चौदह लाख करोड़। सुनने में भारी-भरकम, गिनने में लगभग असंभव। चौथी कक्षा में जो गणित पढ़ा था उसकी सहायता ली तो समझ आया कि भारतीय गणना में यह राशि एक सौ चालीस खरब होती है। एक खरब याने सौ अरब। पहले हमारे बजट इत्यादि में अरब-खरब का प्रयोग किया जाता था, लेकिन यह परिपाटी न जाने क्यों खत्म हो गई। वैसे इसमें कोई कठिनाई नहीं होना चाहिए थी क्योंकि जो हमारे यहां एक अरब है वही पश्चिमी गणना में एक बिलियन होता है। यह माथापच्ची तो मन बहलाने के लिए कर ली। असल बात यह है कि चौदह लाख करोड़ या एक सौ चालीस खरब उन बड़े नोटों की कुल संख्या है, जिनके विमुद्रीकरण का ऐलान प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर की रात को किया। अब तक के आंकड़े बता रहे हैं कि चौदह लाख करोड़ में से एक तिहाई से कुछ ज्यादा अर्थात लगभग पांच लाख करोड़ के नोट इधर-उधर से निकल कर बैंकों में जमा हो चुके हैं। आर्थिक मामलों की समझ रखने वालों का कहना है कि 30 दिसंबर तक और पांच लाख करोड़ के नोट बैंकों में आ जाएंगे। लगभग दो लाख करोड़ के नोट तो बैंकों के पास ही हमेशा रहते हैं सो इसके बाद बचेंगे तीन लाख करोड़।
जैसा कि आंकड़े बताते हैं 2014 में याने यूपीए के अंतिम दिनों में बैंकों के कालातीत ऋण की राशि लगभग दो लाख करोड़ थी। यूपीए के दस साल के शासन के दौरान भी न चुकाई गई ऋण राशि में लगातार बढ़ोतरी हुई थी। याने बड़े ऋण लेने वाले कर्जदारों के मजे तब भी थे, परंतु विगत दो वर्षों में कालातीत ऋण राशि कल्पनातीत रूप से बढ़ गई है। अब दो लाख करोड़ के बजाय लगभग चार लाख करोड़ का आंकड़ा सामने है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि यदि मोदी सरकार का वित्तीय प्रबंधन ठीक होता तो बैंक द्वारा दिए गए ऋणों पर लगाम होती, उनकी अपनी आर्थिक सेहत न बिगड़ती और न शायद तब मोदीजी को इतना दुस्साहसिक कदम उठाने की आवश्यकता पड़ती। बहरहाल जबकि निष्क्रिय पड़ी धनराशि प्रचलन में आ गई है तब क्या उसका उपयोग बैंकों को पूंजीगत अनुदान देकर उनकी माली हालत ठीक कर देने में होगा? ऐसी संभावना तो बनती है, किन्तु यह राशि भी कहीं फिर चहेते पूंजीपतियों को न दे दी जाए और आगे चलकर कालातीत न हो जाए इस पर कैसे रोक लगेगी यह सवाल मन में उभरता है।
यूं तो मोदी सरकार ने इस राशि को सार्वजनिक हित में निवेश करने का वायदा किया है लेकिन उसे परिभाषित करने का सबके अपने-अपने मानदंड हैं। मसलन मोदीजी मुंबई से अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन प्रारंभ करना चाहते हैं। उनके लिए यह सार्वजनिक हित का विषय है, जबकि दूसरा पक्ष भारतीय रेल्वे की वर्तमान स्थिति को सुधारने को प्राथमिकता देना चाहता है। एक दूसरा उदाहरण मनरेगा के रूप में सामने है। श्री मोदी ने इसकी कटु आलोचना और योजना को बंद करने तक की वकालत की थी। आज योजना चल तो रही है, परन्तु जगह-जगह से खबरें हैं कि मजदूरी का भुगतान कई-कई महीनों से लंबित है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखकर एक पक्ष यह मांग कर सकता है कि सरकार के पास जो अभी राशि उपलब्ध हो गई है उसका उपयोग मजदूरी चुकाने, धान पर बोनस देने और यहां तक कि जन- धन खातों में नकद राशि जमा करने जैसे कामों में किया जाए जिससे सर्वहारा की आर्थिक स्थिति सुधर सके। क्या यह दलील उन नवरूढि़वादी अर्थशास्त्रियों को पचेगी, जिनकी सेवाएं प्रधानमंत्री नीति आयोग इत्यादि में ले रहे हैं?
एक ओर विमुद्रीकरण से प्राप्त धन राशि के पुनर्नियोजन अथवा पुनर्निवेश से जुड़े प्रश्न हैं, तो दूसरी ओर कुछ अन्य सवाल भी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में बैंकों से मिलने वाले ऋण पर ब्याज दर कम हो जाएगी क्योंकि बैंकों के पास पर्याप्त मात्रा में तरल धन उपलब्ध होगा जिसे वे तिजोरी में रखेंगे तो नहीं। बैंक जब नए ऋण देंगे तो उससे उत्पादन क्षेत्र में नए सिरे से जान आएगी और कल-कारखाने चल पड़ेंगे। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आम जनता बैंकों में जो मियादी जमा याने फिक्स डिपाजिट रखती है उस पर भी ब्याज की दर कम हो जाएगी। एक समय पांच साल के सावधि जमा पर साढ़े तेरह प्रतिशत तक का ब्याज मिलता था, वह पहले ही काफी घट चुका है। अगर चार या साढ़े चार प्रतिशत ब्याज मिला तो पेंशनयाफ्ता और अन्य समूहों के घर कैसे चलेंगे? यह भी ध्यान में रखना होगा कि गृहणियों ने जो घरेलू बचत कर रखी थी वह भी अब बैंक में आ गई है। याने अब भारी बीमारी में, संकटकाल में या मासिक बजट में भी जनता को तकलीफें ही झेलना पड़ेगी।
इसी संदर्भ में दो और बातें नोट की जाना चाहिए। अगर घरेलू बचत पर्याप्त नहीं होगी तो कल-कारखानों में उत्पादन चाहे जितना हो जाए, उसकी बिक्री कैसे होगी और कौन खरीदेगा। यद्यपि सरकार लघु एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करती है, किन्तु सच्चाई यह है कि जिन कुटीर उद्योगों से लाखों लोगों को रोजगार मिलता था, वे लगभग समाप्त हो चुके हैं। जैसे हैण्डलूम के नाम पर अधिकतर पावरलूम ही चल रहे हैं। फिर यह टेक्नालॉजी का परिणाम है कि कारखानों में श्रमिकों की संख्या में लगातार कटौती हो रही है, भारत में युवाओं की संख्या और प्रतिशत दोनों ही विश्व में सर्वाधिक हैं किन्तु इनके लिए रोजगार के अवसर कैसे सृजित हों इस बारे में अभी तक गंभीरता से विचार नहीं किया गया है। आशय यह कि ईमानदार उद्यमी बैंकों से कर्ज तभी लेंगे जब उन्हें अपने उत्पाद की बिक्री का भरोसा होगा अन्यथा बैंकों की तरल पूंजी बैंक में ही रही आएगी या फिर बेईमान इजारेदारों के पास चली जाएगी। एक विजय माल्या भले ही देश छोड़ भाग गया हो, उसके दर्जनों भाई-बंद अभी यहीं हैं।
मैंने इस संभावना का उल्लेख पिछले सप्ताह भी किया था कि विमुद्रीकरण के माध्यम से नरेन्द्र मोदी भारत को एक मुद्राविहीन अर्थव्यवस्था में बदलना चाहते हैं। विगत एक सप्ताह में यह बात और स्पष्ट हुई है। सरकार की ओर से हर संभव उपाय किए जा रहे हैं कि नगदी में लेन-देन जितना कम हो सके उतना अच्छा। उत्तरप्रदेश की एक चुनावी सभा में श्री मोदी ने स्पष्ट कहा कि कैशलेस नहीं तो लेस कैश अर्थात मुद्राविहीन नहीं तो न्यूनतम मुद्रा प्रचलन की व्यवस्था लागू होना चाहिए। वे इस बारे में बहुत उत्साह में हैं तथा मजदूर, किसान, खेतिहर मजदूर, युवा सब को सलाह दे रहे हैं कि वे ई-बैंकिंग तथा मोबाइल बैंकिंग आदि का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करें। मैं नहीं जानता कि क्या उनके सामने आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल अतातुर्क का आदर्श था जिन्होंने देखते ही देखते तुर्की की शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर दिए थे! वही तुर्की अब कमाल पाशा के पहले के युग में लौटता दिख रहा है।
मेरा मानना है कि कोई भी समाज रातों-रात नहीं बदलता, क्रांति हो जाने के बाद भी नहीं। आम जनता को धीरे-धीरे करके ही बदलाव के लिए तैयार करना पड़ता है। भारत जैसे देश में जहां लोग घड़ी के हिसाब से नहीं चलते, जहां समय अनंत है, वहां तो और भी अधिक संयम की आवश्यकता है। कालेधन पर रोक लगाने के और भी तरीके थे, लेकिन इस स्वागत योग्य कदम के साथ मुद्राविहीन अर्थव्यवस्था को क्यों जोड़ा गया यह पल्ले नहीं पड़ा! पे टीएम, बिग बाजार, एयरटेल इत्यादि कारपोरेट की बाँछें जिस तरह खिली हैं, उसे देखकर तो शंका होती है कि 14 लाख करोड़ के गणित के पीछे कोई और गणित तो नहीं है?
देशबंधु में 01 दिसम्बर 2016 को प्रकाशित
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