खबर है कि भारत सरकार विदेशियों के लिए भारत को एक शिक्षा गंतव्य के रूप में विकसित करना चाहती है। दूसरे शब्दों में सरकार की मंशा है कि दूसरे देशों से बड़ी संख्या में छात्र आकर हमारे विश्वविद्यालयों में पढ़ें। अभी हर साल अमूमन तीस हजार विदेशी छात्र भारत में पढऩे के लिए आते हैं। इसमें अधिकतर तीसरी दुनिया के देशों के होते हैं। उन्हें यहां के वातावरण में जो असुविधाएं होती हैं उन्हें कैसे दूर किया जाए तथा इन छात्रों के लिए भारत कैसे एक आकर्षक गंतव्य बन सके इस पर विचार चल रहा है। इसके साथ दूसरी खबर है कि केन्द्र सरकार स्वायत्तशासी शिक्षण संस्थानों पर लगाम कसने की तैयारी कर रही है। मोदी सरकार की सोच है कि उच्च शिक्षा के ये संस्थान अपने लक्ष्य से भटक गए हैं। सरकार का यह भी ख्याल है कि आर्थिक अनुदान में कटौती कर उन्हें रास्ते पर लाया जा सकता है। इस हेतु वरिष्ठ नौकरशाहों की सदस्यता वाली दो समितियां बना दी गई हैं, जिनकी सिफारिश आने के बाद इस संबंध में कोई अंतिम फैसला हो पाएगा।
दोनों खबरों में स्पष्ट अंतर्विरोध दिखाई देता है। यदि किसी विश्वविद्यालय अथवा उच्च शिक्षा के अन्य संस्थान में पर्याप्त स्वायत्तता नहीं है तो वह स्थान युवाओं के लिए आदर्श और आकर्षक कैसे हो सकता है? ऐसे संस्थान में दोहरी व्यवस्था तो होगी नहीं कि भारतीय विद्यार्थियों को निगरानी में रखा जाए, उनकी स्वायत्तता में कटौती हो और दूसरी ओर विदेशी विद्यार्थियों को उनके मनमाफिक आदर्श वातावरण मिल सके! आखिरकार परिसर एक ही होगा, शिक्षक भी वही होंगे तथा प्रशासनिक व्यवस्था भी अलग नहीं होगी। कोई भी विदेशी विद्यार्थी भारत में पढऩे के लिए अगर आएगा, तो उसका पहला कारण होगा- किफायती शिक्षण शुल्क और किफायत से जीवन निर्वाह। किन्तु इसके अलावा उसकी आंखों में उदार वातावरण का सपना होगा कि इंग्लैण्ड, अमेरिका नहीं जा सके तो भारत में चल कर पढ़ाई कर लो। जहां शैक्षणिक परिसर में घुटन की आशंका हो, तो वह शायद वहां नहीं जाना चाहेगा।
दरअसल भारत में उच्च शिक्षा का स्वरूप क्या हो, इसे लेकर हम अभी तक कोई साफ समझ विकसित नहीं कर पाए हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में जो संस्थान स्थापित किए गए थे वे अपने समय में मॉडल माने जाते थे तथा विदेशों के संस्थानों से उनकी तुलना की जा सकती थी। उनके निधन के पांच साल बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की स्थापना हुई। उसमें हार्वर्ड, कैम्ब्रिज अथवा ऑक्सफोर्ड जैसा वातावरण एवं परंपराएं देने की काफी हद तक सफल कोशिश की गई, लेकिन आज तो उस पर भी खतरा मंडरा रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में आधुनिक शिक्षा के उच्च संस्थानों की स्थापना पहले पहल अंग्रेजों के कार्यकाल में हुई थी जब 1857 में एक साथ कलकत्ता, बंबई और मद्रास में वि.वि. खोले गए। इन्हें ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों की तर्ज पर ही स्थापित किया गया था। गो कि कालांतर में इनकी आभा कम होते गई।
हमारे नीति निर्माताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तभी संभव है जब स्वायत्तता के अलावा समाज में शिक्षक का यथेष्ट सम्मान हो, फिर बात चाहे प्राथमिक शिक्षा की हो या उच्च शिक्षा की। दुर्भाग्य से न तो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि और न ही नौकरशाह इस बुनियादी तथ्य को समझने के लिए तैयार हैं। आप 5 सितंबर को शिक्षक दिवस चाहे जितने बड़े पैमाने पर मना लें, यह सोचकर देखिए कि डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन के बाद क्या हमने किसी शिक्षक को राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर बैठाया? यह जवाहर लाल नेहरू ही कर सकते थे कि 1962 में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति इन दोनों पदों पर क्रमश: दो शिक्षक ही आसीन किए गए। हमारे सत्ताधीश जब तक इस बात के महत्व को नहीं समझ लेते और जब तक समाज सत्ताधीशों पर इसके लिए दबाव नहीं डालता तब तक हमें शिक्षा में गुणवत्ता को भूल जाना ही बेहतर होगा।
पिछले दिनों जेएनयू, हैदराबाद, इलाहाबाद, आईआईटी मुंबई, जादवपुर, मद्रास समाजशास्त्र संस्थान इत्यादि में जो हुआ उसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। उसे यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हमें एक नज़र विराट शैक्षणिक परिदृश्य पर डाल लेना चाहिए। आज विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की क्या हैसियत है? कितने ही प्रदेशों से सुनने में आता है कि पदेन कुलाधिपति याने राज्यपाल ने कुलपति नियुक्त करने के लिए कहीं तीस लाख तो कहीं चालीस लाख रुपए की रिश्वत ले ली। ये घटनाएं झूठी नहीं हैं। कुछेक राज्यपालों को इन आरोपों के कारण हटाए जाने के प्रसंग भी सामने आए हैं। जब व्यक्ति कुलपति बनने के लिए रिश्वत देगा तो स्वाभाविक है कि पद स्थापना के बाद सबसे पहले तो वह अपने घाटे की भरपाई करने पर ध्यान देगा। ऐसे में विश्वविद्यालय को न तो अच्छे शिक्षक मिलेंगे, न अच्छा भवन, न अच्छा पुस्तकालय और छात्रों की पढ़ाई जितनी होगी वह भगवान भरोसे।
कुलपतियों की नियुक्ति में राजनैतिक हस्तक्षेप भी बहुत होता है। इसमें जातीयता व स्थानीयता के दबाव भी अपनी भूमिका निभाते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की स्थिति कुछ बेहतर है, किन्तु प्रदेश सरकार के अंतर्गत विश्वविद्यालयों में इन दबावों को स्पष्ट देखा जा सकता है। लब्बो-लुआब यह कि सत्ताधीशों को विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नागवार गुजरती है और उसका अतिक्रमण करने का कोई भी अवसर वे नहीं चूकते। जो कुलपति और अध्यापक भांति-भांति की हिकमतें कर पद प्राप्त करते हैं, वे अपने संरक्षकों की सेवा करने का भी कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते। ऐसा शायद ही कोई कुलपति हो जो अभिमानपूर्वक कह सके कि यह मेरा विश्वविद्यालय है और मैं इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करूंगा। जब यह हकीकत हमारे सामने हो तब विश्वस्तरीय शिक्षा देने की बात एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं हो सकती।
वह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि आज हमारे विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों के पूर्णकालिक शिक्षकों को जो वेतन-भत्ते मिल रहे हैं उसकी कल्पना आज से सात-आठ साल पहले नहीं की जा सकती थी। जब छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुर्ईं तब विवि अनुदान आयोग याने यूजीसी ने विश्वविद्यालयों के लिए एक बेहतरीन वेतन ढांचा तैयार किया। आज विश्वविद्यालय के कुलपति को प्रदेश के चीफ सेक्रेटरी या भारत सरकार के सचिव के बराबर वेतन मिलता है तथा कॉलेज में नवनियुक्त सहायक प्राध्यापक का वेतन कलेक्टर से अधिक होता है। उम्मीद की गई थी कि आर्थिक रूप से निश्चिंत होकर प्राध्यापक स्वयं अपने ज्ञान को विकसित करने तथा विद्यार्थियों को उसका लाभ देने के लिए दिलोजान से काम करेंगे। अफसोस कि यह उम्मीद फलीभूत नहीं हो सकी। अधिकतर शिक्षकों की मानसिकता में कोई खास परिवर्तन देखने में नहीं आता। वे जो है उससे संतुष्ट न होकर अन्य उपायों से धनोपार्जन करने तथा सुख-सुविधाएं जुटाने में ही अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।
हमें लगता है कि उच्च शिक्षा के वर्तमान ढांचे पर समाज के भीतर व्यापक बहस होना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों को सही अर्थों में स्वायत्तता मिले, यह हमारा सोचना है; लेकिन इस विषय में रुचि रखने वाले लोग यह भी सोचें कि अगर विद्यार्थियों को तरुणोचित विकास का वातावरण न मिले, तो क्या उनकी प्रतिभा कुंठित नहीं होगी? दूसरे यह भी विचारणीय है कि शिक्षा हमारी एक अनिवार्य जिम्मेदारी है या नहीं? क्या हम उसे किसी बिक्री योग्य माल में बदल दें कि अभी बेचा और अभी पैसा कमा लिया या फिर मजबूती से यह कहें कि शिक्षा हासिल करना युवा पीढ़ी का अधिकार है तथा इसके लिए जो भी खर्च हो वह उचित है, इस पर सवाल खड़े करना ठीक नहीं है। फिर हमें अपने नौैकरशाहों से भी पूछना चाहिए कि आप किस बिना पर वाइस चांसलर, प्रिंसिपल या प्रोफेसर को अपने से छोटा समझते हैं।
समाज व्यवस्था में सबके काम बंटे हुए हैं। इसमें वेतन अथवा पदनाम के आधार पर कोई भेदभाव क्यों? जिलाधीश या सचिव का काम अपनी जगह है तो कुलपति और अध्यापक का अपना स्थान है। दोनों के बीच परस्पर सम्मान का रिश्ता होगा तभी बात बनेगी। यही बात समाज को राजनेताओं से भी पूछना चाहिए कि आप क्यों उम्मीद करते हैं कि कुलपति आपके पैर छुए या आपकी सार्वजनिक झिड़कियां सुने या रात बारह बजे आपके बंगले पर मत्था टेकने आए। अंत में इसी तरह हमें अपने शिक्षकों से भी यह पूछना होगा कि आप अपने आपको इतना दीन-दरिद्र क्यों मानते हैं? आप क्यों नहीं अपने आत्मसम्मान और अपने पेशे की रक्षा करना सीखते? जिस दिन ये प्रश्न उठेंगे उस दिन से उच्च शिक्षा में वांछित सुधार देखने मिलने लगेगें।
देशबन्धु में 31 मार्च 2016 को प्रकाशित