1978 के दिसंबर में अमेरिका यात्रा का कार्यक्रम बना। वह एक शासन प्रायोजित यात्रा होना थी। एयर इंडिया ने बोइंग कंपनी से एक नया विमान खरीदा था। तब सामान्य परंपरा थी कि भारत सरकार का विमानन मंत्रालय अपनी छवि निर्माण की दृष्टि से कुछ पत्रकारों को ऐसे अवसर पर अमेरिका की संक्षिप्त सैर का मौका उपलब्ध करवाता था। यहां से एयर इंडिया के नियमित विमान से न्यूयॉर्क होते हुए बोइंग से मुख्यालय सीएटल, वाशिंगटन प्रांत जाइए और नए विमान में बैठकर वापिस आइए। केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी और रायपुर के लोकसभा सदस्य पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय पर्यटन व नागरिक उड्डयन मंत्री। समाजवादी कौशिकजी ने सोचा कि हमेशा दिल्ली-बंबई के पत्रकारों को ही ऐसे मौकों का लाभ मिलता है, इस बार अपने मंत्री रहते हुए हिंदी पत्रकारों को अमेरिका की सैर क्यों न करवाई जाए। मेरी भ्रमणशीलता और भ्रमणप्रियता से वे वाकिफ थे सो मेरा नाम सूची में जुड़ गया। एक निर्धारित तिथि पर दिल्ली पहुंचने की सूचना मिल गई। इसी बीच यह खबर किसी न किसी तरह से फैली होगी तो हिन्दी के 5-7 अन्य पत्रकार बंधुओं के नाम शामिल कर लिए गए।
उन दिनों रायपुर से दिल्ली के लिए एवरो विमान चलता था। रायपुर से जबलपुर, भोपाल होकर दिल्ली। सुबह रवाना हुए तो शाम को दिल्ली पहुंचे। वहां बाबूजी के अनन्य मित्र शेट्टी चाचा के घर पहुंचा नहीं कि चाची ने खबर दी- बच्चू, तुम्हारी अमेरिका यात्रा तो कैंसल हो गई है। मैं चौंका। मालूम पड़ा कि उसी सुबह दिल्ली के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रथम पृष्ठ पर खबर छपी कि मंत्री जी न जाने कैसे-कैसे पत्रकारों को अमेरिका भेज रहे हैं जिन्हें न अमेरिका पता है, न पर्यटन, न विमानन। जाहिर है कि जिन पत्रकारों का पत्ता कटा, उन्होंने क्षुब्ध होकर यह प्रहार किया था। बात सही भी थी। मैं रायपुर से, बाकी भी शायद ऐसे ही प्रादेशिक नगरों के होंगे। दिल्ली वालों के सामने हमारी क्या बिसात? मंत्री जी ने दिल्ली में चलने वाले दांव-पेंचों को अभी समझना शुरू ही किया था। वे इस खबर से घबरा गए और आनन-फानन में यात्रा निरस्त कर दी गई।
मैंने कौशिकजी से बात करना चाही। वे जिस भी मन:स्थिति में रहे हों, कतराते रहे और मिले नहीं। उनके सचिव रमाकांत चंद्राकर को फोन किया तो उन्होंने भी इधर-उधर कर बात समाप्त कर दी। मैं अगले दिन एयर इंडिया के प्रबंध निदेशक एच.एस. कोहली (एवरेस्ट विजेता) से मिलने गया तो बहुत अच्छे से मिले। चाय भी पिलाई। मैंने कहा कि शासकीय निमंत्रण पर यहां तक आया हूं। हवाई जहाज का टिकिट लगा है तो कम से कम उस राशि का भुगतान तो कर दें। उन्होंने मंत्रीजी से बात कर खबर करने का आश्वासन दिया। मैं लौट के बुद्धू घर आया की तर्ज पर वापिस रायपुर आ गया। दरअसल, मुझे इस लालच में पडऩा ही नहीं था। मेरा अनुभव है कि किसी भी तरह की शासकीय मेहरबानी मुझे रास नहीं आती। जो स्वअर्जित है, उसके अलावा और कुछ मुझे फलता ही नहीं है।
बहरहाल, अमेरिका प्रवास का अगला अवसर आया 1993 में याने उपरोक्त घटना के लगभग 15 वर्ष बाद। यह यात्रा सपत्नीक थी जिसमें अमेरिका के विभिन्न नगरों में हमने कोई बीस दिन बिताए। मैं यात्रा वृत्तांत लिखने में सामान्यत: विलंब नहीं करता। इसके कुछ अपवाद हैं, जिसमें वह यात्रा भी शामिल है। आज लगभग 24 वर्ष बाद मौका आया है कि अपने प्रथम व एकमात्र अमेरिका प्रवास के कुछ संस्मरण सबके साथ साझा करूं। इनमें सबसे दिलचस्प वाकया जो मुझे बार-बार याद आता है और जिस पर मैं मन ही मन मुस्काए बिना नहीं रह पाता वह वाशिंगटन (डीसी) का है। हम अपने रायपुर के मित्र माजिद के बेटे के फ्लैट पर रुके थे। उसने कहीं चलने के लिए अंडरग्राउंड पार्किंग से कार निकाली, रफ्तार कुछ तेज रही होगी, ऊपर पोर्च में खड़ी दूसरी गाड़ी से वह रुकते-रुकते हल्के से टकरा गई। उस गाड़ी का ड्राइवर (या मालिक) नीचे उतरा, हमारी गाड़ी का नंबर नोट किया और कहा- ओके! सी यू इन द कोर्ट। याने ठीक है, अब तुमसे अदालत में मुलाकात होगी। दोनों गाडिय़ों के सिर्फ फैंडर याने सामने की पट्टियां ही टकराई होंगी, लेकिन उस पर कोर्ट में जाने का फौरी फैसला। अमेरिकी नागरिक अपने निजी अधिकारों को लेकर कितने सचेष्ट हैं, यह उसका उदाहरण मेरे सामने था।
हमारी यात्रा का पहला पड़ाव न्यूजर्सी का कोई छोटा सा नगर था जिसका नाम फिलहाल याद नहीं आ रहा है। इसके लिए हमें न्यूयॉर्क के जेएफके एयरपोर्ट पर उतरना था। माजिद हमें लेने आने वाले थे। सामान लेकर बाहर निकले तो उनका कोई अता-पता नहीं। आधा घंटा हम परेशान खड़े रहे कि अब क्या किया जाए। उस समय मोबाइल फोन तो था नहीं और घर के फोन पर कोई उत्तर नहीं था। खैर ! इस चिंताकुल प्रतीक्षा के बाद माजिद और परवीन दोनों हमें लिवाने आ गए। अमेरिका की गगनचुंबी इमारतों और हडसन नदी के नीचे बनी सुरंग आदि से गुजरते हुए एक सवा घंटे में उस छोटे से नगर में स्थित उनके घर पहुंचे। कई वर्ष पहले इंग्लैंड और वेल्स में देखे पोस्टकार्ड पिक्चर जैसे करीने से बने घर यहां भी थे। ठंड के दिन थे। पेड़ों पर बर्फ जमा थी, लेकिन प्रकृति के विस्तार का एहसास चारों तरफ हो रहा था। और ऐसा क्यों न होता। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में ढाई गुना बड़ा है और आबादी में एक तिहाई। याने वहां खुलेपन की कोई कमी नहीं। दो-तीन दिन बाद हम लोग कार में कहीं घूमने निकले तो रास्ते में जगह-जगह सूचनापटल लगे थे- संभालकर गाड़ी चलाइए, यहां हिरण आते-जाते हैं। और सचमुच प्रकृति के इस प्रांगण में हिरणों को निश्चिंत होकर विचरते देखा।
न्यूयॉर्क के जनसंकुल मैनहट्टन द्वीप से यह दृश्य बिल्कुल भिन्न था। वहां तो इमारतें ऊंचाई में एक-दूसरे से होड़ लेने के लिए नजर आती हैं। ये अट्टालिकाएं इतनी ऊंची हैं कि सूरज की किरणों को नीचे आने से रोक देती हैं। फोरलेन सडक़ भी इस ऊंचाई के सामने संकरी लगने लगती है। मजे की बात है कि अनेक इमारतों में भीतर एट्रियम याने आकाश की तरफ खुले आंगन बने हुए हैं जिससे ताजी हवा मिल जाती है। इनमें लिफ्ट ऐसी लगी हैं कि एक मिनट में सौ मंजिल ऊपर पहुंचा दें। ऐसी तेज रफ्तार कि सिर घूम जाए। इन्हीं के बीच रॉकफैलर प्लाजा में देखा कि जमाई गई बर्फ पर बच्चे स्केटिंग कर रहे हैं। वे जैसे इमारतों की निर्जीवता को तोड़ रहे थे। न्यूयॉर्क में ही सेंट्रल पार्क हैं, जो सीमेंट-कांक्रीट के इस नगर को हरियाली और प्राणवायु देता है। महानगरवासियों के लिए यह पार्क सैर-सपाटे के साथ-साथ मनोरंजन की बहुत सी गतिविधियों का केन्द्र है। मैनहट्टन में ही यूएन प्लाजा अर्थात् संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय है। यहां हमने पहली बार मोबाइल फोन देखा। एक जापानी व्यक्ति फुटपाथ पर चलते हुए अपने फोन पर बात करते जा रहा था। भारत में इसे आने में अभी एक दशक बाकी था।
माजिद हमें अटलांटिक सिटी दिखाने ले गए। जिस तरह पश्चिम अमेरिका में लास वेगास है उसी तरह पूर्वी तट पर अटलांटिक सिटी अपने जुआघर याने केसिनो के लिए प्रसिद्ध है। एक कई किलोमीटर लंबी सडक़ पर एक के बाद एक केसिनो बने हुए हैं। नीचे जुआघर के बड़े-बड़े हाल हैं। ऊपर ठहरने के लिए होटल के कमरे। आपने अंदर प्रवेश किया नहीं कि साफ्ट ड्रिंक और हार्ड ड्रिंक आपकी खिदमत में पेश। वे जानते हैं कि आप जब भीतर आए हैं तो अपनी जेब कुछ न कुछ हल्की करके ही जाएंगे। यहां न्यूयॉर्क तथा आसपास के अनेक नगरों से नियमित नि:शुल्क बस सेवा चलती है। केसिनो की बस है, मुफ्त में बैठकर आ जाइए, जुआ खेलिए, दिल बहलाइए, जेब खाली करिए और दुबारा आने के लिए वापिस लौट जाइए। इन बसों में आने-वाले लगभग सभी नागरिक वयोवृद्ध होते हैं और शायद एकाकी भी। अपना मन बहलाने के लिए, समय काटने के लिए क्या करें ! इसी सामाजिक स्थिति से जुड़ा एक अन्य पहलू मैंने 1977 के इंग्लैंड प्रवास में देखा था। अखबारों में विज्ञापन छपते थे कि सत्तर साल के वृद्ध या पचहत्तर साला वृद्धा को अकेलापन दूर करने के लिए साथी की आवश्यकता है। शायद ऐसा अमेरिका में भी होता हो। भारत में भी जिस तरह परिवारों का विघटन हो रहा है उसमें किसी दिन ऐसी नौबत आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।
हम जब वाशिंगटन से वापस न्यूजर्सी घर लौट रहे थे तो दो और ऐसे दृश्य देखे जिनकी छाप मन पर अभी तक बनी हुई है। हमारे रास्ते में बाल्टीमोर नगर पड़ा। दोपहर का समय था। शहर की सडक़ों पर बहुत हलचल नहीं थी, लेकिन कई जगहों पर झुंड के झुंड बैठे युवक नजर आए। ये सभी अश्वेत थे। ये शायद बेरोजगार थे या कोई और कारण, यह मैं नहीं समझ पाया, लेकिन काम के दिन नौजवान खाली बैठे हों तो इसका ताल्लुक कहीं सामाजिक व्यवस्था से अवश्य रहा होगा। दूसरा दृश्य सामने आया जब माजिद ने राजमार्ग छोडक़र देहाती इलाके की एक सडक़ पकड़ ली। इस सडक़ पर एक गांव के बाहर फल और सब्जी की दुकान देखकर मैंने गाड़ी रोकने के लिए कहा। उस दुकान पर हर तरह के फल और सब्जियां मिल रहे थे। गांव में ऐसी दुकान देखकर अच्छा लगा। मैंने तस्वीर लेना चाही तो माजिद ने कहा, पहले दुकान की मालकिन से पूछ लेते हैं। याने यहां भी निजी अधिकार का मामला। उस महिला ने इजाजत तो दे दी, लेकिन उसे आश्चर्य हुआ कि दुकान का फोटो लेने में हमें क्या दिलचस्पी है।
माजिद और परवीन ने हमें अपने बहुत से दोस्तों से मिलवाया। वे सब भारतीय ही थे। रायपुर के कॉलेज के दिनों के एक मित्र राजू मल्होत्रा जो किसी सुदूर अन्य प्रांत में रहते थे, वे भी मिलने के लिए आ गए थे। मित्रों की बातचीत में पता चला कि भारत के लोग अपने देश के लोगों से ही संबंध रखना पसंद करते हैं। उनकी न तो अमेरिकी लोगों के साथ बहुत दोस्ती हो पाती और न दूसरे देश के लोगों के साथ। अमेरिका के अश्वेतों के साथ दफ्तर या कारखाने में काम भले ही करते हों, सामान्यत: घर पर आना-जाना नहीं होता है। वहां दिन-रात अंग्रेजी-बोलना पड़ती है, तो हिन्दी में बात करने के लिए तरसते हैं इसलिए बालीवुड के कलाकारों के अलावा शायरों व हास्य कवियों को न्यौता भेजकर बुलाते हैं, अपने घरों में ठहराते हैं और उसमें गर्व अनुभव करते हैं। इनके अलावा धर्मनिष्ठ भारतीय अमेरिकन घरों में स्वामियों और प्रवचनकारों का स्वागत-सत्कार होते रहता है। अब तो अमेरिका में सनातन धर्म के भव्य मंदिर बनने में लगे हैं, लेकिन जब हम गए थे तब वेस्ट वर्जीनिया के एक लगभग निर्जन इलाके में जहां जाने के लिए पक्की सडक़ भी नहीं थी, इस्कान का मंदिर भारतीयों के बीच काफी लोकप्रिय था। मंदिर नि:संदेह भव्य था, व्यवस्थाएं उत्तम थीं, जूते उतारने की आवश्यकता नहीं थी, उसके ऊपर नायलोन के मोजे पहनकर घूम लीजिए, बाद में डस्टबिन में डाल दीजिए। इस मंदिर में बहुत स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन प्रसाद के रूप में प्राप्त हुआ। एक हमउम्र स्वामीजी से बातचीत होने लगी, तो पता चला कि वे किसी प्रसिद्ध संस्था से एम.टेक. करने के बाद संन्यासी बन गए।
माजिद के घर एक सप्ताह रुकने के बाद बचपन के मित्र जयंत लिमये के घर कंसास सिटी जाना था। उसका फोन आ गया कि वीकएंड में आओ तो ठीक, अन्यथा सोमवार से शुक्रवार तक फुर्सत नहीं। भारत से चलने के पूर्व कार्यक्रम बन गया था तब मित्र को शायद इसका ध्यान नहीं था। हमने वहां जाने का इरादा छोड़ा और बफेलो होते हुए नियाग्रा जलप्रपात देखने जाने का फैसला किया। एयरलाइंस से माजिद ने टेलीफोन पर ही सीट बुक कर दी जिसमें काफी देर हो चुकी थी। हम दोनों को अलग-अलग पंक्तियों में बीच की सीट मिली। सहयात्री से निवेदन किया कि सीट बदल लें। उनका उत्तर था- हमने पैसे देकर सीट बुक की है, बदलेंगे नहीं। खैर ! एक डेढ़ घंटे का सफर था, कोई खास परेशानी नहीं हुई। बफेलो में हम सुभद्राकुमारी चौहान की छोटी बेटी ममता जीजी के साथ रुकने वाले थे, उनके पति अरविंद भार्गव एयरपोर्ट लेने आ गए थे। उनके साथ घर पहुंचे। वहां हमारी भेंट उनके एक अश्वेत मित्र के साथ हुई। दोनों एक ही प्रयोगशाला में साथ-साथ काम करते थे। यह हमारे देखे पहला उदाहरण था जहां एक भारतीय की एक अश्वेत नागरिक के साथ इतनी मित्रता थी कि घर आना-जाना होता था। इसके पहले और बाद में कई बार मैं देख-सुन चुका था कि हम गौरांगों की बराबरी करना चाहते हैं और अश्वेतों को अपने से कमतर समझते हैं। एक दूसरी बात जो राजू मल्होत्रा से पता चली थी कि विदेशों में बसे भारतीय अपने बेटों को तो हर तरह की छूट देते हैं, लेकिन बेटियों के मामले में अतिरिक्त और अवांछित सतर्कता बरतते हैं। राजू ने मुझसे कहा कि जब यहां रोजी-रोटी कमाने आए हैं तो हमें यहीं का होकर रहना चाहिए। मैं उसकी बात से सहमत था।
बफेलो में अरविंद जी ने हमें नियाग्रा फाल के पास अमेरिका की सीमा पर छोड़ दिया था। एक दिन बाद वहीं वापिस मिलने की बात भी हो गई थी। अपना-अपना बैग उठाए हमने पैदल पुल पार किया। आव्रजन अधिकारियों ने पासपोर्ट, वीजा देखा और आगे जाने दिया। पुल पार करते साथ हम कनाडा की धरती पर थे- एक दूसरे देश में। नियाग्रा जलप्रपात देखने के मोह में ही हम बड़ी मशक्कत से वीजा हासिल कर यहां पहुंचे थे। घनघोर ठंड के दिन थे इसलिए पानी भी जमकर बर्फ हो गया था, लेकिन कनाडा की तरफ जलप्रपात से किसी युक्ति से भारी वेग के साथ पानी गिरता रहता है। यहां दो बातों पर ध्यान गया- एक तो कनाडा की अंग्रेजी और तकनीकी शब्दावली अमेरिका से अलग है। जैसे यहां बस को पब्लिक मूवर कहा जाता है और भी ऐसी ही अन्य संज्ञाएं। दूसरे कोई भी पर्यटन स्थल हो, दुकानदारी का बोलबाला सब जगह है। पर्यटकों को लुभाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किए जाते। यद्यपि इसमें स्थान विशेष का प्राकृतिक सौंदर्य या अन्य कोई विशेषता वह खो जाती है। यह उपभोक्ता समाज की वास्तविकता है। हमने बीस दिन के प्रवास में जो कुछ देखा वह अमेरिका के समाज और प्रकृति का एक अंश भी नहीं है, लेकिन वहां के तमाम शहर और उनके बाजार लगभग एक जैसे हैं। एक को देख लिया तो सबको देख लिया।
प्राकृतिक सौंदर्य में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण बहुत विविधताएं हैं, लेकिन उसका पांच-दस प्रतिशत भी देखने के लिए धन और समय दोनों चाहिए। अमेरिका में आम नागरिक से सडक़ पर अगर आंखें मिल जाए तो मुस्कुराकर औपचारिक अभिवादन हो जाता है। वैसे वे अपने काम में इतने मशगूल होते हैं कि उन्हें बात करने के लिए समय नहीं होता। एक तरह की यांत्रिकता व्यवहार में परिलक्षित होती है। नागरिक अधिकारों के प्रति सचेष्टता का एक और उदाहरण है कि जहां-जहां आबादी के पास फ्लाईओवर या द्रुतगामी मार्ग है, वहां दोनों किनारों पर ध्वनिरोधक पट्टियां लंबी दूरी तक फिट की जाती हैं, ताकि रहवासियों को रफ्तार से गुजर रहे वाहनों से उठती खडख़ड़ आवाज और कंपन से तकलीफ न पहुंचे। अमेरिका में अखबार काफी प्रभाव रखते हैं। वे जनता की आवाज उठाते हैं तो सरकार को सुनना पड़ती है याने सत्ता में हमारी तरह वहां पूरी बेशर्मी नहीं है (या नहीं थी?)। जब हम पहुंचे थे तब बिल क्लिंटन नए-नए राष्ट्रपति बने थे। वे सबेरे जॉगिंग करने निकलते थे तो उनसे प्रेरणा लेकर अमेरिका के हर शहर में सुबह-सुबह जागिंग करने वालों के हुजूम सडक़ों पर उमडऩे लगे थे। पता नहीं, यह शौक अब बरकरार है या नहीं!
अक्षर पर्व नवम्बर 2016 अंक में प्रकाशित