परीक्षाओं का मौसम है और हमारे सत्ताधीश इन दिनों बच्चों के भविष्य को लेकर खासे चिंतित नजर आ रहे हैं। पहले तो प्रधानमंत्री ने 'मन की बात' में बच्चों को नसीहत दी कि वे पास-फेल की चिंता में घबराएं नहीं इत्यादि। उनका अनुकरण छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने मासिक रेडियो प्रसारण 'मन के गोठ' में किया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इसी तरह से चिंतित हैं। वे टीवी पर मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन में दिन में न जाने कितनी बार बच्चों के परीक्षाफल और बालमन पर उसके प्रभाव की चिंता प्रकट करते हैं। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और हरियाणा में भी अगर ऐसा कुछ हो रहा हो तो उसकी जानकारी मुझ तक नहीं पहुंची है। यह देखकर मन भर आता है कि हमारे सत्ताधीशों को युवा पीढ़ी की कितनी चिंता है! टीवी और रेडियो पर देख-सुन कर तो यही लगता है कि बच्चों का इनसे बढ़कर हितैषी और कोई नहीं है।
एक तरफ राजनेताओं के ये उद्गार हैं और दूसरी ओर शिक्षा प्राप्त कर रहे बाल-बालिकाओं के असली हालात। हम अभी विश्वविद्यालयों में जो हो रहा है उसकी चर्चा नहीं छेडऩा चाहते किन्तु स्कूली विद्यार्थियों की क्या दशा है, उसके दृश्य आए दिन सामने आ रहे हैं। एक बच्चा स्कूल के पास कुएं से पानी खींचते हुए डूब कर मर जाता है, क्योंकि दलित होने के कारण शाला के हैण्डपंप से पानी पीने की मनाही है। किसी स्कूल में दो मासूम बच्चों से अध्यापक नाराज हो जाते हैं तो उन्हें नंगे होकर कक्षा के बाहर खड़े रहने की सजा दे दी जाती है। कहीं आदिवासी छात्रों को छात्रवृत्ति लेने के लिए हर माह पैंतीस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है, तो आज भी कहीं बच्चे स्कूल जाने के लिए मीलों पैदल चलते हैं। मध्याह्न भोजन जैसी बेहतरीन योजना का हाल यह कि हर रोज विद्यार्थियों के बीमार पडऩे और अस्पताल में भर्ती होने के समाचार आते हैं। बकौल कवि सोमदत्त-किस्से अरबों हैं।
यूं तो अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में शिक्षा हासिल करने को मौलिक अधिकार का दर्जा मिल गया और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उसे अमली जामा पहनाने के लिए कानून भी पास हो गया था, लेकिन जैसा इन दिनों सुनने में आ रहा है सत्तारूढ़ भाजपा की यही मंशा प्रतीत होती है कि शिक्षा का अधिकार कानून समाप्त नहीं, तो इस तरह से संशोधित कर दिया जाए कि उसमें से वंचितों के हित के प्रावधान निरस्त हो जाएं। अगर ऐसा हुआ तो यह बहुत बड़ा अनर्थ होगा। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इत्यादि बच्चों के हित में जो उद्गार व्यक्त कर रहे हैं यह उनका भी तिरस्कार होगा। सवाल यह है कि कानून में खामियां हैं या उसे लागू करने में गड़बडिय़ां हैं अथवा प्रावधानों को अमल में लाने की ईमानदार कोशिश ही नहीं है। इसकी सिलसिलेवार समीक्षा करना आज आवश्यक हो गया है।
हमारे छत्तीसगढ़ में स्कूली शिक्षा की बहुत अधिक दुर्दशा है जिसके कारण इस प्रदेश के उज्ज्वल भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा है। मुख्यमंत्री इस सच्चाई को जानते हैं। इसलिए वे स्वयं बीच-बीच में स्कूलों का निरीक्षण करने पहुंच जाते हैं। उनकी देखादेखी तमाम मंत्री और आला अफसर भी स्कूल जाते हैं, एकाध कक्षा लेते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, अखबार में तस्वीर छप जाती है और बात वहीं खत्म हो जाती है। शिक्षा व्यवस्था को तथा शिक्षा का अधिकार कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने का यह कोई तरीका नहीं है। इसे अगर शोशेबाजी कहा जाए तो भी गलत नहीं होगा। अगर इस विषय पर सच्चे मन के साथ काम करना हो तो इस हेतु निम्नानुसार कदम उठाना होगा।
अभिजात मानसिकता- समाज के सम्पन्न अथवा अपेक्षाकृत सुखी तबके में यह धारणा है कि बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहिए, साथ ही निजी स्कूलों में गरीब बच्चों को प्रवेश नहीं देना चाहिए। यह वर्गभेद की धारणा है। बच्चों को आगे बढऩे के लिए समान अवसर मिलना आवश्यक है और उसमें शिक्षा की जहां तक बात है सरकारी स्कूल से बेहतर कुछ नहीं है। यदि देश के भावी नागरिकों को बचपन से ऊंच-नीच का पाठ पढ़ाया जाएगा तो आगे चलकर समाज में खाई बढ़ेगी और अशांति का वातावरण बनेगा।
शिक्षक- पिछले तीस-चालीस सालों के दौरान विश्व बैंक आदि के दबाव के चलते पूरे देश में पूर्णकालिक शिक्षकों की भर्ती बंद है। ऐसे में अच्छे शिक्षक कहां से आएंगे? छत्तीसगढ़ में ठेके या अनुबंध पर जो नियुक्त किए गए हैं उन्हें पंचायत शिक्षक का पदनाम मिला है। उनकी सेवा शर्तें भी कई अन्य राज्यों से बेहतर हैं। लेकिन इन्हें एक तो समय पर वेतन नहीं मिलता, दूसरे भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये राज्य शासन के कर्मचारी हैं अथवा जिला पंचायत के। इसके अलावा यह कटु तथ्य अपनी जगह पर है कि ये स्थायी शिक्षक नहीं हैं। ऐसी विपरीत स्थितियों में इनसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
यह आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव से मुक्त होकर सरकार शिक्षा को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी माने और इसके लिए स्थायी शिक्षकों सहित अन्य आवश्यकताएं पूरी करे।
प्रशिक्षण- स्कूली बच्चों को पढ़ाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। शिक्षक का काम एक तकनीकी काम है, जिसके लिए उसे आवश्यक प्रशिक्षण लेना होता है। डीएड, बीएड और एमएड इत्यादि पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करके ही कोई प्रशिक्षित शिक्षक बन सकता है। इसमें विषय के ज्ञान के अलावा बाल मनोविज्ञान तथा विषय को आयुक्रमानुसार पढ़ाना इत्यादि बहुत सी बातें शामिल होती हैं। यह काम मुख्यमंत्री या मुख्यसचिव के वश का नहीं है। लेकिन हो क्या रहा है? एक तो बीएड इत्यादि के लिए बहुत से नए कॉलेज खुल गए हैं। निजी महाविद्यालयों ने इसे कमाई का उत्तम जरिया बना लिया है। इन कॉलेजों में भी शिक्षकों की कमी है। इन पाठ्यक्रमों के संचालन के लिए एक नहीं बल्कि तीन एजेेंसियां जिम्मेदार हैं जिनमें आपस में कोई तालमेल नहीं हो पाता। इससे तथाकथित प्रशिक्षित शिक्षकों की योग्यता का अनुमान लगाया जा सकता है।
परीक्षा- यह एक भ्रम अच्छे तरीके से फैलाया गया है कि आठवीं कक्षा तक परीक्षा नहीं लेना है। यह सही है कि पारंपरिक तरीके से जो परीक्षाएं होती रही हैं वैसा अब नहीं होना है, किन्तु इसमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान है कि विद्यार्थियों का सतत् मूल्यांकन किया जाना है। अर्थात शिक्षक उनकी पढ़ाई पर लगातार ध्यान रखेंगे तथा जो बच्चे कमजोर हैं उन पर विशेष ध्यान देंगे। अगर शिक्षक अपने विद्यार्थियों की उन्नति के लिए हर समय प्रयत्नरत है तो स्वाभाविक है कि विद्यार्थी लगातार अपनी प्रतिभा का विकास करते जाएंगे और अपवादों को छोड़कर फेल होने का सवाल ही नहीं उठेगा।
दंड- हमारे यहां लंबे समय से मान्यता चली आ रही है कि बच्चों को पीटे बिना वह सुधर नहीं सकते। यह दरअसल बड़ों के मन की कुंठा का ही प्रतिबिंब है। इससे सुकुमार बच्चों की प्रगति अवरूद्ध ही होती है। उन्हें अपने विकास के लिए खुला तथा अनुकूल वातावरण मिलना चाहिए।
समाज का दायित्व- शिक्षा का अधिकार कानून में शाला प्रबंधन समिति का प्रावधान किया गया है। इस समिति को शाला की आवश्यकताओं को सूचीबद्ध करना, प्राथमिकताओं का निर्धारण करना, संसाधन जुटाना आदि दायित्व वहन करना चाहिए। जिस भी गांव या मुहल्ले में स्कूल हैं, वहां अधिकतर सदस्य पालकों के बीच से ही चुने जाते हैं। अपने इस महती दायित्व को पालकों को गंभीरता से लेना चाहिए। आज भी ऐसे स्कूल आपके आसपास होंगे जो उदारमना नागरिकों के सहयोग से स्थापित हुए होंगे। आज एक बार फिर समाज को ही दुबारा इस हेतु उद्यम करने की आवश्यकता है।
शिक्षा का अधिकार एक कानूनी साधन है, किन्तु किसी भी कानून का क्रियान्वयन बड़ी हद तक नागरिकों के सहयोग एवं सन्मति पर निर्भर करता है। हमें अपने बच्चों का भविष्य बनाना है तो सरकार की तरफ मुंह ताकना बंद कर अपनी सामूहिक इच्छाशक्ति को जगाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
देशबन्धु में 17 मार्च 2016 को प्रकाशित
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