इस स्तंभ के एक नियमित पाठक अंकुर पाण्डेय ने अपेक्षा की है कि मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हिन्दी का प्रयोग करने की पहल के बारे में लिखूं। अपने युवा पाठक की भावना का सम्मान करते हुए मैं इस बारे में विचार रख रहा हूं, यद्यपि इस बात की पूरी आशंका है कि अंकुर मेरे विचारों से सहमत नहीं होंगे। आज की चर्चा में मैं नए प्रधानमंत्री द्वारा हिन्दी प्रयोग को प्राथमिकता दिए जाने के अलावा कुछेक नवनिर्वाचित सदस्यों द्वारा संस्कृत में शपथ लेने तथा इन दोनों प्रसंगों पर आई कुछ टिप्पणियों का भी जिक्र करना चाहूंगा। मुझे सबसे पहले तो यही कहना है कि न तो हिन्दी में वार्तालाप करना गलत है और न संस्कृत में शपथ लेना। हम कह सकते हैं कि इस तरह हमारी दो देशज भाषाओं के प्रति प्रतीकात्मक ही सही सम्मान व्यक्त किया गया है। किन्तु सिर्फ इतने से खुश होना काफी नहीं है। असली सवाल तो यह है कि संस्कृत, हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति क्या कोई दीर्घकालीन, ठोस और कारगर नीति आने वाले दिनों में बनाई जाएगी?
देश में अगर कोई नई भाषा नीति बनना है या चली आ रही नीति अथवा परंपरा में कोई बदलाव लाना है तो उससे जुड़े व्यवहारिक पहलुओं को देखना लाजिमी होगा। इस सिलसिले में हमें संविधान सभा के दस्तावेजों का तथा उसके बाद के घटनाचक्र का सम्यक अध्ययन करने की आवश्यकता पड़ेगी। अगर इसके और बहुत पहले जाकर इतिहास के पन्ने खोलकर देखें तो मसला कुछ और स्पष्ट हो सकेगा। यह तो स्पष्ट है कि भाषा किसी भी संस्कृति का अविच्छिन्न अंग होती है किन्तु इसके साथ-साथ यह भी उतना ही स्पष्ट है कि संस्कृति के अन्य उपकरणों की तरह भाषा में भी समयानुसार बदलाव आते हैं। इन बदलावों की उपेक्षा कर कोई भी समाज सुदूर अतीत में लौटकर नहीं जी सकता। एक समय संस्कृत इस देश के एक बड़े हिस्से और समाज के एक प्रमुख वर्ग की भाषा थी, किन्तु वह भी परिवर्तनों के दौर से गुजरी और हम जानते हैं कि प्राचीन संस्कृत से आज की संस्कृत से कितनी अधिक भिन्न है।
भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि जो वैदिक संस्कृत थी आगे चलकर उसका स्थान लौकिक संस्कृत ने ले लिया, फिर उसकी जगह पर प्राकृत आ गई तथा इस तरह धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से संस्कृत का प्रचलन कम होते चला गया। यह सच है कि संस्कृत में अनुपम साहित्य रचना हुई, लेकिन क्या यह भी उतना सच नहीं है कि अवधी व ब्रजभाषा में ऐसे क्लासिक ग्रंथ रचे गए जिनकी लोकप्रियता पांच सौ साल बाद भी बरकरार है, भले ही विद्वान इन दोनों को भाषा का दर्जा न देकर हिन्दी की बोली के रूप में शुमार करते हैं और यह जो हिन्दी है इसका प्रारंभिक रूप तो हमें सात सौ साल पहले अमीर खुसरो की रचनाओं में मिलता है। अब इन सारे तथ्यों को जोड़कर देखें तो समझ में आता है कि अन्य समाजों की तरह हमारे यहां भी भाषा निरंतर परिवर्तित और विकसित होते गई है। इसके पीछे आर्थिक, सामाजिक, व राजनैतिक ये सभी कारण रहे। इस तरह हमें एक ऐसी भाषा मिली जिसका बीज भले ही संस्कृत में रहा हो, लेकिन जिसे पुष्ट करने का काम फारसी व सीमित रूप में अरबी, तुर्की व अन्य ज़बानों ने भी किया। इस खड़ी बोली हिन्दी की वकालत महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरू ने की थी और वे इसे हिन्दुस्तानी कहना पसंद करते थे, जिससे एक समग्रता का बोध होता था।
हमारी संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव सिर्फ एक वोट के अंतर से पारित हुआ था। विशेषकर दक्षिण भारत के राज्य हिन्दी के पक्ष में नहीं थे। उनका भय था कि बहुसंख्यकों की भाषा का वर्चस्व हो जाने से भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों पर कुठाराघात होगा। इस भय की जड़ें गहरी थीं इसीलिए जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन शुरू किया तो दक्षिण भारत में उसके विरुद्ध हिंसक आंदोलन हुए। यही कारण था कि भारत सरकार ने एक तरफ हिन्दी का प्रचलन और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए अनेक कार्यक्रम हाथ में लिए; तो दूसरी तरफ गैर-हिन्दी भाषियों की भावनाएं आहत न हों, इस बात का भी बराबर ख्याल रखा।
आज हम देख सकते हैं कि हिन्दी धीरे-धीरे सब तरफ फैलती जा रही है। जिस तमिलनाडु में हिन्दी का उग्र विरोध होता था वहां भी लोग अपने आप हिन्दी सीख रहे हैं। अरुणाचल और मिजोरम में भी हिन्दी ही बोली जाती है। इस तथ्य पर भी गौर कीजिए कि देश में जहां उर्दू का चलन है वह भी हिन्दी से कहां अलग है। दरअसल भाषा का प्रश्न रोजगार के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। किसी जमाने में फारसी जानने से नौकरी मिलती थी तो लोग फारसी सीखने लगे। अंग्रेजी भी लोगों ने इसीलिए सीखना शुरू किया और आज भी अंग्रेजी पर इसलिए बल दिया जा रहा है कि उससे देश के भीतर नहीं बल्कि अमेरिका तक जाकर नौकरी मिलने की संभावना बढ़ती है और जहां हिन्दी के कारण रोजगार मिलता हो वहां लोग-बाग हिन्दी सीख ही लेते हैं। कन्याकुमारी हो या कश्मीर, गुवाहाटी हो या गोवा- पंडे, पुजारी, टैक्सी ड्राइवर, टूरिस्ट गाइड सब तो हिन्दी बोलते हैं। आशय यह कि भाषा कोई भी हो उसके पनपने के लिए विशेष वातावरण की जरूरत पड़ती है। जेठ के महीने में पैंतालीस डिग्री तापमान में लगाए गए बीज के अंकुरण की संभावना लगभग शून्य ही होगी।
मेरा कहना है कि जो लोग संस्कृत पर मुग्ध हैं अथवा जो हिन्दी का वर्चस्व चाहते हैं उन्हें सांकेतिकता से आगे बढ़कर कुछ बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए। पहले संस्कृत की ही बात लें। मैंने जैसा कि ऊपर कहा- संस्कृत में अनुपम साहित्य रचना हुई, लेकिन उससे कितने लोग परिचित हैं। क्या यह सच नहीं है कि संस्कृत को हमने एक संकीर्ण धार्मिक दायरे में बांधकर रख दिया है? हम समझते हैं कि किसी भी अनुष्ठान में संस्कृत में मांगलिक श्लोक पढऩे से संस्कृत का पुर्नरुद्धार हो जाएगा, लेकिन इसके बरक्स यह देखें कि हमारे देश में संस्कृत की पढ़ाई का क्या हाल है! जो विद्यार्थी संस्कृत विषय लेते हैं वे हिन्दी में प्रश्न पत्र हल करने की मांग करते हैं याने हमारे शिक्षातंत्र में संस्कृत पढ़ाने की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। गिनती के दस श्लोक रट लेने को ही तो संस्कृत ज्ञान नहीं माना जा सकता। यदि सुषमा स्वराज, डॉ. हर्षवर्धन और हमारे पत्रकार बंधु तरुण विजय की संस्कृत के प्रति ऐसी निष्ठा है तो उन्हें स्मृति ईरानी से कहकर सबसे पहले संस्कृत की पढ़ाई सुचारु हो सके इसका प्रबंध करना चाहिए।
यह अच्छी बात है कि नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के मेहमानों के साथ हिन्दी में बात की। वे आगे भी यह सिलसिला जारी रखना चाहते हैं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लगभग हर देश में दुभाषियों का इस्तेमाल करके भाषा की बाधा को पार कर लिया जाता है, किंतु इस तथ्य का उल्लेख जरूरी होगा कि पंडित नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक हरेक प्रधानमंत्री ने यथा अवसर हिन्दी का प्रयोग किया। याद कीजिए कि कन्नड़भाषी देवेगौड़ा ने भी लालकिले की प्राचीर से हिन्दी में ही राष्ट्र को संबोधित किया था। मैं तो यह कहूंगा कि अपने राजनेताओं से हिन्दी में बात करने का आग्रह करने के पहले हमें बॉलीवुड के सितारों से मांग करना चाहिए कि वे फिल्मों में दूसरों से संवाद डब करवाने के बजाय स्वयं हिन्दी में संवाद बोलें और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी हिन्दी में भाषण देना सीखें। आखिरकार वे तो सीधे-सीधे हिन्दी की ही कमाई खा रहे हैं। और जहां तक राजनेताओं की बात है हमारी अपेक्षा उनसे सिर्फ हिन्दी बोलने को लेकर नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर है।
प्रधानमंत्रीजी! अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप देखें कि देश की शिक्षा व्यवस्था में हिन्दी अध्ययन अध्यापन का हाल कैसा है? ऐसा क्यों है कि पांचवी कक्षा पास विद्यार्थी हिन्दी में अपना नाम भी ठीक से नहीं लिख पाता? ऐसा क्यों है कि हिन्दी में एम.ए. की उपाधि हासिल करने वालों से भी हिन्दी में एक पैराग्राफ शुद्ध नहीं लिखा जाता? ऐसा क्यों है कि हमारे विश्वविद्यालयों में सबसे निम्न स्तर का शोध हिन्दी विषय में ही होता है और उसमें भी कितनी चोरियां होती हैं कहना मुश्किल है। ऐसा क्यों है कि तमाम राज्य सरकारें पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था कर रहीं हैं, लेकिन हिन्दी की तरफ किसी का ध्यान नहीं है? ऐसा क्यों है कि सिवाय सरकारी खरीद के हिन्दी पुस्तकों का कोई बाजार नहीं है? अगर आप हिन्दी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए सचमुच इतने व्यग्र हैं तो हिन्दी की दुर्दशा की जड़ कहां है, पहले उसे खोजिए।
देशबन्धु में 12 जून 2014 को प्रकाशित
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