Sunday 27 November 2016

लपटों से घिरा नगर : हिरोशिमा या नागासाकी?





संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी सामरिक श्रेष्ठता का परिचय देने के लिए 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर और तीन दिन बाद 9 अगस्त को नागासाकी पर अणुबम बरसाए थे। इन दोनों आक्रमणों में दो लाख लोग मारे गए थे और जो बच गए उन्हें ताउम्र कैंसर और अनेक लाइलाज व्याधियों  से जूझना पड़ा। यही नहीं, आने वाली कई पीढिय़ों पर भी विकिरण का घातक प्रभाव देखने को मिला। यह रेखांकित करना होगा कि द्वितीय विश्वयुद्ध लगभग समाप्त हो चुका था तथा जापान की सैन्य शक्ति भी लगभग टूट चुकी थी। लेकिन अमेरिका को तो न सिर्फ अपनी दादागीरी स्थापित करना थी, बल्कि अणुबम की संहारक क्षमता का भी परीक्षण करना था। आज हमें इतिहास के इस काले अध्याय को याद रखने की बहुत आवश्यकता है। 
भारत और पाकिस्तान दोनों ने अब शांति की बातें करना बंद कर दिया है, युद्ध का उन्माद दोनों देशों में फैलाया जा रहा है, दोनों देशों के हुक्मरान अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए उत्तेजना को बढ़ावा दे रहे हैं और एक-दूसरे पर एटम बम से हमला करने की धमकियां भी सुनने मिल रही हैं। जापान की यह कविता हिरोशिमा और नागासाकी के नरसंहार के खिलाफ एक चेतावनी की तरह है जिसे पढऩे से उन्माद की बजाय संयम बरतने का माहौल बन सकता है।मार्क और क्योको सेलडन दोनों विश्व शांति के कार्यकर्ता हैं। वे 'जापान फोकस' नाम की पत्रिका प्रकाशित करते हैं। यह कविता मैंने वहीं से ली है।

लपटों से घिरा नगर :
हिरोशिमा या नागासाकी?

लोगों ने धीरे से
अपने चेहरे उठाए, नि:शब्द
फीकी नीली चमक, काले सूरज,
मुर्दा सूरजमुखी और
ढह गई छत के नीचे
धीरे से, नि:शब्द।

रक्तिम आँखों से तब उन्होंने
देखा एक दूजे को -
झुरझुरा कर अलग होती त्वचा,
सूज कर बैंगन हुए होंठ,
चेहरों पर धंसीं काँच की किरचें,

''क्या किसी मनुष्य का चेहरा
ऐसा हो सकता है"
यही सोचा एक ने
दूसरे को देखकर,
लेकिन जिसने देखा
उसका अपना चेहरा भी
बिलकुल वैसा ही,
बिलकुल नहीं अलग
एक से, दूसरे से, तीसरे से

टूट कर गिरती छतों को लिए
देखते न देखते
लपटों से घिर गया नगर

किसी एक घर में
बची एक माँ
साथ उसके
सात बरस की बेटी,
टूटी छत के
खंभों-शहतीरों के नीचे दबी
हिलने-डुलने में असमर्थ माँ,
लेकिन किसी तरह बची सलामत
लड़की सात बरस की,

फिक्र में डूबी
माँ को कैसे बचाऊं,
इस खंभे को हटाऊं कि
उस शहतीर को,

अपने नन्हें हाथों की
ताकत तौल रही थी वह
और तभी
लपटें उसके करीब
आती हुए दिखीं माँ को
जाओ, तुम जाओ,
तुरंत निकल जाओ यहां से,
सदमे से खामोश
वह चीख भी नहीं पाई,
बेटी को उसने
बाहर निकली अपनी बाँह से
धकेल कर किया परे
लपटों से दूर,
जो दौड़ी चली आ रही थीं
पश्चिम से और पूर्व से,

सड़कों पर नग्न आकारों का हुजूम
त्वचाएं झुलसी और लटकती हुई,
कौन आदमी कौन औरत
किसी को समझ नहीं,
बस, प्रेतों का जुलूस था मानों

अचानक
जुलूस के बीच में
रुकी एक उम्रदराज औरत,
कुछ तो था जो ढीले-ढाले
झोले की मानिंद
बाहर निकल रहा था,
जबकि लपटें इतनी करीब थीं

किसी ने कहा -
रुको मत, चलो,
क्या है हाथ में, फेंक दो
और तब उसने
जवाब में कहा -
ये मेरी अंतडिय़ाँ हैं।

                जापानी मूल - नाकामुरा ओन,
                अंग्रेजी अनुवाद- क्योको सेलडन

                हिंदी रूपांतर - ललित सुरजन

देशबंधु में 27 नवम्बर 2016 को प्रकाशित 

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