इन दिनों यात्राएं कुछ ज्यादा ही हो रही हैं। इस बीच दस दिन के अंतर से ही दो रेल यात्राएं हो गईं। पहली छत्तीसगढ़ में अंबिकापुर तक और दूसरी ओडिशा में भुवनेश्वर तक। अंबिकापुर जाने वाली गाड़ी में बैठो तो बरबस याद आता है कि अभी कुछ साल पहले तक उत्तरी छत्तीसगढ़ के इस प्रमुख नगर तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग ही एकमात्र विकल्प था। अंग्रेजों ने अंबिकापुर से मात्र बीस किलोमीटर दूर विश्रामपुर तक रेल लाइन बिछाई लेकिन न जाने क्यों उसके आगे अंबिकापुर को जोडऩे की बात नहीं सोची। ऐसा शायद इसलिए हुआ हो कि तब विश्रामपुर के आगे कोयला खदानें नहीं मिली थीं और यात्री परिवहन से रेलवे को कोई लाभ नहीं होना था। संभव है कुछ इसके अन्य कारण भी रहे हों। ध्यान आता है कि अंबिकापुर में कम्युनिस्ट पार्टी ने रेल लाइन लाने के लिए बरसों आंदोलन चलाया। यद्यपि पार्टी को इसका कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिल सका।
प्रदेश के एक महत्वपूर्ण नगर की इस उपेक्षा का यह परिणाम हुआ कि प्रदेश के मैदानी इलाके की जनता की कल्पना में सरगुजा बरसों तक एक सुदूर प्रदेश बना रहा। अब सीधी रेलगाड़ी हो गई है तो यात्रियों को सुविधा हो ही रही है, रायपुर और सरगुजा के रिश्तों में भी शायद कुछ गतिशीलता आई है। किसी समय अंबिकापुर में ठहरने के लिए कोई ठीक-ठाक जगह नहीं थी, लेकिन अब वहां लगभग आधा दर्जन सुविधायुक्त होटल खुल गए हैं। इसका कुछ-कुछ श्रेय नए-नए सरकारी, दफ्तरों और संस्थानों के खुलने को भी है और शायद अंबिकापुर के आगे खुली कोयला खदानों को भी। अब यहां खनिज उत्खनन का काम जोरों से चल रहा है। इसका नागरिक जीवन और पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ रहा है वह पृथक अध्ययन का विषय है। लेकिन आमतौर पर लोग अदानी कंपनी के व्यापार से खुश नज़र नहीं आए।
मैं अंबिकापुर कुछ साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी करने गया था। आते-जाते खैरागढ़ के साहित्यिक मित्र डॉ. गोरेलाल चंदेल और भिलाई के साथी रवि श्रीवास्तव भी साथ थे। रात को जब रायपुर से ट्रेन चली तो सोने का समय होने आया था। लौटते वक्त एक रोचक वाकया हुआ। सुबह बिलासपुर के आसपास नींद खुल गई तो हम लोग आपस में दुनिया भर की बातें करने में मशगूल हो गए। समय ऐसा था कि किसी सहयात्री को हमारी बातचीत से तकलीफ नहीं होना चाहिए थी, लेकिन तभी ऊपर की बर्थ से एक उनींदे युवा सहयात्री ने हस्तक्षेप किया- अंकल, सोने दीजिए। रायपुर पहुंच कर दिन भर बहुत काम करना है। रायपुर आने के कुछ पहले वह युवक अपनी बर्थ से नीचे उतरा। मैंने कहा कि हमारे कारण तुमको तकलीफ हुई। कहां रहते हो, क्या करते हो? मालूम पड़ा कि वह और उसके साथी चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। अंबिकापुर से ऑडिट करके लौट रहे हैं। इस बीच रायपुर में टेबल पर फाइलों का अंबार लग गया होगा।
रायपुर के युवा सीए अमित अग्रवाल के इस उत्तर से समझ आया कि आज की नई पीढ़ी को कितना संघर्ष और परिश्रम करना पड़ रहा है। पहले की अपेक्षा कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा है और अगर सफलता हासिल करना है तो उसके लिए लगातार दौड़ते रहना एक विवशता बन गई है। फिर काम चाहे सीए का हो या सॉफ्टवेयर इंजीनियर का या कुछ और। लेकिन इसके ठीक विपरीत अनुभव मुझे भुवनेश्वर यात्रा के दौरान हुआ। दुर्ग-पुरी एक्सप्रेस में रात को बालांगीर से एक युवक चढ़ा। सुबह उससे बात होने लगी तो मालूम पड़ा कि उसने बी. टेक कर लिया है, एम. टेक में प्रवेश की प्रतीक्षा कर रहा है, लेकिन अंकित सतपथी, वही उस युवक का नाम था, तथा उसके मित्र एक संस्था चला रहे हैं, जिसमें साधनहीन बच्चों को वे अनेक तरह से मदद करते हैं।
अंकित ने मुझसे कहा कि हमने पढ़ाई कर ली है, कोई अच्छा काम भी मिल जाएगा, लेकिन जो बच्चे अनाथालय में हैं या अन्य तरह की विपरीत परिस्थिति में जी रहे हैं उनके लिए कुछ करने में हमें मानसिक संतोष मिलता है। मैंने इस बात की सराहना की, बधाई दी और फिर पूछा कि वे और उनके मित्र क्या पढ़ते हैं और बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए क्या करते हैं? मेरे युवा सहयात्री के लिए यह प्रश्न कुछ नया और अटपटा था। मैंने अपनी बात का खुलासा करते हुए उसे सलाह दी कि जिन बच्चों की मदद वे फीस, ड्रेस आदि से करते हैं उन्हें वे उडिय़ा साहित्य की अच्छी पुस्तकें पढऩे के लिए न सिर्फ प्रेरित करें बल्कि उसकी भी व्यवस्था करें। आज बच्चे अगर अच्छी रचनाएं पढऩा शुरु करेंगे तो आगे चलकर वे सामाजिक स्थितियों को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे तथा एक विचारशील नागरिक के रूप में देश निर्माण में भूमिका निभाने में सक्षम होंगे। मेरी बात खत्म होते न होते भुवनेश्वर का रेलवे स्टेशन आ गया। मालूम नहीं अंकित ने मेरी बिनमांगी सलाह को कितना समझा और वे उस पर कितना अमल करेंगे।
पाठकों से मैं कहना चाहता हूं कि मेरा बिना मांगे सलाह देना गलत नहीं था। हर व्यक्ति अपने व्यापार को बढ़ाना चाहता है और उसके लिए भरपूर कोशिश करता है। मेरा व्यापार पढऩे-लिखने का है तो मुझे हर वक्त यह लगता है कि समाज में पढऩे की प्रवृत्ति सर्वव्यापी होना चाहिए ताकि एक तो हमें कोई आसानी से बहला-फुसला न सके और दूसरे समाज के निर्माण में हम सतर्क बुद्धि के साथ सकारात्मक भूमिका निभा सकें और तीसरे इसलिए कि पुस्तकें सचमुच हमारी दोस्त हैं और उनसे हमें जीवन-विवेक मिलता है।
हम अंबिकापुर वापिस लौटते हैं। वहां प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय कार्यक्रम में हमने कॉलेज के विद्यार्थियों से इसी तर्ज पर बात की। अमृतलाल नागर का यह जन्मशती वर्ष है। एक तो उनकी एक प्यारी सी कहानी है 'हाजी कुल्फीवाला' उसका पाठ एक विद्यार्थी ने किया। प्रेमचंद तो डायमंड्स आर फॉरएवर की तरह सदा के लिए हैं। उनकी कहानी 'नशा' का पाठ भी एक विद्यार्थी ने किया। कुछ अन्य कहानियों और कविताओं की भी प्रस्तुति दो दिनों में हुई। इन पर वरिष्ठ लेखकों और विद्यार्थियों के बीच खुलकर बातचीत हुई। विद्यार्थी पाठ्यक्रम के बाहर निकलकर साहित्य को उसकी व्यापकता पर पहचानें और समझें, उसकी पहल हुई। अंबिकापुर के अलावा आसपास के अनेक स्थानों से आए शिविरार्थियों के साथ ऐसी खुली चर्चा करना एक सुखद अनुभव था जिसकी सार्थकता समय सिद्ध करेगा।
मेरी भुवनेश्वर यात्रा भी एक साहित्यिक आयोजन के सिलसिले में हुई थी। ओडिया की युवा कथाकार इति सामंत 'कादम्बिनी' नाम से एक पारिवारिक पत्रिका और 'कुनिकथा' नामक बच्चों की पत्रिका निकालती हैं। पत्रिका का स्थापना दिवस था। दो जुलाई की शाम बारिश के बावजूद रवीन्द्र भवन का हाल खचाखच भरा हुआ था। उडिय़ा के प्रसिद्ध रचनाकार यथा सीताकांत महापात्र, रमाकांत रथ, हरप्रसाद दास, प्रभासिनी महाकुल इत्यादि श्रोताओं में थे। मंच पर सुप्रसिद्ध ओडिशी नृत्यांगना कुमकुम महांती, बंगला फिल्मों की सुप्रसिद्ध नायिका माधवी मुखर्जी, लेखक अनुवादक श्यामा प्रसाद चौधरी, चंडीगढ़ की युवा पत्रकार वाणी कौशल व ओडिशा के जाने माने सामाजिक उद्यमी अच्युत सामंत थे। अध्यक्षता उपन्यासकार वरिष्ठ लेखक विभूति पटनायक कर रहे थे। दो घंटे का कार्यक्रम घड़ी की सुई की तरह निपुणता से सम्पन्न हुआ। मैं सोच रहा था कि हम हिन्दी भाषियों में अपनी भाषा के प्रति ऐसा अनुराग क्यों नहीं है!
देशबन्धु में 14 जुलाई 2016 को प्रकाशित
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