आज की शुरुआत आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के उस निर्णय के जिक्र से जिस पर न जाने क्यों समाज के किसी भी वर्ग ने बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया, जबकि मेरी राय में वह इस सरकार का पहला बड़ा और ठोस कदम था। पाठकों को संभवत: स्मरण हो कि सरकार संभालने के तुरंत बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिपाही विनोद कुमार के परिवार को एक करोड़ रुपए की बड़ी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देने का आदेश जारी किया था। खतरे के बीच अपनी डयूटी निभाते हुए सिपाही विनोद कुमार असामाजिक तत्वों के द्वारा मारा गया था। निर्णय इसलिए बड़ा था क्योंकि इसमें पुलिस के मनोबल बढ़ने की बड़ी संभावना छिपी हुई है वरना प्रदेशों में पुलिस के जो हालात हैं वे किसी से छिपे हुए नहीं हैं। अपनी डयूटी निभाते हुए पुलिस कदम-कदम पर मौजूद खतरों से तभी जूझ सकता है जब उसे विश्वास हो कि कोई अनहोनी हो गई तो बाद में परिवार को दुर्दशा नहीं झेलना पड़ेगी। मैं समझता था कि प्रकाश सिंह, वेद मरवाह और किरण बेदी जैसे मुखर पुलिस अधिकारी तो इस बारे में बोलेंगे, लेकिन मेरे देखे-सुने में उनका कोई बयान नहीं आया।
मजे की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल व आम आदमी पार्टी की उन नीतियों और निर्णयों की ज्यादा चर्चा हो रही है, जो किसी हद तक प्रतीकात्मक हैं और जिन्हें क्रियान्वयन की कसौटी पर खरा उतरना अभी बाकी है। मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी खुद के लिए ''आम आदमी'' की संज्ञा धारण करने के साथ-साथ बार-बार ''हम तो छोटे लोग हैं'', ''हम तो सड़क के आदमी हैं'' जैसे जुमलों का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। मैं नहीं समझ पाता कि अपने आपको इतना दीन-हीन जतलाने की क्या जरूरत है! श्री केजरीवाल के लिए यह उचित होगा कि वाक् चातुरी को छोड़कर इस पर ध्यान दें कि वे और उनके साथी निराभिमानी व विनम्र रहते हुए सादगी के अपने एजेंडे को ईमानदारी से लागू करने के लिए काम करते रहें। आखिरकार जनता ने आपको चुना इसलिए है कि अन्य पार्टियों की तरह आपकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होगा!
अभी इस बात पर हो-हल्ला हुआ कि 'आप' के मंत्री सरकारी गाड़ियों में चलने लगे हैं। इस पर भी कि मुख्यमंत्री को आधिकारिक आवास के लिए बड़े मकान की जरूरत क्यों पड़ी? दोनों मुद्दों पर आपत्ति अनावश्यक थी। मुख्यमंत्री बहुत बड़े बंगले में न रहें यहां तक तो ठीक है, लेकिन उस पद पर बैठे व्यक्ति को अपनी शासकीय जिम्मेदारी के तहत जितने लोगों से मिलना होता है उसे देखते हुए पांच कमरे का मकान बड़ा नहीं, पर्याप्त ही माना जाना चाहिए। मुख्यमंत्री के निवास से लगकर यदि एक आवासीय कार्यालय भी है तो वह भी विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता है। देश की राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री से भेंट करने देश-विदेश से लोग आते हैं। इनसे मुख्यमंत्री कहां मिलेंगे? उन्हें शिष्टाचार के निर्वाह के लिए शासकीय स्तर पर भोज भी देना होंगे। इसकी व्यवस्था वे कहां करेंगे? श्री केजरीवाल ने अपने दामन पर कोई दाग न लगे इस नाते तुरंत ही और छोटे मकान की तलाश शुरु कर दी है, लेकिन इसमें कोई बहुत बुध्दिमानी नहीं है।
शासकीय वाहन की बात करें। मुख्यमंत्री अपनी वैगन आर में चल रहे हैं। अच्छी बात है। दिल्ली की भीड़ भरी सड़कों पर छोटे वाहन में चलना ठीक ही है। इनके साथियों को इनोवा गाड़ियां दी गई हैं। जाहिर है कि दिल्ली सरकार के गैराज में ये गाड़ियां रही होंगी जो पुराने से नए मंत्रियों के पास आ गई हैं। इनका इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। गैराज में रखे धूल खाने से बेहतर है कि गाड़ियां चलती रहें लेकिन आगे के लिए सरकार इतना जरूर तय कर सकती है कि बड़ी गाड़ियों के बदले छोटी, कम खर्चीली व बेहतर मायलेज देने वाली गाड़ियां ही खरीदी जाएंगी। ऐसा करने से यह भी होगा कि दिल्ली के अफसरान भी छोटी गाड़ियों में चलने की आदत डाल लेंगे, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। मुख्यमंत्री सादगी की प्रतीकात्मकता को यदि स्थायी वास्तविकता में बदलना चाहते हैं तो उन्हें सुनीता नारायण व दिनेश मोहन जैसे विशेषज्ञों से सलाह कर सार्वजनिक यातायात, सायकिल व फुटपाथ- इनके बारे में विचार करना होगा।
बहरहाल, सादगी की चर्चा करते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत ने राजनेताओं में ऐसी सादगी पहली बार नहीं देखी है। इतिहास में जाने से पहले वर्तमान की बात करें तो दो प्रखर उदाहरण सामने है-त्रिपुरा के माणिक सरकार और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी। त्रिपुरा में वामपंथी मुख्यमंत्री हैं इसलिए उनका सादा जीवन अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी तो कांग्रेस से निकलकर आई हैं। गो कि कांग्रेस में मध्यप्रदेश की सांसद मीनाक्षी नटराजन जैसे उदाहरण सामने हैं। यदि अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी को सादगी से कहीं प्रेरणा ग्रहण की हो तो उन्हें शायद यह भी पता हो कि सूती साड़ी, हवाई चप्पल और रूखे व्यवहार वाली ममता बंगाल की सांस्कृतिक परंपराओं से न सिर्फ सुपरिचित हैं बल्कि वे अपने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों व संस्कृतिकर्मियों का हर संभव सम्मान करती हैं। 'ममता' और 'आंधी' जैसी फिल्मों की नायिका अस्सी वर्षीय सुचित्रा सेन ने पिछले तीस साल से अपने आपको बाहरी दुनिया से काट लिया है, लेकिन जब ममता बनर्जी ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की तो अस्पताल में दाखिल सुचित्रा सेन ने उन्हें मना नहीं किया।
जिन लोगों को इतिहास का ज्ञान नहीं है अथवा जो अपने राजनैतिक विचारों के अनुरूप इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हैं, उनकी बात क्या करें; सुधीजन जानते हैं कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अपने शयन कक्ष में एक खड़खड़िया टेबल फैन से काम चल जाता था। इंदिराजी ने उनको बिना बताए नया पंखा लगा दिया तो उन्होंने उसे लौटा दिया। वे अपने मेहमानों का सत्कार उस समय मिलने वाले अल्प वेतन से नहीं कर पाते थे और इसलिए उन्होंने संसद में अपील की थी कि उनका वेतन कुछ बढ़ा दिया जाए, क्योंकि उनके पास आय का कोई दूसरा जरिया नहीं था। पंडित नेहरू के अनन्य सहयोगी वी.के. कृष्ण मेनन के बारे में भी क्या-क्या नहीं कहा गया, लेकिन लंदन में उच्चायुक्त रहते हुए श्री मेनन अपने दफ्तर की टेबल पर ही सो जाते थे। क्या ये तथ्य जानने में श्री केजरीवाल को कोई दिलचस्पी होगी?
मैंने ऊपर माणिक सरकार का जिक्र किया है। दरअसल, सभी वामपंथी पार्टियों के नेताओं के लिए सादा जीवन उनकी जीवन शैली का अनिवार्य अंग है। वे इसका ढिंढोरा नहीं पीटते। योति बसु मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सीटू के अधिवेशन में भाग लेने के लिए भिलाई आए। उन्हें लेने सरकारी गाड़ी स्टेशन गई। ज्योति बाबू ने उसे वापिस कर दिया और मजदूर संगठन के लोग जिस खटारा गाड़ी में स्टेशन पहुंचे थे, वे उसमें बैठे। बात साफ थी-मैं यहां मुख्यमंत्री की हैसियत से किसी सरकारी कार्यक्रम में नहीं आया हूं। इस तरह 2009 में पश्चिम बंगाल के सीपीआई के मंत्री श्रीकुमार मुखर्जी रायपुर आए तो उन्होंने भी सरकारी गाड़ी स्टेशन से ही लौटा दी। वे जिस कार्यक्रम में आए थे, उसके आयोजकों ने जिस साधारण होटल में अन्य प्रतिनिधियों को रुकवाया था, श्रीकुमार भी वहीं रुके। ए.बी. वर्ध्दन, डी. राजा, गुरुदास दासगुप्ता इत्यादि भी कभी सुख-सुविधा के मोहपाश में नहीं फंसते।
पश्चिम बंगाल में ज्योति बाबू के बाद मुख्यमंत्री बने बुध्ददेव भट्टाचार्य भी अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इस मामले में केरल का कोई मुकाबला नहीं है। वहां कांग्रेस हो, या वाममोर्चा- दोनों की लोकतंत्र में जैसी गहरी आस्था है और आचरण में जो सादगी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर वर्तमान मुख्यमंत्री ओमन चांडी तक यह सिलसिला बना हुआ है। सीपीआई के सी.के. अच्युत मेनन तो भारत के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने स्वास्थ्य का हवाला देकर स्वेच्छा से पद छोड़ दिया था। केरल के अफसरों में भी सादे जीवन की झलकियां देखी जा सकती हैं। इधर बिहार के समाजवादी मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर का स्मरण अनायास हो आता है, जिन्होंने सचिवालय में वीआईपी लिफ्ट को आम जनता के लिए खोल दिया था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक को सपत्नीक व बसपा के संस्थापक कांशीराम को अकेले मैंने विमानतल पर सामान्य यात्रियों के साथ लाइन में खड़े होते देखा है और अपने छत्तीसगढ़ चंदूलाल चंद्राकर को भी, जबकि वे स्वयं नागरिक उड्डयन मंत्री थे। कांग्रेस के ही रामचंद्र सिंहदेव छह बार विधायक व मंत्री रहने के बाद भी एक साधारण से क्वार्टर में रहते हैं।
ए.के. एंटोनी का जिक्र किए बिना यह चर्चा खत्म नहीं हो सकती। वे मुख्यमंत्री थे, तब भी उनकी पत्नी अपनी नौकरी पर बस से जाती थीं। श्री केजरीवाल ने जरूर अपनी गाड़ी में लालबत्ती लगाने से मना कर दिया है, लेकिन किसी पत्रकार को पता करना चाहिए कि उनकी पत्नी किस गाड़ी में यात्रा करती हैं। कुछ दिन पहले श्री केजरीवाल के सहयोगी कुमार विश्वास रायपुर में बता गए कि उनकी बेटी डीपीएस में पढ़ती है। 'आप' के नेतागण सोचें कि क्या यह सादगी के मूलमंत्र के अनुरूप है?
देशबंधु में 09 जनवरी 2014 को प्रकाशित
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