Wednesday, 6 July 2016

मंत्रिमंडल का नया स्वरूप



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का जो विस्तार और पुनर्गठन किया है उससे प्रथम दृष्टि में तीन बिन्दु उभरते हैं। एक- नया मंत्रिमंडल पुराने की अपेक्षा किन्हीं मायनों में बेहतर है। दो- नरेन्द्र मोदी मोर गवर्नेंस लेस गवर्मेंट अर्थात कम से कम सरकारी हस्तक्षेप के द्वारा बेहतर प्रशासन का नारा भूल गए हैं। तीन- जिस व्यक्ति ने बिना किन्हीं शर्तों के जनादेश प्राप्त किया अब वह समझौते करते दिखाई दे रहा है। जहां तक पहले बिन्दु की बात है यह दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री ने जिन नए लोगों को शामिल किया है उनमें से अनेक ज्ञान और अनुभव के धनी हैं। जिनको उन्होंने बाहर निकाला है या अन्य विभागों में भेजा है उनकी अपनी योग्यता पहले दिन से संदिग्ध थी तथा उसका कोई लाभ सरकार को नहीं मिला। जिस तरह से सुरेश प्रभु और मनोहर पार्रिकर ने मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने पर उम्मीदें लगाई थीं वैसी ही उम्मीदें इस फेरबदल के बाद की जा रही हैं।

जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का आकार छोटा रखा था। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि यूपीए मंत्रिमंडल आवश्यकता से अधिक बड़ा था और कि डॉ. मनमोहन सिंह ने गठबंधन सहयोगियों को खुश करने के लिए भारी-भरकम मंत्रिमंडल बना डाला था। अब स्थिति यह है कि यूपीए में अगर अधिकतम 78 मंत्री थे तो एनडीए में एक अधिक याने 79। मोदीजी के अपेक्षाकृत छोटे मंत्रिमंडल की काफी सराहना की गई थी। प्रधानमंत्री ने तब दंभोक्ति की थी कि सुशासन देने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सरकार का स्वरूप बड़ा हो। दो साल बीतते न बीतते उनके अपने ही वायदे से मुकरने की नौबत आ गई है। यही स्थिति तीसरे बिन्दु के बारे में है। कल से यही गुणा-भाग लग रहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किन-किन जातियों व समुदायों को खुश करने की कोशिश मोदीजी ने की है।

प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के विभागों में जो फेरबदल किए हैं, उसे लेकर काफी चर्चा हो रही है। अनेक प्रेक्षक मान रहे हैं कि अरुण जेटली से सूचना प्रसारण मंत्रालय वापिस लेकर उनका कद छोटा किया गया है। इसमें सच्चाई का अंश हो सकता है क्योंकि दिल्ली में उनके पत्रकार मित्रों का एक अलग समूह था जो गाहे-बगाहे मोदी विरोधी टिप्पणियां और खबरें छापने में लगा हुआ था। अगर यह कयास सच न भी हो तब भी क्या वित्तमंत्री को अपनी महती जिम्मेदारी के अलावा कोई अतिरिक्त विभाग संभालना व्यवहारिक था? स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाए जाने से आम तौर पर राहत और प्रसन्नता का भाव दिखाई दे रहा है। उनकी तुनकमिजाजी और कथित तौर पर दुर्व्यवहार ही इसका प्रमुख कारण है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि स्मृति ईरानी युवा और ऊर्जावान तो हैं ही, उनकी संघर्ष क्षमता भी काबिले-तारीफ है। अगर वे संयमित व्यवहार करना सीख लें तो उनके लिए आगे बढऩे की अपार संभावनाएं हैं।

यह ध्यान में आता है कि सुश्री ईरानी को जो कपड़ा मंत्रालय दिया गया है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें रोजगार के नए अवसर सृजित करने का  बड़ा अवसर एवं बड़ी चुनौती उनके सामने होगी। भारतीय वस्त्रों की विदेशों मेें बहुत मांग है। इसलिए निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने की खासी गुंजाइश यहां सदा से रही है। वस्त्रोद्योग में नवाचार के भी अनेक अवसर हैं। एक अन्य तथ्य ध्यान देने योग्य है कि स्मृति ईरानी अभी भी केबिनेट की वरीयता क्रम में अपने से कहीं अधिक वरिष्ठ डॉ. हर्षवर्धन से ऊपर हैं। उधर वित्त मंत्रालय में अरुण जेटली के सहायक रहे राज्यमंत्री जयंत सिन्हा को विमानन मंत्रालय में भेज दिया गया है। इसके पीछे अनुमान लगाया जा रहा है कि पिता यशवंत सिन्हा द्वारा मोदी सरकार की लगातार आलोचना किए जाने की सजा पुत्र को दी गई है। देखना होगा कि क्या वे यहां अपने वित्तीय विशेषज्ञता का उपयोग कर विमानन क्षेत्र को मुनाफे में ला सकेंगे।

प्रकाश जावड़ेकर अब नए मानव संसाधन विकास मंत्री हैं। उन्होंने बहुत कम समय में उन्नति की है। राज्यमंत्री से केबिनेट में आने वाले वे एकमात्र मंत्री हैं। स्मृति ईरानी की आलोचना होती थी कि वे नागपुर से आदेश लेती हैं। जावड़ेकरजी को आदेश लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि वे तो सीधे संघ से ही आए हुए हैं और उन्हें मालूम है कि क्या करना है। नए राज्यमंत्री महेन्द्रनाथ पाण्डेय की भी पृष्ठभूमि संघ की है। दरअसल मोदी सरकार द्वैत प्रणाली में काम कर रही है। एक तरफ जिन मंत्रालयों का ताल्लुक शिक्षा, संस्कृति व सामाजिक संरचना से है वहां सरसंघचालक की ओर से जो फरमान आ जाए उसका पालन, और दूसरी तरफ वे मंत्रालय जिनमें आर्थिक और तकनीकी मुद्दे प्रमुख हैं वहां नवपूंजीवाद के साथ चलने वाले मंत्री।

इस फेरबदल में राजस्थान से जो तीन नए मंत्री शामिल किए गए हैं वे तीनों ही उच्च शिक्षित और प्रतिष्ठित नाम हैं। वहीं निहालचंद को हटाया गया है जो बलात्कार जैसे घृणित अपराध के आरोपी हैं । लेकिन मोदीजी ने उत्तर प्रदेश व बिहार के उन मंत्रियों को यथावत रखा है जिन पर दंगे करवाने और साम्प्रदायिक भावनाएं उकसाने के आरोप लगे हुए हैं। ये शायद जातीय समीकरण के कारण ही बच गए हैं। नरेन्द्र मोदी और उनके अनन्य सहयोगी अमित शाह उत्तर प्रदेश चुनावों को लेकर अभी से चिन्तित हैं। वे शायद विधानसभा में वैसी ही सफलता हासिल करना चाहते हैं जो उन्हें लोकसभा चुनाव में मिली थी। ऐसा लगता है कि कभी गुजरात में एकछत्र शासन करने वाले मोदीजी अब केन्द्र की राजनीति करते हुए समझौतों की व्यवहारिकता को स्वीकार करने लगे हैं। लेकिन आज नहीं तो कल ये उपद्रव प्रिय मंत्री निश्चित रूप से उनके लिए बोझ साबित होंगे। इस सच्चाई को वे जितनी जल्दी जान लें उतना अच्छा।

प्रधानमंत्री की निगाह सिर्फ उत्तर प्रदेश पर नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि वे गुजरात के बारे में भी सोच रहे हैं और महाराष्ट्र के बारे में भी। गुजरात में अगले साल चुनाव होना ही है। आनंदीबेन पटेल लोकप्रियता खो चुकी हैं। अपनी बेटी के व्यवसाय के कारण वे विवादों में भी हैं। ऐसे में शायद किसी दिन वे पुरुषोत्तम रूपाला को मुख्यमंत्री बनाने के बारे में सोच रहे होंगे। इसी तरह लगता है कि भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना से नाता तोडऩा चाहती है। इस फेरबदल में शिवसेना से कोई नया मंत्री नहीं लिया गया। शायद अनिल देसाई को पद देने की सीधी पेशकश की गई थी जो उद्धव ठाकरे की आपत्ति के कारण वापिस ले ली गई। कुछ समय पहले महाराष्ट्र से राज्यसभा में धनगर समुदाय के डॉ. विकास महात्मे भाजपा द्वारा लाए गए हैं जबकि सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं दलित समुदाय के नरेन्द्र जाधव को राष्ट्रपति द्वारा उच्च सदन में मनोनीत किया गया है। अभी डॉ. सुभाष भामरे जो कि खानदेश के हैं को राज्यमंत्री बनाया गया है। इस तरह भाजपा एक रणनीति बनाकर प्रदेश में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए काम करती नज़र आ रही है।

बहरहाल मोदीजी किसी को बनाएं, किसी को हटाएं इससे कोई बहुत अधिक अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। क्योंकि सरकार तो प्रधानमंत्री कार्यालय और मोदीजी के विश्वस्त अधिकारियों के इंगित पर ही चलती है।
 
देशबन्धु में 7 जुलाई 2016 को प्रकाशित 

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