Wednesday 23 November 2016

विश्वनेता का स्वप्न : मुद्राहीन भारत


 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसकी सलाह पर बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का फैसला लिया, इस सवाल का कोई पक्का जवाब अब तक नहीं मिल सका है। चर्चाएं तो यहां तक हैं कि वित्तमंत्री अरुण जेटली को भी विश्वास में नहीं लिया गया था। जबकि ऐसे तीन महानुभाव हैं, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर इस नीति का प्रणेता होने और प्रधानमंत्री को प्रभावित करने का दावा किया है। सबसे पहिले तो योग-व्यवसायी बाबा रामदेव हैं। वे दो हजार का नोट चलाने के विरोध में हैं, तथापि साथ-साथ विमुद्रीकरण का विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोही होने के विशेषण से भी अलंकृत कर चुके हैं। खैर, सरकारी साधु से यही अपेक्षा की जा सकती थी।  दूसरे हैं स्वनामधन्य सुब्रमण्यम स्वामी। उन्हें तकलीफ है कि नीति तो सही थी, किंतु उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया गया। यह सबको पता है कि उनकी निगाह अरुण जेटली की कुर्सी पर है। बहरहाल, इन दोनों ने श्रेय तो लिया पर उसका ज्यादा ढिंढोरा नहीं पिटा। पुणे की संस्था अर्थक्रांति के प्रमुख अनिल बोकील तीसरे व्यक्ति हैं जिनके बारे में जमकर प्रचार हुआ कि मोदीजी ने बड़े नोट बंद करने का फैसला उनकी सलाह से लिया। वे भी फिलहाल दु:खी हैं।

नोट बंद होने के तीन-चार दिन के भीतर ही ऐसे समाचार व लेख छपने लगे जिनमें बताया गया कि श्री बोकील ने राहुल गांधी से मिलने का समय मांगा था, लेकिन उन्होंने कुछ सेकंड में ही वार्तालाप समाप्त कर दिया, जबकि श्री मोदी ने नौ मिनट का समय देकर उनसे दो घंटे तक बात की। यहां तक तो मामला ठीक था परन्तु अब बोकील साहब कह रहे हैं कि उनकी सलाह पूरी तरह नहीं मानी गई, जिसके चलते बात बिगड़ गई। उन्होंने पांच सूत्रीय कार्यक्रम दिया था, जिसके एक या दो बिंदु ही लागू किए गए। तात्पर्य यह कि बड़े नोट एकाएक चलन से बाहर करने के बाद जो अफरातफरी मची है, जिसके अनेक विपरीत और अनपेक्षित परिणाम सामने आ चुके हैं, उन्हें देखते हुए शुरू में वाहवाही लूटने वाले अब उस निर्णय से स्वयं को दूर रखने की कोशिश में जुट गए हैं। याने अब अगर यह फैसला गलत साबित हो तो प्रधानमंत्री के नीचे उसका जिम्मेदार कोई नहीं। अभी चूंकि पचास दिन पूरे होने में छत्तीस दिन बाकी हैं, इसलिए कोई अंतिम निर्णय देना जल्दबाजी होगी। इतना अवश्य तय है कि सफलता मिली तो पतंग लूटने सब दुबारा आ जाएंगे।

बाबा रामदेव तथा सुब्रमण्यम स्वामी की राजनीति के बारे में आम जनता को कुछ नया बतलाने को नहीं है, लेकिन अनिल बोकील महोदय धूमकेतु की तरह प्रकट हुए हैं। अपनी अर्थक्रांति संस्था की तरफ से वे अर्थव्यवस्था और आर्थिक नीतियों पर समय-समय पर विचार प्रकट करते रहे हैं, किंतु उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। आम जनता के बीच उनका चेहरा परिचित नहीं है। श्री मोदी से उन्हें काफी उम्मीद थी, लेकिन वह भी निष्फल सिद्ध हुई। वे देश में मौजूदा लागू सारे टैक्सों को खत्म कर सिर्फ एक नया टैक्स लगाना चाहते हैं। पचास रुपए से ऊपर के सारे नोट खत्म करने का भी उनका सूत्र है और बैंक खाते से दो हजार रुपए से ऊपर राशि निकालने को वे प्रतिबंधित करना चाहते हैं। मेरे कुछ मित्र उनके मुरीद हैं, पर मुझे उनके तर्क समझ नहीं आते। दुनिया में कराधान की व्यवस्था तो कौटिल्य के पहले से चली आ रही है। हमारा हर वित्तमंत्री अपने बजट भाषण में कौटिल्य को उद्धृत करना नहीं चूकता। फिर आज की संघीय गणराज्य व्यवस्था में सारे टैक्स समाप्त कर सिर्फ केंद्र के हाथों सारी आर्थिक शक्तियां सौंप देने से क्या समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है।

बहरहाल, प्रधानमंत्री की घोषणा को दो सप्ताह पूरे हो चुके हैं। इस बीच आम जनता को अनथक तकलीफों का सामना करना पड़ा है। जिन बैंक कर्मियों पर नई व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी डाल दी गई है उनका असंतोष भी अब मुखर होने लगा है। दिक्कत यह है कि इतने बड़े फैसले को अमल में लाने के लिए जो तैयारियां की जाना चाहिए थीं वे नहीं की गईं और जब उस बारे में सवाल उठाए जाते हैं तो सरकार समर्थक बल्कि मोदी समर्थक उन पर तुरंत देशद्रोही होने का बिल्ला चस्पा कर देते हैं। एक महाशय ने तो यहां तक कह दिया कि इन पचास दिनों के लिए मीडिया प्रतिबंधित कर देना चाहिए।  ये वे लोग हैं जो इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के विरोधी थे; तब वे स्वतंत्र प्रेस की वकालत करते थे। आज इन्हें मीडिया में की जा  रही रिपोर्टें चुभने लगी हैं। लेकिन इसे क्या कहिए कि सरकार समर्थक पत्रकार रजत शर्मा के चैनल में ही प्रतिदिन आम जनता को हो रही दुश्वारियों की खबरें लगातार दिखाई जा रही हैं। तब क्या माना जाए कि मोदीजी ने एक राष्ट्रद्रोही को पद्मभूषण दे दिया?

प्रधानमंत्री ने कहा था कि काला धन निकालने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, जाली नोट बाहर करने और आतंकियों को मिल रही सहायता रोकने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर बड़े नोट बंद किए जा रहे हैं, लेकिन हकीकत में कुछ और ही कहानी सामने आती है।  सबसे पहले मध्यप्रदेश में कुछ अधिकारी दो हजार के नए नोटों में रिश्वत लेते पकड़े गए। दो दिन बाद गुजरात में पोर्ट ट्रस्ट के अधिकारियों को इसी तरह नए नोटों में चार लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया, उसके उपरांत महाराष्ट्र में एक मंत्रीजी की कार से ब्यानवे लाख के पुराने नोट बदली के लिए ले जाते हुए पकड़े गए। स्मरणीय है कि इन तीनों प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यह हुई भ्रष्टाचार रोकने की हकीकत। मुंबई में दो हजार रुपए के जाली नोट भी पकड़ में आ गए। आश्चर्य है कि इन अपराधियों को इतनी जल्दी फर्जी नोट कैसे मिल गए? आतंकियों को आर्थिक सहायता न मिलने की जहां तक बात है तो कश्मीर में ही किसी ठिकाने पर दो हजार के नए नोट बरामद किए गए। सारी घटनाएं सिद्ध करती हैं कि प्रधानमंत्री ने यह फैसला लेने में जल्दबाजी की।

एक बड़ा वर्ग यह मान रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव येन-केन-प्रकारेण जीत लेने की रणनीति के तहत बड़े नोट बंद करने का निर्णय लिया गया, कि इसका उद्देश्य सपा और बसपा के चुनावी खर्च पर रोक लगाने का था। इस तस्वीर का दूसरा पहलू इस चर्चा के रूप में सामने है कि भाजपा के विश्वस्त लोगों को पहले से खबर कर दी गई थी ताकि वे अपने बड़े नोटों को यहां-वहां खपा सकें या नए नोटों से बदली कर सकें। गरज़ यह कि उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा के पास चुनावी फंड की कमी नहीं होगी। इन सारी बातों में कितनी सच्चाई है कहना मुश्किल है, लेकिन सरकार को यह तो सोचना ही होगा कि ऐसी बातें क्यों हो रही हैं।  इसका दोष विरोधियों पर मढ़ देने से काम नहीं चलेगा क्योंकि कांग्रेस तथा अन्य दलों के पास अफवाहें फैलाने की क्षमता अगर है भी तो बहुत सीमित है।

मेरी अपनी राय इस मामले में कुछ अलग है। सर्वविदित है कि भारत को विगत कुछ वर्षों में विकासशील के बजाय उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में मान्यता मिली है। अब नरेन्द्र मोदी भारत को एक वैश्विक शक्ति और स्वयं को विश्वनेता स्थापित करने के लिए व्यग्र हंै। वे इस बात से परिचित हैं कि कालाधन और भ्रष्टाचार इस स्वप्न को पूरा करने में बड़ी हद तक बाधक है। इसलिए उन्होंने कुछ अत्यंत विश्वस्त सलाहकारों की राय पर विमुद्रीकरण का निर्णय लिया, किन्तु उससे जो आम जनता को दिक्कतें आएंगी इसका अनुमान उनकी टीम नहीं लगा सकी। श्री मोदी शायद यह भी चाहते हैं कि भारत की अर्थप्रणाली नकदी के बजाय बैंक और आधुनिक टेक्नालॉजी पर आश्रित हो जाए। यह एक उम्दा विचार हो सकता है, लेकिन भारत की विशिष्ट परिस्थितियों में क्रियान्वयन कैसे हो इस पर पर्याप्त विचार नहीं किया गया।

आज हमारे सामने नए-नए तथ्य आ रहे हैं। मसलन भारत में जितनी नकदी मुद्रा प्रचलन में है उसका प्रतिशत चीन के मुकाबले बहुत अधिक नहीं है; दूसरे जिन भी देशों ने विमुद्रीकरण किया उसके नतीजे सही नहीं निकले; तीसरे जाली नोट सिर्फ रुपए के ही नहीं डालर जैसी मुद्रा के भी निकलते हैं; चौथे भारत में कालेधन का मात्र चार से छह प्रतिशत तक नकदी में है, बाकी जमीन, जायदाद और सोने में निवेश किया हुआ है। इन सब बातों के अलावा देश के बड़े शहरों को छोड़ दें तो क्रेडिट कार्ड आदि का प्रचलन बहुत कम है। लगभग सैंतालीस प्रतिशत जनता के बैंक खाते नहीं हैं। इस लोक व्यवहार को बदलने में समय लगेगा। सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाच्योव ने जो प्रयोग किए थे उसकी परिणति एक महान देश के विघटन के रूप में हुई।  ऐसे और भी उदाहरण इतिहास में हैं जिनसे सबक लेने की आवश्यकता हमें समझ आती है। अगर प्रधानमंत्री संसद में आकर बयान देते तो स्थितियों का खुलासा हो पाता।

देशबंधु में 24 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

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