Monday 4 July 2016

खुद पर निगरानी रखते चंद्रकांत देवताले



 खुद पर निगरानी का वक्त चंद्रकांत देवताले का नया कविता संग्रह है जो अब एक साल पुराना हो चुका है। पुस्तक न जाने कब से मेरी टेबल पर रखी हुई है। मुझे जब फुर्सत मिलती है, उसे उठाता हूं, कुछ पन्ने पलटता हूं, कोई कविता अधूरी, कोई पूरी, इस तरह पढ़ता हूं और पुस्तक वापिस रख देता हूं। फिर कलम उठाता हूं कि बस बहुत हो गया, अब तो इस पर लिखना ही है, लेकिन कलम चलती ही नहीं है, क्योंकि यह समझ ही नहीं पड़ता कि कहां से शुरुआत करूं। ऐसा असमंजस सामान्य तौर पर नहीं होता। कोई भी पुस्तक कविता की हो या गद्य की, जब हाथ में आती है और रचना पसंद आ जाती है तो उस पर कलम मानो अपने आप चल पड़ती है। तब चंद्रकांत देवताले की इन कविताओं में ऐसा कौन सा तत्व है जो साहित्य की मेरी समझ को जैसे चुनौती देते हुए विचार प्रवाह को रोक देता है? यह तो तय है कि मैं पेशेवर समीक्षक नहीं हूं, इसलिए काव्यशास्त्र की आधुनिक कसौटियों पर इन कविताओं को परखना मेरे लिए संभव नहीं है; मैं आजकल के अधिकतर आलोचकों की चिर-परिचित भाषा में किसी कृति के प्रति अपने विचार अथवा प्रतिक्रिया व्यक्त करने में असमर्थ हूं। फिर भी एक साल का समय कम नहीं होता कि 150 पृष्ठों में सिमटी मात्र साठ कविताओं के बारे में कोई मुकम्मल राय काम न कर सकूं। 

यह मेरे लिए खासी शर्म का विषय है और इससे उबरने के लिए मैंने ठान लिया कि अब जो भी हो, इस पुस्तक की शल्यक्रिया करना ही है। मेरी पहिली कठिनाई शायद यह रही कि देवतालेजी की कविताओं की कहन या शैली मुझे समकालीन कवियों से एकदम अलग प्रतीत हुई। मैंने महसूस किया कि वे अपने समय तथा परिस्थितियों पर दूर खड़े होकर निर्णय नहीं देते। वे जिस समाज को संबोधित कर रहे हैं, उसे पराया नहीं मानते, उसे अपने से कमतर नहीं समझते, उसे उपदेश देने के बारे में नहीं सोचते बल्कि उसके साथ गहराई तक संपृक्त हो जाते हैं। शायद कुछ-कुछ मुक्तिबोध की कविता मेरे दोस्त, मेरे सहचर की भावना का अनुसरण करते हुए। चंद्रकांत जिसके बारे में लिखते हैं, उसे अपना बनाकर नहीं, बुनियाद से ही अपना मानकर लिखते हैं। मैं उनकी कविताएं विगत चालीस वर्षों से या उससे भी पहिले से पढ़ता रहा हूं और उस बिना पर शायद बिना किसी अतिरंजना के कह सकता हूं कि चंद्रकांत देवताले के कवि का सर्वोत्तम रूप इन कविताओं में उभरकर आया है। यह तो हुई कहन अथवा शैली की बात, किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण है कवि की समझ और दृष्टि। यह जानना विस्मयकारी और संतोषदायक है कि उनके समकालीनों में से अनेक प्रतिभाशाली कवि जब दृश्य से विदा हो चुके हैं या निस्तेज होकर किसी शीतल छाया में विश्राम के लिए जा चुके हैं, तब चंद्रकांत देवताले अपनी पूरी शक्ति और भीतर की सारी बेचैनी को साथ लिए वर्तमान की वे झलकियां, वे तस्वीरें बनाने में जुटे हुए हैं जो किसी दिन ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में पेश की जाएंगी। 

चंद्रकांत देवताले की कविताएं निरुद्वेग नहीं हैं, यद्यपि कहन का ठंडापन ऐसा भ्रम पैदा कर सकता है। इन कविताओं में पंक्ति-दर-पंक्ति उनकी आंतरिक बेचैनी उभरती है और पाठक को झिंझोड़ जाती है। वे जब खुद पर निगरानी का वक्त लिखते हैं तो अपने साथ-साथ समूचे बौद्धिक समाज को चुनौती देते हैं कि वृहत्तर समाज के साथ अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करो। कभी मुक्तिबोध ने महत्वाकांक्षी लेखकों के पद और प्रतिष्ठा के लोभ के बारे में लिखा था कि वे उच्चतर वर्ग के दरवाजे जा उनकी कृपा से सभ्य जीवन की सुन्दर साज-सज्जा प्राप्त कर अपने वर्ग से ही घृणा और तिरस्कार करने लगते हैं। एक साहित्यिक की डायरी में संकलित एक लंबी कविता का अंत लेख में उन्होंने विस्तारपूर्वक इस मनोवृत्ति की चर्चा की थी। 1950 के दशक की इस सच्चाई का अक्स चंद्रकांत की इस कविता में उभरा है। जहां वे पूंजी मंडी में फोटो खिंचवाते, मुस्काते विवेक को नष्ट होते देखते हैं, कौड़ी के भाव ईमान को बिकते देखते हैं और तब वे छाती कूटती, हांफती कविता के माध्यम से कहते हैं- 

कह रही बार-बार निगरानी रखो
जैसी दुश्मन पर, वैसी ही खुद पर
चुटकी भर अमरता-खातिर
विश्वासघात न हो जाए।
अपनी भाषा, धरती और लोगों के साथ (पृष्ठ 124) 

संकलन में एक लम्बी सी कविता है- गुजर गया दो हजार दस। इसके पहले पद में ही वे सत्तातंत्र पर तीव्र कटाक्ष करते हैं- 

सिर मुंड़ाकर गुजर गया दो हजार दस
नवम्बर-दिसंबर को व्यवस्था की तरह
लाशें-ताबूत ढोते हांफते रहे
मरे भूख से, बे-मौत भी, 
फिर हत्याएं हुईं इतनी गिन पाना असंभव
वह भी दिपदिपाते चारों खंबों की छत्रछाया में (पृष्ठ 37)

इसी कविता में वे घोटाले की अमर धुन के साथ सत्य, स्वतंत्रता और विचार तीनों की शव यात्राएं निकलने का चित्र खींचते हैं, उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट गायब हो जाने की बात कहते हैं, लेकिन फिर यह कहते हुए कि आज तो डर रहा मैं सच कहने से। इस कविता का अंत इस तरह करते हैं कि भीतर बैठा दूसरा, जो जोखिम उठाने के लिए उकसा रहा है मैं उसकी अनसुनी कर रहा हूं। यह दूसरा और कोई नहीं, कवि स्वयं है। यह आज के समय में सामान्य जन और वेदना का, उसकी तड़प और कसक का मर्मस्पर्शी और पारदर्शी चित्रण है। 
कवि इस मार्मिक सत्य का आगे और खुलासा कोई पूछे तो कविता में इन शब्दों में करता है-

‘मैदान ही में नहीं होता युद्ध
जगहें बदलती रहतीं
कभी-कभी उफ तक नहीं होती वहां
जहां घमासान जारी रहता’ (पृष्ठ 95)

युद्ध भूमि कहां नहीं है? एक तरफ कवि युद्ध की जगह पूछे जाने पर हमारे बहरे-गूंगे होने का ढोंग करने की विवशता का बयान करता है तो दूसरी ओर इसी कविता में वह विस्थापित और गुमनाम लोगों के तहस-नहस चेहरों से मिलवाता है। सृजन-अनुष्ठान टेंट हाउस शीर्षक कविता में युद्ध क्षेत्र के ही एक दृश्य का वर्णन है जिसमें भाषा के घर में हुई तोडफ़ोड़ का ब्यौरा कवि देता है। इस कविता में उसने ठेके पर सम्मान करवाने वाले लेखकों, कवि-निर्माताओं तथा छवि-कामियों की खूब खबर ली है और प्रशंसकों की लफ्फाजी रेखांकित करने के साथ उसने ऐसे उत्सवों की फूहड़ता और हास्यास्पदकता को भी रेखांकित किया है। इस कविता में समर भूमि में या कि घमासान के बीच चल रहे पाखंड की झलक है, लेकिन चंद्रकांत देवताले एक अन्य कविता इन्तजार करो, तुम कतार में हो में पुन: गंभीर एवं जीवन-मरण के प्रश्नों के सामने पाठक को खड़ा कर देते हैं। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं- 

तुम्हारे तो कई कई हैं दस्ते मैया
एक वो जमीन-जल-जंगल को
लूटने वाला हरकारा कॉरपोरेट पूंजी का 
जिसके झटकों से अन्नदाता हमारे
कर रहे हैं आत्महत्या (पृष्ठ 43)

इस कविता में सबसे मार्मिक, वेधक एवं भीतर तक कंपा देने वाली पंक्तियां अंत में है, जहां कवि अपने अकेलेपन में पस्त मौत से संवाद करना चाहता है और उधर से जवाब आता है- यू आर इन द क्यू। (पृष्ठ-45) ऐसी गहरी हताशा जीवन में छाए, तिस पर मृत्यु को भी दया न आए, क्या करोड़ों विश्व नागरिक इस नियति को भुगतने के लिए अभिशप्त नहीं है? प्रश्नों के चाकू कविता में भी वह विषाक्त विचारों की खाद से/कर रहे बंजर सपनों वाली अपनी उपजाऊ धरती/खड़ा करने सत्ता, पूंजी, ताकत का महाहाट (पृष्ठ 49) जैसी पंक्तियों से उस युद्ध का वर्णन करता है जो आज भारत के खेतिहरों और खेती के खिलाफ जारी है। 

चंद्रकांत देवताले के इस संकलन की उन कविताओं को एक अलग श्रेणी में रखा जा सकता है, जो उन्होंने कुछ विशेष जनों की स्मृति में रची हैं। इनमें सुदीप बनर्जी हैं, मकबूल फिदा हुसैन हैं, तुकाराम हैं, निराला हैं और हैं मुक्तिबोध व रघुवीर सहाय। स्मिता पाटिल भी इस सूची में हैं, जिन्हें स्मरण करते हुए वे महाश्वेता देवी, मदर टेरेसा व मेधा पाटकर के अभियानों का उल्लेख कर मानों फिर हमें उस अघोषित युद्धभूमि की ओर ले जाते हैं। सुदीप उनके छात्र, मित्र और अनुजवत थे। स्मरण: सुदीप में चंद्रकांत भाई उन्हें बेहद भावुक होकर याद करते हुए उनकी आम आदमी के प्रति अनन्य पक्षधरता को एक आदर्श की तरह सामने रखते हैं। हुसैन के साथ अपने संक्षिप्त परिचय का उल्लेख करते हुए वे उनके देश छोडऩे की विवशता को इन शब्दों में पिरोते हैं- 

जिस अपनी धरती का स्वाद 
ताजिदगी रहा तुम्हारी जुबां पर
वहां से लावतन होना पड़ा तुम्हें
उन मुट्ठी भर लोगों के कारण 
जिनके विवेक को खा चुका था पाखंड (पृष्ठ 25) 

गरज यह कि अघोषित युद्ध भूमि यहां भी मौजूद है। देवताले ने संत तुकाराम के अभंगों का हिंदी अनुवाद किया है (यद्यपि उसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई है)। संत कवियों की समृद्ध परंपरा में तुकाराम का स्मरण करते हुए वे इस तरह प्रतिश्रुत होते हैं- 

पर तुका! भरोसा रखना
बचपन से रहता हूं तुम्हारे जैसों की ही
आवाजो के घर में
भगोड़ा हो नहीं सकता। (पृष्ठ-28)

आधुनिक कवियों में मुक्तिबोध उनके प्रिय कवि हैं, जिन पर उन्होंने बहुत परिश्रम एवं मनोयोग से शोधपरक ग्रंथ भी लिखा है। मुझे अचरज यह है कि वे मुक्तिबोध तथा रघुवीर सहाय को एक कोटि में रखते हैं। मेरी समझ में मुक्तिबोध में जहां वैश्विक दृष्टि और विराट फलक है, वहीं रघुवीर सहाय शोषित जन के साथ अपनी एकजुटता दर्शाने के बावजूद विद्यमान परिस्थितियों का वस्तुपरक विश्लेषण उस व्यापक पृष्ठभूमि और उसमें मौजूद जटिलताओं के बरक्स नहीं कर पाते। बहरहाल, देवतालेजी की उपरोक्त दूसरी कोटि की कविताओं के एक-दो उद्धरण और देख लीजिए- 

1. थोड़े लिखे को अधिक पढऩा
    और किसानों की आत्महत्या-धरती के ताजा ख्मों की
    रोमर्रा वाली वारदातें याद रखना (पृष्ठ 55)

2. और कविता जिसे
    पता नहीं किस भरोसे बना लिया
    पड़ताल के लिए कसौटी मैंने
    क्या उसका भी करवाना होगा नार्को टेस्ट (पृष्ठ 47)

अब तक दिए गए छुटपुट उद्धरणों से कवि की बिंब-विधान की क्षमता का परिचय हमें बखूबी मिल जाता है लेकिन अब मैं चंद्रकांत की कविता के एक और पक्ष की चर्चा करना चाहता हूं, जिसे शायद सौंदर्य पक्ष कहा जा सकता है, और जिसके अन्तर्गत बिंब विधान की बात भी दुबारा उठेगी। दरअसल, यहां मेरी एक कठिन कोशिश है कि कवि के विचार पक्ष को कुछ देर के लिए भूलकर सिर्फ शैली की सुंदरता को ही देखा जाए, गोया बरसात की पहिली झड़ी को देख रहे हों (बस्ती के निचले इलाकों में पानी भर जाने की मुसीबत भूलकर!) देवतालेजी को अन्य बहुत से कवियों के ही सदृश्य सूरज बहुत लुभाता है। उसका आकर्षण सचमुच है ही कुछ ऐसा। चंद्रकांत इसलिए ‘सूरज का प्रताप का महोत्सव’ यह कहकर मनाते हैं- 

‘‘समूची धरती को कितना कुछ सिरजने वाला
ब्रह्माण्ड का सबसे अमूल्य हीरा’’ (पृष्ठ 12)

और
 
कुछ पहिले एक बार
समुद्र के पिंजरे में तुम्हें शेर की तरह
खड़ा कर दिया था मैंने
कन्याकुमारी, पुरी, कोणार्क
और पालेर्मो के समुद्र तट तक (पृष्ठ-10)

चंद्रकांत भाई कोई दस साल पहिले छत्तीसगढ़ आए थे, उस यात्रा की स्मृति को उन्होंने इन शब्दों में संजोया है- 

एक पूरे चांद की रात छत्तीसगढ़ के बारनवापारा
अभ्यारण्य में गिटार की तरह बजाया था
            चंद्रमा को मैंने (पृष्ठ-14)

सूरज और चांद हैं तो रात भी है, लेकिन एक नए रूप में- 

छाती पर रात पहाड़ जैसी
और आटे में नमक जितनी
चुटकी भर नींद
गुंडी में पानी नहीं कटोरी भर भी (पृष्ठ-30)

इस संकलन में उनकी वह कविता भी है जो उन्होंने दिल्ली के अस्पताल में मृत्युशय्या पर पड़े मुक्तिबोध जी को देखने के बाद लिखी थी और सितंबर 64 में कल्पना में प्रकाशित हुई थी। इस कविता का प्रारंभ इस तरह होता है- 

मन: धूप का समुंदर
और किनारों पर
उलझी हुई वनालियों की तरह संवेदनाएं,
तुम्हारी कविताएं : 
जैसे सूरज के तपते हुए पठार पर
गिरता हुआ झरना
भाप बनता है। (पृष्ठ 142)

खुद पर निगरानी का वक्त पर लिखते हुए मैंने यथासंभव उदाहरण देकर अपनी राय देने का यत्न किया है, लेकिन कुल मिलाकर यह एक अधूरी कोशिश ही है। चंद्रकांत देवताले की भाव-भूमि, रचना-प्रक्रिया, शैलीगत विशिष्टता, इन सबको समझने के लिए एक-एक कविता को धीरज और मनोयोग के साथ पढऩे की आवश्यकता है। वे एक जटिल कवि हैं, यह भी कहूं तो गलत नहीं होगा। कविता पढ़ते-पढ़ते ही उसके अर्थ की गठानें खुलती हैं या अर्थ का समूचेपन में विस्तार होता है। सांगानेर की बंधेज की साड़ी को जब तक पूरी तरह सलवटें मिटाकर न देखा जाए, वह एक साधारण वस्त्र ही प्रतीत होता है, उसके रंग और रूप का सही पता नहीं लग पाता। तो मैंने सिर्फ इतना किया है कि आपको देवतालेजी के कविता संसार की दहलीज पर खडा़ कर दिया है। शायद हो यह लेख आपको भीतर जाने के लिए प्रेरित करे! अंत में मैं इतना अवश्य कहूंगा कि कवि ने बीते पचास सालों में एक लंबी यात्रा तय की है। एक समय उन्हें अकविता की त्रयी में गिना जाता था (गो कि वे इससे साफ इंकार करते हैं), आज उनकी कविता हमारी सोयी चेतना को जगाने का काम कर रही है। आमीन।

अक्षर पर्व जुलाई 2016 अंक की प्रस्तावना 

पुस्तक : खुद पर निगरानी का वक्त
कवि : चन्द्रकांत देवताले
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
4695,21- दरियागंज नईदिल्ली-110002
मूल्य: 150 रुपए  

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