Wednesday 20 July 2016

कश्मीर : समाधान के लिए प्रतीक्षा


"कश्मीर के अलगाववादी तरुण अपने सशस्त्र संघर्ष को खिलवाड़ समझते हैं। अन्य देशों की तरुणाई की भांति वे भी अपने आपको परिवर्तन के अग्रगामी दस्ते के रूप में देखते हैं। लेकिन अन्य देशों और कश्मीर के तरुणों, किशोरों के बीच फर्क यही है कि वे इस खिलवाड़ की भावना से संघर्ष करते हैं और वह भी बिना किसी अनुशासन के। बेरोजगार, कुंठित, राजनीतिक चेतनासम्पन्न, न्याय न मिलने का रोष, इन सबके साथ वे लड़ाई में कूद पड़ते हैं, बिना यह समझे कि वे क्या कर रहे हैं। वे किशोर से वयस्क हो जाने के बदलाव और क्रांति युद्ध लड़ने के बीच का फर्क नहीं जान पाते। जो कट्टरतावादी विद्रोही प्रौढ़ हो चुके हैं वे या तो विदेश जाकर निर्वासित सरकार बनाते हैं या फिर मानवाधिकार समितियां बनाकर ऊपरी बहसें करते हैं और इन 'लड़कों' के ऊपर लड़ने का काम छोड़ देते हैं।"

यह लंबा उद्धरण मैंने वाशिंगटन पोस्ट के दक्षिण एशियाई ब्यूरो प्रमुख एवं बाद में उसके प्रबंध संपादक रहे पत्रकार स्टीव कोल की किताब 'ऑन द ग्रैंड ट्रंक रोड; अ जर्नी इन टू साऊथ एशिया' से लिया है।  उन्हें विश्व के संघर्ष क्षेत्रों की रिपोर्टिंग करने का सुदीर्घ अनुभव रहा है। यह पुस्तक प्रथमत: 1994 में छपी थी। लगभग पच्चीस वर्ष बाद समय बीत जाने के बावजूद कश्मीर के बारे में उनका यह अध्ययन ऐसा लगता है मानो अभी हाल की ही बात है। पिछले आठ-दस दिन में कश्मीर घाटी के जो हालात सामने आए हैं उसमें इस पत्रकार की टिप्पणी सटीक बैठती है ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा। अनुवाद में थोड़ा फेरबदल हो सकता है, लेकिन मुख्य बात अपनी जगह पर है। हिजबुल मुजाहिदीन के एक कमांडर के रूप में जिसकी पहचान बनी और जिसकी मृत्यु कश्मीर पुलिस की गोलियों से हुई उस बुरहान वानी की उम्र मात्र बाइस वर्ष ही तो थी। इसके पहले मुझे इस तरह की टिप्पणियां भी पढ़ने मिलीं कि कश्मीर घाटी के किशोर किन्हीं खास मौकों पर पत्थरबाजी कर अपने गुस्से का इजहार करते हैं और यह जैसे एक रिवाज बन गया है जिससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचता।

बारह-चौदह साल के बच्चों को हाथ में पत्थर क्यों उठाना चाहिए? उनके हाथ में किताबें या गेंद क्यों नहीं हैं? एक नौजवान उन्नीस-बीस साल की उम्र में बंदूक चलाकर अपने कथित दुश्मनों की हत्या करता है और फिर बाइस की उम्र पूरी करते न करते उन्हीं के हाथों मारा जाता है, ऐसी स्थिति कश्मीर घाटी में क्यों कर पैदा होती है? लेकिन फिर इसी कश्मीर घाटी में वे नौजवान भी हैं जो सामान्य घरों से या शायद अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक स्थिति वाले घरों से आते हैं जो अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं और फिर डॉक्टर, इंजीनियर, सैन्य अधिकारी, टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी, यहां तक कि आईएएस अफसर भी बनते हैं। एक ही सांस्कृतिक, भौगोलिक परिवेश में ये दो अलग-अलग धाराएं कैसे बनती हैं और क्या इसमें कहीं जानने, समझने, सीखने के कोई बीज निहित हैं जिनकी ओर राजनीति के पंडितों का ध्यान अब तक नहीं गया है। अब तो यह समझना भी कठिन हो रहा है कि राजनीति मीडिया को किस हद तक प्रभावित कर रही है और मीडिया राजनीतिक विमर्श को कैसे आगे बढ़ा रहा है। ऐसा लगता है कि दोनों ही फैसला सुनाने के लिए धीरज नहीं रखना चाहते। सबको एक रंग से पोतो और छुट्टी पाओ।

कुछ दिन पूर्व फेसबुक पर एक मित्र ने मुझसे प्रश्न किया- कश्मीर की समस्या का समाधान कैसे होगा? मेरा उत्तर कुछ इस तरह था-जिस दिन भारत व पाकिस्तान दोनों वास्तविक नियंत्रण रेखा को वास्तविक सीमा रेखा के रूप में स्वीकार कर लेंगे शायद उस दिन समस्या सुलझ जाएगी। मेरे इस उत्तर से मित्र महोदय को संतोष हुआ। उन्होंने अपनी सहमति दर्ज की कि शायद यही एकमात्र विकल्प है। मैंने कोई नई बात नहीं कही थी। नवंबर 2015 में कश्मीर के वरिष्ठतम नेता फारूख अब्दुल्ला ने बेबाकी के साथ यही मंतव्य प्रकट किया था। मेरा 3 दिसम्बर 2015 का लेख डॉ. अब्दुल्ला के उसी बयान को केन्द्र में रखकर लिखा गया था। मुश्किल यह है कि यदि कोई तर्कपूर्ण हल सामने दिख रहा है तो उसे न तो कोई स्वीकार कर रहा है और न ही कोई इस अवधारणा को खारिज करने के लिए कोई नए तर्क  पेश कर रहा है। मतलब यह कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो।

प्रश्न उठता है कि स्थायी समाधान ढूंढने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने से यह हिचकिचाहट क्यों? इसके कई कारण हो सकते हैं। भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विलय के बाद से अब तक इस सीमांत प्रदेश के विकास के लिए विभिन्न मदों में अरबों-खरबों की राशि वहां भेजी है। एक समय जनसंघ के लोग कांग्रेस पर आरोप लगाते थे कि वह घाटी के मुसलमानों को दामाद समझकर पैसा बहा रही है, लेकिन इस बीच जितनी भी गैरकांग्रेसी सरकारें आईं उन्होंने इस इमदाद में कोई कमी नहीं की। वर्तमान मोदी सरकार भी वही कर रही है, जो कल तक कांग्रेस करती थी। यह समझना कठिन नहीं है कि इस राशि का कितना हिस्सा वास्तव में विकास की मद में खर्च हुआ और कितना नेताओं की तिजोरियों में पहुंचा। कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो भ्रष्टाचार के मामले में वह शेष भारत से अलग कैसे रह सकता है?

दूसरे, भारत में बड़ी हद तक जनतांत्रिक व्यवस्था के तहत ही जम्मू-कश्मीर का प्रशासन चलने की गुंजाइश शुरू से बना रखी है। इसके अपवाद गिनाए जा सकते हैं। लेकिन फिर अपवाद निर्मित होने की स्थितियां क्यों बनीं, उन कारणों में भी जाने की आवश्यकता होगी और हम मौजूदा चर्चा से भटक जाएंगे। मुख्य बात यह लिखने की है कि प्रदेश में अब तक चार-पांच पार्टियों और गठबंधनों का अलग-अलग समय में शासन रह चुका है। याने जनतंत्र के रास्ते चलने में सभी राजनीतिक दल सहमत हैं। इसके बावजूद अगर घाटी में अविश्वास का वातावरण बना हुआ है तो उसका एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि हिन्दू-बहुल शेष भारत मुस्लिम-बहुल कश्मीर पर विश्वास नहीं करता तथा हिन्दूत्ववादी ताकतें उसकी देशभक्ति पर निरंतर संदेह की उंगली उठाती रहीं हैं। वे बहुत आसानी से 1947 के पहले नागरिक शहीद मकबूल शेरवानी और पहले सैनिक शहीद बिग्रेडियर उस्मान के सर्वोच्च बलिदान को भुला देते  हैं। मेरी तो यह जानने की भी इच्छा है कि हाशिम कुरैशी ने 1971 में विमान अपहरण क्यों किया, पाकिस्तान ने उसका सत्कार करने के बजाय उसे जेल में क्यों डाला, उसे नार्वे में किसके कहने से शरण मिली तथा प्रधानमंत्री वाजपेयी जी ने उसे भारत वापस क्यों बुलाया?

तीसरे, भारत में भले ही जनतंत्र हो और कहने को तो पाकिस्तान में भी जम्हूरियत है, लेकिन क्या पाकिस्तान के राजनेताओं के हाथ-पैर बंधे हुए नहीं हैं? वहां जो भी सरकार में बैठता है कश्मीर का हल निकले बिना दोनों देशों के संबंध सामान्य होने की बात ही नहीं करता। भुट्टो, बेनज़ीर, जरदारी, और शरीफ की बात छोड़िए सैनिक तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ भी तमाम कोशिशों के बावजूद किसी सर्वमान्य हल तक पहुंचने में नाकाम रहे। यह दिलचस्प तथ्य है कि पाकिस्तान के राजनैतिक हुक्मरान वरिष्ठता आदि के बजाय वफादारी को तरजीह देते रहे हैं। लेकिन वे जिसे सेना प्रमुख बनाते हैं वही भस्मासुर बन जाता है। अभी पाकिस्तान के शहरों में सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ से सत्तासूत्र हाथ में लेने की अपील करने वाले पोस्टर जगह-जगह चिपके हुए देखे गए और इसे लेकर भांति-भांति के कयास लगाए जा रहे हैं।

दरअसल, पाकिस्तान की मिलिट्री ने खून का स्वाद चख लिया है। इसके लिए जब तक कोई बड़ी जनतांत्रिक क्रांति नहीं होती तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। भारतीय सेना में भी ऐसे रिटायर्ड और सेवारत अफसरों की कमी नहीं है जो दिल से मानते हैं कि देश की सारी समस्याओं का हल उनके ही पास है। इधर प्रचार माध्यमों का विस्तार होने से उनको भी आए दिन प्रसिद्धि के पांच क्षण मिलने लगे हैं। भारत हो या पाक, सैन्यतंत्र का संबंध हथियारों की खरीद से भी है और अंतरराष्ट्रीय दबावों से भी वे मुक्त नहीं रह सकते।

अंत में यही कहना होगा कि कश्मीर में आज भले ही कोई सीधा रास्ता न दिखाई दे रहा हो, जिस दिन पाकिस्तान में सचमुच जनतंत्र कायम होगा, उसी दिन इस मुद्दे का समाधान भी निकलेगा।
देशबंधु में 21 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

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