आई बी याने इंटेलिजेंस ब्यूरो और आई
बी याने मिनिस्ट्री ऑफ इंफर्मेशन एण्ड ब्राडकॉस्टिंग अर्थात् सूचना एवं
प्रसारण मंत्रालय। इन दोनों के बीच कोई आपसी संबंध नहीं है, लेकिन बीते
सप्ताह भारत सरकार के ये दोनों अभिकरण अलग-अलग कारणों से चर्चा में आए
इसलिए इनकी चर्चा करना गैरमुनासिब न होगा। कुछ दिन पहले आई बी याने भारत के
गुप्तचर ब्यूरो की रिपोर्ट प्रकाश में आई। इसमें भारत में काम करने वाले
अनेक स्वैच्छिक अथवा गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर आरोप लगाए गए कि वे
आर्थिक मोर्चे पर देशविरोधी काम कर रहे हैं और इसके पीछे विदेशों से मिली
इमदाद का हाथ है। इसमें इन संस्थाओं पर मलेशिया आदि से आयातित पॉम ऑयल पर
रोक लगाने की मांग, परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का विरोध, बड़े बांधों का
विरोध- ऐसे बहुत से कारण गिनाए गए हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आई बी की
यह रिपोर्ट अधिकारिक तौर पर जारी न होकर लीक की गई है। फिलहाल इस मामले में
आई बी चुप है लेकिन एनजीओ और मोदी सरकार के घोषित-अघोषित प्रवक्ताओं के
बीच वाक्युद्ध चल रहा है।
भारत में विदेशी सहायता से संचालित हो रहे एनजीओ की गतिविधियों पर पहले भी प्रश्न उठते रहे हैं। इनमें विदेशी संगठन भी हैं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भारत में चल रही शाखाएं भी। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था जो कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करती है उस पर इंदिरा गांधी के समय में भी आरोप लगते थे। अभी भी इन्टरनेशनल रेडक्रॉस व मेडिकल सान्स फ्रंटियर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों पर सरकारी हल्कों में शंकाएं उठाई जाती हैं। इस बारे में एक सीधा सवाल यह उठता है कि भारत या किसी भी देश में सामाजिक कार्य करने के लिए विदेशी संस्था अथवा विदेशी सहायता की आवश्यकता ही क्या है। जिन देशों से आर्थिक सहायता आती है वहां भी हाल के वर्षों में यह पूछा जाने लगा है कि भारत तो अब विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है उसे दी जाने वाली सहायता बंद क्यों न की जाए? यूं यह एक पेचीदा मुद्दा है तथा इससे अनेक सैद्धांतिक बिन्दु जुड़े हैं, लेकिन उपरोक्त सवाल का एक जवाब तो भारत में कार्यरत एनजीओ ही देते हैं। उनका कहना है कि जब विदेशों से धार्मिक प्रयोजनों व व्यापारिक कारणों से धन आ सकता है तो सामाजिक कार्यों के लिए क्यों नहीं? वे प्रश्न उठाते हैं कि वल्र्ड बैंक, एडीबी, आईएमएफ जैसे संगठन राष्ट्रों को सहायता देते समय तमाम शर्तें लादते हैं और उनको स्वीकार किया जाता है तो समाजसेवा अथवा सामाजिक आंदोलनों के लिए समान विचारों के विदेशी मित्रों से छोटी-मोटी धनराशि प्राप्त होती है तो उसका विरोध क्यों? वे जोर देकर यह भी कहते हैं कि विदेशों से सहायता मिलना सीधे-सीधे नहीं हो जाता। इसके लिए एफसीआरए जैसे कानून हैं तथा गृह मंत्रालय की अनुमति, छानबीन व निगरानी के बाद ही कोई संस्था विदेशों से सहायता स्वीकार कर सकती है। ऐसे में कोई देशविरोधी कार्य करने की आशंका हो ही नहीं सकती।
आईबी से यह रिपोर्ट क्यों लीक हुई इसे लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। ऐसा बहुत लोगों का सोचना है कि मोदी सरकार आने के बाद जो कारपोरेट घराने ताकतवर हो गए हैं वे अब अपना विरोध करने वालों पर इस बहाने निशाना साध रहे हैं। जैसे एक घराना है जो कई सालों से पॉम ऑयल का आयात कर रहा है। एनजीओ पर्यावरण संबंधी कारणों से उसका विरोध करते आए हैं। अब पर्यावरण कोई भारत अकेले का मुद्दा तो नहीं है। इस पर जो भी आंदोलन होगा उसका वैश्विक स्तर पर होना स्वाभाविक है। इसी तरह के और भी बहुत से मुद्दे हैं जहां सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराना एक-दूसरे से मुठभेड़ें कर चुके हैं। इस पूरे संदर्भ में मुझे एक प्रसंग ध्यान आता है- आज सीएनडीपी नामक जनांदोलन पर परमाणु संयंत्रों के विरोध का आरोप लग रहा है। उसके द्वारा संचालित मुहिम में स्वयं वी.के. सिंह शिरकत कर चुके हैं जो आज इस सरकार में मंत्री हैं। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में जनरल सिंह के पक्ष में जनहित याचिका दायर करने वाले एडमिरल एल. रामदास एक सम्मानित सेनाधिकारी रहे हैं और संयोग है कि उनकी पत्नी ललिता रामदास ग्रीनपीस की अध्यक्ष थीं। यह जानना दिलचस्प होगा कि जनरल सिंह इस बारे में क्या कहते हैं!
एक आई बी की चर्चा हम यहां स्थगित करते हैं। इस पर आगे फिर कभी दुबारा बातचीत का मौका आएगा। दूसरे आई बी याने सूचना व प्रसारण मंत्रालय की बात कुछ देर कर लें। इस विभाग के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले दिनों कहा कि सरकार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय जैसे विभाग की कोई आवश्यकता नहीं है और वे इसे समेट लेने पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि सद्य:निवृत्त और नवनियुक्त विभागीय मंत्री दोनों की सोच इस बारे में एक जैसी है। पाठकों को शायद याद हो कि चुनाव से मुंह मोडऩे वाले कांग्रेस के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने चुनाव अभियान के बीच यह कहा था कि इस विभाग की अब कोई उपादेयता नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। सबसे पहले तो हमें इसी पर आश्चर्य है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों की इस मुद्दे पर एक समान राय क्यों है? फिर सरकार में ऐसे बहुत विभाग हैं जिनके बिना शायद काम चल सकता है किन्तु मंत्रीद्वय की ऐसी कृपा सूचना प्रसारण मंत्रालय पर ही क्यों है? मजे की बात है कि दोनों ने इसके कारणों का कोई खुलासा अब तक नहीं किया है।
विश्व के अन्य जनतांत्रिक देशों में सूचना प्रसारण के लिए अलग से कोई मंत्रालय है या नहीं इसकी जानकारी हासिल करने की कोई कोशिश हमने नहीं की है लेकिन इतना तो तय है कि कोई भी सरकार हो उसे अपने कामकाज के बारे में जनता को अवगत कराने के लिए एक तंत्र तो विकसित करना ही होता है। अमेरिका में जहां राष्ट्रपति शासन प्रणाली है वहां व्हाइट हाउस का प्रेस अधिकारी दिन में कम से कम एक बार तो मीडिया से बात करता ही है। जो भी हो, अन्य देशों से भारत की तुलना नहीं करना चाहिए। हमारी परिस्थितियां भिन्न हैं और परंपराएं अलग ढंग से विकसित हुई हैं। मैं तो व्यक्तिगत तौर पर प्रसार भारती जैसे किसी स्वायत्त संस्था के भी खिलाफ हूं। एक तरफ जब सूचना के उपकरणों पर पूंजी का शिकंजा मजबूत होते जा रहा है तब सरकार को अपनी बात कहना है तो उसके लिए मंच कहां है? आज यदि आकाशवाणी और दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन न हों तो हमें पता भी न चले कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार चैनलों की झूठी और नकली बहसों में ही पूरा समय बीत जाए।
इससे एक अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस हो या भाजपा, राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी देश के सूचनातंत्र पर कारपोरेट को कब्जा करने के लिए मैदान खुला छोड़ देना चाहती हैै। अगर मुझे सही याद है तो श्री जावड़ेकर ने सोशल मीडिया का अधिकतम लाभ उठाने की बात कही है। हमारा कहना है कि सोशल मीडिया फिलहाल एक संदिग्ध माध्यम है और उस पर पूरी तरह आश्रित होना देश के लिए नुकसानदायक हो सकता है। इस पर कितना फर्जीवाड़ा हुआ है उसके उदाहरण हमारे सामने है। इसके चलते लोगों के व्यक्तिगत जीवन नष्ट हो गए हैं यह भी सबको पता है। बात यह है कि सोशल मीडिया में जिम्मेदारी तय करना एक कठिन काम है। खैर! यह तो तस्वीर का एक पहलू है। सूचना प्रसारण मंत्रालय के जिम्मे बहुत सारे काम हैं, जिनमें आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचारपत्रों के पंजीयक, डीएवीपी, फिल्म निदेशालय आदि कितने ही उपक्रम शामिल हैं। इन सबके जो अपने-अपने काम है उनमें से हरेक महत्वपूर्ण हैं। हमारे भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों से सम्बद्ध होते हैं और अपने-अपने विभाग की नीतियों व कार्यक्रमों के बारे में जनता तक सूचनाएं पहुंचाते हैं। कल अगर पत्र सूचना कार्यालय न रहे तो यह काम कौन करेगा? सरकार द्वारा लोकहित में जो योजनाएं बनाई जाती हैं उनका प्रचार-प्रसार डीएवीपी के जिम्मे होता है। बात चाहे उपभोक्ताओं को जगाने की हो, चाहे आयकरदाताओं को चेताने की, चाहे लड़कियों की शिक्षा की या फिर शौचालयों की जरूरतों की या उन्नत बीज अथवा फसल बीमा की, कल इन अभियानों का क्या होगा?
श्री जावड़ेकर से हम अनुरोध करेंगे कि वे जल्दबाजी में कोई निर्णय न लें। इस विषय से जुड़े सारे पहलुओं का अध्ययन कर लें और ऐसी स्थिति न आने दें जिसमें चुनी हुई सरकार को अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए कारपोरेट मीडिया का मोहताज होना पड़े।
भारत में विदेशी सहायता से संचालित हो रहे एनजीओ की गतिविधियों पर पहले भी प्रश्न उठते रहे हैं। इनमें विदेशी संगठन भी हैं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भारत में चल रही शाखाएं भी। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था जो कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करती है उस पर इंदिरा गांधी के समय में भी आरोप लगते थे। अभी भी इन्टरनेशनल रेडक्रॉस व मेडिकल सान्स फ्रंटियर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की गतिविधियों पर सरकारी हल्कों में शंकाएं उठाई जाती हैं। इस बारे में एक सीधा सवाल यह उठता है कि भारत या किसी भी देश में सामाजिक कार्य करने के लिए विदेशी संस्था अथवा विदेशी सहायता की आवश्यकता ही क्या है। जिन देशों से आर्थिक सहायता आती है वहां भी हाल के वर्षों में यह पूछा जाने लगा है कि भारत तो अब विकसित देशों की श्रेणी में आ गया है उसे दी जाने वाली सहायता बंद क्यों न की जाए? यूं यह एक पेचीदा मुद्दा है तथा इससे अनेक सैद्धांतिक बिन्दु जुड़े हैं, लेकिन उपरोक्त सवाल का एक जवाब तो भारत में कार्यरत एनजीओ ही देते हैं। उनका कहना है कि जब विदेशों से धार्मिक प्रयोजनों व व्यापारिक कारणों से धन आ सकता है तो सामाजिक कार्यों के लिए क्यों नहीं? वे प्रश्न उठाते हैं कि वल्र्ड बैंक, एडीबी, आईएमएफ जैसे संगठन राष्ट्रों को सहायता देते समय तमाम शर्तें लादते हैं और उनको स्वीकार किया जाता है तो समाजसेवा अथवा सामाजिक आंदोलनों के लिए समान विचारों के विदेशी मित्रों से छोटी-मोटी धनराशि प्राप्त होती है तो उसका विरोध क्यों? वे जोर देकर यह भी कहते हैं कि विदेशों से सहायता मिलना सीधे-सीधे नहीं हो जाता। इसके लिए एफसीआरए जैसे कानून हैं तथा गृह मंत्रालय की अनुमति, छानबीन व निगरानी के बाद ही कोई संस्था विदेशों से सहायता स्वीकार कर सकती है। ऐसे में कोई देशविरोधी कार्य करने की आशंका हो ही नहीं सकती।
आईबी से यह रिपोर्ट क्यों लीक हुई इसे लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं। ऐसा बहुत लोगों का सोचना है कि मोदी सरकार आने के बाद जो कारपोरेट घराने ताकतवर हो गए हैं वे अब अपना विरोध करने वालों पर इस बहाने निशाना साध रहे हैं। जैसे एक घराना है जो कई सालों से पॉम ऑयल का आयात कर रहा है। एनजीओ पर्यावरण संबंधी कारणों से उसका विरोध करते आए हैं। अब पर्यावरण कोई भारत अकेले का मुद्दा तो नहीं है। इस पर जो भी आंदोलन होगा उसका वैश्विक स्तर पर होना स्वाभाविक है। इसी तरह के और भी बहुत से मुद्दे हैं जहां सामाजिक संगठन और कारपोरेट घराना एक-दूसरे से मुठभेड़ें कर चुके हैं। इस पूरे संदर्भ में मुझे एक प्रसंग ध्यान आता है- आज सीएनडीपी नामक जनांदोलन पर परमाणु संयंत्रों के विरोध का आरोप लग रहा है। उसके द्वारा संचालित मुहिम में स्वयं वी.के. सिंह शिरकत कर चुके हैं जो आज इस सरकार में मंत्री हैं। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में जनरल सिंह के पक्ष में जनहित याचिका दायर करने वाले एडमिरल एल. रामदास एक सम्मानित सेनाधिकारी रहे हैं और संयोग है कि उनकी पत्नी ललिता रामदास ग्रीनपीस की अध्यक्ष थीं। यह जानना दिलचस्प होगा कि जनरल सिंह इस बारे में क्या कहते हैं!
एक आई बी की चर्चा हम यहां स्थगित करते हैं। इस पर आगे फिर कभी दुबारा बातचीत का मौका आएगा। दूसरे आई बी याने सूचना व प्रसारण मंत्रालय की बात कुछ देर कर लें। इस विभाग के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने पिछले दिनों कहा कि सरकार में सूचना व प्रसारण मंत्रालय जैसे विभाग की कोई आवश्यकता नहीं है और वे इसे समेट लेने पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि सद्य:निवृत्त और नवनियुक्त विभागीय मंत्री दोनों की सोच इस बारे में एक जैसी है। पाठकों को शायद याद हो कि चुनाव से मुंह मोडऩे वाले कांग्रेस के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने चुनाव अभियान के बीच यह कहा था कि इस विभाग की अब कोई उपादेयता नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। सबसे पहले तो हमें इसी पर आश्चर्य है कि कांग्रेस व भाजपा दोनों की इस मुद्दे पर एक समान राय क्यों है? फिर सरकार में ऐसे बहुत विभाग हैं जिनके बिना शायद काम चल सकता है किन्तु मंत्रीद्वय की ऐसी कृपा सूचना प्रसारण मंत्रालय पर ही क्यों है? मजे की बात है कि दोनों ने इसके कारणों का कोई खुलासा अब तक नहीं किया है।
विश्व के अन्य जनतांत्रिक देशों में सूचना प्रसारण के लिए अलग से कोई मंत्रालय है या नहीं इसकी जानकारी हासिल करने की कोई कोशिश हमने नहीं की है लेकिन इतना तो तय है कि कोई भी सरकार हो उसे अपने कामकाज के बारे में जनता को अवगत कराने के लिए एक तंत्र तो विकसित करना ही होता है। अमेरिका में जहां राष्ट्रपति शासन प्रणाली है वहां व्हाइट हाउस का प्रेस अधिकारी दिन में कम से कम एक बार तो मीडिया से बात करता ही है। जो भी हो, अन्य देशों से भारत की तुलना नहीं करना चाहिए। हमारी परिस्थितियां भिन्न हैं और परंपराएं अलग ढंग से विकसित हुई हैं। मैं तो व्यक्तिगत तौर पर प्रसार भारती जैसे किसी स्वायत्त संस्था के भी खिलाफ हूं। एक तरफ जब सूचना के उपकरणों पर पूंजी का शिकंजा मजबूत होते जा रहा है तब सरकार को अपनी बात कहना है तो उसके लिए मंच कहां है? आज यदि आकाशवाणी और दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन न हों तो हमें पता भी न चले कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है। समाचार चैनलों की झूठी और नकली बहसों में ही पूरा समय बीत जाए।
इससे एक अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस हो या भाजपा, राजनेताओं की वर्तमान पीढ़ी देश के सूचनातंत्र पर कारपोरेट को कब्जा करने के लिए मैदान खुला छोड़ देना चाहती हैै। अगर मुझे सही याद है तो श्री जावड़ेकर ने सोशल मीडिया का अधिकतम लाभ उठाने की बात कही है। हमारा कहना है कि सोशल मीडिया फिलहाल एक संदिग्ध माध्यम है और उस पर पूरी तरह आश्रित होना देश के लिए नुकसानदायक हो सकता है। इस पर कितना फर्जीवाड़ा हुआ है उसके उदाहरण हमारे सामने है। इसके चलते लोगों के व्यक्तिगत जीवन नष्ट हो गए हैं यह भी सबको पता है। बात यह है कि सोशल मीडिया में जिम्मेदारी तय करना एक कठिन काम है। खैर! यह तो तस्वीर का एक पहलू है। सूचना प्रसारण मंत्रालय के जिम्मे बहुत सारे काम हैं, जिनमें आकाशवाणी, दूरदर्शन, समाचारपत्रों के पंजीयक, डीएवीपी, फिल्म निदेशालय आदि कितने ही उपक्रम शामिल हैं। इन सबके जो अपने-अपने काम है उनमें से हरेक महत्वपूर्ण हैं। हमारे भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों से सम्बद्ध होते हैं और अपने-अपने विभाग की नीतियों व कार्यक्रमों के बारे में जनता तक सूचनाएं पहुंचाते हैं। कल अगर पत्र सूचना कार्यालय न रहे तो यह काम कौन करेगा? सरकार द्वारा लोकहित में जो योजनाएं बनाई जाती हैं उनका प्रचार-प्रसार डीएवीपी के जिम्मे होता है। बात चाहे उपभोक्ताओं को जगाने की हो, चाहे आयकरदाताओं को चेताने की, चाहे लड़कियों की शिक्षा की या फिर शौचालयों की जरूरतों की या उन्नत बीज अथवा फसल बीमा की, कल इन अभियानों का क्या होगा?
श्री जावड़ेकर से हम अनुरोध करेंगे कि वे जल्दबाजी में कोई निर्णय न लें। इस विषय से जुड़े सारे पहलुओं का अध्ययन कर लें और ऐसी स्थिति न आने दें जिसमें चुनी हुई सरकार को अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए कारपोरेट मीडिया का मोहताज होना पड़े।
देशबन्धु में 19 जून 2014 को प्रकाशित
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