नई सदी के इन चौदह सालों में हमने अपने
बहुत से वरेण्य साहित्यकारों की जन्मशतियां मनायी हैं तथा कवि गुरु
रविन्द्रनाथ ठाकुर की सार्द्धशती भी। मुझे ध्यान आता है कि 1999 में रूसी
महाकवि अलेक्सांद्र पुश्किन की दो सौंवी जयंती मनायी गयी थी, उसके कुछ ही
साल बाद जूल वर्न की तथा इसी के आसपास महान स्पेनी लेखक सर्वांतीस की चार
सौवीं जयंती। इस साल एक बड़ा मौका है जब सारी दुनिया महान लेखक विलियम
शेक्सपियर की चार सौ पचासवीं जयंती मना रही है। यूं 450वीं जयंती सुनना
अटपटा लग सकता है, लेकिन हम जैसे लोगों के लिए जो 500वीं जयंती तक नहीं
रहेंगे यह एक समयोचित अवसर है। विश्व की तमाम भाषाओं में शेक्सपियर से महान
कोई दूसरा लेखक हुआ है या नहीं, इस पर बहस की गुंजाइश हो सकती है, किन्तु
उसमें उलझने की कोई तुक नहीं है। शेक्सपियर ने जो लिखा वह लिखे जाने के चार
सौ साल बाद भी उतना ही प्रासंगिक है उतनी ही रुचि से पढ़ा जाता है, उतनी
ही गंभीरता से उस पर शोध और चर्चाएं होती हैं, उनके नाटकों का बार-बार
नए-नए रूप में मंचन होता है, विश्व की कोई भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें इन
रचनाओं के अनुवाद न हुए हों, इतना जानना ही हमारे लिए काफी है। क्लासिक की
परिभाषा भला और क्या है?
यूं तो रामायण और महाभारत, इलियड और ओडेसी जैसे महान ग्रंथ ढाई-तीन हजार साल पहले याने शेक्सपियर के बहुत पहले लिखे गए थे तथा उनकी समयसिद्धता आज भी बनी हुई है, किन्तु शेक्सपियर के साहित्य में सामाजिक जीवन की गहरी पड़ताल, मानवीय मनोभावों का सूक्ष्म विश्लेषण, कल्पना के अनेकानेक रंग और कलम की जो छटाएं हैं, वे अद्भुत और अनुपम हैं। हम इस बात पर गौर कर सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास शेक्सपियर के लगभग समकालीन थे तथा रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है, जो क्लासिक रचना की तमाम कसौटियों पर खरा उतरता है, लेकिन यहां भी किसी तरह की तुलना करने की आवश्यकता नहीं है। तुलसी के मानस की भावभूमि अलग थी एवं कालांतर में उसे एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के बजाय धर्मग्रंथ की श्रेणी में जिस तरह से बांध दिया गया उसके चलते मानस का जो विस्तार-प्रसार वांछनीय था उसमें कहीं न कहीं कमी रह गयी, ऐसा मुझे अनुभव होता है।
मैंने पहले भी लिखा है कि एक बार परसाई जी ने मुझसे कहा था कि अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में क्रमश: शेक्सपियर, तुलसीदास और मिर्जा गालिब ये तीनों महान लेखक हैं, क्योंकि इनकी रचनाओं में जैसा जीवन विवेक है वैसा अन्यत्र नहीं है। परसाई जी की यह बात मुझे समय-समय पर याद आ जाती है। आज जबकि दुनिया बहुत बदल चुकी है, फिर भी ऐसे मौके बारंबार हमारे सामने आते हैं जब इन तीनों लेखकों की कोई न कोई उक्ति सहसा मानस पटल पर कौंध जाती है कि अरे, ऐसा तो उन्होंने कहा था। मसलन जब बाजारवाद की बात चलती है जो कि आजकल अक्सर होती है, तो गालिब का शेर याद आ ही जाता है- ''बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूं" इसी तरह कभी तुलसी, तो कभी शेक्सपियर हमारी विचारयात्रा में साथ आ जाते हैं बल्कि यह कहना सही होगा कि वे हरदम हमारे संग चलते हैं।
क्लासिक साहित्य में सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करता है और हर युग में हर पीढ़ी के पाठक के साथ उसका एक अटूट रिश्ता बना रहता है। शेक्सपियर ने कोई तीन दर्जन नाटक लिखे और डेढ़ सौ से ज्यादा सॉनेट। उनमें से कुछ रचनाएं ऐसी हैं जिनका जिक्र ज्यादा नहीं होता, लेकिन अधिकतर रचनाएं तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे साथ बनी हुई हैं। इन्हें हम विश्व समाज की सांस्कृतिक धरोहर का नाम दे सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि इन रचनाओं में वैश्विक संस्कृति के जीन विद्यमान हैं, जिनका क्षरण कभी नहीं होगा। अगर ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि आज के मनुष्य के पास जो सांस्कृतिक वैभव है, उसमें शेक्सपियर की रचनाओं का महती योगदान है।
मैं यह बात इस आधार पर कर रहा हूं कि शेक्सपियर ने भले ही अपनी मातृभाषा याने अंग्रेजी में लिखा हो, लेकिन दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है जहां उनकी रचनाएं न पढ़ी जाती हों। अन्य भाषाओं में भी जो बड़े लेखक परवर्ती काल में हुए हैं उन्होंने भी शेक्सपियर को पढ़ा तथा उनसे प्रभावित हुए। शेक्सपियर का एक नाटक है ''मिडसमर नाइट्स ड्रीम। इसका छत्तीसगढ़ी रूपांतर हबीब तनवीर ने ''कामदेव का अपना बसंत ऋतु का आगमन" शीर्षक से किया तथा छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों में इसका मंचन हुआ। यदि एक नाटक छत्तीसगढ़ तक उसकी जनपदीय भाषा में पहुंचा तो कल्पना की जा सकती है कि अन्यान्य देशों-प्रदेशों में भी शेक्सपियर किसी न किसी रूप में पहुंचे ही होंगे।
शेक्सपियर की रचनाओं को जो लोकप्रियता मिली उसका एक बड़ा और स्पष्ट कारण यह भी है कि उन्होंने नाटक लिखे और वे भी उस देश में जहां रंगमंच की पुष्ट परंपरा पहले से चली आ रही थी। हम जानते हैं कि तुलसीदास के रामचरित मानस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक नए रंगमंच याने रामलीला का आविष्कार करने की आवश्यकता आन पड़ी थी। शेक्सपियर के सामने शायद इस तरह की कोई समस्या नहीं थी। उनके समय में इंग्लैंड में छपाई मशीन भी आ चुकी थी व किताबें छपने लगी थीं। इसका भी लाभ उन्हें मिला होगा। इसी सिलसिले में एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि शेक्सपियर स्वयं अभिनय भी करते थे। इसके बावजूद यह मानना ही होगा कि नाटक तो उनके बाद भी बहुतों ने लिखे, किंतु शेक्सपियर को जो जनमान्यता मिली वह उनकी लेखनी की आंतरिक शक्ति के कारण।
मुझे यह तथ्य भी रेखांकित करना चाहिए कि इंग्लैंड में अध्ययन- मनन की जो गंभीर परिपाटी है वह भी शेक्सपियर के साहित्य को मान्यता मिलने में सहायक सिद्ध हुई होगी। आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे लगभग एक हजार साल पुराने विश्वविद्यालय तो वहां हैं ही, जहां साहित्य हो या अन्य कोई विषय उनका शोध व अध्ययन हमारे विश्वविद्यालय की तरह चलताऊ तरीके से नहीं किया जाता। इनके अलावा वहां शेक्सपियर सोसायटी जैसी संस्थाएं भी हैं जो इस महान लेखक की रचनाओं पर विधिवत अध्ययन करती हैं। शेक्सपियर के साहित्य पर केंद्रित पत्रिकाएं भी वहां प्रकाशित होती हैं। मुझे धुंधली सी याद है कि सन् 1961-62 में जबलपुर के मेरे कॉलेज में 'शेक्सपियर जर्नल" या ऐसी ही नाम वाली कोई त्रैमासिक पत्रिका आया करती थी। जब इस तरह से कोई परंपरा बनती है तो उसका लाभ निश्चित रूप से मिलना ही है। यद्यपि विषयांतर हो जाएगा, फिर भी हमारे लिए विचारणीय है कि भारत में जो मानस भवन, तुलसी शोधपीठ, तुलसीदल जैसी पत्रिकाएं आदि सरंजाम हुए उनकी परिणिति किस रूप में सामने आयी !
मैं जब शेक्सपियर के रचे विपुल साहित्य को देखता हूं तो उनके नाटकों की कथावस्तु से अधिक जो बात मुझे प्रभावित करती है वह है उनके पात्रों के द्वारा बोले गए संवाद, जो समय बीतने के साथ-साथ मुहावरों में बदलते चले गए हैं। इन मुहावरों में जिस तरह से जीवन सत्य उद्घाटित हुए हैं वह विस्मयकारी है। लेखकों और पत्रकारों ने तो इन मुहावरों का इस्तेमाल बेधड़क किया ही है, प्रबुद्ध समाज में पत्राचार या वार्तालाप में भी ये मुहावरे बार-बार काम आते हैं। अंग्रेजी में ही नहीं, अनेकानेक मुहावरे हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में भी खूब प्रचलित हो चुके हैं। मिसाल के तौर पर ''प्यार अंधा होता है" यह शेक्सपियर का ही संवाद है। ''नाम में क्या रखा है, गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो वह गुलाब ही रहेगा" यह भी शेक्सपियर ने ही कहा था। ''हर चीज जो चमकती है सोना नहीं होती", ''जो सिर मुकुट धारण करता है उसे चैन नसीब नहीं है" जैसे मुहावरे भी शेक्सपियर के नाटकों से ही हमें मिले।
उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है- ''महानता से डरने की जरूरत नहीं है, कुछ लोग जन्मना महान होते हैं, कुछ महानता हासिल करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है"- कितनी सटीक और खरी है यह टिप्पणी। अभी 16 वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान इसका प्रयोग व्यक्ति विशेष के संदर्भ में किया गया। शेक्सपियर ने ही कहा था कि- ''कायर मौत आने के पहले कई बार मरते हैं, लेकिन वीर मृत्यु का वरण एक बार ही करते हैं"। इसी से मिलता जुलता एक और मुहावरा है- कि एक मनुष्य एक बार ही मरता है। आप सहमत होंगे कि इन छोटे-छोटे वाक्यों में किस तरह से कूट-कूटकर अर्थ भरे हैं। कुछ और मुहावरों का आस्वाद हम ले सकते हैं जैसे- ''यह विश्व एक रंगमंच है तथा सारे स्त्री एवं पुरुष महज अभिनेता हैं।" इसे पढ़कर जयशंकर प्रसाद के स्कंदगुप्त का संवाद ध्यान आ जाता है- ''हम सब नियति नटी के हाथों में खेल रहे कंदुक की भांति हैं।" खैर, शेक्सपियर ने ही कहा था- ''ऐसा नहीं कि मैं सीज़र को कम प्यार करता था, किन्तु मैं रोम को ज्यादा प्यार करता हूं।" जूलियस सीज़र का यह संवाद राजनीतिक धरातल पर कितना सटीक बैठता है, कहने की आवश्यकता नहीं। इसी नाटक में मित्र द्वारा किए गए विश्वासघात पर दो शब्दों का यह अमर संवाद भी है- ''ब्रूटस तुम भी"- इसे सुनकर भला विभीषण की याद क्यों न आए।
मैं जब इन उक्तियों को याद करता हूं तो समझ में आता है कि क्लासिक साहित्य का अध्ययन अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए कितना आवश्यक है। मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं जो, कभी डेल कार्नेगी और स्वेट मार्टेन की किताबें पढ़ते हैं, कभी शिव खेड़ा जैसे कथित गुरुओं के व्याख्यान सुनने जाते हैं, कभी चेतन भगत के दोयम दर्जे के उपन्यासों में सिर गड़ाते हैं तो कभी अखबारों में छपे अमर वचनों की कतरनें सहेज कर रखते हैं। इन सबको पढऩे से कुछ नहीं होना जाना। आज शेक्सपियर पर बात चली है तो कहूंगा कि उनकी किताबें पढि़ए, लेकिन उनके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और दीगर भाषाओं में जो क्लासिक साहित्य रचा गया है उसका साक्षात्कार कीजिए। एक जो पुरानी कहावत है कि ''पुस्तकें मनुष्य की सच्ची दोस्त हैं" वह इन महान कृतियों पर ही लागू होती है, फुटपाथी साहित्य पर नहीं।
प्रिय पाठक मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अगर थोड़ा वक्त निकाल सकें तो निकालिए। शेक्सपियर की रचनाएं हिन्दी में भी उपलब्ध हैं। बच्चन जी जैसे बड़े लेखकों ने उनके अनुवाद किए हैं। आप जितना संभव हो उतना पढि़ए। इन रचनाओं का आनंद लीजिए और अपने जीवन को थोड़ा और सुंदर बनाइए।
यूं तो रामायण और महाभारत, इलियड और ओडेसी जैसे महान ग्रंथ ढाई-तीन हजार साल पहले याने शेक्सपियर के बहुत पहले लिखे गए थे तथा उनकी समयसिद्धता आज भी बनी हुई है, किन्तु शेक्सपियर के साहित्य में सामाजिक जीवन की गहरी पड़ताल, मानवीय मनोभावों का सूक्ष्म विश्लेषण, कल्पना के अनेकानेक रंग और कलम की जो छटाएं हैं, वे अद्भुत और अनुपम हैं। हम इस बात पर गौर कर सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास शेक्सपियर के लगभग समकालीन थे तथा रामचरित मानस एक ऐसा ग्रंथ है, जो क्लासिक रचना की तमाम कसौटियों पर खरा उतरता है, लेकिन यहां भी किसी तरह की तुलना करने की आवश्यकता नहीं है। तुलसी के मानस की भावभूमि अलग थी एवं कालांतर में उसे एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति के बजाय धर्मग्रंथ की श्रेणी में जिस तरह से बांध दिया गया उसके चलते मानस का जो विस्तार-प्रसार वांछनीय था उसमें कहीं न कहीं कमी रह गयी, ऐसा मुझे अनुभव होता है।
मैंने पहले भी लिखा है कि एक बार परसाई जी ने मुझसे कहा था कि अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में क्रमश: शेक्सपियर, तुलसीदास और मिर्जा गालिब ये तीनों महान लेखक हैं, क्योंकि इनकी रचनाओं में जैसा जीवन विवेक है वैसा अन्यत्र नहीं है। परसाई जी की यह बात मुझे समय-समय पर याद आ जाती है। आज जबकि दुनिया बहुत बदल चुकी है, फिर भी ऐसे मौके बारंबार हमारे सामने आते हैं जब इन तीनों लेखकों की कोई न कोई उक्ति सहसा मानस पटल पर कौंध जाती है कि अरे, ऐसा तो उन्होंने कहा था। मसलन जब बाजारवाद की बात चलती है जो कि आजकल अक्सर होती है, तो गालिब का शेर याद आ ही जाता है- ''बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूं" इसी तरह कभी तुलसी, तो कभी शेक्सपियर हमारी विचारयात्रा में साथ आ जाते हैं बल्कि यह कहना सही होगा कि वे हरदम हमारे संग चलते हैं।
क्लासिक साहित्य में सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करता है और हर युग में हर पीढ़ी के पाठक के साथ उसका एक अटूट रिश्ता बना रहता है। शेक्सपियर ने कोई तीन दर्जन नाटक लिखे और डेढ़ सौ से ज्यादा सॉनेट। उनमें से कुछ रचनाएं ऐसी हैं जिनका जिक्र ज्यादा नहीं होता, लेकिन अधिकतर रचनाएं तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे साथ बनी हुई हैं। इन्हें हम विश्व समाज की सांस्कृतिक धरोहर का नाम दे सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि इन रचनाओं में वैश्विक संस्कृति के जीन विद्यमान हैं, जिनका क्षरण कभी नहीं होगा। अगर ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि आज के मनुष्य के पास जो सांस्कृतिक वैभव है, उसमें शेक्सपियर की रचनाओं का महती योगदान है।
मैं यह बात इस आधार पर कर रहा हूं कि शेक्सपियर ने भले ही अपनी मातृभाषा याने अंग्रेजी में लिखा हो, लेकिन दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है जहां उनकी रचनाएं न पढ़ी जाती हों। अन्य भाषाओं में भी जो बड़े लेखक परवर्ती काल में हुए हैं उन्होंने भी शेक्सपियर को पढ़ा तथा उनसे प्रभावित हुए। शेक्सपियर का एक नाटक है ''मिडसमर नाइट्स ड्रीम। इसका छत्तीसगढ़ी रूपांतर हबीब तनवीर ने ''कामदेव का अपना बसंत ऋतु का आगमन" शीर्षक से किया तथा छत्तीसगढ़ के विभिन्न शहरों में इसका मंचन हुआ। यदि एक नाटक छत्तीसगढ़ तक उसकी जनपदीय भाषा में पहुंचा तो कल्पना की जा सकती है कि अन्यान्य देशों-प्रदेशों में भी शेक्सपियर किसी न किसी रूप में पहुंचे ही होंगे।
शेक्सपियर की रचनाओं को जो लोकप्रियता मिली उसका एक बड़ा और स्पष्ट कारण यह भी है कि उन्होंने नाटक लिखे और वे भी उस देश में जहां रंगमंच की पुष्ट परंपरा पहले से चली आ रही थी। हम जानते हैं कि तुलसीदास के रामचरित मानस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक नए रंगमंच याने रामलीला का आविष्कार करने की आवश्यकता आन पड़ी थी। शेक्सपियर के सामने शायद इस तरह की कोई समस्या नहीं थी। उनके समय में इंग्लैंड में छपाई मशीन भी आ चुकी थी व किताबें छपने लगी थीं। इसका भी लाभ उन्हें मिला होगा। इसी सिलसिले में एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि शेक्सपियर स्वयं अभिनय भी करते थे। इसके बावजूद यह मानना ही होगा कि नाटक तो उनके बाद भी बहुतों ने लिखे, किंतु शेक्सपियर को जो जनमान्यता मिली वह उनकी लेखनी की आंतरिक शक्ति के कारण।
मुझे यह तथ्य भी रेखांकित करना चाहिए कि इंग्लैंड में अध्ययन- मनन की जो गंभीर परिपाटी है वह भी शेक्सपियर के साहित्य को मान्यता मिलने में सहायक सिद्ध हुई होगी। आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे लगभग एक हजार साल पुराने विश्वविद्यालय तो वहां हैं ही, जहां साहित्य हो या अन्य कोई विषय उनका शोध व अध्ययन हमारे विश्वविद्यालय की तरह चलताऊ तरीके से नहीं किया जाता। इनके अलावा वहां शेक्सपियर सोसायटी जैसी संस्थाएं भी हैं जो इस महान लेखक की रचनाओं पर विधिवत अध्ययन करती हैं। शेक्सपियर के साहित्य पर केंद्रित पत्रिकाएं भी वहां प्रकाशित होती हैं। मुझे धुंधली सी याद है कि सन् 1961-62 में जबलपुर के मेरे कॉलेज में 'शेक्सपियर जर्नल" या ऐसी ही नाम वाली कोई त्रैमासिक पत्रिका आया करती थी। जब इस तरह से कोई परंपरा बनती है तो उसका लाभ निश्चित रूप से मिलना ही है। यद्यपि विषयांतर हो जाएगा, फिर भी हमारे लिए विचारणीय है कि भारत में जो मानस भवन, तुलसी शोधपीठ, तुलसीदल जैसी पत्रिकाएं आदि सरंजाम हुए उनकी परिणिति किस रूप में सामने आयी !
मैं जब शेक्सपियर के रचे विपुल साहित्य को देखता हूं तो उनके नाटकों की कथावस्तु से अधिक जो बात मुझे प्रभावित करती है वह है उनके पात्रों के द्वारा बोले गए संवाद, जो समय बीतने के साथ-साथ मुहावरों में बदलते चले गए हैं। इन मुहावरों में जिस तरह से जीवन सत्य उद्घाटित हुए हैं वह विस्मयकारी है। लेखकों और पत्रकारों ने तो इन मुहावरों का इस्तेमाल बेधड़क किया ही है, प्रबुद्ध समाज में पत्राचार या वार्तालाप में भी ये मुहावरे बार-बार काम आते हैं। अंग्रेजी में ही नहीं, अनेकानेक मुहावरे हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में भी खूब प्रचलित हो चुके हैं। मिसाल के तौर पर ''प्यार अंधा होता है" यह शेक्सपियर का ही संवाद है। ''नाम में क्या रखा है, गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो वह गुलाब ही रहेगा" यह भी शेक्सपियर ने ही कहा था। ''हर चीज जो चमकती है सोना नहीं होती", ''जो सिर मुकुट धारण करता है उसे चैन नसीब नहीं है" जैसे मुहावरे भी शेक्सपियर के नाटकों से ही हमें मिले।
उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है- ''महानता से डरने की जरूरत नहीं है, कुछ लोग जन्मना महान होते हैं, कुछ महानता हासिल करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है"- कितनी सटीक और खरी है यह टिप्पणी। अभी 16 वीं लोकसभा के चुनावों के दौरान इसका प्रयोग व्यक्ति विशेष के संदर्भ में किया गया। शेक्सपियर ने ही कहा था कि- ''कायर मौत आने के पहले कई बार मरते हैं, लेकिन वीर मृत्यु का वरण एक बार ही करते हैं"। इसी से मिलता जुलता एक और मुहावरा है- कि एक मनुष्य एक बार ही मरता है। आप सहमत होंगे कि इन छोटे-छोटे वाक्यों में किस तरह से कूट-कूटकर अर्थ भरे हैं। कुछ और मुहावरों का आस्वाद हम ले सकते हैं जैसे- ''यह विश्व एक रंगमंच है तथा सारे स्त्री एवं पुरुष महज अभिनेता हैं।" इसे पढ़कर जयशंकर प्रसाद के स्कंदगुप्त का संवाद ध्यान आ जाता है- ''हम सब नियति नटी के हाथों में खेल रहे कंदुक की भांति हैं।" खैर, शेक्सपियर ने ही कहा था- ''ऐसा नहीं कि मैं सीज़र को कम प्यार करता था, किन्तु मैं रोम को ज्यादा प्यार करता हूं।" जूलियस सीज़र का यह संवाद राजनीतिक धरातल पर कितना सटीक बैठता है, कहने की आवश्यकता नहीं। इसी नाटक में मित्र द्वारा किए गए विश्वासघात पर दो शब्दों का यह अमर संवाद भी है- ''ब्रूटस तुम भी"- इसे सुनकर भला विभीषण की याद क्यों न आए।
मैं जब इन उक्तियों को याद करता हूं तो समझ में आता है कि क्लासिक साहित्य का अध्ययन अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए कितना आवश्यक है। मैं उन लोगों के बारे में सोचता हूं जो, कभी डेल कार्नेगी और स्वेट मार्टेन की किताबें पढ़ते हैं, कभी शिव खेड़ा जैसे कथित गुरुओं के व्याख्यान सुनने जाते हैं, कभी चेतन भगत के दोयम दर्जे के उपन्यासों में सिर गड़ाते हैं तो कभी अखबारों में छपे अमर वचनों की कतरनें सहेज कर रखते हैं। इन सबको पढऩे से कुछ नहीं होना जाना। आज शेक्सपियर पर बात चली है तो कहूंगा कि उनकी किताबें पढि़ए, लेकिन उनके अलावा अंग्रेजी, हिन्दी और दीगर भाषाओं में जो क्लासिक साहित्य रचा गया है उसका साक्षात्कार कीजिए। एक जो पुरानी कहावत है कि ''पुस्तकें मनुष्य की सच्ची दोस्त हैं" वह इन महान कृतियों पर ही लागू होती है, फुटपाथी साहित्य पर नहीं।
प्रिय पाठक मेरा आपसे अनुरोध है कि आप अगर थोड़ा वक्त निकाल सकें तो निकालिए। शेक्सपियर की रचनाएं हिन्दी में भी उपलब्ध हैं। बच्चन जी जैसे बड़े लेखकों ने उनके अनुवाद किए हैं। आप जितना संभव हो उतना पढि़ए। इन रचनाओं का आनंद लीजिए और अपने जीवन को थोड़ा और सुंदर बनाइए।
अक्षर पर्व जून 2014 में प्रकाशित
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