पिछले साल जब प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत
के सौ साल पूरे हुए, तब दुनिया के अनेक देशों में इस ऐतिहासिक घटना को याद
करते हुए भांति-भांति के कार्यक्रम आयोजित किए गए जिनका सिलसिला अब तक चला आ
रहा है। इस अवसर पर युद्ध के दौरान या युद्ध पर आधारित कविताओं का,
कहानियों का पुनर्प्रकाशन हुआ। मोर्चे से सैनिकों द्वारा लिखे गए पत्र
खोज-खोज कर अखबारों में छपे और सोशल मीडिया पर प्रकाशित हुए। युद्ध पर बनाई
गई फिल्में भी प्रदर्शित की गईं। विजयी मित्र देशों ने एक तरफ अपने
सैनिकों को श्रद्धांजलि दी तो दूसरी ओर एक सदी पहले हासिल विजय के उपलक्ष्य
में सरकारी और गैरसरकारी पार्टियों का आयोजन हुआ।
इस महायुद्ध में भारत की भी भूमिका थी, उसे भी विधिवत स्मरण किया गया। भारतीय सेना के जिन जांबाज सिपाहियों को विक्टोरिया क्रॉस आदि से अलंकृत किया गया था, उनकी तथा उनके वारिसों की नए सिरे से खोज-खबर ली गई। हमें एक बार फिर ध्यान आया कि देश की राजधानी में स्थापित इंडिया गेट जो आज भले ही सैर-सपाटे का केेंद्र हो, उसका निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध में मृत भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया था। यह एक संयोग है कि इंडिया गेट अब सिर्फ प्रथम महायुद्ध के वीर सैनिकों का स्मारक न होकर गत एक सदी के दौरान अन्य युद्धों में भारतीय सैनिकों द्वारा किए गए बलिदान का प्रतीक बन गया है।
प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने की सौवीं वर्षगांठ का सिलसिला 2014 में जो प्रारंभ हुआ, वह अभी रुका नहीं है। यह युद्ध चार साल चला था। अब जिस तरह से कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि 2018 तक यह क्रम चलता रहेगा। अगर युद्ध की विभीषिका को याद करने से शांति के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती हो तो ऐसे आयोजनों का स्वागत होना चाहिए। फिलहाल मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि इस महायुद्ध में भारत की भूमिका की स्मृतियां क्या सैन्य दस्तावेजों के अलावा अन्यत्र कहीं सुरक्षित हैं? यह प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि इस साल हिन्दी जगत उस कहानी की जन्म शताब्दी मना रहा है जो प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में रची गई थी। मेरी जानकारी में हिन्दी ही नहीं अन्य किसी भी भारतीय भाषा में और संभवत: अन्य किसी भी लेखक ने प्रथम विश्वयुद्ध पर कोई कविता या कहानी नहीं लिखी। इस नाते अमर मानी जाने वाली यह कहानी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है तथा जिन सैन्य अधिकारियों ने थोड़ी बहुत भी हिन्दी पढ़ी है उन्हें कम से कम आज इस कहानी को फिर से याद कर लेना चाहिए।
यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि भारतीय भाषाओं में युद्ध से संबंधित साहित्य नहीं के बराबर लिखा गया है। मैं अपने दिमाग पर जोर डालता हूं तो पहले एक उपन्यास याद आता है देवेश दास द्वारा लिखित 'रक्तराग'। यह उपन्यास दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखा गया था। देवेश दास एक आईसीएस अफसर थे। इस उपन्यास के अलावा उन्होंने अन्य कोई साहित्यिक रचना की हो तो वह मेरी जानकारी में नहीं है। इसके कई साल बाद 1965 के युद्ध पर मनहर चौहान का उपन्यास 'सीमाएं' प्रकाशित हुआ जिसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। आगे चलकर जगदीशचंद्र ने सैन्य अधिकारियों के जीवन पर केन्द्रित दो उपन्यास लिखे 'आधा पुल' और 'टुंडा लाट'। आधा पुल में सैनिक छावनी का विवरण है और 1971 के युद्ध की कुछ छवियां भी हैं। इस दुखांत उपन्यास के नायक का एक मार्मिक कथन बार-बार ध्यान आता है- जिस गोली पर मेरा नाम लिखा होगा, वह जब तक नहीं लगेगी, तब तक मैं नहीं मरूंगा। जगदीशचंद्र भारतीय सेना में जनसंपर्क अधिकारी थे, इस नाते उनके ब्यौरों में प्रामाणिकता का पुट मिलता है।
इस तरह इक्का-दुक्का कृतियों को छोड़ दिया जाए तो कहा जा सकता है कि हमारे देश में युद्ध साहित्य का सर्वथा अभाव है। यह तब जबकि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने के अलावा हम पांच लड़ाइयां और लड़ चुके हैं। इसकी क्या वजह हो सकती है? शायद यही कि भारतीय लेखक पारंपरिक विषयों से हटकर लिखने में, उसके लिए सामग्री जुटाने में, आïवश्यक शोध करने के लिए जो कष्ट उठाने की आवश्यकता होती है, उससे बचना चाहता है! इसकी एक और वजह हो सकती है कि युद्ध की छाया हमारे भूगोल के एक छोटे हिस्से पर ही पड़ती है; सरहदी इलाकों से वह आगे नहीं बढ़ पाती और तात्कालिक भावोद्रेक के बाद समाज उस ओर से निर्लिप्त हो जाता है।
इस पृष्ठभूमि में यह तथ्य अपने आप में दिलचस्प है कि आज से सौ साल पहले चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 'उसने कहा था' जैसी कहानी लिखी जो पाठक को युद्ध के मोर्चे तक ले जाती है। पाठकों को पता है कि गुलेरीजी देश के महान कथाकार माने जाते हैं, जबकि उन्होंने कुल तीन कहानियां लिखींऔर उनमें भी 'उसने कहा था' को एक बेजोड़ रचना माना जाता है। पांचवींकक्षा से लेकर हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने तक यह कहानी न जाने कितनी बार पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है। 'उसने कहा था' की जो व्याख्या कक्षाओं में की जाती है उसके अनुसार यह प्रेम कहानी है जो आत्मोसर्ग की कसौटी पर प्रेम को परखती है। यह तो ठीक है कि कुमारवय के प्रेम से प्रारंभ हुई यह कहानी प्रौढ़ावस्था में किए गए बलिदान पर जाकर समाप्त हो जाती है लेकिन मेरा मानना है कि इस केन्द्रीय कथानक से हटकर भी 'उसने कहा था' का अध्ययन किया जाना चाहिए।
सबसे पहली बात तो यही है कि यह संभवत: हिन्दुस्तानी फौजियों के जीवन पर लिखी गई पहली कहानी है। दूसरी नोट करने लायक बात यह है कि कहानी में मोर्चे का वर्णन है। तीसरा तथ्य यह है कि यह मोर्चा भारत की सरहद पर नहीं बल्कि सुदूर फ्रांस में है। इसे पढ़कर स्वाभाविक रूप से मन में सवाल उठना चाहिए था कि आखिर भारतीय सैनिक सात समंदर पार फ्रांस की भूमि पर लडऩे क्यों गए थे और किसके लिए गए थे? इस सवाल में ही यह जवाब भी निहित है कि भारत एक गुलाम देश था और ये सिपाही ब्रिटिश फौज में सेवाएं दे रहे थे। यहां एक नया प्रश्न भी उठता है कि बीसवींसदी के प्रारंभ में पंजाब में ऐसी कौन सी स्थितियां थीं जिसके कारण उस प्रदेश के नौजवान सेना में न सिर्फ भरती हो रहे थे बल्कि हजारों मील दूर जाकर लड़ भी रहे थे। इन्हें इसके लिए क्या कहकर समझाया गया होगा? उन्हें क्या प्रलोभन दिए गए होंंगे?
हिन्दी साहित्य के गंभीर विद्यार्थी जानते हैं कि 'उसने कहा था' के पहले जो कहानियां लिखी जा रही थीं, वे सामान्यत: नीति कथाएं ही थीं। तब ऐसी क्या बात थी जिसने गुलेरी जी को 'उसने कहा था' लिखने के लिए प्रेरित किया। इस कहानी में अमृतसर की गलियों का ऐसा प्रामाणिक विवरण है जो आज भी अमृतसर की पुरानी बसाहट से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। इस दृश्यविधान को लेकर गुलेरीजी कुछ और भी लिख सकते थे। लहना सिंह और सूबेदारनी की प्रेमकथा के लिए कोई और घटनाचक्र भी रचा जा सकता था। इस कहानी में ही सूबेदारनी कहती है कि तुमने मुझे बचपन में बचाया था। आशय यह कि प्रेम की परीक्षा देने के लिए लहना सिंह को मोर्चे पर जाने की आवश्यकता नहींथी। अगर किसी शोधकर्ता ने गुलेरीजी की रचना प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए इस ओर ध्यान दिया हो तो उसे जानने में मेरी रुचि होगी। अभी तो इतना ही कहना उचित होगा कि प्रथम विश्वयुद्ध पर रचे गए अपार साहित्य में हिन्दी की इस कहानी की भी गणना की जानी चाहिए और इसके लिए मैं चाहूंगा कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अपनी ओर से कोई पहल करें।
इस महायुद्ध में भारत की भी भूमिका थी, उसे भी विधिवत स्मरण किया गया। भारतीय सेना के जिन जांबाज सिपाहियों को विक्टोरिया क्रॉस आदि से अलंकृत किया गया था, उनकी तथा उनके वारिसों की नए सिरे से खोज-खबर ली गई। हमें एक बार फिर ध्यान आया कि देश की राजधानी में स्थापित इंडिया गेट जो आज भले ही सैर-सपाटे का केेंद्र हो, उसका निर्माण प्रथम विश्वयुद्ध में मृत भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया था। यह एक संयोग है कि इंडिया गेट अब सिर्फ प्रथम महायुद्ध के वीर सैनिकों का स्मारक न होकर गत एक सदी के दौरान अन्य युद्धों में भारतीय सैनिकों द्वारा किए गए बलिदान का प्रतीक बन गया है।
प्रथम विश्वयुद्ध शुरु होने की सौवीं वर्षगांठ का सिलसिला 2014 में जो प्रारंभ हुआ, वह अभी रुका नहीं है। यह युद्ध चार साल चला था। अब जिस तरह से कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है कि 2018 तक यह क्रम चलता रहेगा। अगर युद्ध की विभीषिका को याद करने से शांति के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती हो तो ऐसे आयोजनों का स्वागत होना चाहिए। फिलहाल मेरे मन में यह सवाल उठ रहा है कि इस महायुद्ध में भारत की भूमिका की स्मृतियां क्या सैन्य दस्तावेजों के अलावा अन्यत्र कहीं सुरक्षित हैं? यह प्रश्न इसलिए उठा क्योंकि इस साल हिन्दी जगत उस कहानी की जन्म शताब्दी मना रहा है जो प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में रची गई थी। मेरी जानकारी में हिन्दी ही नहीं अन्य किसी भी भारतीय भाषा में और संभवत: अन्य किसी भी लेखक ने प्रथम विश्वयुद्ध पर कोई कविता या कहानी नहीं लिखी। इस नाते अमर मानी जाने वाली यह कहानी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है तथा जिन सैन्य अधिकारियों ने थोड़ी बहुत भी हिन्दी पढ़ी है उन्हें कम से कम आज इस कहानी को फिर से याद कर लेना चाहिए।
यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि भारतीय भाषाओं में युद्ध से संबंधित साहित्य नहीं के बराबर लिखा गया है। मैं अपने दिमाग पर जोर डालता हूं तो पहले एक उपन्यास याद आता है देवेश दास द्वारा लिखित 'रक्तराग'। यह उपन्यास दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखा गया था। देवेश दास एक आईसीएस अफसर थे। इस उपन्यास के अलावा उन्होंने अन्य कोई साहित्यिक रचना की हो तो वह मेरी जानकारी में नहीं है। इसके कई साल बाद 1965 के युद्ध पर मनहर चौहान का उपन्यास 'सीमाएं' प्रकाशित हुआ जिसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। आगे चलकर जगदीशचंद्र ने सैन्य अधिकारियों के जीवन पर केन्द्रित दो उपन्यास लिखे 'आधा पुल' और 'टुंडा लाट'। आधा पुल में सैनिक छावनी का विवरण है और 1971 के युद्ध की कुछ छवियां भी हैं। इस दुखांत उपन्यास के नायक का एक मार्मिक कथन बार-बार ध्यान आता है- जिस गोली पर मेरा नाम लिखा होगा, वह जब तक नहीं लगेगी, तब तक मैं नहीं मरूंगा। जगदीशचंद्र भारतीय सेना में जनसंपर्क अधिकारी थे, इस नाते उनके ब्यौरों में प्रामाणिकता का पुट मिलता है।
इस तरह इक्का-दुक्का कृतियों को छोड़ दिया जाए तो कहा जा सकता है कि हमारे देश में युद्ध साहित्य का सर्वथा अभाव है। यह तब जबकि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेने के अलावा हम पांच लड़ाइयां और लड़ चुके हैं। इसकी क्या वजह हो सकती है? शायद यही कि भारतीय लेखक पारंपरिक विषयों से हटकर लिखने में, उसके लिए सामग्री जुटाने में, आïवश्यक शोध करने के लिए जो कष्ट उठाने की आवश्यकता होती है, उससे बचना चाहता है! इसकी एक और वजह हो सकती है कि युद्ध की छाया हमारे भूगोल के एक छोटे हिस्से पर ही पड़ती है; सरहदी इलाकों से वह आगे नहीं बढ़ पाती और तात्कालिक भावोद्रेक के बाद समाज उस ओर से निर्लिप्त हो जाता है।
इस पृष्ठभूमि में यह तथ्य अपने आप में दिलचस्प है कि आज से सौ साल पहले चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 'उसने कहा था' जैसी कहानी लिखी जो पाठक को युद्ध के मोर्चे तक ले जाती है। पाठकों को पता है कि गुलेरीजी देश के महान कथाकार माने जाते हैं, जबकि उन्होंने कुल तीन कहानियां लिखींऔर उनमें भी 'उसने कहा था' को एक बेजोड़ रचना माना जाता है। पांचवींकक्षा से लेकर हिन्दी साहित्य में एम.ए. करने तक यह कहानी न जाने कितनी बार पाठ्यक्रम में शामिल की जाती है। 'उसने कहा था' की जो व्याख्या कक्षाओं में की जाती है उसके अनुसार यह प्रेम कहानी है जो आत्मोसर्ग की कसौटी पर प्रेम को परखती है। यह तो ठीक है कि कुमारवय के प्रेम से प्रारंभ हुई यह कहानी प्रौढ़ावस्था में किए गए बलिदान पर जाकर समाप्त हो जाती है लेकिन मेरा मानना है कि इस केन्द्रीय कथानक से हटकर भी 'उसने कहा था' का अध्ययन किया जाना चाहिए।
सबसे पहली बात तो यही है कि यह संभवत: हिन्दुस्तानी फौजियों के जीवन पर लिखी गई पहली कहानी है। दूसरी नोट करने लायक बात यह है कि कहानी में मोर्चे का वर्णन है। तीसरा तथ्य यह है कि यह मोर्चा भारत की सरहद पर नहीं बल्कि सुदूर फ्रांस में है। इसे पढ़कर स्वाभाविक रूप से मन में सवाल उठना चाहिए था कि आखिर भारतीय सैनिक सात समंदर पार फ्रांस की भूमि पर लडऩे क्यों गए थे और किसके लिए गए थे? इस सवाल में ही यह जवाब भी निहित है कि भारत एक गुलाम देश था और ये सिपाही ब्रिटिश फौज में सेवाएं दे रहे थे। यहां एक नया प्रश्न भी उठता है कि बीसवींसदी के प्रारंभ में पंजाब में ऐसी कौन सी स्थितियां थीं जिसके कारण उस प्रदेश के नौजवान सेना में न सिर्फ भरती हो रहे थे बल्कि हजारों मील दूर जाकर लड़ भी रहे थे। इन्हें इसके लिए क्या कहकर समझाया गया होगा? उन्हें क्या प्रलोभन दिए गए होंंगे?
हिन्दी साहित्य के गंभीर विद्यार्थी जानते हैं कि 'उसने कहा था' के पहले जो कहानियां लिखी जा रही थीं, वे सामान्यत: नीति कथाएं ही थीं। तब ऐसी क्या बात थी जिसने गुलेरी जी को 'उसने कहा था' लिखने के लिए प्रेरित किया। इस कहानी में अमृतसर की गलियों का ऐसा प्रामाणिक विवरण है जो आज भी अमृतसर की पुरानी बसाहट से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। इस दृश्यविधान को लेकर गुलेरीजी कुछ और भी लिख सकते थे। लहना सिंह और सूबेदारनी की प्रेमकथा के लिए कोई और घटनाचक्र भी रचा जा सकता था। इस कहानी में ही सूबेदारनी कहती है कि तुमने मुझे बचपन में बचाया था। आशय यह कि प्रेम की परीक्षा देने के लिए लहना सिंह को मोर्चे पर जाने की आवश्यकता नहींथी। अगर किसी शोधकर्ता ने गुलेरीजी की रचना प्रक्रिया का अध्ययन करते हुए इस ओर ध्यान दिया हो तो उसे जानने में मेरी रुचि होगी। अभी तो इतना ही कहना उचित होगा कि प्रथम विश्वयुद्ध पर रचे गए अपार साहित्य में हिन्दी की इस कहानी की भी गणना की जानी चाहिए और इसके लिए मैं चाहूंगा कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी अपनी ओर से कोई पहल करें।
देशबन्धु में 30 अप्रैल 2015 को प्रकाशित
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