नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी
सरकार को एक माह पूरा हो चुका है। चुनाव के समय जो उनके सहयोगी, समर्थक और
प्रशंसक थे उन्हें स्वाभाविक ही पिछले तीस दिनों में सब कुछ अच्छा हुआ है
ऐसा लग रहा है। उसी तरह कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों के लिए भी सहज है कि
वे नयी सरकार की खामियां व गलतियां गिनाने में कोई कसर बाकी न रखें। जो इन
दोनों पक्षों से दूर हैं वे भी अपनी-अपनी तरह से सरकार के कामकाज का
विश्लेषण कर रहे हैं। यूं तो किसी भी नए निज़ाम को अपनी क्षमता प्रदर्शित
करने के लिए उचित अवसर दिया जाना चाहिए। अमेरिका में जैसी कि परंपरा है कि
नए राष्ट्रपति के कामकाज पर मीडिया तीन माह तक कोई विपरीत टिप्पणी करने से
अमूमन परहेज करता है। इसे वहां ''हन्ड्रेड डे हनीमून'' कहा जाता है। इसी
क्रम में हमारा ख्याल था कि नरेन्द्र मोदी को कम से कम सौ दिन तो दिए ही
जाना चाहिए, बल्कि दो सौ दिन भी दिए जाएं तो गलत नहीं होगा क्योंकि एक तो
वे प्रादेशिक राजनीति से सीधे केंद्र की राजनीति में आए हैं और दूसरे इसलिए
कि तीन दशक बाद एक स्पष्ट जनादेश से सरकार बनी है। लेकिन यह तो
''इंस्टेंट'' का जमाना है। तीस दिन तो क्या, तीन दिन भी लोग सब्र करने के
लिए तैयार नहीं होते।
यही कारण है कि एक माह बीतते न बीतते नरेन्द्र
मोदी सरकार के बारे में निर्णयात्मक टिप्पणियां की जाने लगी हैं। तटस्थ
विवेचन किया जाए जो वैचारिक रुझान और अतीत की स्मृतियों से हटकर ही संभव है
तो कहना होगा कि अभी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसके आधार पर इस सरकार के
बारे में कोई स्पष्ट राय बनायी जा सके। अब यह देखें कि इन तीस दिनों में
सरकार ने क्या कदम उठाया तो एक मिली-जुली तस्वीर सामने आती है। शपथ ग्रहण
में सार्क देशों के प्रमुख आए; इसकी तारीफ सबने की, किन्तु उसके बाद विदेश
नीति के मोर्चे पर सब कुछ वैसा ही है जो पहले से चला आ रहा है।
प्रधानमंत्री की पहली विदेश यात्रा भूटान की हुई तो वहां की संसद में
उन्होंने उस अंदाज में भाषण दिया मानो चुनावी सभा में बोल रहे हो। इसमें
उनसे वैसी ही चूकें हुईं जैसी हमने उनके चुनाव अभियान में देखी थीं। इसके
बाद चीन जाकर उनके पार्टी प्रवक्ता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सार्क में
द्विपक्षीय विवादों को उठाने की जो वकालत की वह आश्चर्यजनक ही कही जाएगी।
घरेलू
मोर्चे पर गृहमंत्रालय ने हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के बारे में जो परिपत्र
जारी किया उसने एक अनावश्यक विवाद को जन्म दिया। इसके पहले उनके मंत्री
जनरल वी.के.सिंह, नजमा हैपतुल्ला और डॉ.जितेन्द्र सिंह ने जो बयानबाजी की
उनसे भी सरकार के भावी इरादों को लेकर वृहत्तर समाज में चिंता का वातावरण
बना। अभी दो दिन पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने आईपीएस में भर्ती के नियमों
को शिथिल करने की वकालत की है उसका असली उद्देश्य क्या है यह समझ नहीं
आया हैं। इसी मंत्रालय में सफाई अभियान के नाम पर डेढ़ लाख पुरानी फाइलें
नष्ट कर दी गई। यह खबर चौकाने वाली है। हमारे देश में दस्तावेजीकरण के
प्रति अनादिकाल से अवज्ञा भाव रहा है इससे कई मामलों में भ्रम पैदा होता
है। आज की व्यवस्था में यह अनुकरणीय नहीं है। सरकार ने यह नहीं बताया कि
कौन सी फाईलें नष्ट की गई हैं और इस तरह पारदर्शिता की अवहेलना हुई है।
इस
दौरान एक ओर राज्यपालों को हटाने की कोशिशों पर सरकार विवाद में आयी तो
दूसरी ओर गोपाल सुब्रह्मण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज बनने में अड़ंगा
लगाने से भी उसे आलोचना का शिकार बनना पड़ा। श्री मोदी ने चुनाव जीतने के
तुरंत बाद आश्वस्त किया था कि वे राजनीति में सबको साथ लेकर चलेंगे, लेकिन
उपरोक्त दोनों प्रकरणों से यहीं संकेत मिलता है कि नई सरकार पूरी तरह से
ऐसी उदारता अपनाने के लिए तैयार नहीं है। एक गौरतलब बात यह है कि स्वयं
प्रधानमंत्री इन दिनों आश्चर्यजनक रूप से खामोश हैं, किन्तु अनेक पार्टी
प्रवक्ता पहले से कहीं ज्यादा वाचालता का परिचय दे रहे हैं। डीजल की कीमतों
में वृद्धि, रेल किराए में वृद्धि और आंशिक वापसी, शक्कर की कीमतों में
बढ़ोतरी जैसे आम जनता से जुड़े मसलों पर भाजपा से जो बयान आ रहे हैं वे
हास्यास्पद व गैर-जिम्मेदाराना ही कहे जाएंगे। श्री मोदी ने अपने मंत्रियों
को चुप रहने कहा है उसमें किसी हद तक औचित्य है, लेकिन यही बात प्रवक्ताओं
पर भी लागू होना चाहिए जिनके बयानों से पार्टी की छवि बनती बिगड़ती हैं।
बातें और भी बहुत हैं, लेकिन बेहतर होगा कि एक उचित अंतराल बीत जाने के बाद
ही मोदी सरकार के बारे में कोई मुकम्मल राय कायम की जाए।
देशबन्धु में 27 जून 2014 को प्रकाशित
|
No comments:
Post a Comment