देशबन्धु का रायपुर कार्यालय जिस परिसर में अवस्थित है, उसका भूमिपूजन 29 जून 1978 को संत-कवि पवन दीवान ने किया था। वे उन दिनों अविभाजित मध्यप्रदेश की जनता पार्टी (बाद में भाजपा) सरकार में मंत्री थे। यह एक ऐसा प्रसंग था, जिसे हम कभी नहीं भूल सकते। उस दिन पवन दीवान हमारे लिए संकटमोचन बनकर आए थे। यह एक लंबा किस्सा है। जिन्हें भूमिपूजन करना थे, वे राजनैतिक प्रपंच में फंसकर कार्यक्रम के निर्धारित समय के पूर्व एकाएक रायपुर छोड़ नागपुर चले गए। ऐसे आड़े अवसर पर दीवानजी का ध्यान आया। वे राजिम-किरवई के आश्रम से अन्य कार्यक्रम छोड़कर रायपुर आए। अपने पार्टी-नेताओं की दलीलें अनसुनी कर वे भूमिपूजन के मुख्य अतिथि हुए। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री किशोरीलाल शुक्ल ने की। इस तरह जनता में सही संदेश गया कि देशबन्धु किसी पार्टी विशेष का नहीं, बल्कि एक निष्पक्ष समाचारपत्र है। जो लोग राजनैतिक रंग देना चाहते थे, उनकी मनोकामना पूरी नहीं हुई। उस दिन किरवई से आते समय जब दीवानजी रायपुर सर्किट हाउस में दस मिनिट के लिए रुके तब अपनी गाड़ी के सामने लेट गए एक उद्धत पार्टी कार्यकर्ता को उन्होंने लगभग इन शब्दों में जवाब दिया- मेरी पहिली कविता बाबूजी ने छापी थी। आज उन्होंने बुलाया है तो मैं जरूर जाऊंगा। इसके लिए भले ही तुम्हारी लाश पर कदम रखकर क्यों न जाना पड़े।
इस 2 मार्च को पवन दीवान हमसे सदा के लिए बिछुड़ गए। जिस दिन वे किरवई आश्रम में अचानक बीमार पड़़े और रायपुर अस्पताल में उपचार के लिए लाए गए, तब मैं उन्हें देखने गया था। जिस मित्र के ठहाके बरसों सुने, वह अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में चेतनाविहीन लेटा हुआ था। बस जीवन-रक्षक मशीनों के भरोसे सांस चल रही थी। उन्हें इस हालत में देखकर मन को बेहद तकलीफ हुई। दो मिनिट शय्या के पास खड़े रहकर वापिस आ गया। अपने वश में प्रार्थना करने के अलावा और कुछ नहीं था। अब जब पवन दीवान हमारे बीच नहीं हैं, तब उनके साथ जुड़े प्रसंग अनायास मानसपटल पर उभर रहे हैं। दीवानजी से मेरा पहिला परिचय कवि के नाते ही हुआ। देशबन्धु में प्रारंभ से ही नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने की नीति रही है। छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के अनेकानेक लेखक ऐसे हैं, जिनकी पहली कविता या पहली कहानी देशबन्धु में ही छपी होगी। मेरा अनुमान है कि 1964-65 के आसपास पवन दीवान की कविताएं इस अखबार में छपना शुरु हुईं। इसी नाते हमारी पहिली भेंट भी हुई होगी, क्योंकि तभी मैंने पत्र के साहित्य परिशिष्ट को देखना प्रारंभ किया था।
पवन दीवान जिस राजिम ग्राम (अब नगर) के निवासी थे, वहां साहित्य साधना की एक लंबी परंपरा रही है। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के प्रबल प्रतीक, स्वाधीनता सेनानी व समाज सुधारक पं. सुंदरलाल शर्मा अपने समय के एक जाने-माने कवि थे। उन्होंने आज से सवा सौ साल पहले राजिम में सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित किया था। उनकी परंपरा को पवन दीवान व उनके साथियों ने आगे बढ़ाया। राजिम से 1967 में 'बिंब' नामक साइक्लोस्टाइल पत्रिका इन्होंने प्रारंभ की, जिसने हिंदी जगत में धूम मचा दी। बिंब समूह के लगभग हर सदस्य ने प्रदेश स्तर पर लेखक के रूप में अपनी पहचान स्थापित की। इनमें से एक प्रमुख नाम कृष्णा रंजन का है जो पत्रकार, कवि, लेखक इन सारी भूमिकाओं को छोड़कर गैरिक वस्त्र धारण कर अब भागवत कथा करने लगे हैं। दीवानजी के निधन के बाद अब रवि श्रीवास्तव ही इस दल के एकमात्र सक्रिय सदस्य बचे हैं। पवन दीवान ने भी अपनी कविता यात्रा को बीच में छोड़कर दूसरा पथ अपना लिया था। इस नए पथ पर चलकर स्वयं उन्हें कितना संतोष या संताप हुआ और छत्तीसगढ़ प्रदेश की आशाओं को उन्होंने कितना फलीभूत किया, यह तो भविष्य में राजनीतिशास्त्र का कोई शोधार्थी ही बता पाएगा।
पवन दीवान ने सन्यास तरुणाई में ही ले लिया था किंतु वे खड़ाऊ और कौपीन धारण करने के बावजूद सिर्फ सन्यासी बनकर नहीं रहे। उनके कवि रूप का संक्षिप्त वर्णन तो मैंने ऊपर किया ही है, 1967 के आसपास वे छत्तीसगढ़ भ्रातृसंघ से जुड़ गए थे और यहां से उनकी राजनैतिक यात्रा प्रारंभ होती है। सन्यासी, कवि, भागवत पाठी, युवा और हिंदी, छत्तीसगढ़ी के साथ संस्कृत व अंग्रेजी का ज्ञान तथा भाषण कला में प्रावीण्य। दीवानजी जहां जाएं, भीड़ उनके पीछे लग जाए। उनका खूब उपयोग जनसंघ ने अपने चुनाव अभियानों में किया। पवन नहीं आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है, जैसा नारा उनके लिए प्रचलित हो गया। इसका पुरस्कार जनसंघ ने उन्हें 1977 में राजिम क्षेत्र से विधानसभा प्रत्याशी बना कर दिया। आपातकाल के तुरंत बाद का समय था। कांग्रेस की लोकप्रियता का ह्रास हो चुका था। पवन दीवान ने मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को अच्छे खासे अंतर से हराया था। वे कैलाश जोशी के मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। लेकिन इन सबका दीवानजी पर कोई खास असर नहीं पड़ा। वे पहिली की भांति सहज भाव से सबसे मिलते रहे- और उनके अट्टहास वैसे ही गूंजते रहे।
कैलाश जोशी ने पवन दीवान को जेल विभाग दिया। इस विभाग के मंत्री रहते हुए उन्होंने देशबन्धु को एक बार फिर अलग ही ढंग से सहायता की, जिससे अखबार की तारीफ पूरे देश में हुई और जिसकी चर्चा आज भी होती है। 1978 में रायपुर केन्द्रीय कारावास में एक बंदी को फांसी की सजा दी जाना थी। जेलमंत्री ने देशबन्धु को अनुमति प्रदान की कि हमारे संवाददाता फांसी देते समय उपस्थित रह सकते हैं। सुबह 4 बजे फांसी दी गई और दो घंटे बाद अखबार का नगर संस्करण बाजार में आया। पहले पन्ने पर रिपोर्ट थी- हमने बैजू को फांसी पर चढ़ते देखा। स्वतंत्र भारत की किसी जेल में फांसी देने का आंखों-देखा विवरण प्रकाशित करने वाला पहला अखबार बन गया देशबन्धु। इस रिपोर्ट से पत्र को जो सराहना व प्रतिष्ठा मिली, उसका मुख्य श्रेय तो पवन दीवान को ही मिलना चाहिए। अगर वे नियमों को शिथिल कर अनुमति न देते तो यह रिपोर्टिंग कैसे संभव होती? मैं समझता हूं कि देशबन्धु परिवार के साथ दीवानजी जिस परस्पर आत्मीयता का अनुभव करते थे, उसके कारण ही हमारे अनुरोध पर यह अनुमति दी।
पवन दीवान अब तक साहित्य जगत से काफी हद तक विमुख हो चुके थे। 1980 में जब अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बने तो दीवानजी की राजनैतिक यात्रा में एक नया मोड़ आया। श्री सिंह ने उन्हें जनसंघ या जनता पार्टी छोड़ कांग्रेस में आने के लिए प्रेरित किया और वे मान भी गए। ऐसा समझा जाता है कि श्री सिंह ने दीवानजी को छत्तीसगढ़ के हितों का ध्यान रखने का वायदा करके उन्हें अपने पक्ष में किया। कुछ दिनों बाद ही छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण का गठन हुआ, जिसमें पवन दीवान सदस्य मनोनीत हुए। पशुचिकित्सा महाविद्यालय अंजोरा (दुर्ग) में स्थापित हुआ और विकास के ऐसे अनेक निर्णय लिए गए। मध्यप्रदेश की राजनीति के अध्येताओं को ध्यान होगा कि अर्जुनसिंह ने इन कामों के अलावा पं. सुंदरलाल शर्मा, गुरु घासीदास व शहीद वीर नारायण सिंह की छवि जनमानस में प्रतिष्ठित करने के अनेक उपक्रम किए। इन उपायों से अर्जुनसिंह ने छत्तीसगढ़ में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत तो अवश्य की; यह भी मानना होगा कि उन्होंने पवन दीवान से जो वायदा किया था, वह पूरा किया। इस तरह प्रकारांतर से दीवानजी ने अपने प्रदेश के विकास में सहभागिता निभाई।
इसके बाद पवन दीवान कांग्रेस टिकिट पर दो बार लोकसभा के लिए भी चुने गए। अर्जुनसिंह के साथ उनका जो सम्मान व विश्वास का संबंध था, वह श्री सिंह के निधन तक कायम रहा। इस बीच 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण भी हो गया। इसकी सबसे अधिक प्रसन्नता दीवानजी को ही होना चाहिए थी, लेकिन नए प्रदेश में वे एक तरह से अप्रांसगिक हो गए या कर दिए गए। कांग्रेस से उनका मोहभंग हुआ तो वे अपनी पुरानी पार्टी भाजपा में चले गए। फिर वहां बात न बनी तो दुबारा कांग्रेस में शामिल हो गए और उसके बाद एक आखिरी बार उन्होंने भाजपा का दामन पुन: थाम लिया। मैं नहीं जानता कि यह एक कविहृदय व्यक्ति की निरी भावुकता थी, या राजनीतिक महत्वाकांक्षा या कोई आंतरिक बेचैनी जो उन्हें यहां से वहां भटकाती रही। अगर राजनैतिक प्रपंच से मुक्त होकर वे आध्यात्मिक साधना या साहित्य साधना की ओर लौट गए होते तो उनके सम्मान में वृद्धि ही होती।
जो भी हो, पवन दीवान के निधन के साथ छत्तीसगढ़ ने अपने एक विरल तथा बहुमुखी व्यक्तित्व को खो दिया है। अपने हितचिंतक मित्र को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
देशबन्धु में 10 मार्च 2016 को प्रकाशित
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