एनडीए-1 याने वाजपेयी जी के कार्यकाल में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को सत्तापक्ष ने अपना प्रत्याशी बनाकर विजय प्राप्त की थी। उसमें कांग्रेस ने भी साथ दिया था। डॉ. कलाम देश के सैन्यतंत्र से गहराई से जुड़े हुए थे। उनकी पहचान मिसाइलमैन के रूप में बन चुकी थी। भारत के पहले खुले आणविक परीक्षण का नायक उन्हें ही माना गया था। इसके अलावा वे भारतरत्न से भी विभूषित हो चुके थे। आज सैन्यतंत्र अथवा प्रतिरक्षा प्रतिष्ठान में उनकी बराबरी का कोई दूसरा व्यक्ति नहीं दिखाई देता। इसलिए यह संभावना कम ही है कि किसी सेनाधिकारी या प्रतिरक्षा विशेषज्ञ को एनडीए-2 मनोनीत करे। प्रसंगवश यह जान लेना दिलचस्प होगा कि डॉ. कलाम के विरुद्ध चुनाव लड़ रही वामदलों की प्रत्याशी कैप्टन लक्ष्मी सहगल की पृष्ठभूमि भी सेना की थी। वे आज़ाद हिन्द फौज की प्रख्यात कैप्टन लक्ष्मी थीं और रानी झांसी बिग्रेड का उन्होंने नेतृत्व किया था। डॉ. कलाम की भांति वे भी मूलत: तमिलभाषी थीं। उन्हें पद्मविभूषण से भी अलंकृत किया जा चुका था। मालूम नहीं कांग्रेस ने क्या सोचकर उनका समर्थन नहीं किया। यद्यपि इससे परिणामों पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
जहां तक अकादमिक क्षेत्र से प्रत्याशी लेने की बात है तो भाजपा के पास ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता जिसकी अकादमिक क्षेत्र में अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा हो। अर्थशास्त्री जगदीश भगवती का नाम ध्यान आता है, लेकिन क्या राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों गुजरात से हो सकेंगे? हमें यह भी नहीं पता कि प्रोफेसर भगवती भारत के नागरिक हैं या अमेरिका के? वैसे किसी अकादमिक को राष्ट्रपति बनाने की परंपरा डॉ. जाकिर हुसैन के बाद से समाप्त हो चुकी है। बाद के राष्ट्रपतियों में कुछ की विद्वता पर संदेह नहीं, लेकिन अकादमिक वातावरण से उन्होंने बहुत पहले अवकाश ले लिया था। जहां तक किसी न्यायाधीश को नियुक्त करने की बात है तो जस्टिस गोपाल स्वरूप पाठक और जस्टिस एन. हिदायतुल्ला कांग्रेस के दौर में उपराष्ट्रपति तो बने, राष्ट्रपति बनने का अवसर उन्हें भी नहीं दिया गया। जनसंघ ने अवश्य जस्टिस कोका सुब्बाराव को 1967 में राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा किया था लेकिन वे चुनाव हार गए थे।
शासनतंत्र अथवा नौकरशाही से राष्ट्रपति बनने का एकमात्र उदाहरण के.आर. नारायणन का है, जो भारतीय विदेश सेवा से निवृत्त होने के बाद पूर्णकालिक राजनीति में आ चुके थे। कुल मिलाकर यह एक मिला-जुला मामला था। वैसे फिलहाल हमारे उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी सेवानिवृत्त नौकरशाह ही हैं। सेवानिवृत्त अधिकारियों की पदलालसा किसी से छुपी हुई नहीं है। वे कई बार नियमों में अपने मनमाफिक संशोधन भी करवा लेते हैं। मैंने कुछ साल पहले इसी संदर्भ में सुझाव दिया था कि कैबिनेट सेक्रेटरी और चीफ सेक्रेटरी को क्रमश: प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के प्रसादपर्यंत अपने पद पर बने रहना चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो भाजपा में दोनों पदों के लिए बहुत सारे उम्मीदवार हो सकते हैं। यह अब किसी से छिपा नहीं है कि यूपीए शासनकाल में भी अनेक अधिकारी भाजपा अथवा संघ के प्रति निष्ठा रखते थे। समय आने पर इन्हें अपनी सेना का पुरस्कार मिला। अब सवाल यही है कि क्या कोई ऐसा वरिष्ठ नौकरशाह है, जिसे भाजपा राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित करें और जनमानस में उसका गलत संदेश न जाए। क्या पूर्व सीएजी विनोद राय ऐसे व्यक्ति हैं? यद्यपि मुझे शक है कि मोदी जी किसी रिटायर्ड अफसर को राष्ट्रपति बनाना पसंद करेंगे।
कुल मिलाकर बात आ टिकती है राजनीति के ऊपर। यहां भी प्रत्याशियों की कोई कमी नहीं है। पचहत्तर से ऊपर वालों को छोड़ दीजिए, उनके अलावा भी काफी लोग हैं। कुछ नाम ध्यान में आते हैं जैसे राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज व सुमित्रा महाजन। वयोवृद्ध नेताओं में अपवाद स्वरूप एक नाम नजमा हेपतुल्ला का भी हो सकता है। इनमें से राजनाथ सिंह वरिष्ठता के नाते दावेदार तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी संभावना कम ही दिखती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि वैदेशिक मामलों में उनका दखल बहुत सीमित है। राष्ट्रपति का पद संवैधानिक तो है, लेकिन उससे अधिक वह एक अलंकारिक पद है तथा विदेश नीति के मोर्चे पर इस महिमामंडित पद का उपयोग अकसर किया जाता है। राजनाथजी संभवत: इस भूमिका में फिट नहीं बैठ पाएंगे।
सुमित्रा महाजन के पक्ष में चार बिन्दु हैं- एक तो वे छह बार की अनुभवी लोकसभा सदस्य हैं, दूसरे- वर्तमान में लोकसभा अध्यक्ष के पद पर हैं, तीसरे- अध्यक्ष के नाते निर्णय लेते हुए सरकार के प्रति उनकी पक्षधरता जब-तब प्रकट हो जाती है, चौथे वे संघ की समर्पित कार्यकर्ता हैं। उन्हें यदि उम्मीदवार बनाया गया तो एनडीए में शायद ही कहीं उनका विरोध होगा। लेकिन राष्ट्रपति को अनेक बार जटिल संवैधानिक प्रश्नों का समाधान करना होता है। वे इस दिशा में कितनी सक्षम हैं यह पता नहीं है। नजमा हेपतुल्ला अगले वर्ष ससत्तर साल की हो जाएंगी। लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए यह उमर अधिक नहीं है। वे राज्यसभा की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं, अल्पसंख्यक हैं, मौलाना आज़ाद के परिवार से संबंध रखती हैं, संसदवेत्ता हैं- ये सारी बातें उनके पक्ष में जाती हैं। उन्हें प्रत्याशी बनाकर श्री मोदी अपने धर्मनिरपेक्ष होने का सबूत भी दे सकेंगे।
सुषमा स्वराज का नाम मेरी लिस्ट में सबसे ऊपर है। वे 1977 में पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा सदस्य बनी थीं याने वे राजनीतिक जीवन के चालीस वर्ष पूर्ण कर चुकी होंगी। वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल में पहले और अब भी अपनी कार्यक्षमता सिद्ध कर चुकी हैं। हिन्दी, संस्कृत और अंगे्रजी में वे समान अधिकार से बात कर सकती हैं। विदेश मंत्री के रूप में उनका अब तक का काम संतोषजनक ही माना जाएगा। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि संघ की है और पार्टी के प्रति उनकी निष्ठा अविचल है। अपने संसदीय जीवन में उन्होंने विपक्षी दलों से भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा है और उनकी सद्भावना अर्जित की है। उन्होंने सोनिया गांधी के बारे में जो कहा था, वह अब शायद पुरानी बात हो चुकी है। रेड्डी बन्धुओं अथवा ललित मोदी से निकटता आज की राजनीतिक वातावरण में क्षम्य ही मानी जाएगी!
अब बात आती है उपराष्ट्रपति की। यह चर्चा राजनीतिक हल्कों में चल रही है कि दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग भाजपा की ओर से इस पद के दावेदार हो सकते हैं। अगर सुषमा स्वराज राष्ट्रपति और नजीब जंग उपराष्ट्रपति बने तो एक तरह से 2007 की पुनरावृत्ति होगी जब प्रतिभा देवीसिंह पाटिल और हामिद अंसारी क्रमश: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बने थे। यदि राष्ट्रपति पद के लिए नजमा हेपतुल्ला का मनोनयन हुआ तो उपराष्ट्रपति के लिए फिर शायद किसी वरिष्ठ भाजपा नेता को अवसर दे दिया जाए। जो कुछ भी हो अभी तो ये सब कयास है। होली के अवसर पर अगर कोई गंभीर बात लिखी जाए तो उसे पढ़ेगा कौन? इसलिए बैठे ठाले जो मन में आया वह लिख दिया।
देशबन्धु में 24 मार्च 2016 को प्रकाशित
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