Wednesday 30 July 2014

हनीमून के 66 दिन

                                                                                 


आज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 66 दिन पूरे कर लिए हैं। इस तरह हनीमून का दो तिहाई समय बीत चुका है। श्री मोदी ने एक माह बीतने के बाद शिकायत की थी कि उन्हें हनीमून के लिए तीन माह तो क्या तीन दिन भी नहीं मिले। उनकी यह बात सही मालूम होती है और यह आशंका भी होती है कि अब उनकी शिकायत कुछ और ज्यादा बढ़ गई होगी। सरकार इसका दोष आसानी से विपक्ष और मीडिया दोनों पर डालकर अपने पल्ले झाड़ सकती है। ऐसा करने की कोशिश चल भी रही है, लेकिन ऐसा करना या कहना हमारी दृष्टि में अपने आपको छलना ही है। यूं तो विपक्ष का काम ही सत्तापक्ष के क्रियाकलापों का सतर्क परीक्षण एवं उस आधार पर विरोध करना ही है, तथापि यहां श्री मोदी को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि विपक्ष के साथ न्यूनतम सौहाद्र्र व सामंजस्य स्थापित करने में उनकी अपनी तरफ से कहां चूक हुई है या हो रही है। जहां तक मीडिया की बात है उसका प्रभावशाली और बड़ा हिस्सा तो सरकार-समर्थक कार्पोरेट घरानों के पास है। फिर भी अगर वेतनभोगी पत्रकार कहीं आलोचना कर रहे हैं तो वह अकारण तो नहीं है, यह भी समझना होगा।

इस बीच में राजनैतिक टीकाकारों द्वारा इस तथ्य को बार-बार रेखांकित किया गया है कि तीस साल बाद किसी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला है। याने सत्ताधारी दल गठबंधन सहयोगियों की कृपा पर लेशमात्र भी निर्भर नहीं है। संविधान के दायरे में उसे अपनी नीतियों के अनुरूप निर्णय लेने की बड़ी भारी गुंजाइश है। इस वास्तविकता का व्यवहारिक उपयोग मोदी सरकार में कैसे हो रहा है इसे देखना चाहिए। एक पुरानी कहावत है कि राजा कभी गलती नहीं कर सकता। पिछले 66 दिनों में हमने जो देखा है उससे तो ऐसा ही लगता है कि श्री मोदी मान बैठे हैं कि वे जो कह रहे हैं वही सही है और बाकी सब गलत! यह सत्ता का मद है या शुरूआती दौर का उत्साह? क्या इस व्यामोह से वे स्वयं को मुक्त कर सकते हैं? दूसरे जब उनके पास पूर्ण बहुमत है तो फिर उसका उपयोग सही जगह पर और सही काम में क्यों नहीं होना चाहिए? अगर पार्टी के भीतर या गठबंधन के स्तर पर गड़बड़ी करने की कोई कोशिश हो रही है तो उस पर रोक क्यों न लगे? ऐसा न कर श्री मोदी अपने को मिले ऐतिहासिक जनादेश को ही झुठला रहे हैं।

मोदी सरकार के गठन के बाद से जो नई तस्वीर बनी है उसमें से कुछेक अवांछित स्थितियों का जिक्र मैं 26 जून के लेख में कर चुका हूं। किन्तु लगातार कुछ ऐसी ही स्थितियां बन रही हैं जो, विपक्ष या मीडिया की बात छोडि़ए, आम जनता के गले भी नहीं उतर रही हैं। इस सिलसिले में हमें सबसे पहले तो मंत्रिमंडल गठन की ही बात करना चाहिए। यह सबको पता है कि संजीव बालियान एक विवादास्पद व्यक्ति हैं। श्री मोदी के सामने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने की कोई मजबूरी नहीं थी।  उत्तर प्रदेश से स्वयं प्रधानमंत्री, फिर राजनाथ सिंह और उमा भारती जैसे कद्दावर नेता मंत्रिमंडल में शामिल कर ही लिए गए थे, इसके बावजूद अगर वे नए चेहरों को आगे लाना चाहते थे तो किसी बेहतर छवि वाले व्यक्ति को लिया जा सकता था। तो क्या श्री मोदी ने राजा कभी गलती नहीं करता के भाव से यह निर्णय लिया था?

चलिए, श्री बालियान तो पार्टी के वरीयता क्रम में काफी नीचे हैं और मंत्रिमंडल में उनका रहना, नहीं रहना जनता के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन पार्टी के अध्यक्ष पद पर अमित शाह का मनोनयन निश्चित ही एक विचलित करने वाली घटना है। एक तरफ श्री मोदी राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने एवं शुचिता स्थापित करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ श्री शाह सत्तारूढ़ दल के नए अध्यक्ष बन जाते हैं। यह सबको पता है कि अमित शाह श्री मोदी के बेहद करीबी हैं, लेकिन राजनीति में कई बार निर्मम होकर निर्णय लेना पड़ते हैं। श्री शाह पर जो आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं उनका पूरा निराकरण होने के बाद उन्हें ससम्मान पदस्थ किया जा सकता था। एक मामले में वे तो बरी हो ही चुके हैं। जब स्वयं प्रधानमंत्री सर्वोच्च न्यायालय से एक साल के भीतर राजनेताओं के आपराधिक प्रकरण को निपटाने की अपील करते हैं तो कम से कम इतनी अवधि तक वे अध्यक्ष पद अपने किसी अन्य विश्वस्त को सम्हलवा सकते थे।

यह तो उनकी अपनी पार्टी की बात है। अपने सहयोगी दल शिवसेना के प्रति भी श्री मोदी जो मौन धारण किए हैं या कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं वह भी समझ से परे है। पिछले दिनों दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसदों ने जो अभद्र आचरण किया है, उसकी निंदा पूरे देश ने की है। भारतीय जनता पार्टी के ज्येष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवानी ने भी इस आचरण को साफ शब्दों में गलत ठहराया है। फिर भी आश्चर्य की बात है कि भाजपा के तमाम प्रवक्ता किसी न किसी तरह शिवसेना का बचाव करने में लगे हुए हैं। यह संभव है कि महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनावों  को देखते हुए भाजपा इस मुद्दे से कन्नी काटना चाहती हो, लेकिन फिर क्या आप कुछ वैसा ही आचरण नहीं कर रहे हैं जैसा कि कांग्रेस ने डीएम के नेताओं के साथ किया था?  कांग्रेस के सामने तो गठबंधन सरकार को चलाने की मजबूरी थी, लेकिन शिवसेना की लानत मलामत करने में आपको संकोच क्यों हो रहा हैं?

नरेन्द्र मोदी ने एबीपी चैनल को एक साक्षात्कार में कहा था कि, देश तो संविधान से चलता है, चुनाव के समय चाहे जितना उल्टा-सीधा क्यों न कहा जाए। हम यह बात संघ परिवार से जुड़े एक विचित्र व्यक्तित्व दीनानाथ बत्रा की गतिविधियों के सिलसिले में स्मरण कराना चाहते हैं। अभी 'इंडियन एक्सप्रेसÓ अखबार ने काफी विस्तार में खुलासा किया है कि गुजरात सरकार ने श्री बत्रा की लिखी आठ किताबें हजारों की संख्या में छापकर विद्यार्थियों के बीच वितरित की हैं। इन पुस्तकों में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अपमानजनक हैं। इसमें अमेरिका के अश्वेत अमेरिकियों को नीग्रो कहा गया है जबकि अमेरिका में यह संज्ञा वर्जित हो चुकी है। इसी तरह स्वामी विवेकानंद के हवाले से कहा गया है कि भारत विदेशियों को अपने पैरों तले रखता है। एक अन्य पाठ में बच्चों को जन्मदिन पर केक काटने और मोमबत्ती जलाने से बरजा गया है। जाहिर है कि किसी भी सभ्य और आधुनिक समाज में इस तरह के विचार स्वीकार नहीं हो सकते। फिर भी अगर मोदीराज में श्री बत्रा जैसे लोगों को प्रश्रय मिल रहा है तो इससे चिंता उपजना स्वाभाविक है।

विगत दो माह में मोदी ने जिन मोर्चों पर बेहतर प्रदर्शन किया है, उनमें सबसे पहले तो विदेश नीति की ही बात करना होगी। ब्रिक्स सम्मेलन में श्री मोदी की भागीदारी सकारात्मक थी। भूटान, बंगलादेश, नेपाल के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की कोशिश अधिक रही। फिलिस्तीन के मामले में सं रा. मानव अधिकार आयोग ने भारत में इजरायल के खिलाफ मतदान कर फिलिस्तीनी जनता के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की, किन्तु देश की संसद में भाजपा ने इसके ठीक विपरीत रवैया अपनाया, जिससे भ्रम की स्थिति बनी। इस बारे में अभी तक सरकार की ओर से कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं मिला है। फिर भी मोटे तौर पर हमें लग रहा है कि विदेश नीति के मोर्चे पर सरकार तत्काल कोई फेरबदल नहीं करेगी और ऐसा न करना ही ठीक होगा।

आर्थिक मामलों में खासकर महंगाई के बारे में सरकार अभी तक कोई निश्चित नीति नहीं बना पाई है। यह तात्कालिक चिंता का विषय है। दूसरी  तरफ कृषि एवं खाद्यमंत्री रामविलास पासवान ने खाद्यान्न सुरक्षा कानून को लागू करने व राज्यों से उसका अनुपालन करवाने पर अपनी प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। याने यहां भी सरकार कोई बड़ा फेरबदल करने नहीं जा रही है। खाद्यान्न आदि पर सब्सिडी व वाणिज्य में जीएसटी पर भी पिछली सरकार व इस सरकार के रुख में कोई बड़ा अंतर दिखाई नहीं देता। इससे यह अनुमान होता है कि 1991 से चली आ रही आर्थिक नीतियां आगे भी चलती रहेंगी। विदेश नीति भी उसी के आधार पर तय होते रहेगी तथा घरेलू मोर्चे पर ऐसा कोई भी कदम एकाएक नहीं उठाया जाएगा, जिससे न्यून और निम्न आयवर्ग की तकलीफों में इजाफा हो। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यथास्थिति हर क्षेत्र में कायम रहेगी।

हमने पिछले 66 दिन में यह देखा है कि संघ परिवार के विभिन्न घटक इस समय खासे उत्साह में हैं। वे अखण्ड भारत जैसी असंभव कल्पनाओं को साकार होते देखना चाहते हैं। उनका विश्वास बहुलतावाद में नहीं, बल्कि बहुमतवाद में है। सरकार इनके सामने बेबस नजर आती है। दूसरे, सरकार के प्रवक्ता अभी भी सुबह-शाम कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। वे अपने द्वारा आज की गई गलतियों को भी कांग्रेस पर मढ़ देना चाहते हैं। वे भूल रहे हैं कि चुनावों में जीत-हार चलती रहती है। अपने विरोधियों का अपमान करने से आपका सम्मान नहीं बढ़ेगा। श्री मोदी की पहली परीक्षा इसी बारे में है कि वे प्रतिशोध की राजनीति को बढ़ावा देते हैं या समन्वय को।


देशबन्धु में 31 जुलाई 2014 को प्रकाशित

आप इसके साथ 26 जून को प्रकाशित मेरे लेख 'मोदी सरकार के तीस दिन का अवलोकन भी शायद करना चाहें। (ललित सुरजन)


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