम आदमी पार्टी देश में तीसरे विकल्प के रूप में उभरती है या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन राजनीतिक वास्तविकता और राजनीतिक शिष्टाचार दोनों का तकाजा है कि श्री केजरीवाल व उनकी पार्टी को अपने आपको सिध्द करने के लिए समुचित वक्त दिया जाए।


देशबंधु में  02 जनवरी 2014 को प्रकाशित

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