एक समय की बंबई (आज की मुंबई) में चर्चगेट स्टेशन
के पास 'पुरोहित' नामक एक रेस्तोरां बेहद लोकप्रिय था। पहली बार मुंबई आने
वालों को स्थानीय मित्र इस जगह भोजन करवाने अवश्य ले जाते थे। महाराष्ट्र
विधानसभा नजदीक ही थी सो विधायकों के अलावा नेतागण व उनसे मिलने आने वाले
भी पुरोहित में आया करते थे। यह एक गुजराती भोजनालय था जिसमें 1969-70 में
तीन रुपए में सादी थाली और पांच रुपए में चांदी की थाली में भोजन परोसा
जाता था। उन्हीं दिनों मैरीन लाइन्स रेलवे स्टेशन के पीछे ठाकर नामक एक और
गुजराती भोजनालय था, जिसमें भोजन करना शान की बात मानी जाती थी। मुंबई में
गुजरातीभाषियों की अच्छी खासी आबादी शुरू से रही है इसलिए वहां गुजराती
भोजनालय होने में कोई आश्चर्य नहीं था। चूंकि मुंबई एक विविधवर्णी महानगर
रहा है इसलिए वहां अन्य भांति के रेस्तोरांओं की भी कमी नहीं थी।
यूं
देखा जाए तो गुजराती भोजनालय भारत के कोने-कोने में मिल जाएंगे। देश में जो
प्रमुख पर्यटन स्थल हैं, खासकर तीर्थस्थान, वहां गुजराती भोजनालय होना
मानों अनिवार्य ही है। मुझे याद है कि बरसों पहिले 1987 में पहलगाम में एक
समय का भोजन हमने एक गुजराती भोजनालय में ही किया था। इसका कारण शायद यही
है कि गुजराती लोग पर्यटनप्रिय तो हैं, लेकिन खानपान में वे प्रयोग पसंद
नहीं करते। इसीलिए इधर कुछ बरसों से भारतीयों में विदेश भ्रमण के प्रति
बढ़ती रुझान के साथ-साथ गुजराती शाकाहारी अथवा जैन शाकाहारी भोजन की गारंटी
भी टूर आपरेटर देने लगे हैं। बहरहाल, गुजराती भोजनालय का मुद्दा इसलिए
उठा क्योंकि दो दिन पूर्व टीवी के जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने
ट्विटर पर लिखा कि दिल्ली में कोई अच्छा गुजराती भोजनालय क्यों नहीं है?
श्री सरदेसाई लंबे समय से दिल्ली में निवासरत हैं और अनुमान लगाया जा सकता
है कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें चिंता हुई होगी कि
आने वाले दिनों में दिल्ली आने वाले गुजराती भाई-बहनों को भोजन में किसी
तरह की असुविधा न हो!
जो भी हो, श्री सरदेसाई ने फिजूल की माथापच्ची
करने के लिए एक रोचक मुद्दा छेड़ दिया है। इस पर पत्रकारों के बीच या
दिल्लीवासियों के बीच क्या प्रतिक्रिया होती है यह देखना बाकी है। मैंने
उनकी टिप्पणी को पढ़ा तो मेरा ध्यान भी इस बात पर गया कि दिल्ली में कहीं
कायदे का गुजराती भोजन मिलता है या नहीं? देश की राजधानी में भोजनालयों और
जलपानगृहों की वैसे तो कोई कमी है नहीं। दुनिया का ऐसा कौन सा देश है,
जिसके पकवान दिल्ली में न मिलते हों! वहां के बड़े-बड़े होटल बीच-बीच में
भोजन महोत्सवों का आयोजन करते हैं, जिनमें कोरिया और मंगोलिया से लेकर
चिली और ब्राजील तक के व्यंजन मिल सकते हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों के
व्यंजनों के लिए तो वहां के अनेक रेस्तोरां विशेष रूप से प्रसिद्ध हो ही
चुके हैं। लेकिन हां, ऐसा एक भी होटल नहीं है, जिसके बारे में कहा जा सके
कि यहां गुजराती भोजन मिलता है। बहुत से जानकार लोग आंध्र भवन में दक्षिण
भारतीय व्यंजनों का स्वाद लेने जाते हैं, लेकिन मैंने कभी किसी को गुजरात
भवन जाते देखा, न सुना।
इसकी क्या वजह हो सकती है? मेरा ख्याल है कि
दिल्ली की जो अपनी पारंपरिक शाकाहारी भोजन संस्कृति हैं उसमें और गुजरात की
भोजन संस्कृति में अंतर तो है, लेकिन इतना नहीं कि दिल्ली आने वाला हर
गुजराती घर जैसा भोजन न मिले तो बेचैनी अनुभव करने लगे। अलावा इसके कुछ
गुजराती व्यंजन ऐसे भी हैं जो देश के सारे हिस्सों में लोकप्रिय हो चुके
हैं। अब ढोकला उसी तरह से अखिल भारतीय व्यंजन है, जिस तरह से दोसा, समोसा
या रसगुल्ला। मुझे दिल्ली और गुजरात की भोजन व्यवस्था में जो मुख्य अंतर
दिखाई देता है वह शायद सजावट को लेकर है। गुजराती थाली में आधा दर्जन छोटी
कटोरियों में खाद्य सामग्री परोसी जाती है, लेकिन शायद यह फर्क भी खत्म
होने लगा है। फिर भी राजदीप सरदेसाई ने चर्चा छेड़ दी है तो उम्मीद करना
चाहिए कि जल्दी ही देश की राजधानी में विशिष्ट गुजराती भोजन का निमंत्रण
देने वाले भोजनालय खुल जाएंगे।
इस डर से कि पाठकों को गुजराती भोजन की
चर्चा ज्यादा लंबी न लगे, मैं अपनी बात को दूसरी तरफ मोड़ता हूं। आप जानते
हैं कि गुजरात के सांस्कृतिक परिदृश्य का एक दिलचस्प नज़ारा मकर संक्रांति
के समय देखने मिलता है जब इस पश्चिमी प्रदेश में पतंगें उड़ाई जाती हैं।
पाठकों को याद होगा कि इस साल 14 जनवरी को गुजरात के पतंग महोत्सव में भाग
लेने अभिनेता सलमान खान भी पहुंचे थे। यह भी रोचक तथ्य है कि पतंग उड़ाने
का खेल दिल्ली के आस-पास के इलाकों जैसे मेरठ आदि में बहुत उत्साह के साथ
खेला जाता है। वैसे तो राजनीति में भी पतंगबाजी का खासा प्रचलन है। लेकिन
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केन्द्र की राजनीति में जिस
कौशल के साथ पतंगें उड़ाई जा रही हैं वह काबिले-तारीफ है।
मोदी
मंत्रिमंडल के शपथ लेने भर की देर थी कि उनके मंत्रियों ने एक के बाद एक
पतंगें उड़ाना शुरू कर दिया। सबसे पहले राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह ने
संविधान की धारा-370 को खत्म करने की पतंग उड़ाई। उनके बाद अनुभवी न•ामा
हेपतुल्ला ने दूसरी पतंग उड़ाई कि मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं, फिर नई
-नवेली खिलाड़ी निर्मला सीतारमण के वाणिज्य मंत्रालय से नोट जारी हुआ कि
रक्षा उत्पादन में सौ फीसदी एफडीआई को अनुमति दी जाए। प्रकाश जावड़ेकर भी
पीछे नहीं रहे। उनका बयान आया कि मीडिया में सौ फीसदी एफडीआई पर विचार किया
जाएगा। इनके अलावा टीडीपी के नागरिक उड्डयन मंत्री गजपति राजू ने राबर्ट्र
वाड्रा का एसपीजी कवच हटाने की बात भी कह डाली। जाहिर है कि आसमान में जब
इतनी सारी पतंगें उड़ रहीं हों तो दर्शकों का ध्यान उस ओर जाना ही था।
आनन-फानन में वे खिलाड़ी भी मैदान में आ गए जो अभी तक घर बैठे अपने जख्मों
को सहला रहे थे। इनमें प्रियंका गांधी ने एसपीजी को पत्र लिखकर जो पतंग
उड़ाई उसका मांझा इतना मजबूत था कि गजपतिजी की पतंग कट गई। गृह राज्यमंत्री
किरण रिजूजी का बयान आ गया कि एसपीजी कवच वापिस नहीं लिया जाएगा।
भारतीय
जनता पार्टी की नवनिर्वाचित केन्द्र सरकार ने एक साथ इतनी पतंगें क्यों
छोड़ीं, यह कुछ समझ में नहीं आया। मोदीजी ने अभी दस दिन पहले शपथ ली है।
उनका पहला दिन तो अपने विदेशी मेहमानों को ढोकला, श्रीखंड खिलाने में ही
बीत गया। उन्होंने जो व्यंजन जनता की थाली में परोसने का वायदा कर चुनाव
जीता था उसकी शुरूआत भी नहीं हुई है। अभी तो मोदीजी ने रसोईयों को आर्डर भर
दिया है कि बाजार से क्या-क्या सामग्री लेकर आना है जिससे उनके वायदे के
व्यंजन बनाए जा सकें। ऐसा लगता है कि सरकार अथवा पार्टी या दोनों ही कुछ
जल्दबाजी में शायद इसलिए हैं कि उन्हें अपनी रसोई पकाने का स्पष्ट अधिकार
मिल गया है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आपकी जो मर्जी हो उसे
क्षुधीजनों पर थोप दें। अगर दिल्लीवासी अपने छोले-भटूरे या पालक-पनीर में
खुश हैं तो उन्हें आप जबरदस्ती गुजराती फरसाण क्यों परोसेंगे? भारतीय
जनता पार्टी और संघ परिवार की यह इच्छा हो सकती है कि अतीत में स्पष्ट
बहुमत न होने के कारण जिन मुुद्दों को दरकिनार करना पड़ा था उन्हें अब
वापिस मुख्य एजेंडे में ले आया जाए। अगर देश की जनता इस बात पर उनका साथ दे
व संविधान अनुमति दे तो उन्हें अपने एजेंडे को लागू करने से कौन रोक सकता
है, लेकिन इस अति उत्साह में उन्हें मैदानी हकीकतों को नहीं भूलना चाहिए।
इस संदर्भ में अमेरिका और यूरोप के जनतांत्रिक देशों की स्थापित परंपराएं
उनके काम आ सकती हैं। नरेंद्र मोदी को एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक अवसर प्राप्त
हुआ है। उन्हें जनता ने भ्रष्टाचार दूर करने, बेरोजगारी दूर करने, महंगाई
कम करने और त्वरित गति से निर्णय लेकर देश का सर्वांगीण विकास करने की
उम्मीद से चुना है और उनका कार्यकाल अभी शुरू ही हुआ है। इस समय पतंगबाजी
करना नई सरकार के लिए नुकसानदायक हो सकता है। यह बात भाजपा के शीर्ष
नेतृत्व को और झंडेवालान में बैठे चाणक्यों को समझना चाहिए।
देशबन्धु में 5 जून 2014 को प्रकाशित
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