केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मंतव्य प्रकट किया है कि वे जिस सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को संभाल रहे हैं उसकी जरूरत नहीं है तथा उसे बंद कर देना चाहिए। मैं पिछले सप्ताह इस बारे में संक्षेप में लिख चुका हूं, लेकिन इस बारे में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं उन्हें देखकर लगता है कि इस मुद्दे पर खुलकर बात की जाना चाहिए। श्री जावड़ेकर के वक्तव्य का जो लोग समर्थन कर रहे या पलटकर कहें तो जिन लोगों के विचारों से प्रभावित होकर पूर्व में मनीष तिवारी व वर्तमान में श्री जावड़ेकर ने जो रुख अपनाया है वह मुख्यत: एक संकीर्ण स्थापना पर आधारित है तथा सूचना प्रसारण मंत्रालय के क्रियाकलापों में जो विविधता एवं विस्तार है मेरी समझ में उसका संज्ञान इन लोगों ने नहीं लिया है। इसके साथ ही मंत्रालय को खत्म करने का यह विचार एक अनुदारपंथी आर्थिक सोच से विकसित हुआ है। इसका भी विश्लेषण किया जाना वांछित होगा।
देश में स्वतंत्रता के बाद से ही बुद्धिजीवियों का एक ऐसा तबका रहा है, जो मानते आया है कि सरकार को सूचना के स्रोतों अथवा माध्यमों पर किसी तरह का स्वामित्व अथवा नियंत्रण नहीं रखना चाहिए। इस वर्ग का प्रारंभ से कहना रहा है कि सरकार को ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी को मुक्त नहीं, तो स्वायत्त जरूर कर देना चाहिए। इसके बाद जब टेलीविजन का आगमन हुआ तो दूरदर्शन को लेकर भी यही राय व्यक्त की गई। इसी के अनुरूप लंबे समय तक एक स्वायत्तशासी निगम गठित कर आकाशवाणी व दूरदर्शन दोनों को उसके हवाले करने पर विचार-विमर्श चलता रहा। जिसकी परिणति अंतत: प्रसार भारती के रूप में सामने आई। इस तरह सरकार ने मीडिया स्वतंत्रता की वकालत करने वालों की बात मान तो ली लेकिन उस पर अमल आधे-अधूरे मन से किया गया तथा स्वायत्तता की जो कल्पना की गई थी वह इन दोनों अभिकरणों को ही नहीं मिली।
मीडिया के अध्येता जानते हैं कि प्रसार भारती की अवधारणा बीबीसी से प्रेरित थी। ब्रिटेन में बीबीसी को पूरी स्वायत्तता है ऐसी आमधारणा है। लेकिन क्या वह शत-प्रतिशत सरकार के नियंत्रण से बाहर है इसकी तफसील में जाने की जरूरत इन बुद्धिजीवियों ने नहीं समझी, बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि इस बारे में जो सच्चाई है इसे स्वीकार करने से वे कतराते रहे। यह हम जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार के हितों की जब भी बात आई है बीबीसी ने सरकार का साथ ही दिया है। एक समय इसे हमने ब्रिटेन की भारत संबंधी नीति के संदर्भ में देखा था तो कुछ वर्ष पहले इराक के संदर्भ में। प्रसंगवश उल्लेख कर देना उचित होगा कि लगभग एक साल पहले रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के कारनामे जब खुले तो उसके बाद से ब्रिटेन में मीडिया पर अंकुश लगाने की मांग राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों से नए सिरे से उठाने लगे।
अपने देश की बात करें तो उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों में भारत में मीडिया को जितनी स्वतंत्रता हासिल है वह अन्य किसी भी देश को नसीब नहीं है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित की थी और स्पष्ट कहा था कि प्रेस चाहे जितनी भी गलतियां करें जनतांत्रिक समाज में प्रेस का होना अनिवार्य है। यह बात जब कही गई थी तब भारत में प्रेस दो श्रेणियों में बंटा हुआ था। एक तरफ प्रभावशाली जूट प्रेस था जिसके मालिक बड़े-बड़े उद्योगपति थे और दूसरी तरफ स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि से अंकुरित और विकसित वे अखबार थे जो प्रादेशिक केन्द्रों से निकल रहे थे तथा देश के नवनिर्माण में भूमिका निभाने के लिए तत्पर थे। अब तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। टेक्नालॉजी के विकास और पूंजी निवेश की आवश्यकता के चलते प्रेस का बड़ा हिस्सा अब कारपोरेट घरानों के नियंत्रण में है।
यहां बात सिर्फ प्रिंट मीडिया की नहीं है। रेडियो की बात करें तो फिलहाल समाचार प्रसारण का अधिकार सिर्फ आकाशवाणी के पास है, लेकिन एफएम रेडियो का निरंतर विस्तार हो रहा है एवं उसे भी समाचार प्रसारण का अधिकार शायद जल्दी ही मिल जाएगा। सामुदायिक रेडियो पर भी शायद समाचार आगे-पीछे आने लगे हैं। टेलीविजन को देखें तो वहां समाचारों पर दूरदर्शन का एकाधिकार नहीं है। देश में इस समय कोई एक हजार के आसपास चैनल चल रहे हैं जिनमें से दो सौ से अधिक समाचार चैनल हैं। इनके बाद सोशल मीडिया तो है ही जिस पर नियंत्रण लगाना शायद किसी भी सरकार में संभव नहीं है। छुटपुट कार्रवाईयां भले ही होती हों। कुल मिलाकर स्वायत्ततावादी जो चाहते थे वह हो चुका है, याने समाचार के स्रोत व माध्यम दोनों सरकारी नियंत्रण से लगभग बाहर हैं।
यह एक ठोस सच्चाई है। इसे जानने के बाद सूचना प्रसारण मंत्रालय के बने रहने से इन स्वायत्ततावादी बुद्धिजीवियों को क्यों तकलीफ होना चाहिए? मुझे लगता है कि उनकी जो अनुदारवादी सोच है वह यहां काम कर रही है। सरकार कुछ भी न करे और सब कुछ कारपोरेट क्षेत्र के भरोसे छोड़ दे, इनकी यही मंशा हमें नज़र आती है। इसे रक्षा उत्पादन में सौ प्रतिशत एफडीआई, रेलवे के निजीकरण, वाजपेयी सरकार में अरुण शौरी के मार्गदर्शन में हुए विनिवेश- इन सबसे मिलाकर देखें तो तस्वीर कुछ स्पष्ट हो जाएगी। हमारा कहना है कि शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों से सरकार ने जैसे धीरे-धीरे कर अपना पल्ला झाड़ा है उससे समग्र रूप में देश को नुकसान हो रहा है। उसी तरह सूचना प्रसारण मंत्रालय समाप्त करने से अंतत: जनतांत्रिक सरकार को नुकसान ही होगा।
पिछले तीन सालों में देश के कारपोरेट मीडिया ने कांग्रेस विरोध का कोई मौका नहीं छोड़ा। उसने वामपंथ और समाजवादियों की पूरी तरह अवहेलना ही की तथा भारतीय जनता पार्टी विशेषकर नरेन्द्र मोदी के सपने को साकार करने में भरपूर योगदान किया। इससे वर्तमान सरकार को लग सकता है कि जब मीडिया पूरी तरह से उसके साथ है तो फिर मंत्रालय को खत्म कर देने में क्या हर्ज है! किंतु अगर सरकार ऐसा करती है तो वह अपने हाथ काटने जैसा ही काम करेगी। उसे यह समझना होगा कि कारपोरेट मीडिया वही करेगा जो उसके मालिक चाहेंगे। ऐसी स्थिति आ सकती है जब चुनी हुई सरकार और कारपोरेट घरानों के बीच टकराव पैदा हो। एक जनतांत्रिक सरकार पूंजीपतियों की गुलाम बनकर तो नहीं रह सकती। ऐसी स्थिति में सरकार के पास अपनी बात कहने के लिए कौन सा मंच होगा?
हम इस प्रश्न पर किसी पार्टी के आईने से नहीं, बल्कि व्यापक दृष्टिकोण से देखने की कोशिश कर रहे हैं। यह हमें पता है कि अनेक विकासशील देशों में सरकारी रेडियो ने साक्षरता व शिक्षा के प्रसार में महती भूमिका निभाई है। प्रोफेसर यशपाल के नेतृत्व में ''साइट" प्रोग्राम के अंतर्गत दूरदर्शन का उपयोग लोक शिक्षण के लिए प्रारंभ किया गया था जिसका सबसे पहला लाभ गुजरात में अमूल के दुग्ध उत्पादक किसानों को मिला। आज भी आकाशवाणी और दूरदर्शन ही हैं जिनमें देश की आवश्यकता के अनुसार लोकहित के प्रश्नों पर चर्चाएं होती हैं, वार्ताएं होती हैं, विज्ञापन दिखाए जाते हैं। एक तरफ व्यवसायिक टीवी पर डांस इंडिया डांस जैसे फूहड़ कार्यक्रमों की बौछार है; दूसरी तरफ दूरदर्शन में शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, लोककलाओं की छटाएं, पुस्तक चर्चा, स्वास्थ्य चर्चा। कमोबेश लोकसभा व राज्यसभा टीवी का एजेंडा भी यही है। इसके आधार पर हमारी अपेक्षा यही होगी कि सरकार आर्थिक अनुदारपंथी कथित स्वायत्ततावादियों के झांसे में न आए।
No comments:
Post a Comment