विश्व में सर्जनात्मक
विधाओं या कलारूपों का इतिहास जितना पुराना है, सेंसरशिप की अवधारणा भी
शायद उतनी ही पुरानी है। जैसा कि हम जानते हैं प्लेटो ने 'द रिपब्लिक' में
महाकवि होमर के ग्रंथों पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की थी। उनके अनुसार इन
कृतियों को पढ़कर एथेंस की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो सकती थी। प्लेटो ने
स्पष्ट लिखा है कि होमर ने अपनी रचनाओं में जैसे चित्र-विचित्र पात्र गढ़े
हैं और जिन अविश्वसनीय प्रतीत होती घटनाओं का अंकन किया है, उनका कोमल मनों
पर दुष्प्रभाव पडऩे की आशंका है। उन्हें पढऩे से अवयस्क मानस जीवन की
वास्तविकताओं से हटकर कल्पनाजीवी बन सकता है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व
प्रतिपादित इस धारणा का एक बहुत छोटा रूप आज के उन टीवी विज्ञापनों में
देखा जा सकता है जहां स्टंट के दृश्यांकन के साथ छोटे-छोटे अक्षरों में
चेतावनी प्रसारित की जाती है कि दर्शक इनकी नकल करने का खतरा मोल न लें।
फिल्मों में सिगरेट-शराब के दृश्यों के साथ दी जाने वाली चेतावनी भी इसी
मनोभाव की ओर इंगित करती है कि कला-प्रस्तुति में सब कुछ ग्राह्य नहीं है।
और जो अग्राह्य है, उस पर किसी न किसी सीमा तक रोक लगाना वांछित है। प्रश्न
उठता है कि यह फैसला कौन करे कि अग्राह्य क्या है एवं उस पर रोक लगाने का
तंत्र कैसा हो।
प्लेटो के समय में सामाजिक वातावरण उतना जटिल नहीं रहा होगा जैसा कि आधुनिक दौर में है। उस वक्त न तो जनसंख्या ही अधिक थी, न ही विभिन्न समाजों के बीच आदान-प्रदान के लिए आज की भांति द्रुतगामी साधन थे। तकनालॉजी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी और राजनैतिक व्यवस्था का भी कोई सुनिर्धारित सैद्धांतिक ढांचा नहीं था। एथेंस यद्यपि गणराज्य था, जैसे भारत में लिच्छवी गणराज्य, लेकिन ये नगरीय शासन व्यवस्थाएं ही थीं और कहा जा सकता है कि राजनैतिक चिंतन की बस शुरूआत ही हुई थी। उस अपेक्षाकृत सरल सामाजिक परिदृश्य में यदि सेंसरशिप की अवधारणा को जन्म मिला तो मान लेना होगा कि आज यह विचार कई गुना अधिक जटिल रूप में हमारे समाज में विद्यमान है। जहां राजनैतिक व्यवस्था अधिनायकवादी या एकछत्रवादी है, वहां तो जो सत्ताधीश कहे वही सर्वमान्य है, किन्तु जहां जनतंत्र है वहां यह जटिलता विविध प्रश्न खड़े करती है। भारत जैसे समाज में मामला और भी पेचीदा हो उठता है, जहां सांस्कृतिक बहुलता एवं विविधता के कारण किसी भी मसले पर त्वरित व एकसार निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है। यह याद रखने योग्य है कि भारत के संघीय गणराज्य होने के बावजूद राज्यों को न्याय-व्यवस्था के मामलों में उस तरह स्वायत्तता हासिल नहीं है, जैसी कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है। अमेरिका में जैसे कुछ राज्यों में मृत्युदंड का प्रावधान है तो कुछ में नहीं है। मतलब यही कि भारत में सेंसरशिप जैसे संवेदनशील प्रश्न पर चर्चा करते हुए अनेकानेक बिंदुओं को संज्ञान में लेना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है।
जब हम सेंसरशिप की बात करते हैं तो सामान्यत: हमारा आशय उन कानूनी प्रावधानों से होता है, जिनका प्रयोग समय-समय पर सरकार किसी कलात्मक अभिव्यक्ति या सर्जनात्मक गतिविधि को प्रतिबंधित करने के लिए करती है। अर्थात् सेंसरशिप की कल्पना राजसत्ता के बिना नहीं की जा सकती, जिसमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी यथा अवसर अपनी भूमिका निभाती है। यह आवश्यक नहीं है कि इसमें तीनों अंगों की सदैव सहमति हो। इसके परे एक और व्यवस्था है जिसे हम सामाजिक नियंत्रण और/ अथवा आत्मनियमन की संज्ञा दे सकते हैं। इसके अंतर्गत सर्जक (व्यक्ति या समूह) अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करता है एवं उसके प्रति सजगता दर्शाता है। यहां समूह से मेरा आशय उन कलात्मक प्रस्तुतियों की ओर है, जिनका निर्माण एक अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता, मसलन टीवी कार्यक्रम या सिनेमा। इस व्यवस्था में समाज और सर्जक दोनों बिना किसी मध्यस्थ के, बिना राज्य को बीच में लाए परस्पर बातचीत के द्वारा विवादों का हल निकालते हैं। इन दोनों के अलावा एक पक्ष और भी है जिसका परिचय अक्सर उग्र व हिंसक आंदोलन के रूप में देखने मिलता है। इसमें न तो राजसत्ता द्वारा किए गए विधानों का सम्मान होता है और न सर्जक के साथ बातचीत की सूरत ही निकलती है।
यह कहना एक स्थापित सत्य को दोहराना ही होगा कि जनतंत्र की पहिली शर्त अभिव्यक्ति की आजादी है। एक जनतांत्रिक समाज में ही नाना विचारों का प्रस्फुटन और असहमति का आदर संभव है। ऐसे में जब कोई एक समूह या समुदाय किसी कलात्मक अभिव्यक्ति के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए सड़कों पर उतर आता है तो वह सीधे-सीधे जनतंत्र की मूल भावना पर ही आक्रमण करता है। इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। पुस्तकों को जलाना, लाइब्रेरी में तोडफ़ोड़ करना, लेखक-विचारक-शिल्पी के खिलाफ फतवा जारी करना, उसके साथ मारपीट, यहां तक कि उसकी हत्या करना, मूर्तियों को खंडित करना, मस्जिद को ढहाना, नाटक का प्रदर्शन बीच में रोक देना, सिनेमाघर में फिल्म न चलने देना, प्रकाशकों-आयोजकों को व्यापार करने से रोकना, कलाकारों को देश छोडऩे पर मजबूर करना, सामान्य कानूनी कार्रवाई करने के बजाय परेशान करने के लिए मुकदमेबाजी करना जैसी घटनाएं भारत में आम हो गई हैं। इनके चलते जनतंत्र, भेड़तंत्र, भीड़तंत्र अथवा जंगलतंत्र में तब्दील हो जाता है। यह विडंबना है कि ऐसी कार्रवाईयों में जिन्हें आगे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते दिखाया जाता है, वे स्वयं अक्सर अनभिज्ञ होते हैं कि मामला क्या है। वे या तो एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में या फिर एक दिन की मजदूरी मिलने के चक्कर में इन प्रदर्शनों में भाग लेने आ जाते हैं, जबकि उनके प्रायोजक अपने सुरक्षित ठिकानों में बैठकर संचालन करते रहते हैं।
यह प्रवृत्ति भारतीय समाज में बढ़ रही असहिष्णुता की ओर संकेत करती है। इससे यदा-कदा एक हताशा का भाव भी उत्पन्न होता है कि क्या हमारा देश जनतंत्र के लिए सचमुच योग्य है! एक सर्वमान्य सोच है कि मीडिया जनतंत्र को मजबूत करने में महती भूमिका निभाता है। लेकिन अब उस मीडिया पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं कि वह अपनी अबाधित स्वतंत्रता का उपयोग जनतंत्र को मजबूत करने के लिए कर रहा है या अपने पूंजीगत हितों के लिए निहित स्वार्थों के हाथों खेलने लगा है। अभी हाल में एक बड़बोले मीडिया चैनल ने एक प्रतिस्पर्द्धी चैनल के किसी प्रसारण को लेकर उस पर कानूनी कार्रवाई करने की मांग उठा दी। इसके उत्तर में उस दूसरे चैनल ने अगले दिन एक घंटे के लिए अपना प्रसारण यह कहकर रोक दिया कि हमारा मौन ही हमारी अभिव्यक्ति है। टीवी चैनलों का संचालन एक व्यावसायिक उपक्रम है और उसमें प्रतिस्पद्र्धा होना स्वाभाविक है, किन्तु एक चैनल दूसरे को कानूनी कार्रवाई की धमकी देकर डराने की कोशिश करे और खुद के लिए वाहवाही लूटना चाहे तो इससे मीडिया की नैतिकता पर भी सवाल उठते हैं और उसे प्राप्त स्वतंत्रता पर भी। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर नागरिक क्या करे?
अब बात उठती है सेंसरशिप की याने देश की चुनी हुई सरकार और उसके अभिकरणों द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति पर लगाए गए प्रतिबंधों की। भारत में इसके प्रथम दो उदाहरण अठारहवीं व उन्नीसवीं सदी में मिलते हैं। पहिला जब देश के पहिले अखबार 'बंगाल गजट" के संपादक जेम्स ऑगस्टस हिकी को वायसराय वारेन हैस्टिंग्ज ने जेल में डाल दिया था और दूसरा जब भाषायी अखबारों की आवाज कुचलने के लिए वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया था। यह तो ब्रिटिश राज की बात हो गई। स्वतंत्र देश में भी ''लेडी चैटरलीज लवर" नामक पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई तो न्यायमूर्ति छागला ने उसे खारिज किया था। तत्कालीन बंबई प्रदेश में मोरारजी देसाई की सरकार ने इप्टा पर प्रतिबंध लगाया था और कितने ही कम्युनिस्ट लेखक- कलाकार जेल में डाल दिए गए थे। आज भी केन्द्र हो या प्रदेश- सरकार सेंसरशिप लगाने के लिए मानो उतावली बैठी रहती है। उसे अपनी शक्ति का प्रयोग करने में आनंद की प्राप्ति होती है। अखबारों व टीवी पर सेंसरशिप लगाने के दो तरीके हैं- या तो सीधे-सीधे धमका कर या फिर उन्हें खरीदकर। ऐसा अगर संभव हो पा रहा है तो इसलिए कि जनता किसी हद तक निरपेक्ष व उदासीन हो गई है। यह भी समझ आता है कि किसी फिल्म, नाटक या पुस्तक पर प्रतिबंध इसलिए लग पाता है क्योंकि जो चुने जाकर सरकार में बैठे हैं स्वयं उनकी आस्था जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी नहीं है। इसीलिए वे कभी स्वेच्छा से, तो कभी दबाव में आकर घुटने टेक देते हैं। हम यहां तक कहेंगे कि अदालतों में जो न्याय की आसंदी पर बैठे हैं वे भी अक्सर उस संवेदनशील मसले को समझने में असमर्थ होते हैं।
एक सभ्य समाज में सच कहा जाए तो न तो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता पडऩी चाहिए और न आए दिन सेंसरशिप के कानूनी प्रावधानों को लागू करने की। एक आदर्श स्थिति तो वही होगी जहां आमने-सामने बैठकर बातचीत से विवादों के हल निकाले जाएं। एक मौजूं उदाहरण अखबारी जगत में देखा जा सकता है। पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के नाम पत्र के लिए नियमित रूप से स्थान रहता है। किसी पाठक को छपी हुई सामग्री में कोई बात आपत्तिजनक प्रतीत हो तो वह संपादक को पत्र लिखकर अपना पक्ष सामने रख सकता है और यदि संपादकीय त्रुटि है तो वह अखबार से खेदप्रकाश या क्षमायाचना की अपेक्षा भी कर सकता है। यहां बात खत्म हो जाती है। यह दो पक्षों के बीच का सभ्यतापूर्ण व्यवहार है और इसमें समय, श्रम व धन तीनों की बचत है।
पाठकों की जानकारी के लिए दो बढिय़ा दृष्टांत दिए जा सकते हैं। ''नेशनल जियोग्राफिक" मासिक व ''द इकॉनामिस्ट" साप्ताहिक दो ऐसे पत्र हैं जिनमें पाठक कभी त्रुटियों की ओर इशारा करें तो संपादक की ओर से उसका बाकायदा जवाब दिया जाता है व सौ में निन्यानबे बार यह सिद्ध होता है कि संपादक की जानकारी अद्यतन है, जबकि पाठक स्वयं गलती करते हैं। ऐसे सजग संपादक भारत में दुर्लभ हैं। अखबारों के संदर्भ में ही एक व्यवस्था ओम्बुड्समैन याने लोकपाल की है। पाठक यदि संपादक के उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो वह लोकपाल को अपील कर सकता है। भारत में एकाध ही अखबार ने इस व्यवस्था को अपनाया है। एक अन्य उदाहरण एक ऐसी संस्था के बारे में है जिसके बारे में जनसामान्य को कम जानकारी है। यदि अखबार अथवा टीवी पर प्रसारित विज्ञापन आपत्तिजनक, अविश्वसनीय, स्तरहीन या कुरुचिपूर्ण प्रतीत हो तो कोई भी व्यक्ति एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स कौंसिल ऑफ इंडिया को शिकायत कर सकता है। यह संस्था विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों ने मिलकर बनाई है। अगर शिकायत में दम है तो संस्था उस विज्ञापन को हटा लेने का निर्देश दे देती है। ऐसे कई दृष्टांत हैं जब कौंसिल ने नागरिकों की शिकायत पर अपने सदस्य विज्ञापनदाताओं के खिलाफ निर्णय दिए हैं। यूं तो टीवी चैनलों ने भी इंडियन ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन की स्थापना की है। प्राय: हर चैनल पर प्रतिदिन सूचना प्रसारित होती है कि अगर कोई सामग्री आपत्तिजनक लगे तो दर्शक इस संस्था को शिकायत भेज सकते हैं। लेकिन हमें लगता है कि यह एक निष्प्रभावी संस्था है। चैनलों के कर्ताधर्ता अपने व्यावसायिक हितों की चिंता में ही डूबे रहते हैं। वे दर्शकों की परवाह नहीं करते। अब तो ऐसी ही स्थिति भारतीय प्रेस परिषद की हो गई है जो कि अद्र्धवैधानिक संस्था है। शायद ही कोई भी समाचार पत्र उसकी परवाह करता हो।
बहरहाल हमारा मानना है कि यह जो तीसरा उपाय है वही सबसे अच्छा है। किसी लेखक, कलाकार या विचारक को जेल भेज देना या उसकी हत्या कर देना, किसी पुस्तक को जला देना या उस पर प्रतिबंध लगाना, किसी नाटक या फिल्म को बीच में रोक देना अथवा मजिस्ट्रेट के आदेश से उसे हटा लेना- इन सबसे विजय का क्षणिक एवं मिथ्या अभिमान भले ही कोई कर ले इसमें अंतत: हार समाज की होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रार्थना की थी कि विचारों की सरिता मरुस्थल में जाकर विलीन न हो जाए। यह भी हमें पता है कि सरस्वती इस तरह सचमुच रेगिस्तान में जाकर सूख गई थी। इसलिए यही श्रेयस्कर है कि यदि किसी कृति से हमारा विरोध है तो उसे संयमपूर्ण भाषा में व्यक्त करें और अपनी ओर से बात को वही छोड़ दें। यह सोचकर देखिए कि यदि एथेंसवासियों ने प्लेटो के विचारों पर अमल किया होता तो फिर होमर के ''इलियड" और ''औडेसी" जैसे महाकाव्यों का क्या होता?
प्लेटो के समय में सामाजिक वातावरण उतना जटिल नहीं रहा होगा जैसा कि आधुनिक दौर में है। उस वक्त न तो जनसंख्या ही अधिक थी, न ही विभिन्न समाजों के बीच आदान-प्रदान के लिए आज की भांति द्रुतगामी साधन थे। तकनालॉजी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी और राजनैतिक व्यवस्था का भी कोई सुनिर्धारित सैद्धांतिक ढांचा नहीं था। एथेंस यद्यपि गणराज्य था, जैसे भारत में लिच्छवी गणराज्य, लेकिन ये नगरीय शासन व्यवस्थाएं ही थीं और कहा जा सकता है कि राजनैतिक चिंतन की बस शुरूआत ही हुई थी। उस अपेक्षाकृत सरल सामाजिक परिदृश्य में यदि सेंसरशिप की अवधारणा को जन्म मिला तो मान लेना होगा कि आज यह विचार कई गुना अधिक जटिल रूप में हमारे समाज में विद्यमान है। जहां राजनैतिक व्यवस्था अधिनायकवादी या एकछत्रवादी है, वहां तो जो सत्ताधीश कहे वही सर्वमान्य है, किन्तु जहां जनतंत्र है वहां यह जटिलता विविध प्रश्न खड़े करती है। भारत जैसे समाज में मामला और भी पेचीदा हो उठता है, जहां सांस्कृतिक बहुलता एवं विविधता के कारण किसी भी मसले पर त्वरित व एकसार निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है। यह याद रखने योग्य है कि भारत के संघीय गणराज्य होने के बावजूद राज्यों को न्याय-व्यवस्था के मामलों में उस तरह स्वायत्तता हासिल नहीं है, जैसी कि संयुक्त राज्य अमेरिका में है। अमेरिका में जैसे कुछ राज्यों में मृत्युदंड का प्रावधान है तो कुछ में नहीं है। मतलब यही कि भारत में सेंसरशिप जैसे संवेदनशील प्रश्न पर चर्चा करते हुए अनेकानेक बिंदुओं को संज्ञान में लेना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो जाता है।
जब हम सेंसरशिप की बात करते हैं तो सामान्यत: हमारा आशय उन कानूनी प्रावधानों से होता है, जिनका प्रयोग समय-समय पर सरकार किसी कलात्मक अभिव्यक्ति या सर्जनात्मक गतिविधि को प्रतिबंधित करने के लिए करती है। अर्थात् सेंसरशिप की कल्पना राजसत्ता के बिना नहीं की जा सकती, जिसमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी यथा अवसर अपनी भूमिका निभाती है। यह आवश्यक नहीं है कि इसमें तीनों अंगों की सदैव सहमति हो। इसके परे एक और व्यवस्था है जिसे हम सामाजिक नियंत्रण और/ अथवा आत्मनियमन की संज्ञा दे सकते हैं। इसके अंतर्गत सर्जक (व्यक्ति या समूह) अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार करता है एवं उसके प्रति सजगता दर्शाता है। यहां समूह से मेरा आशय उन कलात्मक प्रस्तुतियों की ओर है, जिनका निर्माण एक अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता, मसलन टीवी कार्यक्रम या सिनेमा। इस व्यवस्था में समाज और सर्जक दोनों बिना किसी मध्यस्थ के, बिना राज्य को बीच में लाए परस्पर बातचीत के द्वारा विवादों का हल निकालते हैं। इन दोनों के अलावा एक पक्ष और भी है जिसका परिचय अक्सर उग्र व हिंसक आंदोलन के रूप में देखने मिलता है। इसमें न तो राजसत्ता द्वारा किए गए विधानों का सम्मान होता है और न सर्जक के साथ बातचीत की सूरत ही निकलती है।
यह कहना एक स्थापित सत्य को दोहराना ही होगा कि जनतंत्र की पहिली शर्त अभिव्यक्ति की आजादी है। एक जनतांत्रिक समाज में ही नाना विचारों का प्रस्फुटन और असहमति का आदर संभव है। ऐसे में जब कोई एक समूह या समुदाय किसी कलात्मक अभिव्यक्ति के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के लिए सड़कों पर उतर आता है तो वह सीधे-सीधे जनतंत्र की मूल भावना पर ही आक्रमण करता है। इसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। पुस्तकों को जलाना, लाइब्रेरी में तोडफ़ोड़ करना, लेखक-विचारक-शिल्पी के खिलाफ फतवा जारी करना, उसके साथ मारपीट, यहां तक कि उसकी हत्या करना, मूर्तियों को खंडित करना, मस्जिद को ढहाना, नाटक का प्रदर्शन बीच में रोक देना, सिनेमाघर में फिल्म न चलने देना, प्रकाशकों-आयोजकों को व्यापार करने से रोकना, कलाकारों को देश छोडऩे पर मजबूर करना, सामान्य कानूनी कार्रवाई करने के बजाय परेशान करने के लिए मुकदमेबाजी करना जैसी घटनाएं भारत में आम हो गई हैं। इनके चलते जनतंत्र, भेड़तंत्र, भीड़तंत्र अथवा जंगलतंत्र में तब्दील हो जाता है। यह विडंबना है कि ऐसी कार्रवाईयों में जिन्हें आगे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते दिखाया जाता है, वे स्वयं अक्सर अनभिज्ञ होते हैं कि मामला क्या है। वे या तो एक समर्पित कार्यकर्ता के रूप में या फिर एक दिन की मजदूरी मिलने के चक्कर में इन प्रदर्शनों में भाग लेने आ जाते हैं, जबकि उनके प्रायोजक अपने सुरक्षित ठिकानों में बैठकर संचालन करते रहते हैं।
यह प्रवृत्ति भारतीय समाज में बढ़ रही असहिष्णुता की ओर संकेत करती है। इससे यदा-कदा एक हताशा का भाव भी उत्पन्न होता है कि क्या हमारा देश जनतंत्र के लिए सचमुच योग्य है! एक सर्वमान्य सोच है कि मीडिया जनतंत्र को मजबूत करने में महती भूमिका निभाता है। लेकिन अब उस मीडिया पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं कि वह अपनी अबाधित स्वतंत्रता का उपयोग जनतंत्र को मजबूत करने के लिए कर रहा है या अपने पूंजीगत हितों के लिए निहित स्वार्थों के हाथों खेलने लगा है। अभी हाल में एक बड़बोले मीडिया चैनल ने एक प्रतिस्पर्द्धी चैनल के किसी प्रसारण को लेकर उस पर कानूनी कार्रवाई करने की मांग उठा दी। इसके उत्तर में उस दूसरे चैनल ने अगले दिन एक घंटे के लिए अपना प्रसारण यह कहकर रोक दिया कि हमारा मौन ही हमारी अभिव्यक्ति है। टीवी चैनलों का संचालन एक व्यावसायिक उपक्रम है और उसमें प्रतिस्पद्र्धा होना स्वाभाविक है, किन्तु एक चैनल दूसरे को कानूनी कार्रवाई की धमकी देकर डराने की कोशिश करे और खुद के लिए वाहवाही लूटना चाहे तो इससे मीडिया की नैतिकता पर भी सवाल उठते हैं और उसे प्राप्त स्वतंत्रता पर भी। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर नागरिक क्या करे?
अब बात उठती है सेंसरशिप की याने देश की चुनी हुई सरकार और उसके अभिकरणों द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति पर लगाए गए प्रतिबंधों की। भारत में इसके प्रथम दो उदाहरण अठारहवीं व उन्नीसवीं सदी में मिलते हैं। पहिला जब देश के पहिले अखबार 'बंगाल गजट" के संपादक जेम्स ऑगस्टस हिकी को वायसराय वारेन हैस्टिंग्ज ने जेल में डाल दिया था और दूसरा जब भाषायी अखबारों की आवाज कुचलने के लिए वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया था। यह तो ब्रिटिश राज की बात हो गई। स्वतंत्र देश में भी ''लेडी चैटरलीज लवर" नामक पुस्तक प्रतिबंधित कर दी गई तो न्यायमूर्ति छागला ने उसे खारिज किया था। तत्कालीन बंबई प्रदेश में मोरारजी देसाई की सरकार ने इप्टा पर प्रतिबंध लगाया था और कितने ही कम्युनिस्ट लेखक- कलाकार जेल में डाल दिए गए थे। आज भी केन्द्र हो या प्रदेश- सरकार सेंसरशिप लगाने के लिए मानो उतावली बैठी रहती है। उसे अपनी शक्ति का प्रयोग करने में आनंद की प्राप्ति होती है। अखबारों व टीवी पर सेंसरशिप लगाने के दो तरीके हैं- या तो सीधे-सीधे धमका कर या फिर उन्हें खरीदकर। ऐसा अगर संभव हो पा रहा है तो इसलिए कि जनता किसी हद तक निरपेक्ष व उदासीन हो गई है। यह भी समझ आता है कि किसी फिल्म, नाटक या पुस्तक पर प्रतिबंध इसलिए लग पाता है क्योंकि जो चुने जाकर सरकार में बैठे हैं स्वयं उनकी आस्था जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी नहीं है। इसीलिए वे कभी स्वेच्छा से, तो कभी दबाव में आकर घुटने टेक देते हैं। हम यहां तक कहेंगे कि अदालतों में जो न्याय की आसंदी पर बैठे हैं वे भी अक्सर उस संवेदनशील मसले को समझने में असमर्थ होते हैं।
एक सभ्य समाज में सच कहा जाए तो न तो सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने की आवश्यकता पडऩी चाहिए और न आए दिन सेंसरशिप के कानूनी प्रावधानों को लागू करने की। एक आदर्श स्थिति तो वही होगी जहां आमने-सामने बैठकर बातचीत से विवादों के हल निकाले जाएं। एक मौजूं उदाहरण अखबारी जगत में देखा जा सकता है। पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के नाम पत्र के लिए नियमित रूप से स्थान रहता है। किसी पाठक को छपी हुई सामग्री में कोई बात आपत्तिजनक प्रतीत हो तो वह संपादक को पत्र लिखकर अपना पक्ष सामने रख सकता है और यदि संपादकीय त्रुटि है तो वह अखबार से खेदप्रकाश या क्षमायाचना की अपेक्षा भी कर सकता है। यहां बात खत्म हो जाती है। यह दो पक्षों के बीच का सभ्यतापूर्ण व्यवहार है और इसमें समय, श्रम व धन तीनों की बचत है।
पाठकों की जानकारी के लिए दो बढिय़ा दृष्टांत दिए जा सकते हैं। ''नेशनल जियोग्राफिक" मासिक व ''द इकॉनामिस्ट" साप्ताहिक दो ऐसे पत्र हैं जिनमें पाठक कभी त्रुटियों की ओर इशारा करें तो संपादक की ओर से उसका बाकायदा जवाब दिया जाता है व सौ में निन्यानबे बार यह सिद्ध होता है कि संपादक की जानकारी अद्यतन है, जबकि पाठक स्वयं गलती करते हैं। ऐसे सजग संपादक भारत में दुर्लभ हैं। अखबारों के संदर्भ में ही एक व्यवस्था ओम्बुड्समैन याने लोकपाल की है। पाठक यदि संपादक के उत्तर से संतुष्ट नहीं है तो वह लोकपाल को अपील कर सकता है। भारत में एकाध ही अखबार ने इस व्यवस्था को अपनाया है। एक अन्य उदाहरण एक ऐसी संस्था के बारे में है जिसके बारे में जनसामान्य को कम जानकारी है। यदि अखबार अथवा टीवी पर प्रसारित विज्ञापन आपत्तिजनक, अविश्वसनीय, स्तरहीन या कुरुचिपूर्ण प्रतीत हो तो कोई भी व्यक्ति एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स कौंसिल ऑफ इंडिया को शिकायत कर सकता है। यह संस्था विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों ने मिलकर बनाई है। अगर शिकायत में दम है तो संस्था उस विज्ञापन को हटा लेने का निर्देश दे देती है। ऐसे कई दृष्टांत हैं जब कौंसिल ने नागरिकों की शिकायत पर अपने सदस्य विज्ञापनदाताओं के खिलाफ निर्णय दिए हैं। यूं तो टीवी चैनलों ने भी इंडियन ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन की स्थापना की है। प्राय: हर चैनल पर प्रतिदिन सूचना प्रसारित होती है कि अगर कोई सामग्री आपत्तिजनक लगे तो दर्शक इस संस्था को शिकायत भेज सकते हैं। लेकिन हमें लगता है कि यह एक निष्प्रभावी संस्था है। चैनलों के कर्ताधर्ता अपने व्यावसायिक हितों की चिंता में ही डूबे रहते हैं। वे दर्शकों की परवाह नहीं करते। अब तो ऐसी ही स्थिति भारतीय प्रेस परिषद की हो गई है जो कि अद्र्धवैधानिक संस्था है। शायद ही कोई भी समाचार पत्र उसकी परवाह करता हो।
बहरहाल हमारा मानना है कि यह जो तीसरा उपाय है वही सबसे अच्छा है। किसी लेखक, कलाकार या विचारक को जेल भेज देना या उसकी हत्या कर देना, किसी पुस्तक को जला देना या उस पर प्रतिबंध लगाना, किसी नाटक या फिल्म को बीच में रोक देना अथवा मजिस्ट्रेट के आदेश से उसे हटा लेना- इन सबसे विजय का क्षणिक एवं मिथ्या अभिमान भले ही कोई कर ले इसमें अंतत: हार समाज की होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रार्थना की थी कि विचारों की सरिता मरुस्थल में जाकर विलीन न हो जाए। यह भी हमें पता है कि सरस्वती इस तरह सचमुच रेगिस्तान में जाकर सूख गई थी। इसलिए यही श्रेयस्कर है कि यदि किसी कृति से हमारा विरोध है तो उसे संयमपूर्ण भाषा में व्यक्त करें और अपनी ओर से बात को वही छोड़ दें। यह सोचकर देखिए कि यदि एथेंसवासियों ने प्लेटो के विचारों पर अमल किया होता तो फिर होमर के ''इलियड" और ''औडेसी" जैसे महाकाव्यों का क्या होता?
अक्षर पर्व अप्रैल 2015 अंक की प्रस्तावना
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