मैंने जब मोदीजी द्वारा की गई घोषणा सुनी तो मुझे दो बातें खटकीं। मैं नहीं समझ पाया कि देश के प्रधानमंत्री को इस घोषणा के लिए स्वयं क्यों आना चाहिए था। यह घोषणा रिजर्व बैंक के गवर्नर भी कर सकते थे। जब प्रधानमंत्री जनता से मुखातिब हो तो उसमें नाटकीयता का पुट जुड़ जाता है क्योंकि मोदीजी की अपनी शैली कुछ ऐसी ही है। इससे जनता की आशाएं भी अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। अगर घोषणा के अनुकूल परिणाम न निकले तो उसका प्रतिकूल असर प्रधानमंत्री की छवि पर पडऩे की आशंका बनी रहती है। मुझे खटकने वाली दूसरी बात यह लगी कि मोदीजी ने देश की विधिमान्य मुद्रा को चार घंटे बाद ही कागज का टुकड़ा रह जाने की बात कही। इससे अनावश्यक रूप से दहशत फैली। प्रधानमंत्री ने इसके बाद जिन उपायों की चर्चा की उन पर दहशत के मारे लोगों का ध्यान ही नहीं गया।
मैंने शुरूआत में इस कदम का स्वागत किया था। एक सामान्य नागरिक के रूप में मेरी तात्कालिक सोच यही थी कि अनेकानेक प्रभुत्तासम्पन्न लोगों ने इन बड़े नोटों के माध्यम से भारी मात्रा में धन एकत्र कर रखा है और वह अगर बाहर आता है तो इससे देश की अर्थव्यवस्था में गति आएगी। अगली सुबह एक अलग बात समझ आई कि सरकार को बड़े नोटों को प्रचलन से बाहर करने के लिए कम से कम एक सप्ताह का समय देना चाहिए था ताकि बिना किसी अफरा-तफरी और हड़बड़ी के लोग पुराने नोट जमाकर नई मुद्रा हासिल कर सकें। ऐसा करने से देश की जनता के बहुत बड़े हिस्से को भागमभाग और आशंका-कुशंका से मुक्ति मिल जाती। नौ तारीख को चारों तरफ बदहवासी का माहौल था और दस तारीख को जब बैंक खुले तो बैंकों के दरवाजे पर लोग टूटे पड़ रहे थे। आम आदमी को इस बात की चिंता थी कि उसके हाथ में छोटे-मोटे सौदा-सुलुफ के लिए पैसे ही नहीं थे।
हमें तस्वीर का दूसरा पहलू देखने भी मिला। आठ तारीख की रात रायपुर व इंदौर सहित देश के तमाम सराफा बाजारों में दो बजे रात तक दुकानें खुली रहीं और लोग पुराने नोट जमा कर सोना और जेवरात खरीद कर ले गए। भले ही सोना पांच हजार रुपया ब्लैक में क्यों न खरीदना पड़ा हो। यह एक अजीब विडंबना थी कि कालेधन को खत्म करने लिए एक बड़ा निर्णय लिया गया और उस निर्णय की धज्जियां सराफा बाजार में ही नहीं, रेल्वे स्टेशनों और हवाई अड्डों में भी उड़ रही थीं। सम्पन्न लोगों ने सरकारी छूट का लाभ उठाते हुए उन यात्राओं की महंगी टिकटें खरीद लीं जो उन्हें करना ही नहीं है। टिकट कैंसिल हो जाएगी, कुछ जुर्माना कटकर बाकी रकम वापिस आ जाएगी। यह कालाधन खत्म करना हुआ या कालेधन को सफेद में बदलना हुआ, यह सोच कर देखिए। उससे अच्छा तो यह होता कि सरकार पांच-दस लाख रुपया सीधे-सीधे बैंक में जमा करने के लिए कुछ दिनों का समय दे देती।
डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने समय में इस बारे में विचार किया था। 2013 में निर्णय लिया गया था कि 2005 से पहले के पांच सौ के नोट चलन से बाहर कर दिए जाएंगे। इन्हें बैंक में जमा करने की एक समय सीमा भी निश्चित कर दी गई थी, फिर न जाने किस दबाव में इस अच्छे निर्णय को टाल दिया गया। क्या अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को यह याद आ गया था कि बड़े नोटों का चलन रोकने से कालाधन समाप्त नहीं होता? विभिन्न देशों द्वारा किए गए असफल प्रयोगों के परिणाम इनके सामने थे। हो सकता है कि सहयोगी राजनीतिक दलों के अलावा अपनी पार्टी और विरोधी दलों का भी दबाव उनके ऊपर रहा हो। आखिर सबको चुनाव लडऩा था और बड़ा चंदा तो बड़े नोटों से ही मिलना था।
हम सब जानते हैं कि देश में एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। आज से चालीस-पैंतालीस साल पहले भी पत्र-पत्रिकाओं में इस विषय पर खूब लेख छपा करते थे। तथापि कालेधन पर रोक लगाने के सारे प्रयत्न अब तक नाकाफी सिद्ध हुए हैं। बड़े नोटों का चलन पहले भी बंद किया गया है, आय की स्वैच्छिक घोषणा की योजनाएं भी लागू करके देख चुके हैं। आयकर की दरें भी लगातार कम की गई हैं। इन सारे प्रयत्नों का हश्र क्या हुआ? इसकी सबसे बड़ी वजह है कि हमारे देश में उद्यमशीलता और जोखिम उठाने की प्रवृत्ति अंग्रेजों के दौर से क्षीण होते गई है। कोई भी काम करवाना है तो रिश्वत देकर करवा लो। उसके लिए प्रतीक्षा करना, कानूनी रास्ते से चलना, तकलीफ उठाना हम भूल चुके हैं। आज स्वीडन, नार्वे आदि देशों में आयकर साठ प्रतिशत के आस-पास है और अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में पचास प्रतिशत, किन्तु हमारे धनी लोगों को तीस प्रतिशत कर चुकाना भी भारी लगता है।
मोदी सरकार के इस निर्णय से एकबारगी काफी बड़ी रकम छुपे ठिकानों से निकलकर सरकारी खजाने में आ जाएगी लेकिन यक्ष प्रश्न अपनी जगह पर है कि क्या इसके बाद भारत को कालेधन से मुक्ति मिल जाएगी? मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पाएगा। हर भारतीय को वह आम हो या खास, कदम-कदम पर अपने काम करवाने के लिए सरकारी अमले की सेवा करना ही होती है। राशनकार्ड या बीपीएल कार्ड बनवाना हो, ड्राइविंग लाइसेंस लेना हो, ट्रैफिक के नियम तोडऩा हो, जमीन-जायदाद के काम हो, परीक्षा में प्रथम श्रेणी में आना हो, पीएचडी करना हो, स्मार्ट कार्ड से इलाज करवाना हो, बीमे की राशि हासिल करना हो, बताइए ऐसा कौन सा काम है जिसमें पैसा नहीं लगता हो! जिन देशों में रोजमर्रा के कामों के लिए रिश्वत नहीं देना पड़ती वहां भी सम्पन्न नागरिकों के लिए भी दूरदराज के द्वीपों में टैक्स हैवन बन गए हैं। नामी-गिरामी लोग, बराएनाम नागरिक उस द्वीप के होते हैं जहां टैक्स नहीं लगता, लेकिन रहते और काम करते हैं इंग्लैण्ड या अमेरिका या जर्मनी में। इनकी सारी कमाई यहीं होती है, लेकिन दूसरे देश के कथित तौर पर नागरिक हैं इसलिए इस आय पर कोई कर देय नहीं होता।
हमारे देश में भी तो कितने सारे सम्पन्न लोग हैं जो भारतीय होकर भी भारत के नागरिक नहीं हैं। वे अपनी कमाई पर यहां पूरा टैक्स नहीं देते। फिर वे उद्योगपति और व्यापारी हैं जिनके व्यापार में मॉरिशस, सिंगापुर या साइप्रस के रास्ते आया पैसा लगा हुआ है। कल की सरकार हो या आज की सरकार, मॉरिशस के साथ दोहरा कराधान निषेध संधि को तोड़ कालेधन को सफेद बनाने का साहस न वे कर पाए और न ये कर पा रहे हैं। अभी सरकारी खजाने में जो पैसा आएगा वह उत्पादक कामों में खर्च होगा या गैरउत्पादक कामों में, इसका अनुमान लगाने से ही निराशा होती है। उससेबढक़र चिंता की बात यह है कि भारत की गृहणियों ने जो घरेलू बचत कर रखी थी उसका बहुत बड़ा हिस्सा अब बैंकिग व्यवस्था में आ गया है, लेकिन इससे घरेलू बजट के बिगडऩे की आशंका बलवती हो गई है। अधिकतर महिलाएं अनेक कारणों से अपने पति से भी पैसा छुपाकर रखती आई हैं। उन्हें घर की आपातकालीन आवश्यकताओं के अलावा लोक व्यवहार का भी ख्याल रखना होता है। यह बचत कालाधन नहीं है। यही नहीं, अनेक व्यक्ति आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए थोड़ा-बहुत पैसा बचाकर रखना पसंद करते हैं वह भी कालाधन नहीं है। दूसरे शब्दों में सरकार के इस निर्णय ने आर्थिक सुरक्षा की एक पंक्ति को तोड़ दिया है।
निष्कर्ष रूप में जब मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक, संघ के विचारक गोविंदाचार्य और पूंजीवादी अर्थ विशेषज्ञ स्वामीनाथन अय्यर एक ही स्वर में इस निर्णय की आलोचना करें तो लगता है कि कहीं कुछ चूक तो रह गई है।
देशबंधु में 17 नवम्बर 2016 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment