कांग्रेस, भाजपा, आप- सबने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए अपनी-अपनी कमर कसना शुरू कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने तो काफी पहले से नरेंद्र मोदी के रूप में अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ रखा है। जिसकी भुजाओं में बल हो वह उसे रोककर बताए। आम आदमी पार्टी के नेता भी इस समय 'नाइन ओ क्लॉक' पुष्प की तरह रोशनी की पहली किरण पाकर प्रस्फुटित हो रहे हैं। कुमार विश्वास अमेठी जाकर ताल ठोंक आए हैं। जीवन भर के संघर्षों से थकी मेधा पाटकर ने भी अपनी नाव 'आप' के घाट बांध ली है। कल के कम्युनिस्ट कमल मित्र चिनाय ने आज 'आप' की टोपी पहन ली है। यह सब अभी चलेगा। दूसरी पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। नीतीश कुमार थोड़े समय पहले तक प्रधानमंत्री बनने की संभावना में इठला रहे थे, वे फिलहाल शांत हैं, लेकिन सुश्री जयललिता ने तो अपनी उम्मीदवारी का खुला ऐलान कर ही दिया है। नवीन पटनायक मन ही मन मंसूबे बांध रहे हैं। सुश्री मायावती भी दौड़ में शामिल हैं और उनके चिरशत्रु मुलायम सिंह यादव की बेताबी किसी से छिपी हुई नहीं है। मायावती अपनी ताकत पर लड़ेंगी। हो सकता है कि कांग्रेस के साथ उनका गठजोड़ कायम रहा आए। मुलायम सिंह अपने बेटे से ज़यादा आजम खान और राजा भैया के बल पर अखाड़े में उतरेंगे। शरद पवार और लालू प्रसाद की भी महत्वाकांक्षाएं हैं। लालूजी जहां कांग्रेस के साथ रहेंगे वहीं पवार साहब आखिरी वक्त तक अपने पत्ते नहीं खोलने वाले। ममता बनर्जी भी शायद देखेंगी कि उनकी भलाई किसके साथ जाने में होगी और कौन उनको साथ देगा।
यह सब तो ठीक है, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहां है? पत्रकारों और प्रोफेसरों की मानें तो कांग्रेस के सामने अब कोई भविष्य नहीं है। भाजपा भी यही कह रही है। पांच में से चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की स्थिति सचमुच दुर्बल नजर आती है। इस समय कांग्रेस का यह तर्क बिल्कुल भी काम नहीं कर रहा कि बारह राज्यों में उसकी सरकार है जबकि भाजपा की सिर्फ पांच में। कांग्रेस ने छह महीने पहले ही तीन विधानसभाएं भाजपा से छीनीं। इस तथ्य को भी फिलहाल कोई गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं है। यदि लोकसभा चुनाव सामने न होते तो शायद जनता को एक संतुलित राय बनाने का अवसर मिल गया होता, लेकिन अब उसके लिए समय कहां बचा है? कांग्रेस का यह तर्क भी बहुत सटीक नहीं है कि लोकसभा और विधानसभा में मतदाता की पसंद एक जैसे नहीं होती। 2009 में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे जैसे आए थे लगभग वे ही लोकसभा में दोहराए गए थे।
8 दिसंबर 2013 को कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पत्रकारों से मुखातिब होते हुए जोशीले शब्दों में घोषणा की थी कि वे कांग्रेस पार्टी को बदलकर रख देंगे। आज उस घोषणा को एक माह और एक सप्ताह बीत चुका है। इस बीच में कांग्रेस के युवा नेता ने ऐसा कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जिससे लगे कि कांग्रेस बदलाव के लिए तैयार है। जो स्थिति आठ दिसंबर के पहले थी वही चली आ रही है। श्री गांधी को कांग्रेस की चाहे जितनी चिंता हो, लेकिन देश और प्रदेश में पार्टी के जो वरिष्ठ नेता हैं उनके चेहरे पर शिकन भी दिखाई नहीं देती। वे सब पहले की तरह अपने गुणा-भाग में लगे हुए हैं। इसका एक शोचनीय उदाहरण मध्यप्रदेश में देखने आया जहां नयी विधानसभा का पहला सत्र शुरू होते तक कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष के नाम पर सहमति नहीं बन पाई। छत्तीसगढ़ में भी इस तरह की जोड़-तोड़ देखने मिली। नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी है। दिल्ली में जरूर कांग्रेस ने यह समझदारी दिखलाई कि आम आदमी पार्टी की सरकार बनने का रास्ता प्रशस्त किया, लेकिन मुंबई में संजय निरूपम जैसे वाचाल और प्रिया दत्त जैसी गंभीर नेता दोनों एक स्वर में 'आप' से प्रेरणा ग्रहण करने की बात कर रहे हैं, उसे एक प्रहसन ही माना जाना चाहिए।
बहरहाल, यदि राहुल गांधी सचमुच कांग्रेस में आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहते हैं तो इसके लिए कोरी बयानबाजी से काम नहीं चलेगा, और न छिटपुट कार्रवाईयों से। मसलन, पहले उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी, फिर दिल्ली में अरविंदर सिंह लवली को, फिर मध्यप्रदेश में अरुण यादव को और फिर राजस्थान में सचिन पायलट को। ये नई नियुक्तियां किश्तों में करने से कांग्रेस को क्या लाभ हुआ? क्या इससे आम जनता के बीच सही संदेश गया? इसके बजाय चारों हारे हुए प्रांतों में एक साथ नेतृत्व परिवर्तन किया जाता तो उसकी गूंज कुछ धमाकेदार होती व स्वयं कांग्रेसजनों को विश्वास होता कि पार्टी नेतृत्व स्थानीय नेताओं की नाकाबिलियत व मनमानी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे। यह कॉलम छपने के एक दिन बाद याने 17 जनवरी को कांग्रेस पार्टी कोई नई कार्ययोजना लेकर आएगी। इस बारे में काफी कयास लगा रहे हैं। इसे देखते हुए हम कहेंगे कि राहुल गांधी को कुछ कठोर निर्णय एकबारगी ही ले लेना चाहिए।
कांग्रेस भले ही देश की सबसे पुरानी पार्टी हो, लेकिन उसके शीर्ष नेतृत्व को याद रखना चाहिए कि बदलते हुए समय के साथ नए औजारों की भी जरूरत होती है। जिस तरह से गद्दे-तकिए वाली बैठकों की जगह टेबल-कुर्सी ने ले ली है वैसे नए वातावरण में और क्या आवश्यकताएं हैं यह समझना कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी है। हम याद दिलाना चाहेंगे कि आज के दौर में वांछित हो या अवांछित, मीडिया राजनीति में एक बड़ी हद तक हस्तक्षेप कर रहा है। इसके लिए कांग्रेसजनों का मीडिया से बातचीत करने का तौर-तरीका बदलना आवश्यक नहीं बल्कि अनिवार्य है। मीडिया का जो वर्ग कांग्रेस हितैषी है वह भी परेशान है कि कांग्रेस के शीर्ष नेता मीडिया से दूरी बनाकर रखते हैं। इसमें कांग्रेस का जो नुकसान हुआ है उसका आकलन शायद तीनों बड़े नेताओं ने नहीं किया।
इस तथ्य को जानकर कांग्रेस को अपने सारे वर्तमान प्रवक्ताओं को टीवी के परदे से हटा लेना चाहिए। जब भाजपा के प्रवक्ता प्रहार करते हैं और सूत्रधार उनका साथ देते हैं तब संजय झा जैसे प्रवक्ताओं को समझ ही नहीं आता कि वे क्या बोलें। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, अभिषेक सिंघवी इत्यादि तो हर समय मानो अपनी वकालत चमकाने के फेर में ही रहते हैं। दूसरी बात यह भी है कि कांग्रेस प्रवक्ता एक स्वर में बात नहीं करते। वे शायद अपना होमवर्क करके भी नहीं आते। जिसके मन में जो आया कह दिया। सचिन पायलट और आर.पी.एन. सिंह जैसे दो-चार युवा नेता ही हैं जो अपना पक्ष संजीदगी के साथ सामने रखते हैं। अगर राहुल गांधी यह बदलाव ला सके तो पार्टी के लिए अच्छा होगा। इसके अलावा मैं समझता हूं कि श्री गांधी को अब चुनाव तक सप्ताह में कम से कम एक दिन पत्रकारों से सीधे बात करना चाहिए। फिर वे चाहे दिल्ली में हों या मुंबई में।
राहुल गांधी को हमारी दूसरी बिन मांगी सलाह है कि वे पार्टी के लगभग सभी बुजुर्ग नेताओं को अवकाश पर भेज दें। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी तो अगले एक साल भजन कीर्तन और लिखने-पढ़ने में बिताने की घोषणा कर चुके हैं। भारतीय परंपरा कहती है कि जब बेटे के पांव पिता के जूतों में आने लगें तब वानप्रस्थ आश्रम में चले जाना चाहिए। श्री गांधी इसे एक आदर्श की तरह पार्टी के अन्य नेताओं के सामने रख सकते हैं और उन्हें पूर्ण सन्यास न सही, अवकाश लेने के लिए प्रेरणा दे सकते हैं। अगर यह संभव न हो तब भी कांग्रेस के युवा नेता को इतना तो करना ही चाहिए कि सारे मुखर नेताओं को सार्वजनिक रूप से बयान देने से प्रतिबंधित कर दिया जाए और जो न माने उसे निलंबित करने का साहस दिखाया जाए।
हम यह भी चाहेंगे कि राहुल गांधी एक नई-नवेली टीम लेकर मैदान में उतरें। अभी उन्होंने चार प्रांतों में प्रदेश अध्यक्ष बदले हैं, लेकिन क्या अन्यत्र पार्टी की स्थिति बेहतर है? रमेश चेन्नीथला को केरल में मंत्री बनाना क्यों जरूरी था? उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पं. बंगाल इन सबमें कांग्रेस की क्या स्थिति है? भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले कांग्रेस में नई पीढ़ी में क्षमतावान युवा कहीं ज़यादा हैं। इनको साथ लेकर चलने से राहुल गांधी की अपनी छवि में निखार आएगा। आम आदमी पार्टी की ओर जिस तरह से पेशेवर लोग, विशेषकर युवा आकर्षित हो रहे हैं उसकी भी काट यही है कि कांग्रेस में स्वच्छ छवि के नए लोगों को आगे लाया जाए। एक तरफ नंदन निलेकनी, दूसरी तरफ मीनाक्षी नटराजन, एक तरफ टी.एस. सिंहदेव दूसरी तरफ सचिन पायलट और प्रिया दत्त। ऐसे नेताओं को पार्टी अग्रपंक्ति में स्थान दें तो एक सौ अठाइस साल पुरानी पार्टी को संजीवनी मिल सकेगी।
देशबंधु में 16 जनवरी 2014 को प्रकाशित
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