Wednesday, 30 November 2016

चौदह लाख करोड़ का गणित




चौदह लाख करोड़। सुनने में भारी-भरकम, गिनने में लगभग असंभव। चौथी कक्षा में जो गणित पढ़ा था उसकी सहायता ली तो समझ आया कि भारतीय गणना में यह राशि एक सौ चालीस खरब होती है। एक खरब याने सौ अरब। पहले हमारे बजट इत्यादि में अरब-खरब का प्रयोग किया जाता था, लेकिन यह परिपाटी न जाने क्यों खत्म हो गई। वैसे इसमें कोई कठिनाई नहीं होना चाहिए थी क्योंकि जो हमारे यहां एक अरब है वही पश्चिमी गणना में एक बिलियन होता है। यह माथापच्ची तो मन बहलाने के लिए कर ली। असल बात यह है कि चौदह लाख करोड़ या एक सौ चालीस खरब उन बड़े नोटों की कुल संख्या है, जिनके विमुद्रीकरण का ऐलान प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर की रात को किया। अब तक के आंकड़े बता रहे हैं कि चौदह लाख करोड़ में से एक तिहाई से कुछ ज्यादा अर्थात लगभग पांच लाख करोड़ के नोट इधर-उधर से निकल कर बैंकों में जमा हो चुके हैं। आर्थिक मामलों की समझ रखने वालों का कहना है कि 30 दिसंबर तक और पांच लाख करोड़ के नोट बैंकों में आ जाएंगे। लगभग दो लाख करोड़ के नोट तो बैंकों के पास ही हमेशा रहते हैं सो इसके बाद बचेंगे तीन लाख करोड़।

तीन लाख करोड़ का अनुमान ही है। यह दो लाख करोड़ भी हो सकता है या साढ़े तीन लाख करोड़ भी। यह जो पैसा बैंकों में नहीं लौटेगा वही सरकार का मुनाफा होगा। क्योंकि सरकार को यह राशि रिजर्व बैंक गवर्नर के वचन के अनुसार धारक को लौटाना नहीं पड़ेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार मालामाल हो जाएगी। इस राशि का उपयोग आगे कैसे होता है इस पर अर्थ विशेषज्ञों की निगाह टिकी रहेगी। केन्द्र सरकार का दावा है कि विमुद्रीकरण के इस कदम से कालाधन समाप्त होने के साथ-साथ देश में विकास कार्यों के लिए बड़ी मात्रा में धन उपलब्ध हो सकेगा, लेकिन क्या ऐसा सचमुच हो पाएगा? एक दृष्टि से देखें तो तीन लाख करोड़ देश की समूची अर्थव्यवस्था का और राष्ट्रीय बजट का एक छोटा प्रतिशत ही है। याद कीजिए कि यूपीए-1 में किसानों की ऋण माफी में सत्तर हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। उसका कोई विपरीत असर अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ा था। यह रकम उससे चौगुनी है लेकिन मुद्रास्फीति और महंगाई का आकलन करें तो यह उतनी अधिक भी नहीं है।

जैसा कि आंकड़े बताते हैं 2014 में याने यूपीए के अंतिम दिनों में बैंकों के कालातीत ऋण की राशि लगभग दो लाख करोड़ थी। यूपीए के दस साल के शासन के दौरान भी न चुकाई गई ऋण राशि में लगातार बढ़ोतरी हुई थी। याने बड़े ऋण लेने वाले कर्जदारों के मजे तब भी थे, परंतु विगत दो वर्षों में कालातीत ऋण राशि कल्पनातीत रूप से बढ़ गई है। अब दो लाख करोड़ के बजाय लगभग चार लाख करोड़ का आंकड़ा सामने है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि यदि मोदी सरकार का वित्तीय प्रबंधन ठीक होता तो बैंक द्वारा दिए गए ऋणों पर लगाम होती, उनकी अपनी आर्थिक सेहत न बिगड़ती और न शायद तब मोदीजी को इतना दुस्साहसिक कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती। बहरहाल जबकि निष्क्रिय पड़ी धनराशि प्रचलन में आ गई है तब क्या उसका उपयोग बैंकों को पूंजीगत अनुदान देकर उनकी माली हालत ठीक कर देने में होगा? ऐसी संभावना तो बनती है, किन्तु यह राशि भी कहीं फिर चहेते पूंजीपतियों को न दे दी जाए और आगे चलकर कालातीत न हो जाए इस पर कैसे रोक लगेगी यह सवाल मन में उभरता है।

यूं तो मोदी सरकार ने इस राशि को सार्वजनिक हित में निवेश करने का वायदा किया है लेकिन उसे परिभाषित करने का सबके अपने-अपने मानदंड हैं। मसलन मोदीजी मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन प्रारंभ करना चाहते हैं। उनके लिए यह सार्वजनिक हित का विषय है, जबकि दूसरा पक्ष भारतीय रेल्वे की वर्तमान स्थिति को सुधारने को प्राथमिकता देना चाहता है। एक दूसरा उदाहरण मनरेगा के रूप में सामने है। श्री मोदी ने इसकी कटु आलोचना और योजना को बंद करने तक की वकालत की थी। आज योजना चल तो रही है, परन्तु जगह-जगह से खबरें हैं कि मजदूरी का भुगतान कई-कई महीनों से लंबित है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर एक पक्ष यह मांग कर सकता है कि सरकार के पास जो अभी राशि उपलब्ध हो गई है उसका उपयोग मजदूरी चुकाने, धान पर बोनस देने और यहां तक कि जन- धन खातों में नकद राशि जमा करने जैसे कामों में किया जाए जिससे सर्वहारा की आर्थिक स्थिति सुधर सके। क्या यह दलील उन नवरूढि़वादी अर्थशास्त्रियों को पचेगी, जिनकी सेवाएं प्रधानमंत्री नीति आयोग इत्यादि में ले रहे हैं?

एक ओर विमुद्रीकरण से प्राप्त धन राशि के पुनर्नियोजन अथवा पुनर्निवेश से जुड़े प्रश्न हैं, तो दूसरी ओर कुछ अन्य सवाल भी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में बैंकों से मिलने वाले ऋण पर ब्याज दर कम हो जाएगी क्योंकि बैंकों के पास पर्याप्त मात्रा में तरल धन उपलब्ध होगा जिसे वे तिजोरी में रखेंगे तो नहीं। बैंक जब नए ऋण देंगे तो उससे उत्पादन क्षेत्र में नए सिरे से जान आएगी और कल-कारखाने चल पड़ेंगे। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आम जनता बैंकों में जो मियादी जमा याने फिक्स डिपाजिट रखती है उस पर भी ब्याज की दर कम हो जाएगी। एक समय पांच साल के सावधि जमा पर साढ़े तेरह प्रतिशत तक का ब्याज मिलता था, वह पहले ही काफी घट चुका है। अगर चार या साढ़े चार प्रतिशत ब्याज मिला तो पेंशनयाफ्ता और अन्य समूहों के घर कैसे चलेंगे? यह भी ध्यान में रखना होगा कि गृहणियों ने जो घरेलू बचत कर रखी थी वह भी अब बैंक में आ गई है। याने अब भारी बीमारी में, संकटकाल में या मासिक बजट में भी जनता को तकलीफें ही झेलना पड़ेगी।

इसी संदर्भ में दो और बातें नोट की जाना चाहिए। अगर घरेलू बचत पर्याप्त नहीं होगी तो कल-कारखानों में उत्पादन चाहे जितना हो जाए, उसकी बिक्री कैसे होगी और कौन खरीदेगा। यद्यपि सरकार लघु एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करती है, किन्तु सच्चाई यह है कि जिन कुटीर उद्योगों से लाखों लोगों को रोजगार मिलता था, वे लगभग समाप्त हो चुके हैं। जैसे हैण्डलूम के नाम पर अधिकतर पावरलूम  ही चल रहे हैं। फिर यह टेक्नालॉजी का परिणाम है कि कारखानों में श्रमिकों की संख्या में लगातार कटौती हो रही है, भारत में युवाओं की संख्या और प्रतिशत दोनों ही विश्व में सर्वाधिक हैं किन्तु इनके लिए रोजगार के अवसर कैसे सृजित हों इस बारे में अभी तक गंभीरता से विचार नहीं किया गया है। आशय यह कि ईमानदार उद्यमी बैंकों से कर्ज तभी लेंगे जब उन्हें अपने उत्पाद की बिक्री का भरोसा होगा अन्यथा बैंकों की तरल पूंजी बैंक में ही रही आएगी या फिर बेईमान इजारेदारों के पास चली जाएगी। एक विजय माल्या भले ही देश छोड़ भाग गया हो, उसके दर्जनों भाई-बंद अभी यहीं हैं।

मैंने इस संभावना का उल्लेख पिछले सप्ताह भी किया था कि विमुद्रीकरण के माध्यम से नरेन्द्र मोदी भारत को एक मुद्राविहीन अर्थव्यवस्था में बदलना चाहते हैं। विगत एक सप्ताह में यह बात और स्पष्ट हुई है। सरकार की ओर से हर संभव उपाय किए जा रहे हैं कि नगदी में लेन-देन जितना कम हो सके उतना अच्छा। उत्तरप्रदेश की एक चुनावी सभा में श्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि कैशलेस नहीं तो लेस कैश अर्थात मुद्राविहीन नहीं तो न्यूनतम मुद्रा प्रचलन की व्यवस्था लागू होना चाहिए। वे इस बारे में बहुत उत्साह में हैं तथा मजदूर, किसान, खेतिहर मजदूर, युवा सब को सलाह दे रहे हैं कि वे ई-बैंकिंग तथा मोबाइल बैंकिंग आदि का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करें। मैं नहीं जानता कि क्या उनके सामने आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल अतातुर्क का आदर्श था जिन्होंने देखते ही देखते तुर्की की शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए थे!  वही तुर्की अब कमाल पाशा के पहले के युग में लौटता दिख रहा है।

मेरा मानना है कि कोई भी समाज रातों-रात नहीं बदलता, क्रांति हो जाने के बाद भी नहीं। आम जनता को धीरे-धीरे करके ही बदलाव के लिए तैयार करना पड़ता है। भारत जैसे देश में जहां लोग घड़ी के हिसाब से नहीं चलते, जहां समय अनंत है, वहां तो और भी अधिक संयम की आवश्यकता है। कालेधन पर रोक लगाने के और भी तरीके थे, लेकिन इस स्वागत योग्य कदम के साथ मुद्राविहीन अर्थव्यवस्था को क्यों जोड़ा गया यह पल्ले नहीं पड़ा!  पे टीएम, बिग बाजार, एयरटेल इत्यादि कारपोरेट की बाँछें जिस तरह  खिली हैं, उसे देखकर तो शंका होती है कि 14 लाख करोड़ के गणित के पीछे कोई और गणित तो नहीं है?

देशबंधु में 01 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित 

Sunday, 27 November 2016

लपटों से घिरा नगर : हिरोशिमा या नागासाकी?





संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी सामरिक श्रेष्ठता का परिचय देने के लिए 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर और तीन दिन बाद 9 अगस्त को नागासाकी पर अणुबम बरसाए थे। इन दोनों आक्रमणों में दो लाख लोग मारे गए थे और जो बच गए उन्हें ताउम्र कैंसर और अनेक लाइलाज व्याधियों  से जूझना पड़ा। यही नहीं, आने वाली कई पीढिय़ों पर भी विकिरण का घातक प्रभाव देखने को मिला। यह रेखांकित करना होगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध लगभग समाप्त हो चुका था तथा जापान की सैन्य शक्ति भी लगभग टूट चुकी थी। लेकिन अमेरिका को तो न सिर्फ अपनी दादागीरी स्थापित करना थी, बल्कि अणुबम की संहारक क्षमता का भी परीक्षण करना था। आज हमें इतिहास के इस काले अध्याय को याद रखने की बहुत आवश्यकता है। 
भारत और पाकिस्तान दोनों ने अब शांति की बातें करना बंद कर दिया है, युद्ध का उन्माद दोनों देशों में फैलाया जा रहा है, दोनों देशों के हुक्मरान अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए उत्तेजना को बढ़ावा दे रहे हैं और एक-दूसरे पर एटम बम से हमला करने की धमकियां भी सुनने मिल रही हैं। जापान की यह कविता हिरोशिमा और नागासाकी के नरसंहार के खिलाफ एक चेतावनी की तरह है जिसे पढऩे से उन्माद की बजाय संयम बरतने का माहौल बन सकता है।मार्क और क्योको सेलडन दोनों विश्व शांति के कार्यकर्ता हैं। वे 'जापान फोकस' नाम की पत्रिका प्रकाशित करते हैं। यह कविता मैंने वहीं से ली है।

लपटों से घिरा नगर :
हिरोशिमा या नागासाकी?

लोगों ने धीरे से
अपने चेहरे उठाए, नि:शब्द
फीकी नीली चमक, काले सूरज,
मुर्दा सूरजमुखी और
ढह गई छत के नीचे
धीरे से, नि:शब्द।

रक्तिम आँखों से तब उन्होंने
देखा एक दूजे को -
झुरझुरा कर अलग होती त्वचा,
सूज कर बैंगन हुए होंठ,
चेहरों पर धंसीं काँच की किरचें,

''क्या किसी मनुष्य का चेहरा
ऐसा हो सकता है"
यही सोचा एक ने
दूसरे को देखकर,
लेकिन जिसने देखा
उसका अपना चेहरा भी
बिलकुल वैसा ही,
बिलकुल नहीं अलग
एक से, दूसरे से, तीसरे से

टूट कर गिरती छतों को लिए
देखते न देखते
लपटों से घिर गया नगर

किसी एक घर में
बची एक माँ
साथ उसके
सात बरस की बेटी,
टूटी छत के
खंभों-शहतीरों के नीचे दबी
हिलने-डुलने में असमर्थ माँ,
लेकिन किसी तरह बची सलामत
लड़की सात बरस की,

फिक्र में डूबी
माँ को कैसे बचाऊं,
इस खंभे को हटाऊं कि
उस शहतीर को,

अपने नन्हें हाथों की
ताकत तौल रही थी वह
और तभी
लपटें उसके करीब
आती हुए दिखीं माँ को
जाओ, तुम जाओ,
तुरंत निकल जाओ यहां से,
सदमे से खामोश
वह चीख भी नहीं पाई,
बेटी को उसने
बाहर निकली अपनी बाँह से
धकेल कर किया परे
लपटों से दूर,
जो दौड़ी चली आ रही थीं
पश्चिम से और पूर्व से,

सड़कों पर नग्न आकारों का हुजूम
त्वचाएं झुलसी और लटकती हुई,
कौन आदमी कौन औरत
किसी को समझ नहीं,
बस, प्रेतों का जुलूस था मानों

अचानक
जुलूस के बीच में
रुकी एक उम्रदराज औरत,
कुछ तो था जो ढीले-ढाले
झोले की मानिंद
बाहर निकल रहा था,
जबकि लपटें इतनी करीब थीं

किसी ने कहा -
रुको मत, चलो,
क्या है हाथ में, फेंक दो
और तब उसने
जवाब में कहा -
ये मेरी अंतडिय़ाँ हैं।

                जापानी मूल - नाकामुरा ओन,
                अंग्रेजी अनुवाद- क्योको सेलडन

                हिंदी रूपांतर - ललित सुरजन

देशबंधु में 27 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 23 November 2016

विश्वनेता का स्वप्न : मुद्राहीन भारत


 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसकी सलाह पर बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का फैसला लिया, इस सवाल का कोई पक्का जवाब अब तक नहीं मिल सका है। चर्चाएं तो यहां तक हैं कि वित्तमंत्री अरुण जेटली को भी विश्वास में नहीं लिया गया था। जबकि ऐसे तीन महानुभाव हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर इस नीति का प्रणेता होने और प्रधानमंत्री को प्रभावित करने का दावा किया है। सबसे पहिले तो योग-व्यवसायी बाबा रामदेव हैं। वे दो हजार का नोट चलाने के विरोध में हैं, तथापि साथ-साथ विमुद्रीकरण का विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोही होने के विशेषण से भी अलंकृत कर चुके हैं। खैर, सरकारी साधु से यही अपेक्षा की जा सकती थी।  दूसरे हैं स्वनामधन्य सुब्रमण्यम स्वामी। उन्हें तकलीफ है कि नीति तो सही थी, किंतु उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया गया। यह सबको पता है कि उनकी निगाह अरुण जेटली की कुर्सी पर है। बहरहाल, इन दोनों ने श्रेय तो लिया पर उसका ज्यादा ढिंढोरा नहीं पिटा। पुणे की संस्था अर्थक्रांति के प्रमुख अनिल बोकील तीसरे व्यक्ति हैं जिनके बारे में जमकर प्रचार हुआ कि मोदीजी ने बड़े नोट बंद करने का फैसला उनकी सलाह से लिया। वे भी फिलहाल दु:खी हैं।

नोट बंद होने के तीन-चार दिन के भीतर ही ऐसे समाचार व लेख छपने लगे जिनमें बताया गया कि श्री बोकील ने राहुल गांधी से मिलने का समय मांगा था, लेकिन उन्होंने कुछ सेकंड में ही वार्तालाप समाप्त कर दिया, जबकि श्री मोदी ने नौ मिनट का समय देकर उनसे दो घंटे तक बात की। यहां तक तो मामला ठीक था परन्तु अब बोकील साहब कह रहे हैं कि उनकी सलाह पूरी तरह नहीं मानी गई, जिसके चलते बात बिगड़ गई। उन्होंने पांच सूत्रीय कार्यक्रम दिया था, जिसके एक या दो बिंदु ही लागू किए गए। तात्पर्य यह कि बड़े नोट एकाएक चलन से बाहर करने के बाद जो अफरातफरी मची है, जिसके अनेक विपरीत और अनपेक्षित परिणाम सामने आ चुके हैं, उन्हें देखते हुए शुरू में वाहवाही लूटने वाले अब उस निर्णय से स्वयं को दूर रखने की कोशिश में जुट गए हैं। याने अब अगर यह फैसला गलत साबित हो तो प्रधानमंत्री के नीचे उसका जिम्मेदार कोई नहीं। अभी चूंकि पचास दिन पूरे होने में छत्तीस दिन बाकी हैं, इसलिए कोई अंतिम निर्णय देना जल्दबाजी होगी। इतना अवश्य तय है कि सफलता मिली तो पतंग लूटने सब दुबारा आ जाएंगे।

बाबा रामदेव तथा सुब्रमण्यम स्वामी की राजनीति के बारे में आम जनता को कुछ नया बतलाने को नहीं है, लेकिन अनिल बोकील महोदय धूमकेतु की तरह प्रकट हुए हैं। अपनी अर्थक्रांति संस्था की तरफ से वे अर्थव्यवस्था और आर्थिक नीतियों पर समय-समय पर विचार प्रकट करते रहे हैं, किंतु उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। आम जनता के बीच उनका चेहरा परिचित नहीं है। श्री मोदी से उन्हें काफी उम्मीद थी, लेकिन वह भी निष्फल सिद्ध हुई। वे देश में मौजूदा लागू सारे टैक्सों को खत्म कर सिर्फ एक नया टैक्स लगाना चाहते हैं। पचास रुपए से ऊपर के सारे नोट खत्म करने का भी उनका सूत्र है और बैंक खाते से दो हजार रुपए से ऊपर राशि निकालने को वे प्रतिबंधित करना चाहते हैं। मेरे कुछ मित्र उनके मुरीद हैं, पर मुझे उनके तर्क समझ नहीं आते। दुनिया में कराधान की व्यवस्था तो कौटिल्य के पहले से चली आ रही है। हमारा हर वित्तमंत्री अपने बजट भाषण में कौटिल्य को उद्धृत करना नहीं चूकता। फिर आज की संघीय गणराज्य व्यवस्था में सारे टैक्स समाप्त कर सिर्फ केंद्र के हाथों सारी आर्थिक शक्तियां सौंप देने से क्या समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है।

बहरहाल, प्रधानमंत्री की घोषणा को दो सप्ताह पूरे हो चुके हैं। इस बीच आम जनता को अनथक तकलीफों का सामना करना पड़ा है। जिन बैंक कर्मियों पर नई व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी डाल दी गई है उनका असंतोष भी अब मुखर होने लगा है। दिक्कत यह है कि इतने बड़े फैसले को अमल में लाने के लिए जो तैयारियां की जाना चाहिए थीं वे नहीं की गईं और जब उस बारे में सवाल उठाए जाते हैं तो सरकार समर्थक बल्कि मोदी समर्थक उन पर तुरंत देशद्रोही होने का बिल्ला चस्पा कर देते हैं। एक महाशय ने तो यहां तक कह दिया कि इन पचास दिनों के लिए मीडिया प्रतिबंधित कर देना चाहिए।  ये वे लोग हैं जो इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के विरोधी थे; तब वे स्वतंत्र प्रेस की वकालत करते थे। आज इन्हें मीडिया में की जा  रही रिपोर्टें चुभने लगी हैं। लेकिन इसे क्या कहिए कि सरकार समर्थक पत्रकार रजत शर्मा के चैनल में ही प्रतिदिन आम जनता को हो रही दुश्वारियों की खबरें लगातार दिखाई जा रही हैं। तब क्या माना जाए कि मोदीजी ने एक राष्ट्रद्रोही को पद्मभूषण दे दिया?

प्रधानमंत्री ने कहा था कि काला धन निकालने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, जाली नोट बाहर करने और आतंकियों को मिल रही सहायता रोकने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर बड़े नोट बंद किए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत में कुछ और ही कहानी सामने आती है।  सबसे पहले मध्यप्रदेश में कुछ अधिकारी दो हजार के नए नोटों में रिश्वत लेते पकड़े गए। दो दिन बाद गुजरात में पोर्ट ट्रस्ट के अधिकारियों को इसी तरह नए नोटों में चार लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया, उसके उपरांत महाराष्ट्र में एक मंत्रीजी की कार से ब्यानवे लाख के पुराने नोट बदली के लिए ले जाते हुए पकड़े गए। स्मरणीय है कि इन तीनों प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यह हुई भ्रष्टाचार रोकने की हकीकत। मुंबई में दो हजार रुपए के जाली नोट भी पकड़ में आ गए। आश्चर्य है कि इन अपराधियों को इतनी जल्दी फर्जी नोट कैसे मिल गए? आतंकियों को आर्थिक सहायता न मिलने की जहां तक बात है तो कश्मीर में ही किसी ठिकाने पर दो हजार के नए नोट बरामद किए गए। सारी घटनाएं सिद्ध करती हैं कि प्रधानमंत्री ने यह फैसला लेने में जल्दबाजी की।

एक बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव येन-केन-प्रकारेण जीत लेने की रणनीति के तहत बड़े नोट बंद करने का निर्णय लिया गया, कि इसका उद्देश्य सपा और बसपा के चुनावी खर्च पर रोक लगाने का था। इस तस्वीर का दूसरा पहलू इस चर्चा के रूप में सामने है कि भाजपा के विश्वस्त लोगों को पहले से खबर कर दी गई थी ताकि वे अपने बड़े नोटों को यहां-वहां खपा सकें या नए नोटों से बदली कर सकें। गरज़ यह कि उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा के पास चुनावी फंड की कमी नहीं होगी। इन सारी बातों में कितनी सच्चाई है कहना मुश्किल है, लेकिन सरकार को यह तो सोचना ही होगा कि ऐसी बातें क्यों हो रही हैं।  इसका दोष विरोधियों पर मढ़ देने से काम नहीं चलेगा क्योंकि कांग्रेस तथा अन्य दलों के पास अफवाहें फैलाने की क्षमता अगर है भी तो बहुत सीमित है।

मेरी अपनी राय इस मामले में कुछ अलग है। सर्वविदित है कि भारत को विगत कुछ वर्षों में विकासशील के बजाय उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता मिली है। अब नरेन्द्र मोदी भारत को एक वैश्विक शक्ति और स्वयं को विश्वनेता स्थापित करने के लिए व्यग्र हंै। वे इस बात से परिचित हैं कि कालाधन और भ्रष्टाचार इस स्वप्न को पूरा करने में बड़ी हद तक बाधक है। इसलिए उन्होंने कुछ अत्यंत विश्वस्त सलाहकारों की राय पर विमुद्रीकरण का निर्णय लिया, किन्तु उससे जो आम जनता को दिक्कतें आएंगी इसका अनुमान उनकी टीम नहीं लगा सकी। श्री मोदी शायद यह भी चाहते हैं कि भारत की अर्थप्रणाली नकदी के बजाय बैंक और आधुनिक टेक्नालॉजी पर आश्रित हो जाए। यह एक उम्दा विचार हो सकता है, लेकिन भारत की विशिष्ट परिस्थितियों में क्रियान्वयन कैसे हो इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया।

आज हमारे सामने नए-नए तथ्य आ रहे हैं। मसलन भारत में जितनी नकदी मुद्रा प्रचलन में है उसका प्रतिशत चीन के मुकाबले बहुत अधिक नहीं है; दूसरे जिन भी देशों ने विमुद्रीकरण किया उसके नतीजे सही नहीं निकले; तीसरे जाली नोट सिर्फ रुपए के ही नहीं डालर जैसी मुद्रा के भी निकलते हैं; चौथे भारत में कालेधन का मात्र चार से छह प्रतिशत तक नकदी में है, बाकी जमीन, जायदाद और सोने में निवेश किया हुआ है। इन सब बातों के अलावा देश के बड़े शहरों को छोड़ दें तो क्रेडिट कार्ड आदि का प्रचलन बहुत कम है। लगभग सैंतालीस प्रतिशत जनता के बैंक खाते नहीं हैं। इस लोक व्यवहार को बदलने में समय लगेगा। सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाच्योव ने जो प्रयोग किए थे उसकी परिणति एक महान देश के विघटन के रूप में हुई।  ऐसे और भी उदाहरण इतिहास में हैं जिनसे सबक लेने की आवश्यकता हमें समझ आती है। अगर प्रधानमंत्री संसद में आकर बयान देते तो स्थितियों का खुलासा हो पाता।

देशबंधु में 24 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 16 November 2016

मुद्रा अवैधता : अप्रत्याशित व आश्चर्यजनक



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आठ नवंबर की रात आठ बजेे अप्रत्याशित रूप से दूरदर्शन पर आए। उन्होंने एक चौंकाने वाली घोषणा की कि उसी रात से एक हजार और पांच सौ के प्रचलित नोट अमान्य किए जा रहे हैं और अब उनकी कोई वैधानिक उपयोगिता नहीं रहेगी। इसमें जनता को कोई तकलीफ न हो इस हेतु किए गए कुछ उपायों की भी उन्होंने जानकारी दी जिनसे जनता अब भलीभांति परिचित है। इसे मोदीजी की तरफ से की गई एक और सर्जिकल स्ट्राइक की उपमा दी गई जिससे देश में कालाधन, जाली नोटों का चलन और आतंकी गतिविधियों के लिए मुहैय्या कराई जा रही रकम मिलना बंद हो जाएगी, यह विश्वास स्वयं प्रधानमंत्री ने व्यक्त किया और जनता के बड़े वर्ग ने इसे मान भी लिया। आज जबकि इस ऐतिहासिक आर्थिक निर्णय को लागू हुए पूरा एक सप्ताह बीत चुका है तब इसके सारे पहलुओं पर तटस्थ भाव से विवेचना की जा सकती है।

मैंने जब मोदीजी द्वारा की गई घोषणा सुनी तो मुझे दो बातें खटकीं। मैं नहीं समझ पाया कि देश के प्रधानमंत्री को इस घोषणा के लिए स्वयं क्यों आना चाहिए था। यह घोषणा रिजर्व बैंक के गवर्नर भी कर सकते थे। जब प्रधानमंत्री जनता से मुखातिब हो तो उसमें नाटकीयता का पुट जुड़ जाता है क्योंकि मोदीजी की अपनी शैली कुछ ऐसी ही है।  इससे जनता की आशाएं भी अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। अगर घोषणा के अनुकूल परिणाम न निकले तो उसका प्रतिकूल असर प्रधानमंत्री की छवि पर पडऩे की आशंका बनी रहती है। मुझे खटकने वाली दूसरी बात यह लगी कि मोदीजी ने देश की विधिमान्य मुद्रा को चार घंटे बाद ही कागज का टुकड़ा रह जाने की बात कही। इससे अनावश्यक रूप से दहशत फैली। प्रधानमंत्री ने इसके बाद जिन उपायों की चर्चा की उन पर दहशत के मारे लोगों का ध्यान ही नहीं गया।

मैंने शुरूआत में इस कदम का स्वागत किया था। एक सामान्य नागरिक के रूप में मेरी तात्कालिक सोच यही थी कि अनेकानेक प्रभुत्तासम्पन्न लोगों ने इन बड़े नोटों के माध्यम से भारी मात्रा में धन एकत्र कर रखा है और वह अगर बाहर आता है तो इससे देश की अर्थव्यवस्था में गति आएगी। अगली सुबह एक अलग बात समझ आई कि सरकार को बड़े नोटों को प्रचलन से बाहर करने के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय देना चाहिए था ताकि बिना किसी अफरा-तफरी और हड़बड़ी के लोग पुराने नोट जमाकर नई मुद्रा हासिल कर सकें। ऐसा करने से देश की जनता के बहुत बड़े हिस्से को भागमभाग और आशंका-कुशंका से मुक्ति मिल जाती। नौ तारीख को चारों तरफ बदहवासी का माहौल था और दस तारीख को जब बैंक खुले तो बैंकों के दरवाजे पर लोग टूटे पड़ रहे थे। आम आदमी को इस बात की चिंता थी कि उसके हाथ में छोटे-मोटे सौदा-सुलुफ के लिए पैसे ही नहीं थे।

हमें तस्वीर का दूसरा पहलू देखने भी मिला। आठ तारीख की रात रायपुर व इंदौर सहित देश के तमाम सराफा बाजारों में  दो बजे रात तक दुकानें खुली रहीं और लोग पुराने नोट जमा कर सोना और जेवरात खरीद कर ले गए। भले ही सोना पांच हजार रुपया ब्लैक में क्यों न खरीदना पड़ा हो। यह एक अजीब विडंबना थी कि कालेधन को खत्म करने लिए एक बड़ा निर्णय लिया गया और उस निर्णय की धज्जियां सराफा बाजार में ही नहीं, रेल्वे स्टेशनों और हवाई अड्डों में भी उड़ रही थीं। सम्पन्न लोगों ने सरकारी छूट का लाभ उठाते हुए उन यात्राओं की महंगी टिकटें खरीद लीं जो उन्हें करना ही नहीं है। टिकट कैंसिल हो जाएगी, कुछ जुर्माना कटकर बाकी रकम वापिस आ जाएगी। यह कालाधन खत्म करना हुआ या कालेधन को सफेद में बदलना हुआ, यह सोच कर देखिए।  उससे अच्छा तो यह होता कि सरकार पांच-दस लाख रुपया सीधे-सीधे बैंक में जमा करने के लिए कुछ दिनों का समय दे देती।

डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने समय में इस बारे में विचार किया था। 2013 में निर्णय लिया गया था कि 2005 से पहले के पांच सौ के नोट चलन से बाहर कर दिए जाएंगे। इन्हें बैंक में जमा करने की एक समय सीमा भी निश्चित कर दी गई थी, फिर न जाने किस दबाव में इस अच्छे निर्णय को टाल दिया गया। क्या अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को यह याद आ गया था कि बड़े नोटों का चलन रोकने से कालाधन समाप्त नहीं होता? विभिन्न देशों द्वारा किए गए असफल प्रयोगों के परिणाम इनके सामने थे। हो सकता है कि सहयोगी राजनीतिक दलों के अलावा अपनी पार्टी और विरोधी दलों का भी दबाव उनके ऊपर रहा हो। आखिर सबको चुनाव लडऩा था और बड़ा चंदा तो बड़े नोटों से ही मिलना था।

हम सब जानते हैं कि देश में एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले भी पत्र-पत्रिकाओं में इस विषय पर खूब लेख छपा करते थे। तथापि कालेधन पर रोक लगाने के सारे प्रयत्न अब तक नाकाफी सिद्ध हुए हैं। बड़े नोटों का चलन पहले भी बंद किया गया है, आय की स्वैच्छिक घोषणा की योजनाएं भी लागू करके देख चुके हैं। आयकर की दरें भी लगातार कम की गई हैं। इन सारे प्रयत्नों का हश्र क्या हुआ? इसकी सबसे बड़ी वजह है कि हमारे देश में उद्यमशीलता और जोखिम उठाने की प्रवृत्ति अंग्रेजों के दौर से क्षीण होते गई है। कोई भी काम करवाना है तो रिश्वत देकर करवा लो। उसके लिए प्रतीक्षा करना, कानूनी रास्ते से चलना, तकलीफ उठाना हम भूल चुके हैं। आज स्वीडन, नार्वे आदि देशों में आयकर साठ प्रतिशत के आस-पास है और अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में पचास प्रतिशत, किन्तु हमारे धनी लोगों को तीस प्रतिशत कर चुकाना भी भारी लगता है।

मोदी सरकार के इस निर्णय से एकबारगी काफी बड़ी रकम छुपे ठिकानों से निकलकर सरकारी खजाने में आ जाएगी लेकिन यक्ष प्रश्न अपनी जगह पर है कि क्या इसके बाद भारत को कालेधन से मुक्ति मिल जाएगी? मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाएगा। हर भारतीय को वह आम हो या खास, कदम-कदम पर अपने काम करवाने के लिए सरकारी अमले की सेवा करना ही होती है। राशनकार्ड या बीपीएल कार्ड बनवाना हो, ड्राइविंग लाइसेंस लेना हो, ट्रैफिक के नियम तोडऩा हो, जमीन-जायदाद के काम हो, परीक्षा में प्रथम श्रेणी में आना हो, पीएचडी करना हो, स्मार्ट कार्ड से इलाज करवाना हो, बीमे की राशि हासिल करना हो, बताइए ऐसा कौन सा काम है जिसमें पैसा नहीं लगता हो! जिन देशों में रोजमर्रा के कामों के लिए रिश्वत नहीं देना पड़ती वहां भी सम्पन्न नागरिकों के लिए भी दूरदराज के द्वीपों में टैक्स हैवन बन गए हैं। नामी-गिरामी लोग, बराएनाम नागरिक उस द्वीप के होते हैं जहां टैक्स नहीं लगता, लेकिन रहते और काम करते हैं इंग्लैण्ड या अमेरिका या जर्मनी में। इनकी सारी कमाई यहीं होती है, लेकिन दूसरे देश के कथित तौर पर नागरिक हैं इसलिए इस आय पर कोई कर देय नहीं होता। 

हमारे देश में भी तो कितने सारे सम्पन्न लोग हैं जो भारतीय होकर भी भारत के नागरिक नहीं हैं। वे अपनी कमाई पर यहां पूरा टैक्स नहीं देते। फिर वे उद्योगपति और व्यापारी हैं जिनके व्यापार में मॉरिशस, सिंगापुर या साइप्रस के रास्ते आया पैसा लगा हुआ है। कल की सरकार हो या आज की सरकार, मॉरिशस के साथ दोहरा कराधान निषेध संधि को तोड़ कालेधन को सफेद बनाने का साहस न वे कर पाए और न ये कर पा रहे हैं। अभी सरकारी खजाने में जो पैसा आएगा वह उत्पादक कामों में खर्च होगा या गैरउत्पादक कामों में, इसका अनुमान लगाने से ही निराशा होती है। उससेबढक़र चिंता की बात यह है कि भारत की गृहणियों ने जो घरेलू बचत कर रखी थी उसका बहुत बड़ा हिस्सा अब बैंकिग व्यवस्था में आ गया है, लेकिन इससे घरेलू बजट के बिगडऩे की आशंका बलवती हो गई है। अधिकतर महिलाएं अनेक कारणों से अपने पति से भी पैसा छुपाकर रखती आई हैं। उन्हें घर की आपातकालीन आवश्यकताओं के अलावा लोक व्यवहार का भी ख्याल रखना होता है। यह बचत कालाधन नहीं है। यही नहीं, अनेक व्यक्ति आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए थोड़ा-बहुत पैसा बचाकर रखना पसंद करते हैं वह भी कालाधन नहीं है। दूसरे शब्दों में सरकार के इस निर्णय ने आर्थिक सुरक्षा की एक पंक्ति को तोड़ दिया है।

निष्कर्ष रूप में जब मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक, संघ के विचारक गोविंदाचार्य और पूंजीवादी अर्थ विशेषज्ञ स्वामीनाथन अय्यर एक ही स्वर में इस निर्णय की आलोचना करें तो लगता है कि कहीं कुछ चूक तो रह गई है।
 
देशबंधु में 17 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

Monday, 14 November 2016

मेरी पहली और आखिरी अमेरिका यात्रा


 1978 के दिसंबर में अमेरिका यात्रा का कार्यक्रम बना। वह एक शासन प्रायोजित यात्रा होना थी। एयर इंडिया ने बोइंग कंपनी से एक नया विमान खरीदा था। तब सामान्य परंपरा थी कि भारत सरकार का विमानन मंत्रालय अपनी छवि निर्माण की दृष्टि से कुछ पत्रकारों को ऐसे अवसर पर अमेरिका की संक्षिप्त सैर का मौका उपलब्ध करवाता था। यहां से एयर इंडिया के नियमित विमान से न्यूयॉर्क होते हुए बोइंग से मुख्यालय सीएटल, वाशिंगटन प्रांत जाइए और नए विमान में बैठकर वापिस आइए। केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी और रायपुर के लोकसभा सदस्य पुरुषोत्तम कौशिक केन्द्रीय पर्यटन व नागरिक उड्डयन मंत्री। समाजवादी कौशिकजी ने सोचा कि हमेशा दिल्ली-बंबई के पत्रकारों को ही ऐसे मौकों का लाभ मिलता है, इस बार अपने मंत्री रहते हुए हिंदी पत्रकारों को अमेरिका की सैर क्यों न करवाई जाए। मेरी भ्रमणशीलता और भ्रमणप्रियता से वे वाकिफ थे सो मेरा नाम सूची में जुड़ गया। एक निर्धारित तिथि पर दिल्ली पहुंचने की सूचना मिल गई। इसी बीच यह खबर किसी न किसी तरह से फैली होगी तो हिन्दी के 5-7 अन्य पत्रकार बंधुओं के नाम शामिल कर लिए गए।

उन दिनों रायपुर से दिल्ली के लिए एवरो विमान चलता था। रायपुर से जबलपुर, भोपाल होकर दिल्ली। सुबह रवाना हुए तो शाम को दिल्ली पहुंचे। वहां बाबूजी के अनन्य मित्र शेट्टी चाचा के घर पहुंचा नहीं कि चाची ने खबर दी- बच्चू, तुम्हारी अमेरिका यात्रा तो कैंसल हो गई  है। मैं चौंका। मालूम पड़ा कि उसी सुबह दिल्ली के टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रथम पृष्ठ पर खबर छपी कि मंत्री जी न जाने कैसे-कैसे पत्रकारों को अमेरिका भेज रहे हैं जिन्हें न अमेरिका पता है, न पर्यटन, न विमानन। जाहिर है कि जिन पत्रकारों का पत्ता कटा, उन्होंने क्षुब्ध होकर यह प्रहार किया था। बात सही भी थी। मैं रायपुर से, बाकी भी शायद ऐसे ही प्रादेशिक नगरों के होंगे। दिल्ली वालों के सामने हमारी क्या बिसात? मंत्री जी ने दिल्ली में चलने वाले दांव-पेंचों को अभी समझना शुरू ही किया था। वे इस खबर से घबरा गए और आनन-फानन में यात्रा निरस्त कर दी गई।
 मैंने कौशिकजी से बात करना चाही। वे जिस भी मन:स्थिति में रहे हों, कतराते रहे और मिले नहीं। उनके सचिव रमाकांत चंद्राकर को फोन किया तो उन्होंने भी इधर-उधर कर बात समाप्त कर दी। मैं अगले दिन एयर इंडिया के प्रबंध निदेशक एच.एस. कोहली (एवरेस्ट विजेता) से मिलने गया तो बहुत अच्छे से मिले। चाय भी पिलाई। मैंने कहा कि शासकीय निमंत्रण पर यहां तक आया हूं। हवाई जहाज का टिकिट लगा है तो कम से कम उस राशि का भुगतान तो कर दें। उन्होंने मंत्रीजी से बात कर खबर करने का आश्वासन दिया। मैं लौट के बुद्धू घर आया की तर्ज पर वापिस रायपुर आ गया। दरअसल, मुझे इस लालच में पडऩा ही नहीं था। मेरा अनुभव है कि किसी भी तरह की शासकीय मेहरबानी मुझे रास नहीं आती। जो स्वअर्जित है, उसके अलावा और कुछ मुझे फलता ही नहीं है। 

बहरहाल, अमेरिका प्रवास का अगला अवसर आया 1993 में याने उपरोक्त घटना के लगभग 15 वर्ष बाद। यह यात्रा सपत्नीक थी जिसमें अमेरिका के विभिन्न नगरों में हमने कोई बीस दिन बिताए। मैं यात्रा वृत्तांत लिखने में सामान्यत: विलंब नहीं करता। इसके कुछ अपवाद हैं, जिसमें वह यात्रा भी शामिल है। आज लगभग 24 वर्ष बाद मौका आया है कि अपने प्रथम व एकमात्र अमेरिका प्रवास के कुछ संस्मरण सबके साथ साझा करूं। इनमें सबसे दिलचस्प वाकया जो मुझे बार-बार याद आता है और जिस पर मैं मन ही मन मुस्काए बिना नहीं रह पाता वह वाशिंगटन (डीसी) का है। हम अपने रायपुर के मित्र माजिद के बेटे के फ्लैट पर रुके थे। उसने कहीं चलने के लिए अंडरग्राउंड पार्किंग से कार निकाली, रफ्तार कुछ तेज रही होगी, ऊपर पोर्च में खड़ी दूसरी गाड़ी से वह रुकते-रुकते हल्के से टकरा गई। उस गाड़ी का ड्राइवर (या मालिक) नीचे उतरा, हमारी गाड़ी का नंबर नोट किया और कहा- ओके! सी यू इन द कोर्ट। याने ठीक है, अब तुमसे अदालत में मुलाकात होगी। दोनों गाडिय़ों के सिर्फ फैंडर याने सामने की पट्टियां ही टकराई होंगी, लेकिन उस पर कोर्ट में जाने का फौरी फैसला। अमेरिकी नागरिक अपने निजी अधिकारों को लेकर कितने सचेष्ट हैं, यह उसका उदाहरण मेरे सामने था। 

हमारी यात्रा का पहला पड़ाव न्यूजर्सी का कोई छोटा सा नगर था जिसका नाम फिलहाल याद नहीं आ रहा है। इसके लिए हमें न्यूयॉर्क के जेएफके एयरपोर्ट पर उतरना था। माजिद हमें लेने आने वाले थे। सामान लेकर बाहर निकले तो उनका कोई अता-पता नहीं। आधा घंटा हम परेशान खड़े रहे कि अब क्या किया जाए। उस समय मोबाइल फोन तो था नहीं और घर के फोन पर कोई उत्तर नहीं था। खैर ! इस चिंताकुल प्रतीक्षा के बाद माजिद और परवीन दोनों हमें लिवाने आ गए। अमेरिका की गगनचुंबी इमारतों और हडसन नदी के नीचे बनी सुरंग आदि से गुजरते हुए एक सवा घंटे में उस छोटे से नगर में स्थित उनके घर पहुंचे। कई वर्ष पहले इंग्लैंड और वेल्स में देखे पोस्टकार्ड पिक्चर जैसे करीने से बने घर यहां भी थे। ठंड के दिन थे। पेड़ों पर बर्फ जमा थी, लेकिन प्रकृति के विस्तार का एहसास चारों तरफ हो रहा था। और ऐसा क्यों न होता। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में ढाई गुना बड़ा है और आबादी में एक तिहाई। याने वहां खुलेपन की कोई कमी नहीं। दो-तीन दिन बाद हम लोग कार में कहीं घूमने निकले तो रास्ते में जगह-जगह सूचनापटल लगे थे- संभालकर गाड़ी चलाइए, यहां हिरण आते-जाते हैं। और सचमुच प्रकृति के इस प्रांगण में हिरणों को निश्चिंत होकर विचरते देखा।

न्यूयॉर्क के जनसंकुल मैनहट्टन द्वीप से यह दृश्य बिल्कुल भिन्न था। वहां तो इमारतें ऊंचाई में एक-दूसरे से होड़ लेने के लिए नजर आती हैं। ये अट्टालिकाएं इतनी ऊंची हैं कि सूरज की किरणों को नीचे आने से रोक देती हैं। फोरलेन सडक़ भी इस ऊंचाई के सामने संकरी लगने लगती है। मजे की बात है कि अनेक इमारतों में भीतर एट्रियम याने आकाश की तरफ खुले आंगन बने हुए हैं जिससे ताजी हवा मिल जाती है। इनमें लिफ्ट ऐसी लगी हैं कि एक मिनट में सौ मंजिल ऊपर पहुंचा दें। ऐसी तेज रफ्तार कि सिर घूम जाए। इन्हीं के बीच रॉकफैलर प्लाजा में देखा कि जमाई गई बर्फ पर बच्चे स्केटिंग कर रहे हैं। वे जैसे इमारतों की निर्जीवता को तोड़ रहे थे। न्यूयॉर्क में ही सेंट्रल पार्क हैं, जो सीमेंट-कांक्रीट के इस नगर को हरियाली और प्राणवायु देता है। महानगरवासियों के लिए यह पार्क सैर-सपाटे के साथ-साथ मनोरंजन की बहुत सी गतिविधियों का केन्द्र है। मैनहट्टन में ही यूएन प्लाजा अर्थात् संयुक्त राष्ट्र संघ का मुख्यालय है। यहां हमने पहली बार मोबाइल फोन देखा। एक जापानी व्यक्ति फुटपाथ पर चलते हुए अपने फोन पर बात करते जा रहा था। भारत में इसे आने में अभी एक दशक बाकी था। 

माजिद हमें अटलांटिक सिटी दिखाने ले गए। जिस तरह पश्चिम अमेरिका में लास वेगास है उसी तरह पूर्वी तट पर अटलांटिक सिटी अपने जुआघर याने केसिनो के लिए प्रसिद्ध है। एक कई किलोमीटर लंबी सडक़ पर एक के बाद एक केसिनो बने हुए हैं। नीचे जुआघर के बड़े-बड़े हाल हैं। ऊपर ठहरने के लिए होटल के कमरे। आपने अंदर प्रवेश किया नहीं कि साफ्ट ड्रिंक और हार्ड ड्रिंक आपकी खिदमत में पेश। वे जानते हैं कि आप जब भीतर आए हैं तो अपनी जेब कुछ न कुछ हल्की करके ही जाएंगे। यहां न्यूयॉर्क तथा आसपास के अनेक नगरों से नियमित नि:शुल्क बस सेवा चलती है। केसिनो की बस है, मुफ्त में बैठकर आ जाइए, जुआ खेलिए, दिल बहलाइए, जेब खाली करिए और दुबारा आने के लिए वापिस लौट जाइए। इन बसों में आने-वाले लगभग सभी नागरिक वयोवृद्ध होते हैं और शायद एकाकी भी। अपना मन बहलाने के लिए, समय काटने के लिए क्या करें ! इसी सामाजिक स्थिति से जुड़ा एक अन्य पहलू मैंने 1977 के इंग्लैंड प्रवास में देखा था। अखबारों में विज्ञापन छपते थे कि सत्तर साल के वृद्ध या पचहत्तर साला वृद्धा को अकेलापन दूर करने के लिए साथी की आवश्यकता है। शायद ऐसा अमेरिका में भी होता हो। भारत में भी जिस तरह परिवारों का विघटन हो रहा है उसमें किसी दिन ऐसी नौबत आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। 

हम जब वाशिंगटन से वापस न्यूजर्सी घर लौट रहे थे तो दो और ऐसे दृश्य देखे जिनकी छाप मन पर अभी तक बनी हुई है। हमारे रास्ते में बाल्टीमोर नगर पड़ा। दोपहर का समय था। शहर की सडक़ों पर बहुत हलचल नहीं थी, लेकिन कई जगहों पर झुंड के झुंड बैठे युवक नजर आए। ये सभी अश्वेत थे। ये शायद बेरोजगार थे या कोई और कारण, यह मैं नहीं समझ पाया, लेकिन काम के दिन नौजवान खाली बैठे हों तो इसका ताल्लुक कहीं सामाजिक व्यवस्था से अवश्य रहा होगा। दूसरा दृश्य सामने आया जब माजिद ने राजमार्ग छोडक़र देहाती इलाके की एक सडक़ पकड़ ली। इस सडक़ पर एक गांव के बाहर फल और सब्जी की दुकान देखकर मैंने गाड़ी रोकने के लिए कहा। उस दुकान पर हर तरह के फल और सब्जियां मिल रहे थे। गांव में ऐसी दुकान देखकर अच्छा लगा। मैंने तस्वीर लेना चाही तो माजिद ने कहा, पहले दुकान की मालकिन से पूछ लेते हैं। याने यहां भी निजी अधिकार का मामला। उस महिला ने इजाजत तो दे दी, लेकिन उसे आश्चर्य हुआ कि दुकान का फोटो लेने में हमें क्या दिलचस्पी है।

माजिद और परवीन ने हमें अपने बहुत से दोस्तों से मिलवाया। वे सब भारतीय ही थे। रायपुर के कॉलेज के दिनों के एक मित्र राजू मल्होत्रा जो किसी सुदूर अन्य प्रांत में रहते थे, वे भी मिलने के लिए आ गए थे। मित्रों की बातचीत में पता चला कि भारत के लोग अपने देश के लोगों से ही संबंध रखना पसंद करते हैं। उनकी न तो अमेरिकी लोगों के साथ बहुत दोस्ती हो पाती और न दूसरे देश के लोगों के साथ। अमेरिका के अश्वेतों के साथ दफ्तर या कारखाने में काम भले ही करते हों, सामान्यत: घर पर आना-जाना नहीं होता है। वहां दिन-रात अंग्रेजी-बोलना पड़ती है, तो हिन्दी में बात करने के लिए तरसते हैं इसलिए बालीवुड के कलाकारों के अलावा शायरों व हास्य कवियों को न्यौता भेजकर बुलाते हैं, अपने घरों में ठहराते हैं और उसमें गर्व अनुभव करते हैं। इनके अलावा धर्मनिष्ठ भारतीय अमेरिकन घरों में स्वामियों और प्रवचनकारों का स्वागत-सत्कार होते रहता है। अब तो अमेरिका में सनातन धर्म के भव्य मंदिर बनने में लगे हैं, लेकिन जब हम गए थे तब वेस्ट वर्जीनिया के एक लगभग निर्जन इलाके में जहां जाने के लिए पक्की सडक़ भी नहीं थी,  इस्कान का मंदिर भारतीयों के बीच काफी लोकप्रिय था। मंदिर नि:संदेह भव्य था, व्यवस्थाएं उत्तम थीं, जूते उतारने की आवश्यकता नहीं थी, उसके ऊपर नायलोन के मोजे पहनकर घूम लीजिए, बाद में डस्टबिन में डाल दीजिए। इस मंदिर में बहुत स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन प्रसाद के रूप में प्राप्त हुआ। एक हमउम्र स्वामीजी से बातचीत होने लगी, तो पता चला कि वे किसी प्रसिद्ध संस्था से एम.टेक. करने के बाद संन्यासी बन गए।

माजिद के घर एक सप्ताह रुकने के बाद बचपन के मित्र जयंत लिमये के घर कंसास सिटी जाना था। उसका फोन आ गया कि वीकएंड में आओ तो ठीक, अन्यथा सोमवार से शुक्रवार तक फुर्सत नहीं। भारत से चलने के पूर्व कार्यक्रम बन गया था तब मित्र को शायद इसका ध्यान नहीं था। हमने वहां जाने का इरादा छोड़ा और बफेलो होते हुए नियाग्रा जलप्रपात देखने जाने का फैसला किया। एयरलाइंस से माजिद ने टेलीफोन पर ही सीट बुक कर दी जिसमें काफी देर हो चुकी थी। हम दोनों को अलग-अलग पंक्तियों में बीच की सीट मिली। सहयात्री से निवेदन किया कि सीट बदल लें। उनका उत्तर था- हमने पैसे देकर सीट बुक की है, बदलेंगे नहीं। खैर ! एक डेढ़ घंटे का सफर था, कोई खास परेशानी नहीं हुई। बफेलो में हम सुभद्राकुमारी चौहान की छोटी बेटी ममता जीजी के साथ रुकने वाले थे, उनके पति अरविंद भार्गव एयरपोर्ट लेने आ गए थे। उनके साथ घर पहुंचे। वहां हमारी भेंट उनके एक अश्वेत मित्र के साथ हुई। दोनों एक ही प्रयोगशाला में साथ-साथ काम करते थे। यह हमारे देखे पहला उदाहरण था जहां एक भारतीय की एक अश्वेत नागरिक के साथ इतनी मित्रता थी कि घर आना-जाना होता था। इसके पहले और बाद में कई बार मैं देख-सुन चुका था कि हम गौरांगों की बराबरी करना चाहते हैं और अश्वेतों को अपने से कमतर समझते हैं। एक दूसरी बात जो राजू मल्होत्रा से पता चली थी कि विदेशों में बसे भारतीय अपने बेटों को तो हर तरह की छूट देते हैं, लेकिन बेटियों के मामले में अतिरिक्त और अवांछित सतर्कता बरतते हैं। राजू ने मुझसे कहा कि जब यहां रोजी-रोटी कमाने आए हैं तो हमें यहीं का होकर रहना चाहिए। मैं उसकी बात से सहमत था। 

बफेलो में अरविंद जी ने हमें नियाग्रा फाल के पास अमेरिका की सीमा पर छोड़ दिया था। एक दिन बाद वहीं वापिस मिलने की बात भी हो गई थी। अपना-अपना बैग उठाए हमने पैदल पुल पार किया। आव्रजन अधिकारियों ने पासपोर्ट, वीजा देखा और आगे जाने दिया। पुल पार करते साथ हम कनाडा की धरती पर थे- एक दूसरे देश में। नियाग्रा जलप्रपात देखने के मोह में ही हम बड़ी मशक्कत से वीजा हासिल कर यहां पहुंचे थे। घनघोर ठंड के दिन थे इसलिए पानी भी जमकर बर्फ हो गया था, लेकिन कनाडा की तरफ जलप्रपात से किसी युक्ति से भारी वेग के साथ पानी गिरता रहता है। यहां दो बातों पर ध्यान गया- एक तो कनाडा की अंग्रेजी और तकनीकी शब्दावली अमेरिका से अलग है। जैसे यहां बस को पब्लिक मूवर कहा जाता है और भी ऐसी ही अन्य संज्ञाएं। दूसरे कोई भी पर्यटन स्थल हो, दुकानदारी का बोलबाला सब जगह है। पर्यटकों को लुभाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं किए जाते। यद्यपि इसमें स्थान विशेष का प्राकृतिक सौंदर्य या अन्य कोई विशेषता वह खो जाती है। यह उपभोक्ता समाज की वास्तविकता है। हमने बीस दिन के प्रवास में जो कुछ देखा वह अमेरिका के समाज और प्रकृति का एक अंश भी नहीं है, लेकिन वहां के तमाम शहर और उनके बाजार लगभग एक जैसे हैं। एक को देख लिया तो सबको देख लिया। 
प्राकृतिक सौंदर्य में पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण बहुत विविधताएं हैं, लेकिन उसका पांच-दस प्रतिशत भी देखने के लिए धन और समय दोनों चाहिए। अमेरिका में आम नागरिक से सडक़ पर अगर आंखें मिल जाए तो मुस्कुराकर औपचारिक अभिवादन हो जाता है। वैसे वे अपने काम में इतने मशगूल होते हैं कि उन्हें बात करने के लिए समय नहीं होता। एक तरह की यांत्रिकता व्यवहार में परिलक्षित होती है। नागरिक अधिकारों के प्रति सचेष्टता का एक और उदाहरण है कि जहां-जहां आबादी के पास फ्लाईओवर या द्रुतगामी मार्ग है, वहां दोनों किनारों पर ध्वनिरोधक पट्टियां लंबी दूरी तक फिट की जाती हैं, ताकि रहवासियों को रफ्तार से गुजर रहे वाहनों से उठती खडख़ड़ आवाज और कंपन से तकलीफ न पहुंचे। अमेरिका में अखबार काफी प्रभाव रखते हैं। वे जनता की आवाज उठाते हैं तो सरकार को सुनना पड़ती है याने सत्ता में हमारी तरह वहां पूरी बेशर्मी नहीं है (या नहीं थी?)। जब हम पहुंचे थे तब बिल क्लिंटन नए-नए राष्ट्रपति बने थे। वे सबेरे जॉगिंग करने निकलते थे तो उनसे प्रेरणा लेकर अमेरिका के हर शहर में सुबह-सुबह जागिंग करने वालों के हुजूम सडक़ों पर उमडऩे लगे थे। पता नहीं, यह शौक अब बरकरार है या नहीं! 
अक्षर पर्व नवम्बर 2016 अंक में प्रकाशित 

Wednesday, 9 November 2016

दिल्ली में धुआँ क्यों है?



 यह पिछले हफ्ते की ही तो बात है। दो नवंबर को सुबह साढ़े ग्यारह बजे के आसपास दिल्ली विमानतल पर हवाई जहाज उतरा तो खिडक़ी से बाहर का दृश्य देखकर मैं हैरान ही नहीं हुआ बल्कि किसी हद तक भयभीत हो गया। दोपहर होने को थी जबकि ऊपर चढ़ते सूरज का प्रकाश चारों तरफ प्रखरता के साथ फैला हुआ होना चाहिए था किन्तु वहां तो नीम अंधेरा छाया हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो कोहरे ने दिल्ली को अपनी चादर में लपेट लिया है। लेकिन यह कोहरा नहीं था जिसका सामना दिल्ली में अमूमन हर साल दिसंबर-जनवरी में करना होता है। यह तो धुआं छाया हुआ था। हवाई अड्डे से बाहर निकल कर टैक्सी में अपने गंतव्य की ओर रवाना हुआ तो भी पूरे रास्ते भर धुआं साथ-साथ चल रहा था। टैक्सी की खिड़कियों के कांच चढ़े हुए थे, लेकिन धुआं भीतर आकर फेफड़ों में समा रहा था। उस दिन शाम तक दिल्ली के आकाश से सूरज नदारद रहा, बल्कि यूं कहें कि बेदखल कर दिया गया था।

अगली सुबह मौसम कुछ खुला हुआ था, उजाला कुछ-कुछ फैल रहा था, लेकिन वातावरण में धुएं का भारीपन था, सडक़ों पर आते-जाते लोगों को देखा तो बड़ी संख्या में लोग मुंह पर मास्क याने नकाब लगाए हुए दिखे ताकि धुआं नथुनों से होकर फेफड़ों पर आक्रमण न कर सके। मैंने इसकी चर्चा कुछ  दिल्लीवासियों से की तो वे सब इस प्रदूषण से परेशान थे। मेरी बेटी ने तो मुझको यह सलाह दे दी कि आप इस मौसम में दिल्ली आया ही न करें। मेरी चिंता अपने बारे में न होकर जिनके बारे में थी उनका कहना था कि हमारे पास तो कोई विकल्प है नहीं, यहां रहना है तो इस प्रदूषण का भी सामना करना है। अलबत्ता राजधानी के निवासियों को इस बात का कोई इल्म नहीं था कि आखिरी अक्टूबर या शुरूआती नवंबर में महानगर का वातावरण इतना प्रदूषित हो जाएगा। अब उसके कारणों की पड़ताल चल रही है तो आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी बराए-दस्तूर चल पड़ा है।

पाठकों को ध्यान होगा कि पिछले साल दिल्ली की आप सरकार ने प्रदूषण मुक्ति के लिए वाहनों के सम-विषम नंबरों के आधार पर परिचालन का प्रयोग किया था। मेरी राय में यह एक सुविचारित कदम था जिसका अध्ययन दलीय राजनीति से अलग हटकर किया जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिल्ली में वाहन प्रदूषण की रोकथाम हेतु कुछेक निर्देश समय-समय पर दिए थे उनका भी कोई खास नतीजा नहीं निकला। कोई पन्द्रह साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रदूषणकारी लघु और मध्यम उद्योगों को दिल्ली से बाहर ले जाने का निर्णय सुनाया था। वह भी एक आधा-अधूरा कदम साबित हुआ। अब दिल्ली के उपराज्यपाल ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए आप सरकार द्वारा नियुक्त पर्यावरण सचिव को हटा दिया है। इससे क्या होगा? राजधानी की सरकार निर्वाचित मुख्यमंत्री नहीं बल्कि मनोनीत उपराज्यपाल चला रहे हैं तब केजरीवाल सरकार को दोष देने में क्या औचित्य है?

दीपावली की रात से ही दिल्ली में धुआं छाने लगा था। उस समय यह समझ आया कि बड़ी मात्रा में पटाखे फोड़े जाने के कारण बारूदी जहर फैल रहा है। किन्तु एक-दो दिन बाद एक नया तर्क सामने आया कि पंजाब, हरियाणा आदि में फसल के ठूंठ जलाए जाने के कारण उसका धुआं उडक़र दिल्ली की तरफ आ रहा है। केन्द्र सरकार ने सीमावर्ती राज्यों पर दोष डाल दिया कि ये प्रदूषण रोकने के उपायों का समुचित पालन नहीं कर रहे हैं। हो सकता है कि उनकी बात सही हो, लेकिन उन दिनों हवा का बहाव दिल्ली की दिशा में याने उत्तर से दक्षिण की ओर नहीं था। खैर! हम चाहे जितने कयास लगाते रहें, समस्या उत्पन्न होने के कारण और उपचार तो विषय-विशेषज्ञ ही बता सकते हैं। इसमें दो पेंच हैं- एक तो क्या सर्व बुद्धिमान सरकार विशेषज्ञों की राय को कोई अहमियत देती है या नहीं। दूसरे- समाज का वर्चस्ववादी शक्तिसम्पन्न तबका विशेषज्ञों की राय के अलावा सरकार द्वारा बनाए गए कायदे-कानूनों को मानने के लिए तैयार है या नहीं।

हम अपने अनुभव से कह सकते हैं कि निर्वाचित सरकारों और सरकार चलाने वाले अहंकारी अधिकारियों की दृष्टि में विशेषज्ञों की राय कोई अहमियत नहीं रखती। उन्हें जो करना है वही करते हैं। और यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है। हाल के बरसों में यह मानसिकता और प्रबल हुई है। बात चाहे ताजमहल के बिल्कुल निकट तेलशोधन संयंत्र लगाने की हो, चाहे मुंबई में नमक की खेती वाले डालों पर कब्जा करने की हो, चाहे गोवा और तमिलनाडु में मैंग्रोव के कुंज काटकर भूमाफिया को जमीन देने की हो और चाहे छत्तीसगढ़ में किसानों की भूमि और बांधों का पानी उद्योगपतियों को देने की हो, या फिर ओडिशा में समुद्र तट के केतकीकुंज काटकर इस्पात का कारखाना लगाने की हो। मतलब यह कि न किसी को पर्यावरण की चिंता है, न प्राकृतिक विरासत के संरक्षण की और न भावी पीढिय़ों की सुरक्षा की। इसलिए छत्तीसगढ़ में नदी का एक हिस्सा कांग्रेस सरकार द्वारा उद्योगपति को बेच दिया जाता है किन्तु भाजपा सरकार उस ठेके को निरस्त करने का कदम नहीं उठाती।

यह तो हुई एक बात। दूसरी बात हमारी जीवन शैली से ताल्लुक रखती है। महान लेखक टाल्सटॉय ने भले ही नीति कथा लिखी हो कि मरने के बाद मनुष्य को दफनाने के लिए दो गज जमीन से अधिक की आवश्यकता नहीं होती और भले ही साधु-संत कहते हों कि इंसान खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है, किन्तु आज तो ऐसा लगता है जैसे हर मरने वाला अपनी पूरी संपत्ति साथ लेकर ही ऊपर जाएगा। क्या मालूम ऊपर जाकर चित्रगुप्त को रिश्वत देना पड़े या कि धर्मराज को ताकि नरक में भी स्वर्ग का सुख मिल सके। अगर ऐसी सोच नहीं है, तो फिर यह संचय वृत्ति क्यों कर समाज में विकसित हो रही है? भारत की स्थिति तो बिल्कुल विचित्र है। भोगवादी पश्चिम में धनी-धोरी लोग अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा दान कर देते हैं, लेकिन यहां जो सत्ताइस मंजिल का महल खड़ा करते हैं वे परमार्थ के लिए कौड़ी भी खर्च नहीं करते।

भारतीय समाज में लंबे समय से संग्रहवृत्ति तो नहीं, बचत करने की आदत रही है। उसकी यह आदत देश की अर्थव्यवस्था को संतुलित करने में काफी काम आई है। लेकिन बदलते समय के साथ अब यह अच्छी आदत खत्म होते दिखाई दे रही है। नवपूंजीवाद ने इसमें खासी भूमिका निभाई है। आज के मीडिया और आज के बाजार को नवपूंजीवाद ने अपने मनमर्जी ढाला है। उसके फैलाए इंद्रजाल में लोग चाहे-अनचाहे फंसते जा रहे हैं। क्षणिक आनंद के लिए अथवा अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अब जिस तरह गैरउत्पादक गतिविधियों में धन का अपव्यय हो रहा है वैसा बीस-पच्चीस साल पहले तो नहीं था या एक सीमा के भीतर था। दिल्ली हो या रायपुर, दीपावली पर पटाखे तो पहले भी चलाए जाते थे। तब तो धुआं आकाश पर इस तरह नहीं छाता था और न सूरज को इस तरह निगलता था। इससे यही समझ आता है कि अब लोग बिना सोचे- समझे दीवाली में आतिशबाजी पर अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि इससे कितना जहर फैलेगा और जिन बच्चों की खुशियों के लिए वे ऐसा कर रहे हैं उनको ही इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा।

हमें एक तीसरे बिन्दु पर भी ध्यान देना चाहिए। 1947 में भारत की आबादी बत्तीस करोड़ थी वह आज बढक़र एक अरब तीस करोड़ हो गई है याने चार गुने से अधिक। इस बढ़ी हुई आबादी के लिए भी सब तरह की व्यवस्थाएं चाहिए। अन्न और जल से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, यातायात और मनोरंजन तक। देश का क्षेत्रफल तो वही है जो सत्तर साल पहले था। इसका अर्थ यह हुआ कि अब प्रत्येक के हिस्से में पहले के मुकाबले एक चौथाई जमीन है। जहां एक मकान था वहां अब चार मकान चाहिए, जिसके पास एक एकड़ जमीन है अनाज और पानी की व्यवस्था करने में कोई भी योजना कारगर नहीं हो रही है, घातक रासायनिक तत्वों का प्रयोग बढ़ते जा रहा है, जंगल कट रहे हैं, यातायात व्यवस्था चरमरा रही है। नई-नई मशीनों के कारण रोजगार के अवसर घट रहे हैं और ऐसी तमाम बातें हैं। दिल्ली का धुआं एक दिन की समस्या नहीं है। इस पर सर्वांग दृष्टि से विचार करेंगे तभी हल खोज पाएंगे।

देशबंधु में 10 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

Wednesday, 2 November 2016

गुरु ऋण ! ये क्या होता है?



भारतीय संस्कृति में तीन ऋणों की बात कही गई है,  जिनका शोधन हर मनुष्य को अपने जीवनकाल में करना चाहिए- देवऋण, पितृऋण और गुरुऋण। देवऋण से मुक्त होने के लिए व्यक्ति अनेक उपाय करता है। पूजा-पाठ, हवन-पूजन, मंदिर जाना, तीर्थाटन करना, धर्म-अनुकूल आचरण करना याने सत्य, न्याय, विवेक के पथ पर चलना इत्यादि बातें इसमें आती हैं। विद्वान पाठक अपनी जानकारी के अनुसार इस सूची को बढ़ा सकते हैं। पितृऋण में वर्तमान समय की मान्यताओं के अनुकूल इसमें मातृऋण जोड़ लेना उचित होगा। इसके अंतर्गत माता-पिता की सेवा करना, श्रवणकुमार को अपना आदर्श मानना, वृद्धावस्था में उनके सुख का ध्यान रखना आदि का समावेश होगा। यहां भी पाठक चाहें तो संशोधन करते हुए वृद्ध, असहाय माता-पिता को वृद्धाश्रम में छोडक़र आना, वहां बीच-बीच में जाकर उनकी खोज-खबर लेने को भी उऋण होने की प्रक्रिया का अंग मान सकते हैं। अवतार, बागवान जैसी फिल्में न चाहकर भी यहां ख्याल आ जाती हैं।

अब बच गया गुरुऋण। गुरु की महिमा से भला कौन परिचित नहीं है। गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाँय/बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय, यह दोहा भला किस हिन्दी पढ़े व्यक्ति को याद न होगा। इसका उपयोग स्कूल में पढ़ते हुए निबंध लेखन में भी किया होगा, वाद—विवाद, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में और बड़े होने पर शिक्षक दिवस पर लेख लिखने या स्कूल में अतिथि की आसंदी से उद्बोधन देते हुए। पश्चिमी देशों में मनाते होंगे टीचर्स डे, लेकिन हम तो 5 सितंबर को बाकायदा शिक्षक दिवस का आयोजन करते ही करते हैं। कोई-कोई गुरुजी के पास इतने शाल-श्रीफल इकट्ठे हो जाते हैं कि समझ नहीं आता, इनका क्या करें। यह गुरुऋण से मुक्त होने की सालाना जुगत है। जिनका मन इतने से नहीं भरता, वे गुरु पूर्णिमा के अवसर पर कसर पूरी कर देते हैं। इन दिनों जिसे देखो वह किसी न किसी आध्यात्मिक गुरु का शिष्य या शिष्या  नज़र आता या आती है। गुरु की सेवा कर ये शिष्य अक्सर इहलोक-परलोक दोनों की सुध ले लेते हैं।

एक ओर यह गुरुभक्ति है तो दूसरी ओर वह कहावत भी है- गुरु गुड़ रह गए, चेला शक्कर बन गया। यह कहावत शक्कर का आविष्कार होने के उपरांत चलन में आई होगी। शक्कर को वैसे उत्तर भारत में चीनी कहा जाता है। इसलिए कि इस मीठे पदार्थ का आविष्कार चीन में हुआ था, वैसे ही जैसे बारूद का। लेकिन फिलहाल उस पर बात करना ठीक नहीं। चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करते-करते चीनी या शक्कर तक पहुंच गए तो दैनंदिन जीवन से मिठास गायब न हो जाएगी? बहरहाल, हमारी जिज्ञासा यह है कि किन परिस्थितियों में चेला शक्कर बनता है और गुरु गुड़ ही रह जाता है। गुड़ का परिष्कार करने से शक्कर निर्मित होती है। गुड़ होता है चिपचिपा, बेढब, देखो तो ढेले जैसा, रंग किसी बूढ़े की त्वचा जैसा, खाओ तो दांतों में चिपक भी जाता है। उसके मुकाबले चीनी सफेद झक्क, दाना-दाना खिला हुआ, क्या रूप, क्या सज-धज। सवाल उठता है कि यह परिष्कार कौन करता है? ऐसा क्यों होता है कि चेले का व्यक्तित्व तो निखर जाता है, लेकिन गुरु जहां  था, वहीं छोड़ दिया जाता है। तो फिर भारतीय समाज में गुरु का सही स्थान कहां है? क्या गुरु का ऋणी होना, तदनंतर उससे मुक्त होने के उपाय करना- ये सारी बातें सिर्फ कहने के लिए हैं और व्यवहार में उनका कोई उपयोग नहीं है?

एक उदाहरण से बात कुछ स्पष्ट होगी। छत्तीसगढ़ में सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में नए शैक्षणिक सत्र में छात्र संघ के चुनाव संपन्न हुए। चुनावों के परिणाम 2 सितम्बर को आ गए। सहज कल्पना होती है कि विजयी छात्र नेताओं ने बिना देर किए अपना पदभार ग्रहण कर लिया होगा। लेकिन ऐसा सर्वत्र नहीं हुआ और कुछ स्थानों पर तो हास्यास्पद स्थितियां बन गईं। एक संस्थान में शपथ ग्रहण का कार्यक्रम दो बार हुआ, क्योंकि छात्रसंघ के सभी विजयी प्रत्याशी किसी एक धारा के न होकर बंटे हुए थे। छत्तीसगढ़ में लगभग हर जगह मुकाबला भाजपा की अखिल भारतीय छात्र परिषद एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय छात्र संगठन के बीच था। जहां इनके दो, उनके दो इस तरह मिले-जुले परिणाम आए वहां शपथ ग्रहण में मुख्य अतिथि किसे बुलाया जाए, इस पर एका कायम न हो सका। दोनों छात्र संगठन, अपने-अपने राजनैतिक संरक्षकों की उपस्थिति में ही समारोह करना चाहते थे। शिक्षा परिसर में दलीय राजनीति इस हद तक हावी हो गई।

इसमें सबसे उल्लेखनीय और कदाचित शोचनीय स्थिति प्रदेश के सबसे बड़े और बावन साल पुराने पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में हुई। यहां भाजपा का छात्र दल विजयी हुआ। उसने तय किया कि जिस विधानसभा क्षेत्र में वि.वि. परिसर अवस्थित है, उसके भाजपा विधायक एवं प्रदेश के रसूखदार मंत्री राजेश मूणत के मुख्य आतिथ्य में शपथ ग्रहण समारोह होगा। लेकिन जो काम 2 सितंबर याने नतीजे आने के दो-चार दिन बाद हो जाना चाहिए थे, उसमें ये दो माह लग गए। धनतेरस के दिन कार्यक्रम रखा गया। एक तो दो माह का विलंब क्यों हुआ, यही  अजब घटना थी, फिर कार्यक्रम रखना तो था तो एक बड़े त्यौहार का दिन ही क्यों चुना? यह किसी ने नहीं सोचा कि धनतेरस के दिन कितने लोग आ पाएंगे। वैसे भी चुनाव हो जाने के बाद शपथ ग्रहण में दर्शक बनने में कितने छात्रों की रुचि होती? दूसरे, मंत्रीजी जनता के आदमी हैं। उनके भाषण सब लोग आए दिन सुनते रहते हैं। घर का त्यौहार छोड़ कौन विश्वविद्यालय जाता? परिणाम? कार्यक्रम में कुल जमा दो दर्जन लोग पहुंचे। क्षीण उपस्थिति से नाराज मंत्री महोदय ने कार्यक्रम स्थगित करवा दिया और अखबारी रिपोर्ट के अनुसार कुलपति पर अपना गुस्सा उतारा।

 आप कहेंगे- इन बातों का गुरु ऋण से क्या संबंध, जिसकी खासी भूमिका मैं ऊपर बांध आया हूं। सोचकर देखिए- संबंध है कि नहीं। मैं मानता हूं कि कॉलेज के विद्यार्थियों को दलीय राजनीति में भाग लेना चाहिए। वे बालिग हंै। उन्हें मताधिकार प्राप्त है। अगर वे राजनीति में आगे नहीं आएंगे तो समाज में बदलाव कैसे आएगा। लेकिन छात्रसंघ के शपथ ग्रहण में राजनेता को बुलाने की आवश्यकता कहां है? क्या हमारे विद्यार्थियों का ध्यान अपने शैक्षिक उन्नयन पर नहीं होना चाहिए? शपथ ग्रहण एक तरह से सक्रिय राजनीति की राह पर पहला कदम है। इस अवसर पर क्या किसी विद्वान या विदुषी को नहीं बुलाया जा सकता? जो कुलपति आपके स्नातक बनने पर आपको उपाधि एवं मार्गदर्शन देकर बाहर की दुनिया में भेजता है, क्या वह या आपके महाविद्यालय का प्राचार्य शपथ ग्रहण का मुख्य अतिथि नहीं हो सकता। अपने अंचल के किसी प्रबुद्ध व्यक्ति को, किसी लेखक या कलाकार को बुलाने के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता जिसके जीवन के विविध अनुभव ज्ञान-समृद्ध बना सकते हैं।

मुझे यह भी समझ नहीं आता कि नेतागण हर समय, हर जगह मंच पर विराजमान होने के लिए क्यों लालायित रहते हैं। ऐसा लगता है कि सत्तामोह ने अजगर की तरह इन्हें बुरी तरह से जकड़ लिया है। आप जब तक नहीं आएंगे तो नाटक शुरु नहीं होगा, संगीत सभा रुकी रहेगी; जिन पुस्तकों को आपने न पढ़ा है और न पढ़ेंगे, उनका लोकार्पण आपके करकमलों से होगा, यह कहां का न्याय है। विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोह में स्थानीय विधायक, सांसद या महापौर का मंच पर क्या काम? आप श्रोताओं के साथ प्रथम पंक्ति में बैठकर समारोह की शोभा क्यों नहीं बढ़ा सकते? अभी जो प्रसंग पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में हुआ, उसमें कुलपति पर मंत्री के नाराज़ होने में क्या औचित्य था? कार्यक्रम छात्रसंघ का था, वह भी आपकी पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं का।  उनकी तैयारियों में कोई कमी थी तो मंत्री उनको आगे के लिए सावधान करते। फिर वे तो अनुभवी व्यक्ति हैं। खुद क्यों नहीं सोचा कि धनतेरस के दिन कितने लोग आ पाएंगे। बल्कि उन्हें सबसे पहले तो यही विचार करना चाहिए था कि शपथ ग्रहण में दो माह का विलंब क्यों हुआ और उसकी जिम्मेदारी किसकी है?
अभी कुछ माह पूर्व भाजपा की मातृसंस्था याने संघ के प्रदेश प्रमुख ने कुलपतियों की बैठक बुलाई थी, जिस पर काफी बवाल मचा। वे श्रीमान ही शपथ ग्रहण में संघ के किसी विद्वान को मुख्य अतिथि बनाकर भेज देते तो बात बन जाती। यह पुराना प्रसंग अनायास ध्यान आ गया तो यह पूछने को भी मन कर रहा है कि कार्यवाहजी, आपको कुलपतियों की बैठक बुलाने की इतनी ही आवश्यकता थी तो उसके लिए कोई और रास्ता नहीं था। मसलन, शिक्षामंत्री के बंगले पर बैठक हो जाती। दूसरे, कुलपतियों को उनके बुलावे पर जाना भी क्यों चाहिए था। यह तो खुद होकर अपनी प्रतिष्ठा गिराना हुआ। लेकिन मैं एक बुनियादी बात समझना चाहता हूं। आजकल अधिकतर नेता पढ़े-लिखे ही होते हैं। उनके पास वि.वि. की उपाधि भी होती है। अनेक युवा नेता मौका मिलने से विधायक-मंत्री बन जाते हैं। जबकि उनके शिक्षक उसी महाविद्यालय या शाला में सेवा दे रहे होते हैं। आपका पद आपके पास, उनका पद उनके पास। क्या चुनाव जीतने मात्र से (भले ही वह छात्रसंघ का क्यों न हो) आपको इतनी बुद्धि प्राप्त हो जाती है कि आप अपने गुरुओं का अपमान या तिरस्कार करने लगें? क्या वाकई आप परिशोधित शक्कर की अवस्था को प्राप्त हो गए हैं और गुरु गुड़ से आगे नहीं बढ़ सके हैं। तब तो फिर सारे स्कूल, कॉलेज विश्वविद्यालय बंद कर सिर्फ चुनाव लडऩे के स्कूल खोल देना चाहिए।
 
देशबंधु में 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित