आज का लेख कहां से शुरू किया जाए कुछ समझ
नहीं पड़ रहा है। जब तक पहली पंक्ति ठीक से न लिखी जाए तब तक बात को आगे
बढ़ाना मुश्किल ही होता है। मैं आज एक संक्षिप्त प्रवास से लौटा हूं और
उससे जुड़े कुछ प्रसंग पाठकों के साथ साझा करने का मन हो रहा है। किन्तु
दिक्कत वही है कि प्रारंभ कहां से हो। फिर भी चलिए, कोशिश करके देखते हैं।
इस लेख की एक शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है- उस इको टूरिज्म सेंटर में अपनी कॉटेज तक पहुंचे ही थे कि एक मादक गंध नथुनों में भर गई। यह एक जानी- पहचानी गंध थी और मन ने हुलस कर कहा, अरे! यहां तो महुआ फल रहा है। इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और महुए के लगभग पत्रहीन वृक्ष से महुए के अनगिनत फल टूट कर झरे और चारों तरफ बिखर गए। मोतियों जैसे सफेद महुए के फल, जिन्हें झरते देखकर कभी कविवर बच्चन ने लिखा था- ''महुए के नीचे मोती झरे जाएं।"
एक दूसरी शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है-
हम कुछ ही साल पहले बनी उस नई सड़क पर पहली बार यात्रा कर रहे थे। एक गांव सामने आया बेलमुंडी। उससे कुछ आगे बढ़े ही थे कि दाहिने हाथ पर एक विशाल जलाशय प्रकट हुआ। ऐसा लगा कि जलाशय कई मील तक लंबा चला गया है मानो कोई नदी ही बह रही हो। चारों तरफ धान के खेत थे, जहां जल का स्तर कम था वहां पेड़ों के ठूंठ नज़र आ रहे थे, बगुले तो यहां-वहां बैठे ही थे, किन्तु कुछ और पक्षी भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। मन में सवाल उठा कि क्या शीतकाल में यहां प्रवासी पक्षी आते होंगे? वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थलों पर दिखाई देते हैं।
अब एक तीसरी शुरूआत भी देख लेते हैं-
वह भारत का एक औसत गांव ही था जहां वर्तमान समय के प्रतीक यहां-वहां दिख रहे थे। गांव के छोर पर पुरानी लगभग जर्जर इमारतों वाला परिसर था, जहां काफी गहमागहमी नज़र आ रही थी। तीन-चार सौ लोग तो रहे ही होंगे। प्रवेश द्वार से लोगों की आवाजाही लगी थी। बाहर सड़क के दोनों किनारों पर कुछ गुमटीनुमा दुकानें और ठेले थे। दोनों दिशाओं से बीच-बीच में गाडिय़ां आकर रुक रही थीं और सवारियां उतर रही थीं। समझ आया कि यह तो अस्पताल है। एक अनजाने से गांव के एक छोर पर बसा यह अस्पताल कैसा है? मन में जिज्ञासा उठना स्वाभाविक थी।
अगर ये तीनों प्रारंभिक पंक्तियां न जम रही हों तो एक चौथा प्रयत्न और करते हैं-
अभी दिन ढलने में समय बाकी था, सूर्यास्त के पहले हम लोग घूमकर वापिस लौट सकेंगे यह आश्वस्ति हुई। हम उस जंगल में धंस पड़े। साल के ऐसे घने जंगल बहुत समय बाद देखने मिले। लेकिन वहां सिर्फ साल ही नहीं मिश्रित जंगल का भी क्षेत्र था जिसमें बांस के झुरमुटों के अलावा सतपुड़ा के जंगल में पाए जाने वाले न जाने कितने प्रजातियों के पेड़ व झाडिय़ां थीं, जिनके बीच सफेद मोजे पहने जैसे गौर, चित्तियों वाले हिरण याने चीतल, सांभर, जंगली सुअर, जंगली मुर्गियां और मोर इत्यादि निर्भय विचरण कर रहे थे। झाडिय़ों-झुरमुटों में छिपे प्राणियों को तुरंत देख पाना हमारी अनभ्यस्त आंखों के लिए संभव नहीं था, लेकिन हमारे वाहन चालक द्वारिका को तो आस-पास से आ रही हल्की आहट से ही पता लग जाता था कि यहां कहीं वन्यप्राणी छिपे हैं। हम उन्हें देख रहे थे या वे हमें, कहना मुश्किल है।
इस अंतिम इंट्रो पर भी गौर कर लीजिए-
शहर से कुछ दूर एक संकीर्ण पथ पर बिना आबादी वाले क्षेत्र में वह परिसर स्थित था। भीतर प्रवेश पथ पर सूरजमुखी के पीले और कनेर के लाल फूल कड़ी धूप में भी खिल रहे थे। यह प्रदेश में उच्च शिक्षा का एक केन्द्र था जिसने उसी दिन अपनी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ पार किया था। आपने पांच अनुभवों पर पांच प्रारंभिक टिप्पणियां देख ली हैं। अब इनके बारे में शायद कुछ विस्तार से बात की जा सकती है।
29 और 30 मार्च 2015। कुल दो दिनों में ये अनुभव हासिल हुए। बिलासपुर से अमरकंटक के रास्ते पर अचानकमार का प्रसिद्ध वनक्षेत्र है जो अब बाघ अभयारण्य घोषित कर दिया गया है। यह क्षेत्र अमरकंटक जैव-विविधता क्षेत्र के अंतर्गत भी शामिल है। यहां जंगल के भीतर सौ-सौ साल पुराने डाक बंगले थे जहां कभी सैलानी ठहरा करते थे। वे अब बंद कर दिए गए हैं। पर्यटकों के लिए अभयारण्य प्रारंभ होने के पहले शिवतराई नामक गांव में एक पर्यटक विश्रामगृह कुछ समय पहले स्थापित किया गया है। हम यहां एक रात ठहरे। अभयारण्य से बाहर होकर भी यह स्थान जंगल से बाहर है ऐसा नहीं कहा जा सकता। चारों तरफ विशाल वृक्ष हैं- महुआ, बीजा, साजा, हल्दू, पलाश और कुसुम इत्यादि के जिनकी छाया में आवश्यक सुविधायुक्त पर्यटक कुटीरें बनाई गई हैं। यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं और निसर्ग से कुछ सीखना चाहते हैं तो यह एक मनोरम स्थान है। जंगल की ताजी हवा अपने फेफड़ों में भरते हुए आप आंतरिक शांति के कुछ बहुमूल्य पल यहां बिता सकते हैं।
मैं अचानकमार पहले भी आया था। एक बार तो राज्य वन्य प्राणी संरक्षण मंडल के सदस्य के रूप में। बाघ अभयारण्य के बीच बसे गांवों को हटाया जाना था। इसकी प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए। अभी पता चला कि कुछ गांव हट गए हैं, कुछ यथावत हैं। शिवतराई के विश्रामगृह में जो पर्यटक कुटीरें बनी हैं उनके नाम इन्हीं विस्थापित गांवों पर रखे गए हैं जैसे- बल्दाकछार या जल्दा इत्यादि। उन गांवों की स्मृतियां अब इस रूप में जीवित रहेंगी! अभयारण्य में एक स्थान है जिसका नाम है मैकूमठ। बताया गया कि मैकू नामक एक आदिवासी को बरसों पहले यहीं एक शेर ने मार डाला था और रात भर उसके शव के पास बैठा रहा था। बाद में एक वन अधिकारी ने उस शेर को मारा था। बिलासपुर-मुंगेली की एक प्रमुख नदी मनियारी यहीं सिहावल सागर नामक जगह से निकलती है। वहां हाथियों के लिए एक लघु अभ्यारण्य जैसा बनाया गया है, जिसमें फिलहाल चार हाथी हैं।
ऊपर जिस अस्पताल की बात की वह गनियारी ग्राम में स्थित जन स्वास्थ्य सहयोग नामक संस्था द्वारा संचालित है। इस अस्पताल की ख्याति देश और देश के बाहर है। फल बेचने वाले युवक घनश्याम ने कहा कि रायपुर-बिलासपुर में जिस इलाज में लाख-दो लाख लगते हैं वह यहां दस-पन्द्रह हजार में हो जाता है। इस अस्पताल के सभी डॉक्टर उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी हैं और उनका सेवाभाव उन्हें यहां तक खींचकर ले आया। दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल और गनियारी का जन स्वास्थ्य सहयोग हमारे प्रदेश में सुलभ चिकित्सा सेवा के दो आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। इस विडंबना को क्या कहें कि इनकी प्रशंसा तो सब करते हैं, लेकिन इनसे प्रेरणा लेने के बारे में कोई इक्का-दुक्का ही सोचता है। डॉ. रमन (मुख्यमंत्री नहीं) और उनके साथियों की जितनी सराहना की जाए कम है।
इधर कुछ साल पहले बिलासपुर में हाईकोर्ट के पहले एक बायपास रोड बन गया है जिससे पहली बार गुजरने का मौका मिला। यह रास्ता आगे जाकर एक ओर कोटा-अमरकंटक और दूसरी ओर कटघोरा-कोरबा की तरफ चला जाता है। दूरी की बचत तो खास नहीं, लेकिन बिलासपुर शहर के सघन यातायात से अवश्य राहत मिल जाती है। इसी सड़क से दक्षिण-पश्चिम दिशा में घोंघा नदी पर कोपरा जलाशय का निर्माण किया गया है। बिलासपुर न जाने कितनी बार जाना हुआ होगा। लेकिन बायपास से न गुजरते तो इस जलाशय को न देख पाते। मेरा ख्याल है कि बिलासपुर के नगरवासी भी इस स्थान से अधिक परिचित नहीं हैं।
29 मार्च को बिलासपुर में पंडित सुन्दरलाल शर्मा मुक्तविश्वविद्यालय का ग्यारहवां स्थापना दिवस था। छत्तीसगढ़ प्रदेश की अस्मिता के एक प्रबल प्रतीक, स्वाधीनता सेनानी लेखक व समाज सुधारक के नाम पर स्थापित यह विश्वविद्यालय जैसा कि नाम से जाहिर है छत्तीसगढ़ में दूरस्थ शिक्षा की प्रमुख संस्था है। यह एक सुखद संयोग था कि वि.वि. के ग्यारहवें स्थापना समारोह में सम्मिलित करने का अवसर मुझे मिला। मुक्त वि.वि. की अवधारणा अन्य वि.वि. से भिन्न हैं। यहां वे व्यक्ति उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं जो किसी न किसी कारणवश संस्थागत शिक्षा से वंचित हो गए हों। इनमें प्रदेश के दूरदराज के इलाकों के युवा भी हो सकते हैं और ऐसे कामकाजी लोग भी जो आगे पढ़ाई करना चाहते हैं। उम्मीद करना चाहिए कि वि.वि. अपने उद्देश्य को पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहेगा।
इस लेख की एक शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है- उस इको टूरिज्म सेंटर में अपनी कॉटेज तक पहुंचे ही थे कि एक मादक गंध नथुनों में भर गई। यह एक जानी- पहचानी गंध थी और मन ने हुलस कर कहा, अरे! यहां तो महुआ फल रहा है। इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और महुए के लगभग पत्रहीन वृक्ष से महुए के अनगिनत फल टूट कर झरे और चारों तरफ बिखर गए। मोतियों जैसे सफेद महुए के फल, जिन्हें झरते देखकर कभी कविवर बच्चन ने लिखा था- ''महुए के नीचे मोती झरे जाएं।"
एक दूसरी शुरूआत कुछ इस तरह से हो सकती है-
हम कुछ ही साल पहले बनी उस नई सड़क पर पहली बार यात्रा कर रहे थे। एक गांव सामने आया बेलमुंडी। उससे कुछ आगे बढ़े ही थे कि दाहिने हाथ पर एक विशाल जलाशय प्रकट हुआ। ऐसा लगा कि जलाशय कई मील तक लंबा चला गया है मानो कोई नदी ही बह रही हो। चारों तरफ धान के खेत थे, जहां जल का स्तर कम था वहां पेड़ों के ठूंठ नज़र आ रहे थे, बगुले तो यहां-वहां बैठे ही थे, किन्तु कुछ और पक्षी भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। मन में सवाल उठा कि क्या शीतकाल में यहां प्रवासी पक्षी आते होंगे? वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के अनेक स्थलों पर दिखाई देते हैं।
अब एक तीसरी शुरूआत भी देख लेते हैं-
वह भारत का एक औसत गांव ही था जहां वर्तमान समय के प्रतीक यहां-वहां दिख रहे थे। गांव के छोर पर पुरानी लगभग जर्जर इमारतों वाला परिसर था, जहां काफी गहमागहमी नज़र आ रही थी। तीन-चार सौ लोग तो रहे ही होंगे। प्रवेश द्वार से लोगों की आवाजाही लगी थी। बाहर सड़क के दोनों किनारों पर कुछ गुमटीनुमा दुकानें और ठेले थे। दोनों दिशाओं से बीच-बीच में गाडिय़ां आकर रुक रही थीं और सवारियां उतर रही थीं। समझ आया कि यह तो अस्पताल है। एक अनजाने से गांव के एक छोर पर बसा यह अस्पताल कैसा है? मन में जिज्ञासा उठना स्वाभाविक थी।
अगर ये तीनों प्रारंभिक पंक्तियां न जम रही हों तो एक चौथा प्रयत्न और करते हैं-
अभी दिन ढलने में समय बाकी था, सूर्यास्त के पहले हम लोग घूमकर वापिस लौट सकेंगे यह आश्वस्ति हुई। हम उस जंगल में धंस पड़े। साल के ऐसे घने जंगल बहुत समय बाद देखने मिले। लेकिन वहां सिर्फ साल ही नहीं मिश्रित जंगल का भी क्षेत्र था जिसमें बांस के झुरमुटों के अलावा सतपुड़ा के जंगल में पाए जाने वाले न जाने कितने प्रजातियों के पेड़ व झाडिय़ां थीं, जिनके बीच सफेद मोजे पहने जैसे गौर, चित्तियों वाले हिरण याने चीतल, सांभर, जंगली सुअर, जंगली मुर्गियां और मोर इत्यादि निर्भय विचरण कर रहे थे। झाडिय़ों-झुरमुटों में छिपे प्राणियों को तुरंत देख पाना हमारी अनभ्यस्त आंखों के लिए संभव नहीं था, लेकिन हमारे वाहन चालक द्वारिका को तो आस-पास से आ रही हल्की आहट से ही पता लग जाता था कि यहां कहीं वन्यप्राणी छिपे हैं। हम उन्हें देख रहे थे या वे हमें, कहना मुश्किल है।
इस अंतिम इंट्रो पर भी गौर कर लीजिए-
शहर से कुछ दूर एक संकीर्ण पथ पर बिना आबादी वाले क्षेत्र में वह परिसर स्थित था। भीतर प्रवेश पथ पर सूरजमुखी के पीले और कनेर के लाल फूल कड़ी धूप में भी खिल रहे थे। यह प्रदेश में उच्च शिक्षा का एक केन्द्र था जिसने उसी दिन अपनी यात्रा का एक महत्वपूर्ण मोड़ पार किया था। आपने पांच अनुभवों पर पांच प्रारंभिक टिप्पणियां देख ली हैं। अब इनके बारे में शायद कुछ विस्तार से बात की जा सकती है।
29 और 30 मार्च 2015। कुल दो दिनों में ये अनुभव हासिल हुए। बिलासपुर से अमरकंटक के रास्ते पर अचानकमार का प्रसिद्ध वनक्षेत्र है जो अब बाघ अभयारण्य घोषित कर दिया गया है। यह क्षेत्र अमरकंटक जैव-विविधता क्षेत्र के अंतर्गत भी शामिल है। यहां जंगल के भीतर सौ-सौ साल पुराने डाक बंगले थे जहां कभी सैलानी ठहरा करते थे। वे अब बंद कर दिए गए हैं। पर्यटकों के लिए अभयारण्य प्रारंभ होने के पहले शिवतराई नामक गांव में एक पर्यटक विश्रामगृह कुछ समय पहले स्थापित किया गया है। हम यहां एक रात ठहरे। अभयारण्य से बाहर होकर भी यह स्थान जंगल से बाहर है ऐसा नहीं कहा जा सकता। चारों तरफ विशाल वृक्ष हैं- महुआ, बीजा, साजा, हल्दू, पलाश और कुसुम इत्यादि के जिनकी छाया में आवश्यक सुविधायुक्त पर्यटक कुटीरें बनाई गई हैं। यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं और निसर्ग से कुछ सीखना चाहते हैं तो यह एक मनोरम स्थान है। जंगल की ताजी हवा अपने फेफड़ों में भरते हुए आप आंतरिक शांति के कुछ बहुमूल्य पल यहां बिता सकते हैं।
मैं अचानकमार पहले भी आया था। एक बार तो राज्य वन्य प्राणी संरक्षण मंडल के सदस्य के रूप में। बाघ अभयारण्य के बीच बसे गांवों को हटाया जाना था। इसकी प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए। अभी पता चला कि कुछ गांव हट गए हैं, कुछ यथावत हैं। शिवतराई के विश्रामगृह में जो पर्यटक कुटीरें बनी हैं उनके नाम इन्हीं विस्थापित गांवों पर रखे गए हैं जैसे- बल्दाकछार या जल्दा इत्यादि। उन गांवों की स्मृतियां अब इस रूप में जीवित रहेंगी! अभयारण्य में एक स्थान है जिसका नाम है मैकूमठ। बताया गया कि मैकू नामक एक आदिवासी को बरसों पहले यहीं एक शेर ने मार डाला था और रात भर उसके शव के पास बैठा रहा था। बाद में एक वन अधिकारी ने उस शेर को मारा था। बिलासपुर-मुंगेली की एक प्रमुख नदी मनियारी यहीं सिहावल सागर नामक जगह से निकलती है। वहां हाथियों के लिए एक लघु अभ्यारण्य जैसा बनाया गया है, जिसमें फिलहाल चार हाथी हैं।
ऊपर जिस अस्पताल की बात की वह गनियारी ग्राम में स्थित जन स्वास्थ्य सहयोग नामक संस्था द्वारा संचालित है। इस अस्पताल की ख्याति देश और देश के बाहर है। फल बेचने वाले युवक घनश्याम ने कहा कि रायपुर-बिलासपुर में जिस इलाज में लाख-दो लाख लगते हैं वह यहां दस-पन्द्रह हजार में हो जाता है। इस अस्पताल के सभी डॉक्टर उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी हैं और उनका सेवाभाव उन्हें यहां तक खींचकर ले आया। दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल और गनियारी का जन स्वास्थ्य सहयोग हमारे प्रदेश में सुलभ चिकित्सा सेवा के दो आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। इस विडंबना को क्या कहें कि इनकी प्रशंसा तो सब करते हैं, लेकिन इनसे प्रेरणा लेने के बारे में कोई इक्का-दुक्का ही सोचता है। डॉ. रमन (मुख्यमंत्री नहीं) और उनके साथियों की जितनी सराहना की जाए कम है।
इधर कुछ साल पहले बिलासपुर में हाईकोर्ट के पहले एक बायपास रोड बन गया है जिससे पहली बार गुजरने का मौका मिला। यह रास्ता आगे जाकर एक ओर कोटा-अमरकंटक और दूसरी ओर कटघोरा-कोरबा की तरफ चला जाता है। दूरी की बचत तो खास नहीं, लेकिन बिलासपुर शहर के सघन यातायात से अवश्य राहत मिल जाती है। इसी सड़क से दक्षिण-पश्चिम दिशा में घोंघा नदी पर कोपरा जलाशय का निर्माण किया गया है। बिलासपुर न जाने कितनी बार जाना हुआ होगा। लेकिन बायपास से न गुजरते तो इस जलाशय को न देख पाते। मेरा ख्याल है कि बिलासपुर के नगरवासी भी इस स्थान से अधिक परिचित नहीं हैं।
29 मार्च को बिलासपुर में पंडित सुन्दरलाल शर्मा मुक्तविश्वविद्यालय का ग्यारहवां स्थापना दिवस था। छत्तीसगढ़ प्रदेश की अस्मिता के एक प्रबल प्रतीक, स्वाधीनता सेनानी लेखक व समाज सुधारक के नाम पर स्थापित यह विश्वविद्यालय जैसा कि नाम से जाहिर है छत्तीसगढ़ में दूरस्थ शिक्षा की प्रमुख संस्था है। यह एक सुखद संयोग था कि वि.वि. के ग्यारहवें स्थापना समारोह में सम्मिलित करने का अवसर मुझे मिला। मुक्त वि.वि. की अवधारणा अन्य वि.वि. से भिन्न हैं। यहां वे व्यक्ति उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं जो किसी न किसी कारणवश संस्थागत शिक्षा से वंचित हो गए हों। इनमें प्रदेश के दूरदराज के इलाकों के युवा भी हो सकते हैं और ऐसे कामकाजी लोग भी जो आगे पढ़ाई करना चाहते हैं। उम्मीद करना चाहिए कि वि.वि. अपने उद्देश्य को पाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहेगा।
देशबन्धु में 02 अप्रैल 2015 को प्रकाशित
बढिया यात्रा संस्मरण
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