Sunday 13 March 2016

नीरजा: वीरता की अनुपम परिभाषा



मेरा सिनेमाघर में जाकर फिल्म देखना लगभग बंद हो गया है। छठे-छमाहे किसी ने तारीफ कर दी तो उस फिल्म को देखने का मन बन जाता है वरना टीवी पर आधी अधूरी फिल्में देखकर  संतोष कर लेता हूं। अभी हाल में 'नीरजा' देखी तो यह फिल्म कई दृष्टियों से अच्छी लगी और उसके साथ जो ऐतिहासिक संदर्भ जुड़े हैं वे भी एकाएक ध्यान में आ गए। तब मन हुआ कि इस फिल्म के तमाम संदर्भों को समेट कर कुछ लिखा जाए। सबसे पहले तो यह नोट किया कि 'नीरजा' आज की शब्दावली में एक बायोपिक है अर्थात जीवनी पर आधारित फिल्म। हमारे यहां इस तरह की फिल्में कम ही बनीं। यूं तो कहा जा सकता है कि भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिशचन्द्र' एक तरह से बायोपिक ही थी, लेकिन वह एक पौराणिक कथानक पर आधारित थी। इसके बाद संत तुलसीदास, भक्त सूरदास, चंडीदास आदि पर फिल्मेंं बनीं। महाकवि कालिदास पर भी, लेकिन मैं नहीं जानता कि क्या ऐसी तमाम फिल्मों को बायोपिक की श्रेणी में रखा जा सकता है, क्योंकि इनमें कल्पना का अंश प्रबल है और वृत्तांतों की सच्चाई काफी हद तक संदिग्ध।

बहरहाल, आजकल जिन्हें बायोपिक कहा जा रहा है वे उन व्यक्तियों पर बनी फिल्में हैं। जिन्हें आज की पीढ़ी ने देखा है और जिनके नाम-काम से लोग परिचित हैं। इन फिल्मों में भाग मिल्खा भाग, मैरी कॉम और पानसिंग इत्यादि फिल्में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पानसिंग तो मैंने देखी है और मुझे जो कुछ जानकारी है उसके आधार पर कह सकता हूं कि इस फिल्म में पानसिंग का चरित्र-चित्रण बिना अतिरंजना के किया गया है तथा उसके जीवन से जुड़ी घटनाओं के ब्यौरे तथ्यों पर आधारित है। कहना न होगा कि ऐसा चलचित्र बनाने के लिए फिल्मकार को औसत से अधिक परिश्रम करना पड़ता है तथा यह कार्य पर्याप्त शोध किए बिना पूरा नहीं हो सकता। ऐसी फिल्म बनाने में कुछ अलग तरह की मुश्किलें भी पेश आती हैं मसलन चरित्र नायक या नायिका के परिजनों की अनुमति और अगर उन्हें कहीं आपत्ति हो तो उनका समाधान करना भी आवश्यक हो जाता है। ऐसी फिल्म आप किसी खूबसूरत जगह पर आउटडोर शूटिंग करके नहीं बना सकते। और न इनमें नाच-गाने की कोई खास गुंजाइश होती जिसके बिना बॉलीवुड की फिल्में चलती ही नहीं हैं। याने यह डर भी होता है कि फिल्म नहीं चली तो पैसा डूब जाएगा।

इन सब दृष्टियों से देखें तो नीरजा एक प्रामाणिक, सुंदर और सफल फिल्म है जिसके लिए फिल्म निर्माता अतुल कस्बेकर और निदेशक राम माधवानी दोनों बधाई के हकदार हैं। अतुल कस्बेकर की ख्याति एक ग्लैमर फोटोग्राफर के रूप में है, लेकिन यह उनकी बनाई पहली फिल्म है। राम माधवानी भी विज्ञापन की दुनिया से आए हैं। एयरटेल के लिए उनका बनाया विज्ञापन खूब चला था-हरेक फ्रैण्ड जरूरी होता है। उनके लिए भी फीचर फिल्म बनाने का यह पहला मौका था। इन दोनों ने पहली फिल्म बनाने की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया। फिल्म की नायिका नीरजा का रोल अभिनेता अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर ने किया है। उनके अभिनय ने मुझे बहुत प्रभावित नहीं किया, लेकिन नायिका नीरजा का चरित्र इतना मजबूत और उससे जुड़े प्रसंग में इतनी गत्यात्मकता है कि किरदार बिना बहुत मेहनत किए बिना ही उभर आता है। फिल्म में अभिनय का मौका अगर किसी के पास था तो वह सिर्फ शबाना आजमी के पास। वे सिद्धहस्त कलाकार हैं और फिल्म के भीतर बहुत अधिक गुंजाइश न होने पर भी हर शॉट में उन्होंने अपनी अभिनय प्रतिभा की छाप छोड़ी है।

हम जैसा कि जानते हैं यह फिल्म एक विमान परिचारिका याने एयर होस्टेस नीरजा भनोट के जीवन पर आधारित है। नीरजा ने मॉडलिंग से अपना कॅरियर शुरु किया था; उस दौर में जबकि इस व्यवसाय को भारत में बहुत अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता था लेकिन नीरजा के पत्रकार पिता हरीश भनोट और मां रमा उसकी इच्छा में बाधक नहीं बने। फिर जैसा कि एक आम भारतीय परिवार में होता है नीरजा का विवाह घरवालों की पसंद से कर दिया गया। वह पति के साथ ओमान चली गई। वहां उस पर अत्याचार हुए तो माता-पिता के पास वापिस लौट आई तथा शीघ्र ही उसे अमेरिका की पान एम एयरलाइंस में एयर होस्टेस का काम मिल गया। अपने नए काम में वह खुश भी है और इतनी दक्ष भी कि विमान में परिचारिका दल की प्रमुख का दायित्व संभालती है। 3 सितम्बर 1986 को वह मुंबई से करांची होते हुए न्यूयार्क की फ्लाइट पर सवार होती है। करांची में फिलीस्तीनी संगठन अबू निदाल के सदस्य विमान पर कब्जा कर लेते हैं। ऐसे समय वह पल-पल अपनी कर्तव्यपरायणता, साहस, तीव्र बुद्धि व प्रत्युत्पन्नमति का परिचय देती है। विमान में सवार दो सौ उन्यासी यात्रियों में से दो सौ उनसठ के प्राण बचाने में वह सफल होती है और कर्तव्य पथ से दूर हटने या पलायन करने के बजाय स्वयं मृत्यु का वरण करना पसंद करती है। 3 सितम्बर को उसकी मृत्यु हुई। विडंबना ऐसी कि सिर्फ दो दिन बाद 5 सितम्बर को वह जीवन के तेईस बसंत पूरे करती जिसका स्वयं उसे और उसके प्रियजनों को इंतजार था।

यह एक असाधारण जीवन गाथा है जिसका निर्वाह फिल्मांकन में बखूबी किया गया है। निर्देशक ने बारीक से बारीक बात का ध्यान रखा है। जिन्होंने फिल्म देखी है, वे याद करें उस दृश्य को जब मुंबई में विमान पर यात्री सवार हो रहे हैं। बोर्डिंग के समय हवाई जहाज में जिस तरह की गहमागहमी होती है उसका निर्देशक ने जीवंत चित्रण किया है। शबाना के अभिनय की बात तो हम ऊपर कर ही चुके हैं। यह रेखांकित करने योग्य है कि फिल्म में किसी तरह का अतिरेक नहीं है। इन दिनों कथित राष्ट्रवाद की हवा जो बह रही है उसमें ऐसा कुछ हो जाना अस्वाभाविक नहीं होता। एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान जाता है कि करांची में एयरपोर्ट के अधिकारियों तथा पाकिस्तान के सुरक्षा बल ने विमान अपहरणकर्ताओं से निपटने में काफी सूझबूझ और मुस्तैदी दिखाई। नीरजा भनोट की वीरता की कहानी 1986 की है। याने इस घटना को तीस साल पूरे हो चुके हैं। इस बीच में भारत की जनता ने भी नीरजा को लगभग भुला ही दिया था। नई पीढ़ी को तो शायद उसके बारे में कुछ भी पता नहीं होगा।

नीरजा देखते हुए दर्शकों को भारत के एक दूसरे विमान अपहरणकांड का ध्यान आ सकता है जब 1999 में तालिबान ने काठमांडू से दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाईंस के विमान पर कब्जा कर लिया था। यह विमान लगभग पैंतालीस मिनट तक तेल भरने के लिए अमृतसर हवाई अड्डे पर खड़ा रहा था और हमारी सरकार अपनी ही धरती पर इस अपहृत किए गए विमान को छुड़ाने के लिए कुछ न कर सकी थी। तेल भरने के बाद हमारा विमान कंधार ले जाया गया था और उसे छुड़ाने के लिए सरकार को आतंकियों की सारी शर्तें मानने पर मजबूर होना पड़ा था जिसमें कुख्यात आतंकी मौलाना मसूद अजहर की रिहाई भी शामिल थी। यह कड़वी सच्चाई भूलना मुश्किल है कि बाद में मुंबई में 26 नवम्बर 2008 याने 26/11 के भयंकर नरसंहार का मुख्य षडय़ंत्रकारी यही मसूद अजहर था। नीरजा पर बनी फिल्म तो सत्य घटना पर आधारित है, लेकिन कंधार अपहरण पर बॉलीवुड के निर्माता 'जमीन' जैसी एक अविश्वसनीय फिल्म से बेहतर कुछ और न बना सके।

मैंने जब नीरजा देखी तो मुझे विमान अपहरण के दो अन्य प्रसंग याद आए। पहली घटना 30 जनवरी 1971 की है। इंडियन एयरलाईस के श्रीनगर से जम्मू आ रहे एक छोटे विमान (फोकर फ्रैण्डशिप) का दो कश्मीरी नौजवानों ने अपहरण कर लिया और वे उसे उड़ा कर लाहौर ले गए। लाहौर में खुद तानाशाह याह्या खान ने विमानतल आकर कश्मीर की  'आज़ादी' के इन लड़ाकों का सम्मान किया, लेकिन फिर न जाने क्या बात हुई कि अगले ही दिन ये दोनों जेल में डाल दिए गए। इनमें से एक हाशिम कुरैशी पाक जेल में कई साल कैद रहा। वहां से छूटने पर वह नार्वे चला गया तथा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत वापिस लौटा। पाकिस्तान सरकार ने उसे क्यों जेल में डाला, वाजपेयीजी ने उसे भारत आने की इजाजत क्यों दी और क्या इसका कोई संबंध बंगलादेश मुक्ति संग्राम की पूर्व पीठिका से था? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर मिलना बाकी हैं। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि हाशिम कुरैशी की उम्र उस समय मात्र सत्रह साल थी।

दूसरा प्रसंग इसके दो वर्ष पूर्व याने 1969 का है। मेरा ख्याल था कि यह शायद विमान अपहरण की पहली घटना थी, लेकिन ऐसा नहीं है। फिलिस्तीन की पच्चीस वर्षीय युवती लैला खालिद का नाम तब अचानक सुर्खियों में आ गया था जब उसने अमेरिकी एयरलाईंस टीडब्लूए के एक विमान का अपहरण कर लिया था। यह विमान रोम से एथेंस के रास्ते पर था, जिसे लैला खालिद ने सीरिया की राजधानी दमिश्क में उतरने पर मजबूर कर दिया। उसने विमान रुकने के बाद सारे यात्रियों को सुरक्षित उतरने की अनुमति दे दी थी। उसका उद्देश्य कोई हिंसा न कर फिलिस्तीनी जनता के साथ हो रहे अन्याय की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित करना था। यह सितम्बर 1969 की घटना है। इसके एक साल के भीतर ही उसने इजरायली विमान सेवा के एक विमान का अपहरण किया लेकिन इजरायली सुरक्षाकर्मियों ने अपहरण को नाकाम कर लैला खालिद को गिरफ्तार कर लिया। उसके पास हथगोले थे, लेकिन उनका इस्तेमाल उसने नहीं किया। उसने कहा कि वह निर्दोष यात्रियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती थी। इसके बाद उसने ऐसे किसी अभियान में भाग नहीं लिया। फिलिस्तीन से विस्थापित होकर जोर्डन में रह रहे परिवार की बेटी लैला अपने देशवासियों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहती थी, जिसके लिए उसने यह खतरनाक खेल खेला था।

विमान अपहरण करने का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है, जितना नागरिक उड्डयन का इतिहास। संदर्भ तलाशते हुए जानकारी मिली कि विश्व में पहिला विमान अपहरण 25 सितंबर 1932 को ब्राजील में हुआ था। अपहर्ताओं में से किसी को भी विमान उड़ाना नहीं आता था। किसी तरह उड़ तो लिए लेकिन थोड़े समय बाद एक पहाड़ी से टकराकर विमान ध्वस्त हो गया तथा तीनों षडय़ंत्रकारियों के साथ चौथा व्यक्ति जो बंधक था वह भी मारा गया। तब से अब तक इन अस्सी सालों में विमान अपहरण की एक सौ तीस (130) घटनाएं घट चुकी हैं। इनमें सबसे हैरतअंगेज 9/11 का वाकया है, जब एक दिन, एक समय पर चार विमान एक साथ अपहृत कर के अमेरिका में न्यूयार्क के वल्र्ड ट्रेड टावर पर आत्मघाती हमला किया गया था। हाल के बरसों में इस्लामी आतंकवादियों द्वारा विमान अपहरण किए जाने की घटनाएं हमारी स्मृति में बस गई हैं; किन्तु इस तथ्य से अधिकतर जन परिचित नहीं है कि ब्राजील से लेकर जापान तक कितने ही देशों में इस प्रकार की वारदातें हो चुकी हैं। 

1969 में अमेरिका में तो मात्र चौदह वर्ष आयु के बालक डेविड बूथ ने यह दुस्साहस सिर्फ यह बतलाने के लिए किया था कि देश में किशोर अपराधों की न्याय प्रक्रिया संतोषजनक नहीं है। शीतयुद्ध के दौरान पूर्वी यूरोपीय देशों से पश्चिम में राजनैतिक शरण लेने की दृष्टि से भी कई बार विमान अपहरण की घटनाओं को अंजाम दिया गया। चीन, जापान व अमेरिका में भी विभिन्न कारणों से इस तरह की कोशिशें की गईं। फिर भी संगठित और सुनियोजित तरीके से विमान अपहरण करने के लगभग सभी प्रयत्न पहिले तो फिलिस्तीन में हो रहे अन्याय की ओर ध्यान खींचने के लिए किए गए, जबकि कंधार व वल्र्ड ट्रेड सेंटर जैसी वारदातों से इस्लाम की एक धर्मांध, कट्टरपंथी, जड़तावादी, क्रूर और नृशंस परिभाषा सामने आई जिसने विश्व में इस्लाम के तमाम अनुयायियों को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। 

विमान अपहरण के इतिहास में एक ओर 9/11 है तो दूसरी ओर एंटेबी विमानतल का उदाहरण भी है। पाठकों को स्मरण होगा कि तानाशाह ईदी अमीन के समय यूगांडा की राजधानी कंपाला के एंटेबी विमानतल पर इजराइली सशस्त्र बल ने दुस्साहिक रूप से छापामार कार्रवाई कर बंधक बनाए गए इजराइली यात्रियों को छुड़ा लिया था। यह 4 जुलाई 1976 की घटना है। इसके पूर्व 27 जून को एयरफ्रांस का एक विमान 248 सवारियों को लेकर तेल अवीव से उड़ा था। इसे अपहरण कर एथेंस, बेनगाजी (लीबिया) होते हुए कंपाला में उतारा गया। सारे यात्रियों को उतारकर विमानतल के भवन में बंद कर दिया गया। इनमें से जो गैर-इजराइली यात्री थे, उन्हें छोड़ दिया गया, लेकिन 106 इजराइली बंधक बना लिए गए। अपहरणकर्ताओं की मांग थी कि इजराइल की जेलों में कैद फिलिस्तीनियों को छोड़ा जाए। उनकी यह मांग नहीं मानी गई। मुकम्मल तैयारी कर छापामारों ने अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर कंपाला जाकर धावा बोल 102 यात्रियों को सकुशल बचा लिया। इसके साथ उन्होंने जमीन पर खड़े यूगांडाई वायुसेना के 30-40 विमानों को भी नष्ट कर दिया, क्योंकि ईदी अमीन अपहरणकर्ताओं का साथ दे रहा था। इस कारनामे पर बहुत सारी फिल्में भी बनीं व किताबें भी लिखी गई। 

इस घटना का एक पहलू यह है कि अपहरणकर्ताओं ने यात्रियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। दूसरे उनकी मांग फिलिस्तीनी कैदियों की मुक्ति की थी। ठीक 10 वर्ष बाद करांची में जो वारदात हुई उसमें भी इजरायल में कैद पन्द्रह सौ फिलिस्तीनी नागरिकों को रिहा करने की मांग थी। अपहरणकर्ता इस सच्चाई को भूल गए कि इजराइल इस तरह से दबाव में नहीं आएगा। बहरहाल, नीरजा में अगर इस मांग का जिक्र कहीं हो गया होता तो दर्शकों को अपहरण का कारण पता चल जाता। आतंकवादी चाहे किसी भी देश, धर्म, विचार के हों, उन्हें मालूम नहीं क्यों यह समझ नहीं आता कि हिंसा से कभी भी, किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। एक बिन्दु पर पहुंचकर हिंसा अपने आप में लक्ष्य बन जाती है, साधन की  बजाय साध्य। इस अविवेक में निर्दोष लोग मारे जाते हैं। लेकिन इस नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी समय में विश्व समाज शायद अभिशप्त है कि वह चारों तरफ से हिंसा का शिकार बनता रहे। 

इस माहौल में नीरजा एक आदर्श, एक आशा किरण के रूप में सामने आती है। वह जिन निर्दोष यात्रियों को बचाने में अपने प्राणों का उत्सर्ग करती है, उनमें तीन मासूम बच्चे भी हैं। उनमें से एक आज अमेरिका की एक एयरलाइंस में कैप्टन के पद पर हैं और कहता है कि नीरजा उसकी प्रेरणास्रोत है। उसी ने उसे नया जन्म दिया। हम देख सकते हैं कि नीरजा की वीरता सामान्य परिभाषा से आगे बढ़कर है। वह स्वयं अपने प्राण बचाने की वीरता नहीं है। वह किसी सैनिक की रणक्षेत्र में दिखलाई वीरता नहीं है। वह पूर्व प्रेम को आलोकित करती लहना सिंह की वीरता भी नहीं है। इस वीरता में कर्तव्यपरायणता तो है, लेकिन उससे बढ़कर एक सामान्य नागरिक द्वारा हिंसा के प्रतिकार की वीरता है। नीरजा वीरता के बारे में हमारी समझ को बेहतर बनाती है।
 देशबन्धु अवकाश अंक में 13 मार्च 2016 को  प्रकाशित 

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