आगामी 19 नवम्बर को मलय 90 बरस की दहलीज पर कदम रखेंगे। जबलपुर के लेखकों व सुधी नागरिकों को यह तिथि याद रखकर उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाने की तैयारी अभी से शुरू कर देना चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो जबलपुर को 'संस्कारधानी’ की जो उपाधि मिली है, उसकी सार्थकता उभरकर सामने आएगी। मलयजी का जन्म जबलपुर के ही पास एक छोटे से गांव में हुआ, और उनका अधिकतर जीवन जबलपुर में ही बीता। इसी शहर में आकर उनकी रचनात्मक प्रतिभा खिली। देश के साहित्यिक नक्शे पर जबलपुर की पहिचान जिन सरस्वतीपुत्रों ने कायम की, उनमें आज मलय का नाम प्रमुख है। इसलिए भी है कि वे निरन्तर अपनी साधना में जुटे हैं। थकने का नामोनिशान नहीं। आयु के कारण शरीर कभी-कभार शिथिल भले ही पड़े, मानसिक रूप से तो वे सदा की भांति चैतन्य और सक्रिय हैं। वहां कसावट में कोई कमी नहीं है। आवाज़ भी वैसी ही खनकदार है जैसी कोई साठ साल पहले सुनी थी। यह सचमुच सौभाग्य की बात है कि मलय और कुछ अन्य वयप्राप्त लेखक विद्यमान हैं जो अपनी अनथक रचनाशीलता में हम लोगों को चमत्कृत करने के साथ अनुप्राणित करते हैं।
हिन्दी जगत मलयजी को मुख्यत: एक कवि के रूप में जानता है। वे कहानी विधा में हाथ आजमा चुके हैं और एक गंभीर समीक्षक के नाते भी उन्होंने पहचान बनाई है। लेकिन अभी-अभी उनके संस्मरणों की जो पुस्तक आई है, वह कुछ मायनों में अद्वितीय है। ''यादों की अनन्यता’’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने अपने गृह नगर याने जबलपुर की धरती का कर्ज चुकाया है। मात्र एक सौ बत्तीस पृष्ठ की पुस्तक इसलिए ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है कि जबलपुर के 'संस्कारधानी’ होने के पुख्ता साक्ष्य इसमें मिलते हैं। मलय जी के कुल जमा सोलह संस्मरण इसमें संकलित हैं जिनमें प्रमुख रूप से चौदह साहित्यकार केन्द्र में हैं, और प्रसंगवश ऐसे अनेक लेखकों के संक्षिप्त विवरण हैं जिन्होंने मोटे तौर पर 1940 के दशक से लेकर 1980-90 तक याने लगभग पचास वर्षों की अवधि में जबलपुर को समाजोन्मुखी, लोकहितकारी साहित्य सृजन की दिशा प्रदान की।
मलयजी का क्रमश: पहला और दूसरा संस्मरण गजानन माधव मुक्तिबोध पर है। यूं तो मुक्तिबोधजी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, उनकी छह भागों में प्रकाशित रचनावली भी उपलब्ध है, फिर भी महाकवि के जबलपुर में बीते दिनों की चर्चा सामान्य तौर पर नहीं की जाती। पहला लेख ''मुक्तिबोध और जबलपुर’’ इस कमी को दूर करता है। नवंबर 1946 से 1948 के बीच जब मुक्तिबोध जबलपुर में थे, तब तक वहां उनके अनन्य मित्र हरिशंकर परसाई भी नहीं आए थे। उन दो वर्षों में मुक्तिबोध जी कहां-कैसे रहे, उनके मित्र-साथी कौन थे, उनकी साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियां क्या थीं, यह सब इस लेख से मालूम पड़ता है। सेठ गोविंद दास के अखबार 'जयहिंद’ में उन्होंने काम किया, 'प्रगतिशील साहित्य गोष्ठी’ नामक संस्था स्थापित की, 'समता’ नाम से पत्रिका प्रारंभ की, जिसके संपादक मंडल में नंददुलारे वाजपेयी व रामेश्वर शुक्ल 'अंचल’ भी थे, जबकि कम्युनिस्ट कार्यकर्ता वसंत पुराणिक पत्रिका के प्रबंध संपादक थे। इस पत्रिका के दो ही अंक निकल सके। तेलंगाना विद्रोह के कारण उन दिनों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर कांग्रेस सरकार की कड़ी नज़र थी। कितने ही गिरफ्तार कर लिये गए थे। ऐसे समय में मुक्तिबोध अपने भूमिगत मित्रों दादा सृष्टिधर मुखर्जी और पी.के. ठाकुर आदि को चुपचाप टिफिन पहुंचाया करते थे,यह मलय जी बतलाते हैं।
यह निर्विवाद है कि मुक्तिबोध जी का जबलपुर से मोह था। वे वहां भले ही कम समय रहे हों, लेकिन हरिशंकर परसाई, प्रमोद वर्मा, रामकृष्ण श्रीवास्तव, जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही’जैसे मित्र उन्हें यहीं मिले। 'वसुधा’ में ही 'एक साहित्यिक की डायरी’ के नाम से सौंदर्यशास्त्र पर उनके लेख धारावाहिक प्रकाशित हुए। इसलिए एक तरफ जहां जबलपुर के मित्र उन्हें बार-बार निमंत्रित करते थे, वहीं मुक्तिबोध जी भी यथासंभव निमंत्रण स्वीकार कर जबलपुर आ जाते थे। मलय जी ने ऐसे हर अवसर का लाभ उठाया और मुक्तिबोध जी से सीखने की कोशिश की। संस्मरण में 16 से 19 दिसंबर 1963 की उनकी अंतिम जबलपुर यात्रा का विवरण भी मलयजी ने दिया है। लेकिन इसमें उन्होंने कुछ तथ्य गड़बड़ कर दिए हैं। हमने 'संगम’ नामक संस्था बनाई थी। मलयजी उसके अध्यक्ष थे और मैं सचिव। हमारे पहले वार्षिक उत्सव में मुक्तिबोधजी मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। चार दिन रहे थे और हम सबने उनकी उपस्थिति का भरपूर लाभ उठाया था। इसी अवसर पर फुहारे के निकट दिगंबर जैन पुस्तकालय में कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मुक्तिबोधजी ने एक अधूरी कविता भी सुनाई थी-
''जल रही थी
लाइब्रेरी पर्सिपोलिस की
मैंने सिर्फ नालिश की
मैंने सिर्फ नालिश की।‘’
मुक्तिबोध जी पर लिखते हुए मलय जी बार-बार उनकी अदम्य इच्छाशक्ति, संकल्पबद्धता, अटूट साहस और आत्मविश्वास का उल्लेख करते हैं। वे एक ओर कहते हैं कि मुक्तिबोध का स्मरण एक आग के करीब आ पहुंचने जैसा है। वहीं दूसरी ओर वे मुक्तिबोध को आदिम चरवाहा निरुपित करते हैं जो विकराल खंदक खाईयों को पार करते हुए जिंदगी के हरेपन की तलाश में भटक रहा है। कहना न होगा कि मलयजी के इस लेख में उनका कवि उनके साथ बराबर चलते रहता है। पुस्तक के अगले दो लेख हरिशंकर परसाई पर हैं। इन दोनों संस्मरणों के शीर्षक उन्होंने सटीक दिए हैं। पहला- रचनाखोजी परसाई के साथ और दूसरा जन-मन के पैरोकार परसाई। मलय परसाई जी से काफी निकट रहे हैं। वे युवावस्था में ही अपने से पांच साल बड़े परसाई की संगत में आ गए थे और शायद तभी से उन्हें भैया का संबोधन देने लगे थे।
मलय जब राजनांदगांव से तबादला होकर जबलपुर गए तब तक परसाई जी का घर से निकलना बंद हो चुका था। पैर के गलत ऑपरेशन के कारण उन्हें चलने में तकलीफ होती थी। उनके स्वाभिमानी मन को शायद यह गंवारा नहीं था कि वे छड़ी लेकर लंगड़ाते हुए सड़क पर चलें। इस तरह उन्होंने स्वयं को घर तक सीमित कर लिया था। जिन्हें परसाई से मिलना हो वे उनके घर जाएं। ऐसे समय मलय उन कुछ लोगों में से थे जो लगभग नियमपूर्वक प्रतिदिन परसाई जी के पास जाकर बैठते थे। इस तरह उन्हें परसाई जी के व्यक्तित्व को निकट से जानने का नायाब अवसर प्राप्त हुआ। परसाई के बारे में बात करते हुए भी मलय कवितासुलभ बिंबों का प्रयोग करते हैं। वे परसाई से मिलने को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं- ''इस धूप का रंग और हवा का रंग हमारे मन के अंधेरे कोनों में प्रकाश भरता हुआ इसमें हिलोर पैदा करता है और हमसे संवाद करता हुआ कतारों में आजू-बाजू जोड़ता जाता है।‘’
परसाई जी की दिनचर्या का आत्मीय और अंतरंग विवरण इन संस्मरणों से मिलता है। किसी लेखक को जानने के लिए उसकी दिनचर्या को जानना एक महत्वपूर्ण उपादान हो सकता है। परसाई कब चाय-नाश्ता करते हैं, अखबार पढ़ते हैं, अखबारों से नोट्स लेते हैं, चिट्ठियों का जवाब देते हैं, भांजे के बेटे के साथ खिलवाड़ भी करते हैं और दिन में अलग-अलग तरह के लोगों से मिलते हैं तो वे कैसे उनका मनोवैज्ञानिक चरित्र चित्रण करते हैं, यह भी मलय बताते हैं। मेरा भी अनुभव है कि परसाईजी अपने से मिलने वालों को कुछ ही पल में पूरी तरह समझ लेते थे मानो उसके दिल का एक्स-रे उन्होंने निकाल लिया हो। मलय एक जगह परसाई की वाणी की तुलना सचेत और निर्द्वंद्व गजराज से करते हैं। एक दूसरी जगह पर वे कहते हैं कि परसाई मेंढकों को तराजू पर तौलना जानते थे और उनका डिसेक्शन भी कर देते थे। अपने कुछ निजी प्रसंगों का जिक्र करते हुए मलय परसाई जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी करते हैं।
जबलपुर के जिन वरेण्य लेखकों पर मलय ने लिखा है उनमें भवानीप्रसाद मिश्र हैं, भवानी प्रसाद तिवारी हैं, नर्मदा प्रसाद खरे हैं, श्रीबाल पांडे हैं, मायाराम सुरजन हैं, महेन्द्र वाजपेयी हैं और हैं ज्ञानरंजन, सोमदत्त तथा विनोद कुमार शुक्ल। विनोद जी तब जबलपुर कृषि महाविद्यालय के छात्र थे। इन संस्मरणों में प्रसंगवश जबलपुर के और भी अनेक रचनाकारों और बुद्धिजीवियों का जिक्र हुआ है। इनमें महेशदत्त मिश्र, गोविंद प्रसाद तिवारी, रामेश्वर गुरु, श्यामसुंदर मिश्र, नरेश सक्सेना, पुरषोत्तम खरे इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। भवानीप्रसाद मिश्र पर लिखा संस्मरण अपेक्षाकृत छोटा है। उसमें मिश्र जी का व्यक्तित्व खुलकर सामने नहीं आता। मेरा अनुमान है कि यह लेख मलय ने मिश्र जी के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए लिखा है। मलय बतलाते हैं कि उनका दूसरा कविता संकलन भवानीप्रसाद मिश्र ने अपनी संस्था सरला प्रकाशन से किया था। वे मिश्र जी के परवर्ती जीवन में आए राजनैतिक विचलन पर आश्चर्य और दुख व्यक्त करते हैं, लेकिन यह मानते हैं कि कविता में श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय और धूमिल ने उनका ही अनुकरण किया है।
भवानीप्रसाद तिवारी पर लिखे संस्मरण में लेखक ने उन्हें एक अनोखा व्यक्ति निरुपित किया है। यह सच भी है। तिवारी जी अपनी तरह के अनोखे व्यक्ति थे। वे जेल में थे जब उन्होंने कविगुरु की गीतांजलि का हिन्दी अनुवाद नहीं बल्कि अनुगायन किया था। मूल बंगला की अर्थवत्ता और सांगीतिक लय को तिवारी जी ने अपने अनुगायन में बहुत सहजता से उतारा है। उन्होंने प्रहरी नाम से साप्ताहिक अखबार प्रारंभ किया था। परसाई जी के लेखन की शुरूआत वहीं से हुई थी। तिवारी जी औघड़दानी थे। वे आठ बार जबलपुर से मेयर निर्वाचित हुए। सात बार लगातार और एक बार फिर। लेकिन वे जीवनभर निस्पृह रहे। एक समय ऐसा आया जब घर चलाना मुश्किल हो गया। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पुरानी मित्रता को निभाते हुए उन्हें राज्यसभा भेजा।
भवानीप्रसाद तिवारी, रामेश्वर गुरु, नर्मदाप्रसाद खरे- ये जब जबलपुर की ऐसी विभूतियां हैं जिनके योगदान को ठीक से रेखांकित नहीं किया गया है। मलय का गुरुजी से शायद उतना संपर्क न रहा हो, लेकिन तिवारी जी के साथ उन्होंने नर्मदा प्रसाद खरे को अवश्य याद किया है। खरे जी भी विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे परसाई जी की किताबों के प्रथम प्रकाशक थे। वे एक क्षमतावान कहानीकार, कवि और सहृदय व्यक्ति होने के साथ कुशल व्यापारी भी थे। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री रहे। अतिथि लेखकों के लिए शकुंतला सदन नामक एक विश्रामगृह अवश्य अलग से बनाया। उनके बारे में परसाई जी ने काफी कुछ जिक्र किया है। मलय को अफसोस है कि उनकी बात उनके साथ चली गई। मुझे यहां एक नाम और ध्यान में आ रहा है जिन पर मलय शायद लिख सकते थे- रामानुज लाल श्रीवास्तव। ऊंट उपनाम से व्यंग्य कविताएं लिखते थे। महाकवि गालिब का जो भाष्य उन्होंने रचा वह अब शायद उपलब्ध नहीं है। वे जबलपुर की इस मंडली के ज्येष्ठतम सदस्य थे। हनुमान वर्मा का जिक्र तो हुआ है लेकिन मलय उन पर भी स्वतंत्र लेख लिख सकते थे।
एक भावभीना संस्मरण मायाराम सुरजन पर है। इसकी पहली पंक्ति है- हम सब लोग मायाराम जी को बाबूजी कहा कहते थे। दरअसल, जबलपुर में उन्हें अधिकतर लोग भैया कहकर संबोधित करते थे, लेकिन जिनसे मेरी मित्रता हो गई उनके लिए मायाराम सुरजन बाबूजी बन गए। इस संस्मरण में मलय जी से भ्रमवश कुछ त्रुटियां हुई हैं। मुक्तिबोध जी वाले संस्मरण में भी हुई गलतियों को मैंने नोटिस किया है। इस संस्मरण में छत्तीसगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ के शिविरों का जिक्र है। ये शिविर ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे, हरिशंकर शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल के संयुक्त प्रयत्नों से हुए थे। इनमें जल्दी ही मलय, रमाकांत श्रीवास्तव व राजेश्वर सक्सेना जुड़ गए थे। ऐसे तीन दिनी शिविर हमने बहुत से किए लेकिन बाबूजी उनमें से किसी में शामिल नहीं हुए थे। आगे चलकर उनके अध्यक्ष काल में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने जो एक-एक सप्ताह के रचना शिविर आयोजित किए, वे नि:संदेह बाबूजी की प्रेरणा व मार्गदर्शन तथा कमलाप्रसाद की सक्रिय भूमिका के कारण हुए। मेरा मत है कि कमलाप्रसाद को सम्मेलन के शिविरों की प्रेरणा छत्तीसगढ़ प्रलेस के शिविरों से मिली थी।
महेन्द्र वाजपेयी जबलपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव थे। जबकि सोमदत्त, नरेश सक्सेना और विनोदकुमार शुक्ल के समकालीन छात्र थे। श्रीबाल पांडे व सोमदत्त पर संस्मरण लिख मलयजी ने जबलपुर के साहित्यिक इतिहास के अधूरे चित्र में रंग भरे हैं। मुझे लगता है कि उषादेवी मित्रा का भी नाम आ पाता, तो और अच्छा होता। श्यामसुंदर मिश्र और पुरुषोत्तम खरे उनके निकट मित्र थे। उन पर मलय शायद अभी भी लिख सकते हैं। मैं मलय जी को इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूं। लेकिन उचित हो कि वे पुस्तक में आई त्रुटियों को संशोधित कर लें।
अक्षर पर्व जुलाई 2018 अंक की प्रस्तावना
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