Wednesday, 30 January 2019

प्रियंका गांधी : उदात्त राजनीति की संभावना

प्रियंका गांधी 19 मार्च 2008 को वैल्लोर, तमिलनाडु के केंद्रीय कारागार पहुंचीं थीं। मकसद था बंदिनी नलिनी से भेंट करना। हत्यारों के जिस गिरोह ने लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरन के आदेश पर राजीव गांधी की हत्या की थी, नलिनी उसकी एक सदस्य थी। प्रियंका ने उससे मुलाकात की और अपने व अपने परिवार की ओर से उसे क्षमा कर देनेेे का संदेश दिया। भारत के राजनैतिक इतिहास में यह एक अनूठी घटना थी। आज जब प्रियंका गांधी औपचारिक तौर पर राजनीति के मंच पर आ गई हैं और कांग्रेस पार्टी के एक महासचिव का पद संभाल लिया है, तब ग्यारह साल पुराने इस प्रसंग को याद रख लेना चाहिए। क्योंकि इसके निहितार्थ गहरे व दूरगामी हैं। आज भले ही प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने को आसन्न लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा हो; मुझे लगता है कि इसमें कहीं राजनीति की क्षुद्रता से उठकर उसे उदारवादी स्वरूप देने की चाहत छुपी हुई है। पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक की राजनीतिक यात्रा का अध्ययन करने से बात कुछ साफ हो सकेगी।
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जवाहरलाल नेहरू को ऋतुराज की उपाधि दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में ही वे विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बन चुके थे। वे प्रधानमंत्री बने तब उन्हें अजातशत्रु कहा गया। महान इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने कहा कि जब राजनीति के परिष्कार की आवश्यकता होती है तब नेहरू जैसे राजनेता का उदय होता है। पं. नेहरू के निधन के बाद इंदिरा गांधी की राजनीति में आने की कोई इच्छा नहीं थी। वे तब अपनी इंग्लैंडवासी सहेली को पत्र लिखकर कहीं ठीक-ठाक रोजगार की तलाश कर रहीं थीं। यह एक विडम्बना भरा संयोग था कि शास्त्रीजी के आकस्मिक निधन के बाद उन्हें एक कमजोर राजनेता मानकर प्रधानमंत्री पद की पेशकश की गई, ताकि कांग्रेस के घुटे हुए नेताओं का सिंडीकैट अपनी मनमर्जी शासन कर सके। बेशक आगे चलकर इंदिराजी का एक कठोर स्वरूप सामने आया। उन्होंने पार्टी के भीतर व बाहर अपने विरोधियों को पस्त करने के लिए हर तरह के उपाय किए, फिर भी मैं कहूंगा कि अपने जटिल व्यक्तित्व के बावजूद देशहित उनके लिए सर्वोपरि था और देश की जनता से उन्हें सच्चा प्रेम था।
जैसा कि हम जानते हैं राजीव गांधी भी अनिच्छा से राजनीति में आए थे। उनकी अनुभवहीनता और निश्छल स्वभाव का अनुचित लाभ उनके करीब समझे जाने वाले दोस्तों व सहयोगियों ने उठाया, जिसकी परिणति 1989 के चुनावों में हार के साथ हुई। वे दो साल बाद जीतकर लौटने की राह पर थे, तभी लिट्टे को सामने कर उनकी हत्या कर दी गई। अगर वे दुबारा प्रधानमंत्री बनते तो हमें उनका एक नया रूप देखने मिलता। उनके निधन के बाद सोनिया गांधी ने लंबे समय तक राजनीति से दूरी बनाए रखी। सात साल बाद जब उन्हें लगा कि उनके आए बिना पार्टी बिखर जाएगी तब 1998 में बेमन से वे सक्रिय राजनीति में आईं। यहां एक कम चर्चित प्रसंग का उल्लेख करना वांछित होगा। लाभ का पद मामले में जब तमाम संबंधित राजनेता अपनी कुर्सी बचाने की जोड़तोड़ में लगे थे, तब सोनिया गांधी अकेली थीं, जिन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और उपचुनाव जीतकर दुबारा सदन में लौटीं। और यह तो सर्वविदित है कि इसके पूर्व 2004 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया था।
राहुल गांधी की अब तक की यात्रा पर गौर करें तो भी यही अनुभव होता है कि वे राजनीति में आने के इच्छुक नहीं थे। पिछले पंद्रह साल में इसको लेकर राहुल का उपहास करने में विपक्षियों ने कोई कसर बाकी नहीं रखी, किंतु अन्यत्र निरपेक्ष भाव से यह विश्लेषण भी किया गया है कि अपनी दादी और फिर अपने पिता की नृशंस हत्या देख लेने के कारण वे राजनीति से दूर ही रहना चाहते थे। जयपुर में कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत होने के बाद उन्होंने सोनिया गांधी के हवाले से राजनीति को जहर भी निरुपित किया था। इस पृष्ठभूमि में यदि प्रियंका भी राजनीति से सायास दूरी बनाकर चल रही थीं तो यह समझ में आने वाली बात है। उनके आगमन को भी इस परंपरा के विस्तार में देखा जाना उपयुक्त होगा। विगत वर्षों में वे सोनिया गांधी व राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र में ही यथा आवश्यक भूमिका निभाती रहीं हैं। अब देखना खास दिलचस्प होगा कि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का निखार किस तरह होता है।
राहुल गांधी ने हाल-हाल में जाहिर किया है कि वे शिव के उपासक हैं। सामान्य तौर पर यह भी ज्ञात है कि वे बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित हैं और विपश्यना आदि में उनकी रुचि है। प्रियंका गांधी के बारे में भी उपलब्ध जानकारी यही है कि वे बौद्ध धर्म को मानती हैं। क्या अपने पिता की हत्या के अपराध में शामिल नलिनी को माफ कर देने के पीछे गौतम बुद्ध द्वारा प्रदत्त करुणा का प्रभाव रहा होगा! भारतीय मनीषा के व्यापक संदर्भ में देखें तो उसका निर्माण और विकास करुणा, क्षमा, अहिंसा, समन्वय, सद्भाव और सहानुभूति से हुआ है। प्रश्न यह है कि प्रियंका गांधी देश की राजनीति में इन उदात्त मूल्यों की अभिवृद्धि करने में कितनी सफल भूमिका निभा पाती हैं।
जहां तक तात्कालिक राजनीति व लोकसभा चुनावों की बात है, यदि उसमें प्रियंका गांधी अपनी पार्टी की ओर से जिम्मेदारी संभाल रही हैं तो उसमें किसी को भी ऐतराज क्यों होना चाहिए? जो लोग इस संदर्भ में तरह-तरह के आरोप लगा रहे है, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि वे संकीर्ण मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। खुले मन से विचार करें तो इस सच्चाई को जानना कठिन नहीं है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जो प्रचंड विजय मिली थी उसे दोहराना अब संभव नहीं है। श्री मोदी को तब मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने अवतारी पुरुष की तरह देखा था, जिसके दामन पर कोई दाग नहीं लग सकता, जो अपराजेय है और जो भारत में किसी मिथिकीय स्वर्णयुग को वापिस लाएगा। समय के साथ यह विराट छवि टूटती गई है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक-हर मोर्चे पर मोदी सरकार की नीतियां असफल होते जा रही हैं। सरकार की सोच का दायरा अत्यंत सीमित है। एक के बाद एक निर्णय गलत और हाहाकार मचाने वाले सिद्ध हुए हंै।
हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने मोदी नीति का खोखलापन सिद्ध कर दिया है। भाजपा को पांच साल पहले दुर्लभ संयोग से उत्तर प्रदेश में तिहत्तर सीटें मिल गई थीं। सभी विपक्षी दल मिलकर इस मिट्टी के किले को ढहा देना चाहते हैं। स्वयं कांग्रेस के लिए आवश्यक है कि वह उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करे तथा क्षेत्रीय दलों की कृपा पर जीवित न रहे। पार्टी अध्यक्ष होने के नाते राहुल गांधी को पूरे देश में धुआंधार दौरे करना पड़ेंगे। उ.प्र. में कांग्रेस के पास फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका बाईस करोड़ की आबादी वाले विशाल प्रदेश में व्यापक प्रभाव हो। याद रखें कि चुनावी नजरिए से कांग्रेस ने प्रदेश को दो हिस्सों में बांट दिया है। और दो युवा नेताओं ज्योतिरादित्य सिंधिया व प्रियंका गांधी को एक-एक की जिम्मेदारी दे दी है। यह एक सुविचारित रणनीति प्रतीत होती है। कांग्रेस को यदि इसका लाभ मिलता है तो देश की राजनीति में एक नए युग की शुरूआत होगा। इस हेतु हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए।
#देशबंधु में 31 जनवरी 2019 को प्रकाशित

Friday, 25 January 2019

शाकिर अली की कविताएं


शाकिर अली के पहले ही लेख ने साहित्य जगत की प्याली में एक छोटा-मोटा तूफान उठा दिया था। यह वाकया आपातकाल लागू होने के कुछ समय बाद का है। जबलपुर से 'पहल' पत्रिका को निकले अधिक समय नहीं हुआ था। उसके शुरूआती किसी अंक में पचहत्तर-छिहत्तर के दरम्यान कभी यह लेख छपा था। पहले तो लोगों ने समझा कि मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता शाकिर अली का यह लेख है। लेकिन उनसे इस स्तर के अकादमिक लेख की अपेक्षा कोई नहीं करता था। खोज-खबर करने पर मालूम हुआ कि बिलासपुर के बीस-बाईस बरस के एक नौजवान ने यह निबंध लिखा है। मुझे उसकी धुंधली सी याद है। मध्यप्रदेश के कुछ उत्पाती कांग्रेसियों ने कुछ चाटुकार लेखकों के उकसावे पर इस लेख के खिलाफ हंगामा खड़ा कर दिया था। वे पहल को बंद करने तथा संपादक व लेखक पर कार्रवाई करने की मांग कर रहे थे। प्रकाशचंद्र सेठी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने जहां जैसा भी सलाह-मशविरा किया हो, उत्पातियों की मांग पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अनुमान कर सकते हैं कि लेख में तत्कालीन केन्द्र सरकार की रीति-नीति की आलोचना की गई थी।
जाहिर है कि इस पहले लेख के प्रकाशन के साथ ही बिलासपुर के युवा शाकिर अली की साहित्य जगत में पहचान बन गई। लेख में तार्किकता के बजाय भावुकता का पुट कुछ अधिक था, लेकिन समय के साथ शाकिर की रचनात्मक प्रतिभा का परिपक्व ढंग से विकास हुआ है और यह भी अच्छी बात है कि उनकी तरुणोचित भावुकता समय के साथ सूखी नहीं है। वे एक तरल, पारदर्शी और विचार-सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी हैं। यह हाल में प्रकाशित उनके दो कविता संग्रहों को पढ़कर हम जान सकते हैं। शाकिर कविताएं बहुत लंबे समय से लिख रहे हैं, तकरीबन चालीस साल से, लेकिन उनका अब तक कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था। इसका एक कारण शायद यह रहा हो कि वे क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में कार्यरत थे जिसके चलते उन्हें छत्तीसगढ़ के बस्तर सहित अनेक दूरस्थ इलाकों के गांवों में एक लंबा समय बिताना पड़ा जहां बैठकर वे कविताएं तो लिख सकते थे, लेकिन संकलन तैयार कर उसे प्रकाशित कराने की सुविधा नहीं थी! अब जब वे सेवानिवृत्ति के बाद घर लौट आए हैं तब ही शायद उन्हें समय मिल पाया कि वे कविता संकलन प्रकाशित करने के बारे में संजीदगी से सोच सकें!
'बचा रह जाएगा बस्तर' में चौवन और 'नए जनतंत्र में' अट्ठाइस, इस तरह कुल जमा ब्यासी कविताएं उन्होंने प्रकाशित की हैं। इन दोनों संकलनों को पढऩे के बाद में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वे जिस खूबी से दस-बारह लाइन की छोटी कविताओं में अपनी बात कह जाते हैं उसे वे लंबी कविताओं में सामान्यत: नहीं साध पाते। शाकिर अली प्रगतिशील विचारधारा के लेखक हैं। उन्होंने अपने आसपास के जीवन को नजदीक से देखा है तो दूसरी ओर देश और दुनिया में जो कुछ घटित हो रहा है उसे भी वे सतर्क दृष्टि से देखते-समझते हैं। हर लेखक की सहानुभूति हाशिए पर खड़े समाज के साथ होती है; उनके साथ होती है जो सताए गए हैं, दबाए गए हैं, कुचले गए हैं और जिनकी आवाज सत्ता के गलियारे में, कुबेर की अट्टालिकाओं में अनसुनी कर दी जाती है। जिस लेखक की कलम पर जन-जन की पीड़ा न उभरे वह लेखक ही क्या? शाकिर अली की कविताएं अपने काल के सच्चे कवि की रचनाएं हैं। उनकी छोटी कविताओं की खूबी यह है कि वे किसी घटना के साक्षी बनते हैं, किसी दृश्य को देखते हैं और बिजली की कौंध सी तड़प और त्वरा के साथ गहराई तक चीरकर सच को सामने ले आते हैं।
'अहा सुंदर बस्तर' शीर्षक कविता बस्तर के प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन से प्रारंभ होती है, लेकिन आखिरी पंक्ति तक पहुंचने पर वह पाठक को स्तब्ध कर देती है। इस कविता को पढि़ए-
बस्तर में अभी भी फलते हैं
फल पेड़ों पर!
इमली आम, महुआ, तेन्दू, साल के
पेड़ों की भरमार है,
यहां के पहाड़ों के बदन पर
झरने फूटते हैं, अभी भी
बहकर जाता है, पानी
नदी नाले, इन्द्रावती से होकर
गोदावरी में,
बचे हुए पेड़, पहाड़ बारहों माह हरे रहते हैं,
गनीमत है, अभी भी
बारुद-असला पेड़ों पर नहीं
गोदामों में ही फलते-फूलते हैं!!
स्कूल बंद है, बारूदनाथ, एनकाउंटर और अन्य तमाम कविताएं विगत कुछ दशकों से बस्तर में विद्यमान खौफनाक परिस्थितियों से हमारा सामना करवाती हैं। वे खोखले दावों को ध्वस्त कर सच्चाई को उजागर करती हैं। बस्तर में एक अंतहीन सी लगने वाली लड़ाई चल रही है, जिसमें कौन किसके साथ हैं, यह समझना दुश्वार है, किन्तु इतना तय है कि आदिवासी के साथ कोई नहीं है। ''कोरेनार का स्कूल'' और ''बंकर'' दो छोटी कविताओं में यह त्रासदी उजागर होती है।
कोरेनार का स्कूल

सैकड़ों की भीड़ ने
कुदाल फावड़े से स्कूल भवन
तोड़ डाला,
बच्चे, पेड़ों के नीचे, कापी-किताब के साथ
बारिश में कांपते, गलते खड़े थे
गुरुजी भी भीगते खड़े थे, अपनी छड़ी के साथ!
बंकर
सर्व-शिक्षा अभियान के पैसे से
लोहे के खिड़की-दरवाजों वाला
कांक्रीट से बना,
स्कूल भवन, ध्वस्त था
जिसे दिल्ली से आई अंतरराष्ट्रीय बुद्धिजीवी ने भी
बंकर माना!
बस्तर पर सुदीप बनर्जी ने बहुत सी कविताएं लिखी हैं। आलोक वर्मा की कविताएं भी याद आती हैं। उन कविताओं में जो बेचैनी और तड़प है, शाकिर अली की कविताएं उसी उद्वेग को और गहरा करती हैं। शाकिर ने अपनी कविताओं में लाला जगदलपुरी और शानी को भी याद किया है जिन्होंने अपनी रचनाओं में बस्तर के दर्द को समेटा था। परन्तु ये आज अभी की कविताएं ऐसी निर्मम सच्चाई का बयान करती हैं जिसकी हमने आज से तीस-चालीस साल पहले कल्पना भी नहीं की थी।
बचा रह जाएगा बस्तर में एक सुंदर लंबी कविता है- नि:शब्द खटकते हैं महुआ फूल। इस कविता का दूसरा पैराग्राफ मैं उद्धृत करना चाहता हूं-
हर पेड़ का अपना टपकता समय है
गीदम में बैंक के सामने रोज सुबह साढ़े आठ बजे
टपकता है महुआ!
जिसके बाजू में है, चाय का ठेला
आ जाती है काम वाली डोकरी फूलो
बर्तन मांजना छोड़कर उसे बीनने
या फिर कुचल जाते हैं, महुआ फूल
आती-जाती ट्रक के भारी पहियों के बीच!!
कवि जब ट्रक के भारी पहियों के बीच महुआ फूलों के कुचल जाने की बात कहता है तो मुझे एकाएक लगता है जैसे वह आदिवासियों के कुचले जाने की बात कह रहा हो।
'नए जनतंत्र' में उनका दूसरा कविता संग्रह है। मुझे इस संग्रह के शीर्षक  पर आपत्ति है। क्योंकि उससे एक भ्रम उत्पन्न होता है। इस संकलन की एक कविता है ''कविता के नए जनतंत्र में"। इसका आधा हिस्सा लेकर पुस्तक को शीर्षक दे दिया गया। यह आधा शीर्षक एक व्यापक पृष्ठभूमि का बोध कराता है, जबकि कविता लेखक और पाठक के आपसी रिश्ते पर एक चुटीला व्यंग्य करती है याने वह एक सीमित विषय पर रची गई है। बहरहाल इस संकलन की अधिकतर कविताएं कुछ लंबी हैं और जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय है-
''मां ने सोते हुए बच्चो के सपनों में पहली बार प्रवेश किया था।''
यह शीर्षक असामान्य रूप से लम्बा है और विनोद कुमार शुक्ल की याद दिलाता है। बहरहाल, इसका यह अंश पढि़ए-
छोटे के सिर को सहलाया था,
मंझले को डांटा था
बड़ी को समझाया था
देख तू ऐसा करके मेरा दिल मत दुखाया कर!
मां ने सोते हुए बच्चो के
सपनों में
पहली बार
प्रवेश किया था!!
यह अत्यंत मार्मिक कविता है। मां के गुजर जाने के बाद घर की क्या हालत होती है, बच्चों पर क्या बीतती है, मासूम देखते ही देखते कैसे बड़े हो जाते हैं, इन सारी स्थितियों का सूक्ष्म और चित्रात्मक वर्णन कवि ने किया है। इसमें घर की बड़ी बेटी ने कैसे मां के चले जाने के बाद जिम्मेदारियां संभाल ली थी, उसका विश्लेषण कवि ने बड़ी गहराई व आत्मीयता के साथ किया है। इस कविता का अंतिम अंश दृष्टव्य है-
रात को सबसे आखिर में
सोने से पहले
मां की तरह बहन ने ग्रिल के फाटक पर
ताला जड़ा था!
और बिस्तर पर आने से पहले
छूटा हुआ होम वर्क पूरा कर रही थी,
मां ने बच्चो के सपनों में आना
अब छोड़ दिया था!!
इस संकलन की कपड़े का आदमी, उसका इतिहास, दोषी और निर्दोष इत्यादि कविताएं भी उल्लेखनीय हैं। संकलन में "स्त्री पढ़ रही है" शीर्षक कविता मुझे बहुत कमजोर प्रतीत हुई। यह एक रूमानी सोच की कविता है जिसकी कल्पना तो अच्छी लगती है, लेकिन जो सच्चाई से बहुत दूर है।
दोनों संकलनों में कुछ कविताएं ऐसी हैं जो या तो साहित्यिक मित्रों को समर्पित हैं या जिसमें उनके नामों का उल्लेख हुआ है। मुझे लगता है कि यहां कवि पर व्यक्ति शाकिर हावी हो गया है। कविता में दोस्तों का उल्लेख हो सकता है, लेकिन वह किसी वृहत्तर संदर्भ में उद्देश्यपूर्ण ढंग से हो तो ठीक है। सिर्फ मित्रता के निर्वाह के लिए या कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ऐसा उल्लेख कविता को कमजोर बना देता है। हो सकता है कि शाकिर अली मेरी राय से सहमत न हों। मेरा यह भी कहना है कि दोनों संकलनों का संपादन कुछ बेहतर तरीके से किया जा सकता था। कविताओं पर गिने-चुने लेखकों की राय या उनके पत्र, इन सबको शामिल करने की आवश्यकता नहीं थी।  इसके अलावा मेरी हर लेखक को राय है कि संकलन प्रकाशित करते समय हर कविता या कहानी का रचनाकाल अवश्य उल्लेख करना चाहिए। शाकिर अली को किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। उन्हें अपनी रचना की ताकत पर भरोसा रखना चाहिए थे। जो भी हो, मुझे प्रसन्नता है कि शाकिर अली की कविताएं अब संकलन के रूप में एक साथ उपलब्ध हैं। मैं इनमें एक बार फिर बस्तर पर केन्द्रित कविताओं का उल्लेख करना चाहूंगा। वे अपने समय की एक भीषण सच्चाई का दस्तावेज हैं और इसलिए वे आने वाले समय के लिए बेहद मूल्यवान हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि हमें शाकिर अली की ताजा कविताएं भी जल्दी पढऩे मिलेंगी।  

अक्षर पर्व दिसंबर 2018 अंक की प्रस्तावना 

बचा रह जायेगा बस्तर (कविता संग्रह)
कवि-   शाकिर अली
प्रकाशक- उद्भावना, एच-55, सेक्टर-23, राजनगर, गाजियाबाद, मो. 9811582902
पृष्ठ-   80
मूल्य- 125 रुपए

****
नये जनतंत्र में (कविता संग्रह)
कवि-   शाकिर अली
प्रकाशक- उद्भावना, एच-55, सेक्टर-23, राजनगर, गाजियाबाद, मो. 9811582902
पृष्ठ-   80
मूल्य- 125 रुपए
 

Wednesday, 23 January 2019

शराबबंदी : आगे का रास्ता?


छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में शराबबंदी को एक महत्वपूर्ण बिन्दु बनाया था। सरकार बन जाने के बाद कर्जमाफी जैसे कुछ मुद्दों पर अमल होना शुरू हो गया है। किन्तु शराबबंदी पर प्रतीत होता है कि अभी सरकार के भीतर सोच-विचार जारी है। स्वाभाविक ही अपदस्थ भारतीय जनता पार्टी इसे वादाखिलाफी निरूपित कर रही है, किन्तु मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस पर कटाक्ष करते हुए माकूल जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि वे नोटबंदी की तर्ज पर शराबबंदी नहीं करना चाहते और यह काम पूरी तैयारी के बाद ही होगा। राज्य सरकार ने इसके बाद इतने अहम मसले पर विचार करने के लिए दो कमेटियां गठित करने की भी घोषणा कर दी है। हम उम्मीद करना चाहेंगे कि पिछली सरकार द्वारा इसी मुद्दे पर गठित समिति की तरह ये समितियां शीर्षासन नहीं करेंगी।
भारत में पिछले दो-तीन दशकों के भीतर मद्यपान का चलन खूब बढ़ा है। खूब याने कई-कई गुणा बढ़ोतरी हुई है। इस नई चलन का दुष्प्रभाव सामाजिक और पारिवारिक जीवन में देखने मिल रहा है। एक तरफ टेक्नालॉजी के विकास के साथ बढ़ती हुई इच्छाएं, बाजार और विज्ञापन के प्रलोभन, मीडिया और सोशल मीडिया के षड़यंत्र से बढ़ते हुए मनोविकार, दूसरी ओर बढ़ती हुई आबादी, आनुपातिक रूप से घटती हुई आमदनी, और उसमें असली-नकली जहरीली शराब का सेवन इन सबने मिलकर पारिवारिक जीवन का ताना-बाना छिन्न-भिन्न करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी है। इस नए वातावरण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों को झेलना पड़ रहा है। हिंसा, अपराध, और दुर्घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है; और जैसा कि मैं कहते आया हूं भारतीय समाज एक क्रुद्ध व संशयग्रस्त समाज में तब्दील होते जा रहा है।
भारतीय समाज में आई इस प्रदूषित मानसिकता पर हम आगे कभी विचार करेंगे। फिलहाल शराबबंदी पर चर्चा करते हुए स्पष्ट जान पड़ता है कि चुनाव में वोट हासिल करने जनता के बीच जाने वाले राजनेता मदिरापान के दुष्प्रभावों से अनभिज्ञ नहीं हैं। दो साल पहले ही तो बिहार में नीतीश कुमार ने शराबबंदी का वायदा किया, उस पर अमल भी किया जिसके लिए उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिली। लेकिन यह सच्चाई अपनी जगह है कि व्यापक रूप से फैली एक सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता। हमारे देश में कानूनों की कमी नहीं है। लेकिन इन कानूनों पर अमल करने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक संकल्पबद्धता की आवश्यकता है वह फिलहाल नहीं है। इसका कारण है कि राजनीतिक दलों ने लोक शिक्षण के प्राथमिक दायित्व से अपने हाथ खींच रखे हैं।
यह हमें पता है कि सुरापान की परिपाटी आज की नहीं, बल्कि प्राचीन इतिहास काल से चली आ रही है। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि हर मनुष्य को कोई न कोई लत अवश्य लगी रहती है। लेखकों, कलाकारों के बारे में तो कहा जाता है कि वे ऐसा कोई शौक अवश्य पाले रहते हैं जिससे उनकी कल्पना व रचनाशीलता को पंख लगते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि कोई भी लत, आदत या शौक अगर सीमा से बाहर बढ़ जाए तो उससे व्यक्ति को नुकसान ही होता है। मनुष्य चूंकि सामाजिक प्राणी है इसीलिए व्यक्ति को होने वाला नुकसान निजी न होकर किसी मात्रा में सामाजिक हानि के दायरे में आ जाता है।
शराबबंदी के सिलसिले में कुछ दृष्टांत ध्यान में आते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1920 के दशक में मद्यनिषेध कानून लागू किया गया था। कहते हैं कि उसके बाद शराब की अवैध बिक्री का व्यापार खूब बढ़ा और उसके चलते ही माफिया की ताकत बहुत अधिक बढ़ी। हमारे यहां गुजरात में सत्तर साल से मद्यनिषेध लागू है किन्तु गुजरात का कोई भी इलाका नहीं है जहां शराब की अवैध बिक्री न होती हो। गुजरात से लगे राजस्थान में कोई पाबंदी नहीं है सो साधनसम्पन्न गुजराती माऊंट आबू आदि जाकर छककर मदिरा सेवन करते हैं और वापस अपने प्रदेश लौट आते हैं। तमिलनाडु में आजादी के बाद ही मद्यनिषेध कानून लाया गया था लेकिन कुछ सालों बाद खत्म कर दिया गया। केरल में अभी कुछ साल पहले कानून आया और फिर उसमें छूट देना पड़ी। यही स्थिति लगभग चालीस साल पहले महाराष्ट्र में हुई जब छूट मिलने के बाद चलती ट्रेनों में बीयर की बिक्री होने लगी।
अभी बिहार से भी कानून को तोड़़ने की खबरें लगातार आ रही हैं। कुछ अन्य राज्यों में भी कानून लागू है, लेकिन वहां भी इसे शिथिल करने पर विचार किया जा रहा है। कानून बनाने उसे शिथिल करने या पूरी तरह से उठा लेने की प्रक्रिया में गोया लुका-छिपी का खेल चल रहा है। इसके दो कारण जाहिरा तौर पर समझ आते हैं। एक तो शराब बिक्री से प्राप्त पृथक राजस्व याने आबकारी कर का मोह कोई सरकार नहीं छोड़ना चाहती। यह हमने साठ साल पहले तमिलनाडु में देखा था। दूसरे, अवैध व्यापार के चलते कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने का भय भी सरकार के सामने बना रहता है। दूसरी ओर पचास फीसदी आबादी याने महिलाओं के वोटों का आकर्षण शराबबंदी के पक्ष में माहौल बनाता है। यह एक दुविधापूर्ण स्थिति है। इससे बाहर कैसे निकला जाए और क्या कोई स्थायी समाधान खोजना संभव है? ये सवाल हमारे सामने खड़े हैं। मेरी समझ में सरकार को आबकारी कर से प्राप्त आय का लालच नहीं करना चाहिए। इससे जो राजस्व प्राप्त होता है उससे कई गुना अधिक व्यय शराब से उपजी बीमारियों और दुर्घटनाओं के उपचार में हो जाता है।
शराब के अत्यधिक सेवन के कारण स्वयं शराबी की सेहत को तो नुकसान पहुंचता ही है; घर और बाहर सिर फूटने, हड्डियां टूटने और मरने तक के हादसे होते हैं। शराब पीकर दंगे-फसाद भी होते हैं जिसमें पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी के समय व साधन जाया होते हैं। याने बैलेंसशीट बनाएं तो राजस्व कम और व्यय कई गुना अधिक।
मेरा अपना अध्ययन कहता है कि अमेरिका की अविचारित सोच के चलते जब से अन्य मादक द्रव्यों पर रोक लगाई गई है तब से मयनोशी की बुराई अधिक बढ़ी है। हमारे यहां और पूरी दुनिया में अफीम, भांग, गांजा, चरस इनका इस्तेमाल बहुत पहले से होता आया है। इसे रोकने के चक्कर में ड्रग माफिया और ड्रग कार्टेल पैदा हो गए। अब अमेरिका को समझ आई है तो धीरे-धीरे ये प्रतिबंध समाप्त हो रहे हैं। ये ऐसे नशे हैं जिनसे बड़ी सामाजिक क्षति नहीं होती। मैं समझता हूं कि इस पर हमारी सरकारों को भी विचार करना चाहिए। मेरी दूसरी राय है कि यदि शराब माफिया को खत्म करना है तो शराब बिक्री के लिए लाइसेंस प्रणाली में बड़ी छूट दी जाना चाहिए; नहीं तो माफिया ही सरकार चलाते रहेंगे। तीसरी बात, देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में भी ऐसे अनेक सामाजिक समूह हैं जिनके लिए मदिरापान उनके सामाजिक संस्कारों का अभिन्न अंग है। देखना यह होगा कि पेसा क्षेत्र में व्यवसायिक शराब बिक्री की अनुमति बिल्कुल न हो। मेरा अंतिम सुझाव छत्तीसगढ़ सरकार को है कि प्रदेश में जल्दी बड़े पैमाने पर इस मुद्दे पर पारदर्शी ढंग से जनसुनवाइयों का आयोजन हो। इस व्यापक परामर्श से ही आगे का रास्ता निकलेगा।

(प्रयास, रायपुर द्वारा 18 जनवरी को ''शराबबंदी: अवधारणा व औचित्य'' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में दिए अध्यक्षीय वक्तव्य का संवर्द्धित रूप)

Thursday, 17 January 2019

पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल


पत्रकारिता ऐसा पेशा है जिसमें जोखिम बहुत है। हाल के वर्षों में इसमें लगातार इजाफा हुआ है। यहां मुझे पचास साल से कुछ ऊपर हुए बिहार में अपराधिक तत्वों द्वारा एक पत्रकार की हत्या करने की वारदात याद आती है जिसके बाद मेरी एक सहपाठी ने चिंता व्यक्त करते हुए सलाह दी थी कि मुझे पत्रकारिता छोड़ कोई और काम कर लेना चाहिए। यह एक निजी प्रसंग है, लेकिन भारत में पत्रकारिता पर खतरा तो उसके जन्मकाल से ही चला आ रहा है। देश के पहले समाचारपत्र 'द बंगाल गजट' के स्वामी और संपादक जेम्स आगस्टस हिक्की को तत्कालीन वायसराय लार्ड वारेन हेस्टिंग्स ने जेल में डाल दिया था। इस घटना को सवा दो सौ साल हो गए हैं। इसके बाद उपनिवेशवादी सरकार ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट याने भाषायी समाचारपत्र कानून लागू किया जिसकी चपेट में आकर भारतीय भाषाओं के कितने ही अखबारों पर ताला लग गया। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान प्रेस पर लगातार आक्रमण होते रहे। उस दौरान महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भी साम्प्रदायिक दंगों के दौरान शांति स्थापना की कोशिश के बीच एक दंगाई ने हत्या कर दी थी। देश आजाद होने के बाद स्वस्थ, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के विकास की उम्मीदें की गई थीं।

 पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र पत्रकारिता के सच्चे अर्थों में हिमायती थे। लेकिन आजादी की संधि वेला में ही वृंदावन में आयोजित श्रमजीवी पत्रकार सम्मेलन में आशंका व्यक्त की गई थी कि पत्रकारिता पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा और स्वस्थ पत्रकारिता का उन्नयन आकाश कुसुम सिद्ध होगा। बाबूराव पराडकर व बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे वरिष्ठ संपादकों ने बिना लाग-लपेट के इस बारे में मंतव्य व्यक्त किए थे। हुआ भी वैसा ही। प्रथम प्रेस आयोग ने स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए कुछ व्यवहारिक उपाय प्रस्तावित किए थे जिन्हें आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने अखबार मालिकों की मुनाफा कमाने की स्वतंत्रता को तब मौलिक अधिकार के समकक्ष निरूपित किया था।

परिणाम यह हुआ कि शनै: शनै: प्रेस पर पूंजी का आधिपत्य बढ़ते चला गया। प्रेस की शान में चाहे जितने कसीदे लिखे गए हों, सच्चाई यह थी कि पत्रकारिता पूंजी की दासी बनती चली गई। वैसे आपातकाल लगने के पूर्व तक केन्द्र और राज्यों में कार्यरत कांग्रेसी सरकारों का रवैया प्रेस के प्रति किसी हद तक मैत्रीपूर्ण था। उसका कारण यह था कि उस दौर के अधिकतर पत्रकारों की पृष्ठभूमि स्वाधीनता आंदोलन की थी इसलिए राजनेताओं और पत्रकारों के बीच किसी हद तक परस्पर सम्मान का भाव था। यद्यपि 1975 के पहले के सामान्य वातावरण में भी ऐसे प्रसंग घटित हुए हैं जब किसी मुख्यमंत्री ने किसी अखबार से नाराज होकर उसके विज्ञापन बंद कर दिए हों या अपने चहेते अखबारों को मनमाने लाभ दिए हों। कुछेक राजनेता, जिनमें दो-चार मुख्यमंत्री भी शामिल थे, पत्रकारिता की पृष्ठभू्मि से ही आए थे इसलिए उनके अपने अखबारों को तो राजपत्र होने का अघोषित दर्जा हासिल था।

आपातकाल के दौरान दिल्ली और अनेक प्रदेशों में प्रेस और पत्रकारों के साथ सरकार ने जो बर्ताव किया उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल समाप्त होने के बाद लालकृष्ण आडवानी ने प्रेस पर जो टीका की थी, वह भी सबको याद होगी। 1977 के बाद पत्रकारिता के स्वरूप में एक के बाद एक बदलाव आना शुरू हो गए। अनेक मामलों में प्रेस को पुनर्प्राप्त स्वतंत्रता देखते ही देखते उच्छृंखलता में बदल गई। दूसरी ओर प्रेस ने अपना ध्यान राजनीति से इतर विषयों पर भी केन्द्रित किया। तीसरा परिवर्तन टेक्नालॉजी के विकास के साथ आया। कुल मिलाकर यह समय देश में पत्रकारिता बहुत अच्छा न सही, अच्छा तो अवश्य था।

1991 में कथित उदारीकरण के साथ राजनीति और अर्थनीति में जो युगांतरकारी परिवर्तन आया, प्रेस उससे अछूता न रहा। प्रेस संज्ञा का स्थान जल्दी ही मीडिया ने ले लिया। पुराने समय के जूट प्रेस में संपादकों और पत्रकारों का जो कुछ भी सम्मान था वह नए मीडिया मालिकों के निजाम में तिरोहित हो गया। मुनाफाखोर मीडिया मालिक और आत्मकेन्द्रित राजनेताओं के बीच एक नया गठबंधन हो गया जिसके बाद पत्रकारिता में न तो स्वतंत्रता की गुंजाइश रही, न निष्पक्षता की, और निर्भीकतापूर्वक काम करना तो अपराध ही बन गया। हमने ऐसे-ऐसे मुख्यमंत्री और अन्य सत्ताधीश देखे जिन्हें अपनी रंचमात्र आलोचना भी बर्दाश्त नहीं थी। ऐसे में दो ही रास्ते थे- या तो समर्पण कर दो या फिर दंड झेलने के लिए तैयार रहो। केन्द्र और राज्य में जहां अलग-अलग दलों की सरकार थी वहां स्वयं को बचाने की क्षीण आशा थी; लेकिन जहां ऐसा नहीं था वहां सिर पर तलवार ही लटक रही थी। हमने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में आंतरिक अशांति के दौर में देखा था कि पत्रकार बिरादरी को कितनी भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को समाप्त करने के नाम पर सलवा जुड़ूम नाम से जो सरकार समर्थित मुहिम चलाई गई इसके बाद यहां भी ऐसी ही स्थिति बनने लगी। लेकिन हां, इसके पहले अजीत जोगी सरकार के दौरान जो हुआ उसे भी याद रखने की आवश्यकता है जब राजनारायण मिश्र, नंदकुमार बघेल और लीला जैन को उनकी लेखनी के कारण प्रताड़ित किया गया।

 रमन सरकार में जो हुआ वह आज हमें एक दु:स्वप्न की तरह प्रतीत होता है। बस्तर में कितने ही पत्रकार जेल में डाल दिए गए और सरकार ने इनके प्रकरणों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता भी नहीं समझी। मालिकों पर दबाव डालकर पत्रकारों को बर्खास्त करवाया गया या प्रदेश के बाहर उन्हें फेंक दिया गया। राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों ने भी इस मामले में सरकार के साथ समझौते का रुख अपनाया। कार्पोरेट मीडिया व चाटुकार मीडिया और सरकार की जुगलबंदी इस दौरान खूब चली। इस परिपाटी का समाप्त होना संदिग्ध है। इस पृष्ठभूमि में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम की बात उठी। कांग्रेस ने जब घोषणा पत्र बनाना शुरू किया तो प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से पत्रकारों ने मांग की और उसे घोषणापत्र में शामिल किया गया। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सत्ता में आने के बाद इस वचनबद्धता को दोहराया है कि कांग्रेस की सरकार बनने पर पत्रकार सुरक्षा कानून लाया जाएगा। प्रदेश के पत्रकार जगत के सामने जो कटु अनुभव हैं उनको ध्यान में रखते हुए यह मांग उचित लगती है, लेकिन विचारणीय है कि क्या कानून बन जाने मात्र से पत्रकार सुरक्षित हो जाएंगे! एक मौजूं प्रश्न यह भी है कि पत्रकारों की अपनी एकजुटता और श्रमजीवी पत्रकार संघ, प्रेस क्लब इत्यादि संगठनों की क्या भूमिका होना चाहिए।

मेरा सोचना है कि जवाहरलाल नेहरू की पार्टी अगर नेहरू नीति पर चलती है तो ऐसे कानून की शायद आवश्यकता नहीं होगी। यदि बस्तर में शांति स्थापित हो जाती है तो आज जिस तरह पत्रकारों को दो पाटों के बीच पिसना पड़ता है वह स्थिति अपने आप खत्म हो जाएगी। हम यह न भूलें कि नक्सलियों ने पत्रकारों की हत्या तक की हैं। उन पर तो कोई कानून लागू होता नहीं है। दूसरी बात यह है कि पत्र जगत को सुरक्षा से कहीं अधिक आवश्यकता सम्मान की है। यह दायित्व लोकहितकारी सरकार का बनता है कि वह ऐसे वातावरण और नीति का निर्माण करे जिसमें पत्रकारिता का स्वस्थ विकास हो और पत्रकार सहज गति से अपना कर्तव्य निर्वहन कर सके। पंडित नेहरू ने ही कहा था कि मैं पत्रकारिता को उसकी कमजोरियों के साथ भी स्वीकार करता हूं। राहुल गांधी और उनकी टीम से भी मैं इसी सिद्धांत पर चलने की अपेक्षा करता हूं।

देशबंधु में 17 जनवरी 2019 को प्रकाशित

Thursday, 10 January 2019

एक अदद बंगले की तलाश



क्या आपने कभी सोचा है कि लोग घर क्यों बनाते हैं? खासकर उन लोगों के बारे में सोचिए जो या तो अकेले हैं या जिनका परिवार सीमित है, फिर भी वे बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं या आलीशान कोठियों में रहते हैं। उदाहरण के लिए मुंबई की सत्ताइस मंजिल की अट्टालिका को देखें जिसमें शायद चार या पांच लोग ही रहते हैं। कौन सी सोच है जो इस वैभव प्रदर्शन के पीछे है? विश्वविख्यात दार्शनिक और लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी एक पुस्तक 'पावर' में विस्तारपूर्वक इसकी चर्चा की है। वे कहते हैं कि एक इमारत का निर्माण शक्ति प्रदर्शन का ही एक पहलू है। राजे-महाराजे इसीलिए भव्य राजमहल खड़े करते हैं, धनकुबेर कोठियां तामीर करते हैं; और जतलाते हैं कि वे आम जनता से ऊपर हैं, उनके पास ताकत है; और जनता की भलाई इसी में है कि वह उनकी ताकत को स्वीकार करे और उनसे दूर रहे।

पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ के अखबारों में पक्ष-विपक्ष के नेताओं को सरकारी बंगले अलॉट करने या न करने के बारे में लगातार खबरें छप रही हैं। मेरे युवा पत्रकार मित्रों को शायद लग रहा है कि यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है। वे शायद अनजाने में ही यह आकलन कर रहे हैं कि मंत्रियों, नेताओं और अफसरों की हैसियत अंतत: उनके बंगले से ही तय होती है। प्रकारांतर से वे लॉर्ड रसेल के विचारों की ही ताईद कर रहे हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में यही स्थिति है। छत्तीसगढ़ अपवाद नहीं, बल्कि नियम का अंग है। लगभग दो साल पहले ही तो तेलंगाना के प्रथम मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव के बारे में पढ़ा था कि कैसे उन्होंने भव्य मुख्यमंत्री निवास बनवाया है जिसके चारों ओर बारह फीट ऊंची दीवार खड़ी की गई है। कोशिश यह कि बाहर से कोई भी मुख्यमंत्री निवास में ताक-झांक न कर सके।

आज की स्थिति पर दृष्टिपात करते हुए मेरा ध्यान अनायास ही नवंबर 1956 पर चला जाता है जब नए मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद नागपुर से हटकर राजधानी भोपाल आई थी। उस समय सरकारी कर्मचारियों के लिए बहुत तेजी के साथ साउथ टी.टी. नगर में मकान बनाए गए थे। मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के लिए भोपाल रियासत के दौर के कुछ पुराने मकान उपलब्ध कराए गए थे। लाल घाटी पर आईना बंगला में मुख्यमंत्री का आवास बना था। कहने को तो बंगला था, किन्तु जहां तक मुझे याद है उसमें भव्यता का कोई चिन्ह नहीं था। कई मंत्री तो ऐसे मकानों के वासी थे जिनके दरवाजे सीधे सड़क पर खुलते थे और जिनमें कोई बगीचा वगैरह भी नहीं था। विधायकों के लिए विश्रामगृह बनाए गए थे। सत्र समाप्ति के बाद विधायकगण अपने-अपने क्षेत्र में वापिस चले जाते थे। धीरे-धीरे कर यह स्थिति बदली। सत्ताधीशों का अपनी ताकत पर जैसे-जैसे विश्वास बढ़ता गया उसी अनुपात में उनके आवासों की भव्यता और जनता से दूरी भी बनती गई।

मैं सन् 2000 पर आता हूं जब छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ और रायपुर को राजधानी का दर्जा मिला। मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपने लिए पुराना कलेक्टर बंगला चुना। इसके पीछे शायद भावनात्मक कारण रहा हो, क्योंकि इसी बंगले में जिलाधीश की हैसियत से उन्होंने दो या तीन साल बिताए थे। तब आनन-फानन में कुछ अन्य बड़े अफसरों के बंगले भी खाली करवाए गए थे ताकि उनमें उनसे भी बड़े ओहदेदार आकर अपना निवास बना सके। मुझे तब यह देखकर अच्छा लगा था कि मंत्री सत्यनारायण शर्मा और मंत्री अमितेष शुक्ल ने ऐसे किसी बंगले पर आधिपत्य जमाने के बजाय अपने पुराने घर में रहना ही बेहतर समझा था। अमितेष तो पहले से ही अपने सर्वसुविधायुक्त पुश्तैनी बंगले में रहते थे, लेकिन श्री शर्मा की तारीफ करना होगी कि उन्होंने शहर के बीच एक गली में बसे अपने मकान को नहीं छोड़ा। आम जनता से अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए प्रतीकात्मक ही सही, यह एक स्वागत योग्य पहल थी।

इसके साथ यह भी ध्यान आता है कि जोगी केबिनेट ने अपनी गाड़ियों पर से लालबत्ती उतारने का निर्णय ले लिया था। वित्त मंत्री डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव एक कदम और आगे थे। उन्होंने सरकार के लिए नई गाड़ियां खरीदने के बजाय किराए पर गाड़ियां लेने का फैसला लिया था ताकि जनता के धन का दुरुपयोग न हो। सिंहदेवजी स्वयं मंत्री रहते हुए एक छोटे से बंगले में रहे आए और बाद में उन्होंने विधायक के रूप में सिंचाई कालोनी के एक छोटे से क्वार्टर में रहना पसंद किया। उनके जैसी सादगी और मितव्ययिता दुर्लभ है। लेकिन वे न अपनी पार्टी के लिए और न विरोधियों के लिए अनुकरणीय आदर्श बन सके। डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में जब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी तो केबिनेट का पहला निर्णय मंत्रियों के वाहनों पर दुबारा लालबत्ती लगाने का हुआ। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने आगे जाकर इस कुप्रथा पर पूरी रोक लगा दी।

रायपुर के जिस बंगले में पहले संभागायुक्त का आवास होता था वह मुख्य सचिव को आबंटित हो गया था, लेकिन अपने को मुख्यमंत्री से कभी कम न समझने वाले मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने फौरी कार्रवाई करते हुए अरुण कुमार को वहां से बेदखल कर अपना कब्जा जमा लिया। अब शायद उन्हें यहां से कहीं और जाना पड़े! बृजमोहन की छवि एक लोकप्रिय जनप्रतिनिधि की रही है। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि उन्हें अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की क्या जरूरत थी। यदि पिछली विधानसभा पर निगाह डालें तो पता चलता है कि अनेक विधायकों व मंत्रियों के पास रायपुर में खुद के निवास थे। इसके बावजूद उन्होंने अपने लिए सरकारी आवास आबंटित कराए। बृजमोहन की ही भांति चंद्रशेखर साहू भी एक लोकप्रिय नेता हैं। वे अगर सरकारी बंगला न लेते तो शायद उनके लिए श्रेयस्कर ही होता। हमारे वरिष्ठ लोकसभा सदस्य रमेश बैस का भी अपना सुविधाजनक घर है। समझ नहीं आता कि उन्हें सांसद होने के नाते अलग से सरकारी मकान लेने की क्या आवश्यकता थी। अजय चंद्राकर, राजेश मूणत आदि के भी अपने नए बंगले बन चुके थे। वे भी समय रहते अपने निजी घर में शिफ्ट हो जाते तो शायद अच्छा होता।

अब जब नई सरकार आ गई है तब भी बंगलों को लेकर जो मारामारी हो रही है वह तर्कबुद्धि से परे है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की किसान और मजदूर हितैषी सरकार को अन्य उपायों के साथ उन प्रतीकात्मक कदमों पर भी विचार करना चाहिए जिससे सरकार और आम जनता के बीच दूरी कम होती दिखाई दे। मेरी अपनी राय में जिनके पास रायपुर में अपने निजी घर हैं यथा मोहम्मद अकबर, शिवकुमार डहरिया, गुरु रुद्रकुमार आदि, वे यदि सरकारी बंगलों में जाने का मोह त्याग सकें तो यह एक स्वागत योग्य बात होगी।

जैसी कि खबर है पिछली सरकार में संभवत: सामान्य प्रशासन विभाग ने चुनावों के बाद नए सिरे से गठित होने वाले मंत्रिमंडल के लिए नई कारें खरीद ली थीं। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसे पसंद नहीं किया है, बल्कि नाराजगी ही प्रकट की है। यह अच्छा है। नई सरकार जितनी अधिक सादगी बरत सके और तामझाम व दिखावे से दूर रह पाए, उसी में उसकी बड़ाई है। विश्व समाज में गैरबराबरी लगातार बढ़ रही है। भारत उससे मुक्त नहीं है। इस सच्चाई को जानते हुए हर लोकप्रिय सरकार की यह महती जिम्मेदारी है कि वह जनता से दूरी बनाने के बजाय करीबी रिश्ता कायम करें। आम नागरिक के मन में विश्वास पैदा हो कि यह सरकार उसकी है।

देशबंधु में 10 जनवरी 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 2 January 2019

छत्तीसगढ़ की नई विधानसभा

 
छत्तीसगढ़ राज्य की पांचवी विधानसभा का उद्घाटन कल 4 जनवरी 2019 को होगा। नवगठित सभा पूर्ववर्तियों से कई दृष्टियों से भिन्न होगी। इसे लेकर प्रदेशवासियों के मन में एक नये उत्साह और रोमांच का भाव है। एक नया विश्वास भी है। विधानसभा का शीतकालीन पहला सत्र सात दिनों का होगा किंतु हम उम्मीद कर रहे हैं कि आने वाले सत्र पर्याप्त अवधि के होंगे; लोक महत्व के तमाम विषयों पर निर्वाचित सदन में गंभीर बहसें होंगी; कार्रवाई के नाम पर महज खानापूरी न होगी; आरोप-प्रत्यारोप में ही सारा समय जाया नहीं होगा; और सबसे बढ़कर यह कि तीन दिन के लिए आहूत सत्र को डेढ़ दिन में समेट लेने जैसा प्रपंच नहीं होगा। देश की सबसे पुरानी पार्टी के प्रचंड बहुमत वाले सदन में सत्तारूढ़ दल के सामने एक नायाब अवसर होगा कि वह संसदीय जनतंत्र की क्षीण और मृत होती परंपराओं को पुनर्जीवन प्रदान कर देश के सामने एक उदाहरण पेश कर सके। इस तीन-चौथाई बहुमत ने सदन के नेता याने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है कि कार्यपालिका के साथ-साथ विधायिका की खोई गरिमा को वे नए सिरे से स्थापित करें।
नई विधानसभा के गठन को सरसरी तौर पर देखें तो कुछ दिलचस्प तस्वीरें सामने आती हैं। छत्तीसगढ़ का यह सदन भारत के बहुलतावादी, अनेकता में एकता वाले स्वरूप का एक लघु प्रतिबिंब होगा। इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई हम सब हैं भाई-भाई का उद्घोष साकार होगा। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी वर्गों के प्रतिनिधि यहां अपनी उपस्थिति दर्ज करेंगे। सामान्य धारणा है कि चुनाव जीतना एक बेहद खर्चीला उपक्रम है। किंतु यह सदन इस आम धारणा को झुठलाता है। सदस्यों के जीवन- वृत्त व पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानने से बात स्पष्ट हो जाएगी। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि मुख्यमंत्री किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। आज की तारीख में देश के सभी उनतीस राज्यों में भूपेश ही संभवत: एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जो फार्म हाउस वाले नहीं, बल्कि सही मायने में कृषकपुत्र हैं। (मैं जब यह कॉलम लिख रहा हूं तब तक नेता प्रतिपक्ष का नाम तय नहीं हुआ है। संभव है कि वे भी कृषक परिवार से ही आएं!)
एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इस सदन में प्रदेश के दो भूतपूर्व मुख्यमंत्री एक साथ उपस्थित रहेंगे- अजीत जोगी और रमन सिंह। एक इंजीनियर, एक डॉक्टर। पहली बार पति-पत्नी का जोड़ा भी विपक्ष की बैंचों पर दिखाई देगा। इस बार एक भी निर्दलीय विधायक नहीं होगा, लेकिन पहिली बार एक साथ चार राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व देखने मिलेगा। कांग्रेस, भाजपा और बसपा, इन तीन राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दल छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) के विधायक भी यहां शोभायमान होंगे। यह भी ध्यान आता है कि अजीत जोगी को चौवन साल की आयु में मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला था। डॉ. रमनसिंह ने इक्यावन वर्ष की उम्र में यह महती दायित्व संभाला था। जबकि भूपेश बघेल सत्तावन वर्ष के हो जाने पर इस पद पर चुने गए हैं। गो कि युवकोचित संघर्षशीलता उनकी आयु को झुठला देती है। प्रसंगवश उल्लेख करूं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ बहत्तर वर्ष के हैं।
ये सारी दिलचस्प झलकियां रिकॉर्ड के लिए हैं। लेकिन मैं सोचता हूं कि जब ये तमाम नब्बे विधायक सदन में पहली बार प्रवेश कर अपना आसन ग्रहण करेंगे तब उसकी दीवालें और छत देखकर उनके मन में क्या विचार उठेंगे! जब सभापति की आसंदी से कार्रवाई प्रारंभ करने की घोषणा होगी और सदस्यगण बोलने के लिए खड़े होंगे, तब क्या छत और इन दीवारों के साथ उनका कोई मौन वार्तालाप होगा, जिसे अन्य कोई न सुन सकेगा? क्या अपनी नई पार्टी के सुप्रीमो अजीत जोगी को याद आएगा कि नया राज्य गठित होने के बाद राजकुमार कॉलेज में अस्थायी विधानसभा स्थापित की गई थी और उन्होंने बड़ी हसरतों और वायदों के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी? क्या वे सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ कि मात्र तीन साल बाद प्रदेश की जनता ने उनके नेतृत्व को नकार दिया? क्या विधानसभा की दीवालों के मौन में उन्हें कोई उत्तर मिल पाएगा? सदन में दुबारा लौटने पर भी वे विपक्ष की बैंच पर बैठे हैं, यह जानकर उनका मन उनसे क्या कहता होगा?
क्या जोगीजी को यह याद रहा होगा कि जब उनकी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत था, तब उन्होंने दल-बदल का खेल खेलने की आवश्यकता क्यों महसूस की थी और जनमानस में उसकी अंतत: क्या प्रतिक्रिया हुई? इस सदन में जोगीजी के साथ उनके विश्वस्त धरमजीत सिंह भी होंगे जो स्थापित परंपरा को तोड़कर विधानसभा के उपाध्यक्ष बनाए गए थे। क्या आज धरमजीत सिंह के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि क्षणिक पद-लाभ के लोभ में उन्होंने तब क्या खो दिया था? वे सदन में दुबारा लौट आए हैं और अपनी पार्टी के विधायक दल के नेता भी मनोनीत हो गए हैं, किंतु सदन के कोलाहल के बीच इस प्रखर विधायक के मन की खलिश कहीं दीवालों से टकराकर लौटती हो तो इसमें आश्चर्य नहीं। डॉ. श्रीमती रेणु जोगी निवर्तमान सदन में विपक्ष की उपनेता थीं। वे इस बार भी अपनी पार्टी की उपनेता होंगी। पिछले साल चुनावी चर्चाओं के दौरान उनकी तुलना श्रीमती सुचेता कृपलानी से की गई थी। उन्हें कोटा से अपनी जीत का संतोष तो निश्चित होगा लेकिन क्या उनके मन के दरवाज पर यह विचार दस्तक दे रहा होगा कि सुचेता कृपलानी का अनुकरण करने में कहां कमी रह गई!
डॉ. रमन सिंह पंद्रह वर्ष बाद पहली बार विपक्ष में बैठेंगे। उनके साथ चौदह अन्य सदस्य भी होंगे। पक्ष-विपक्ष के बीच एक असंतुलन की स्थिति होगी। आज विधानसभा का जो आंतरिक अथवा बाह्य स्वरूप बना है उसके निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह सदन मौन साक्षी है कि मात्र इक्यावन साल के अपेक्षाकृत युवा मुख्यमंत्री के स्वभाव में छयासठ साल की प्रौढ़ अवस्था की ओर कदम बढ़ाते हुए कैसे-कैसे परिवर्तन आते गए हैं। दिल्ली के अंग्रेजी पत्रकार डॉ. रमन को ''बेबी फेस'' की संज्ञा देते थे। उस बालसुलभ सौम्य कोमलता पर धीरे-धीरे कर कठोरता की पपड़ी जमती गई; मितभाषिता का स्थान किसी हद तक मुखरता ने ले लिया। उनसे बेहतर आकलन कौन करेगा कि यह रूपांतरण कब-कैसे हो गया? सदन में बैठे हुए क्या वे यह सिंहावलोकन करेंगे? किसानों के लिए बैंक ब्याज दर में भारी कटौती, एक रुपए किलो चावल, वन अधिकार पट्टे, भीषण गर्मी में प्रदेश का धुआंधार दौरा, जैसे कदमों पर सलवा जुड़ूम, ताडमेटला, झलियामारी, पत्रकारों पर अत्याचार, अखबारों से पक्षपात जैसे तत्व कब हावी हो गए, क्या इनका कोई उत्तर वे खोज पाएंगे? और यह भी कि जिन पर उन्होंने आंख मूंदकर विश्वास किया, आज आम जनता में और मीडिया में खुलकर नामोल्लेख कर उन्हें क्यों कोसा जा रहा है।
नई-नवेली विधानसभा में नए-नवेले विधायकों की संख्या अच्छी खासी होगी। उनके साथ दो बार से लेकर आठ बार तक जीते जनप्रतिनिधि भी होंगे। यह अच्छी लगने वाली बात है कि सबसे वरिष्ठ दो विधायक आदिवासी समाज से आते हैं। सत्तापक्ष से रामपुकार सिंह, और विपक्ष से ननकीराम कंवर। दोनों पहली दफा 1977 में मध्यप्रदेश में विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। रामपुकार सिंह कल प्रोटैम स्पीकर की भूमिका में होंगे। लेकिन यह सवाल इन दोनों के मन में गूंज रहा होगा कि जिस प्रदेश में आदिवासियों की आबादी चौंतीस प्रतिशत है, क्या वहां सही मायनों में आदिवासियों का हित संरक्षण हो सका है? और यदि नहीं तो उसके लिए कौन, किस हद तक दोषी है? वरिष्ठ और अनुभवी प्रतिनिधियों में सत्यनारायण शर्मा, रवींद्र चौबे, बृजमोहन अग्रवाल, कवासी लखमा आदि भी होंगे। इन सबके मन में भी भावनाओं का अदृश्य ज्वार उमड़ कर सदन की छत तक पहुंच रहा होगा। क्या सोच रहे होंगे ये सारे लोग? अतीत के बारे में? भविष्य के बारे में? या सिर्फ वर्तमान के बारे में? भाग्यशाली देवव्रत सिंह के मन में क्या होगा? जिसने उन्हें तिरस्कृत करने में कोई कमी नहीं की, आज उसी के संग-साथ बैठना एक नया अनुभव होगा!
सदन के नेता याने मुख्यमंत्री, साथ-साथ उनके पूरे मंत्रिमंडल के लिए एक ओर जहां आत्मसंतोष का, निजी गौरव का क्षण होगा, वहीं झीरम घाटी त्रासदी का दर्द उन्हें साल रहा होगा। फिर आने वाले दिनों की चुनौतियां भी सामने होंगी। नब्बे हजार करोड़ या अधिक का बजट तो बन जाएगा, लेकिन उसे विवेकपूर्ण ढंग से लागू करने में क्या अड़चनें आएंगी यह भारी सवाल मुंह बाए खड़ा होगा। प्रदेश की जनता ने राहत महसूस की है कि उसके गले में फंसा फंदा खुल गया है, लेकिन इस प्रारंभिक राहत को स्थायी किस विधि से बनाया जाए, यह माथापच्ची तो होगी ही। जनता की आशाएं प्रज्ज्वलित हो गई हैं। इन्हें व्यवस्थित कैसे किया जाए, प्राथमिकताएं कैसे निर्धारित हों, अधिकतम जन को अधिकतम संतुष्टि कैसे मिले, इन सारी बातों पर बेहद सावधानी के साथ निर्णय लेना होंगे। लोकसभा चुनाव सामने है। उनका भी ध्यान रखना ही है। पराए निकट आएं और अपने नाराज या दुखी होकर दूर न चले जाएं यह भी देखना है। अस्तु, सबके प्रति शुभकामनाएं।
#देशबंधु में 03 जनवरी 2018 को प्रकाशित