Wednesday 31 December 2014

स्थानीय स्वशासन कितना सार्थक?




छत्तीसगढ़
में दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में  नगरीय निकायों के चुनाव दो चरणों में सम्पन्न हो गए हैं। नतीजों की प्रतीक्षा है। इसी माह त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी हो जाएंगे। मध्यप्रदेश में भी कुछ चुनाव हो गए हैं, कुछ बाकी हैं। इस तरह निर्धारित अवधि में बिना किसी व्यवधान के जनतांत्रिक प्रक्रिया का पालन पिछले बीस साल से बराबर हो रहा है। सवाल उठता है कि सिर्फ चुनाव हो जाने से कितना खुश हुआ जाए? यदि स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को चुनने का अर्थ एक विकेन्द्रीकृत शासनतंत्र लागू करना है, जिसमें जनता की भागीदारी भी हो और सुनवाई भी तो क्या इन चुनावों से वह ध्येय पूरा किया जा सका है? यदि विकेन्द्रीकरण का अर्थ अधिकाधिक पारदर्शिता लाना, भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना और जन- समस्याओं का त्वरित निराकरण करना है, तो क्या पिछले बीस सालों में इस दिशा में सचमुच कोई प्रगति हुई है? अगर इन चुनावों के माध्यम से मैदानी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तैयार करना, उनमें नेतृत्व भावना का विकास करना, दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार करना एवं जनता का राजनैतिक शिक्षण करना है, तो क्या इस बारे में हम अपने आपको शाबासी दे सकते हैं?

इन सारे प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश करें इसके पहले मैं छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ राजनेता डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव द्वारा कुछ बरस पहले कही गई एक बात को याद करना चाहता हूं। सिंहदेवजी उन विरल राजनेताओं में से हैं, जिन्होंने कभी पद का मोह नहीं किया और जब कोई पद संभाला तो अपने ऊपर कभी कोई आंच आने नहीं दी। उन्हें मैं राजनेता न कहकर राजर्षि कहना पसंद करता हूं। इन्हीं सिंहदेवजी ने एक दिन कहा कि चुनाव के समय दूरदराज के मतदाता भी रातभर अपनी झोपड़ी की फटकी को आधा खुला रखते हैं और ढिबरी जलने देते हैं। यह बताने के लिए कि हम जाग रहे हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं, मतदान के पहले जो देना हो दे जाओ। मतलब यह कि चुनावों के समय उम्मीदवार अगर साड़ी, शराब, रुपया बांट रहे हैं तो उसे लेने से वे इंकार नहीं करते, फिर भले ही वोट किसी को भी दें। इतना तय है कि जिसने कुछ नहीं दिया उसे वोट पाने की उम्मीद भी नहीं करना चाहिए।

यह किस्सा इसलिए ध्यान में आया क्योंकि रायपुर नगर निगम के चुनाव में ही मुझे यहां-वहां से बहुत सारी खबरें सुनने मिलीं। मसलन, जुलूस निकालने और पर्चियां बांटने का रेट दो सौ-ढाई सौ रुपए प्रतिदिन था, भाजपा के उम्मीदवारों ने गरीब बस्तियों में तीन-तीन सौ रुपया बांटे, तो कांग्रेसियों ने दो सौ। कहीं-कहीं पांच सौ रुपए तक बांटने की खबरें आईं। चेपटी याने देशी दारू के पाउच तो बांटे ही गए। इस बार कुछ उम्मीदवारों ने अक्ल का परिचय देते हुए पैसा ब्राह्म मुहूर्त में बांटा जब विरोधी भी सोए हों, रात को जब पकड़े जाने की आशंका न हो। एम्बुलेंस गाडिय़ों का उपयोग भी इस वितरण के लिए किया गया जिन पर सामान्यत: शंका नहीं होती और कई जगह पुलिस वालों ने देखकर भी नहीं देखा। जो रायपुर में हुआ वही अन्यत्र भी हुआ होगा। जब ये हाल हैं तो आने वाले दिनों की तस्वीर क्या होगी? इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। जो राजनीतिक कार्यकर्ता स्थानीय चुनावों में ऐसे पाठ पढ़ा रहे हैं उनका भविष्य कितना उज्जवल होगा इसका भी अनुमान किया जा सकता है।

यह जो स्थिति आज है उसकी तुलना स्वाधीनता संग्राम के दिनों से करने का मन होता है। सरदार वल्लभ भाई पटेल अहमदाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए थे। सुभाष चन्द्र बोस पहले कलकत्ता नगर पालिका के सीईओ चुने गए और बाद में अध्यक्ष भी। पंडित जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। हमारे मध्यप्रदेश में द्वारिकाप्रसाद मिश्र जबलपुर नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गए। यह रेखांकित करना होगा कि इन सारे महानुभावों ने जेल में रहते हुए चुनाव लड़े व जीते। ऐसे अन्य उदाहरण भी होंगे जो फिलहाल मुझे स्मरण नहीं है। मुझे पुराने मध्यप्रदेश का ध्यान आता है जब स्वाधीनता सेनानी, कवि, पत्रकार और गीतांजलि के हिन्दी अनुवादक भवानीप्रसाद तिवारी आठ बार जबलपुर के महापौर निर्वाचित हुए। उनके कार्यकाल में जबलपुर नगर निगम के प्रांगण में सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिमा लगाई गई। एक प्रसंग सुदूर जर्मनी का भी ध्यान आता है। बिली ब्रांट बर्लिन के मेयर थे जब वे जर्मनी के चांसलर याने प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए। यह संभवत: 1974 की बात है। उस वक्त हमें आश्चर्य हुआ था कि एक शहर का मेयर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है।

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान स्थिति निराशाजनक लगती है। आज 1 जनवरी होने के बावजूद मैं आशंकित हूं कि मेरे शहर का हाल-हवाल आने वाले दिनों में क्या होगा? जिन उम्मीदवारों ने चुनाव लडऩे के लिए पानी की तरह पैसा बहाया है वे सबसे पहले तो अपने नुकसान की भरपाई ही करेंगे। चूंकि राजनीति उनका पूर्णकालिक व्यवसाय होगा इसलिए अगले पांच साल नगर निगम ही उनकी रोजी-रोटी का या यूं कहें कि ब्रेड बटर का अथवा तंदूरी चिकन का एकमात्र सहारा होगा। इस बीच वे अपने भविष्य को भी ध्यान में रखेंगे। अगला चुनाव खुद लड़ें अथवा पत्नी या पति को लड़वाएं, उसके लिए तो व्यवस्था अभी से करना होगी। ऐसे कठिन समय में ठेकेदार और सप्लायर ही उनका सहारा बनेंगे। जो केन्द्र और प्रदेश की राजनीति में होता है उसी का अनुसरण नगर निगम, नगरपालिका और पंचायतों में भी होगा। मुझे गांव-गांव में यह सुनकर आश्चर्य नहीं होता कि हर पंच आधारभूत समिति का ही अध्यक्ष क्यों बनना चाहता है।

यह तो हुई एक बात जिससे निजात पाने की कोई उम्मीद फिलहाल नज़र नहीं आती। दोष तो मतदाताओं का ही है, जो अपने लोभ पर  नियंत्रण नहीं रख पाते। दूसरी बात और ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन स्थानीय संस्थाओं को वास्तव में कितनी स्वायत्तता प्राप्त है। आदर्श स्थिति तो वह है जो केन्द्र-राज्य संबंधों में किसी हद तक देखी जा सकती है। दोनों के अधिकार क्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, यद्यपि वहां भी खींचतान चलती रहती है। किन्तु राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के बीच क्या संबंध होंगे इसकी व्याख्या समुचित तौर पर नहीं की गई है। छत्तीसगढ़ में हमने पिछले पांच साल में जो देखा उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि राज्य सरकार को जो उदारता दिखलाना चाहिए वह उसने नहीं दिखलाई। दरअसल संसद सदस्य और विधायक और मंत्री- कोई भी अपने अधिकार में कटौती नहीं चाहता। विकेन्द्रीकरण कहने के लिए है, लेकिन राजनेता जिस तीव्र गति से सामंती आचरण अपना लेते हैं वह वाकई आश्चर्यजनक है। क्या सरकारी गाड़ी पर चलने वाली लाल बत्ती इनके मस्तिष्क में ही कहीं फिट हो जाती है जो उतरने का नाम नहीं लेती? इस कारण अनावश्यक विग्र्रह पैदा होते हैं और कामकाज में शिथिलता आती है।

तीसरी बात जो मैं कहना चाहता हूं कि जो भी व्यक्ति अपनी राजनीतिक निष्ठा के आधार पर प्रत्याशी बनाए जाते हैं उनकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति, स्थानीय विकास व प्रशासन के प्रति समझ कितनी साफ है? मैंने पिछले दो-ढाई दशकों में इन संस्थाओं का जो हाल देखा है वह इस बारे में बिल्कुल भी आश्वस्त नहीं करता। हमारे राजनीतिक दलों ने जनता तो दूर, अपने कार्यकर्ताओं का भी राजनैतिक शिक्षण करने के दायित्व से बहुत पहले मुक्ति पा ली है। जब टिकट बांटें जाते हैं तो उम्मीदवार की कार्यदक्षता अगर योग्यता है भी तो शायद उसके लिए सौ में एक पाइंट ही होता है। बाकी तो आजकल इसे कहा जाता है-''विनेबिलिटीÓÓ याने चुनाव जीतने की क्षमता। इसीलिए चुनावों के समय सब्जबाग चाहे जितने दिखाए जाएं जब व्यवहारिकता के धरातल पर उतरते हैं तो ज्यादातर काम उल्टे-सुल्टे ही होते हैं। जैसे कभी डामर की सड़क पर सीमेंट चढ़ा दी जाती है और फिर उसी पर दुबारा डामर हो जाता है और इसी तरह की बहुत सी बातें।

बहरहाल चुनाव तो हो गए हैं। अब देखिए, आने वाले दिनों में क्या होता है?
देशबन्धु में 1 जनवरी 2015 को प्रकाशित

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