शाकिर अली के पहले ही लेख ने साहित्य जगत की प्याली में एक छोटा-मोटा तूफान उठा दिया था। यह वाकया आपातकाल लागू होने के कुछ समय बाद का है। जबलपुर से 'पहल' पत्रिका को निकले अधिक समय नहीं हुआ था। उसके शुरूआती किसी अंक में पचहत्तर-छिहत्तर के दरम्यान कभी यह लेख छपा था। पहले तो लोगों ने समझा कि मध्यप्रदेश के वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता शाकिर अली का यह लेख है। लेकिन उनसे इस स्तर के अकादमिक लेख की अपेक्षा कोई नहीं करता था। खोज-खबर करने पर मालूम हुआ कि बिलासपुर के बीस-बाईस बरस के एक नौजवान ने यह निबंध लिखा है। मुझे उसकी धुंधली सी याद है। मध्यप्रदेश के कुछ उत्पाती कांग्रेसियों ने कुछ चाटुकार लेखकों के उकसावे पर इस लेख के खिलाफ हंगामा खड़ा कर दिया था। वे पहल को बंद करने तथा संपादक व लेखक पर कार्रवाई करने की मांग कर रहे थे। प्रकाशचंद्र सेठी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने जहां जैसा भी सलाह-मशविरा किया हो, उत्पातियों की मांग पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अनुमान कर सकते हैं कि लेख में तत्कालीन केन्द्र सरकार की रीति-नीति की आलोचना की गई थी।
जाहिर है कि इस पहले लेख के प्रकाशन के साथ ही बिलासपुर के युवा शाकिर अली की साहित्य जगत में पहचान बन गई। लेख में तार्किकता के बजाय भावुकता का पुट कुछ अधिक था, लेकिन समय के साथ शाकिर की रचनात्मक प्रतिभा का परिपक्व ढंग से विकास हुआ है और यह भी अच्छी बात है कि उनकी तरुणोचित भावुकता समय के साथ सूखी नहीं है। वे एक तरल, पारदर्शी और विचार-सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी हैं। यह हाल में प्रकाशित उनके दो कविता संग्रहों को पढ़कर हम जान सकते हैं। शाकिर कविताएं बहुत लंबे समय से लिख रहे हैं, तकरीबन चालीस साल से, लेकिन उनका अब तक कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ था। इसका एक कारण शायद यह रहा हो कि वे क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में कार्यरत थे जिसके चलते उन्हें छत्तीसगढ़ के बस्तर सहित अनेक दूरस्थ इलाकों के गांवों में एक लंबा समय बिताना पड़ा जहां बैठकर वे कविताएं तो लिख सकते थे, लेकिन संकलन तैयार कर उसे प्रकाशित कराने की सुविधा नहीं थी! अब जब वे सेवानिवृत्ति के बाद घर लौट आए हैं तब ही शायद उन्हें समय मिल पाया कि वे कविता संकलन प्रकाशित करने के बारे में संजीदगी से सोच सकें!
'बचा रह जाएगा बस्तर' में चौवन और 'नए जनतंत्र में' अट्ठाइस, इस तरह कुल जमा ब्यासी कविताएं उन्होंने प्रकाशित की हैं। इन दोनों संकलनों को पढऩे के बाद में मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वे जिस खूबी से दस-बारह लाइन की छोटी कविताओं में अपनी बात कह जाते हैं उसे वे लंबी कविताओं में सामान्यत: नहीं साध पाते। शाकिर अली प्रगतिशील विचारधारा के लेखक हैं। उन्होंने अपने आसपास के जीवन को नजदीक से देखा है तो दूसरी ओर देश और दुनिया में जो कुछ घटित हो रहा है उसे भी वे सतर्क दृष्टि से देखते-समझते हैं। हर लेखक की सहानुभूति हाशिए पर खड़े समाज के साथ होती है; उनके साथ होती है जो सताए गए हैं, दबाए गए हैं, कुचले गए हैं और जिनकी आवाज सत्ता के गलियारे में, कुबेर की अट्टालिकाओं में अनसुनी कर दी जाती है। जिस लेखक की कलम पर जन-जन की पीड़ा न उभरे वह लेखक ही क्या? शाकिर अली की कविताएं अपने काल के सच्चे कवि की रचनाएं हैं। उनकी छोटी कविताओं की खूबी यह है कि वे किसी घटना के साक्षी बनते हैं, किसी दृश्य को देखते हैं और बिजली की कौंध सी तड़प और त्वरा के साथ गहराई तक चीरकर सच को सामने ले आते हैं।
'अहा सुंदर बस्तर' शीर्षक कविता बस्तर के प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन से प्रारंभ होती है, लेकिन आखिरी पंक्ति तक पहुंचने पर वह पाठक को स्तब्ध कर देती है। इस कविता को पढि़ए-
बस्तर में अभी भी फलते हैं
फल पेड़ों पर!
इमली आम, महुआ, तेन्दू, साल के
पेड़ों की भरमार है,
यहां के पहाड़ों के बदन पर
झरने फूटते हैं, अभी भी
बहकर जाता है, पानी
नदी नाले, इन्द्रावती से होकर
गोदावरी में,
बचे हुए पेड़, पहाड़ बारहों माह हरे रहते हैं,
गनीमत है, अभी भी
बारुद-असला पेड़ों पर नहीं
गोदामों में ही फलते-फूलते हैं!!
स्कूल बंद है, बारूदनाथ, एनकाउंटर और अन्य तमाम कविताएं विगत कुछ दशकों से बस्तर में विद्यमान खौफनाक परिस्थितियों से हमारा सामना करवाती हैं। वे खोखले दावों को ध्वस्त कर सच्चाई को उजागर करती हैं। बस्तर में एक अंतहीन सी लगने वाली लड़ाई चल रही है, जिसमें कौन किसके साथ हैं, यह समझना दुश्वार है, किन्तु इतना तय है कि आदिवासी के साथ कोई नहीं है। ''कोरेनार का स्कूल'' और ''बंकर'' दो छोटी कविताओं में यह त्रासदी उजागर होती है।
कोरेनार का स्कूल
सैकड़ों की भीड़ ने
कुदाल फावड़े से स्कूल भवन
तोड़ डाला,
बच्चे, पेड़ों के नीचे, कापी-किताब के साथ
बारिश में कांपते, गलते खड़े थे
गुरुजी भी भीगते खड़े थे, अपनी छड़ी के साथ!
बंकर
सर्व-शिक्षा अभियान के पैसे से
लोहे के खिड़की-दरवाजों वाला
कांक्रीट से बना,
स्कूल भवन, ध्वस्त था
जिसे दिल्ली से आई अंतरराष्ट्रीय बुद्धिजीवी ने भी
बंकर माना!
बस्तर पर सुदीप बनर्जी ने बहुत सी कविताएं लिखी हैं। आलोक वर्मा की कविताएं भी याद आती हैं। उन कविताओं में जो बेचैनी और तड़प है, शाकिर अली की कविताएं उसी उद्वेग को और गहरा करती हैं। शाकिर ने अपनी कविताओं में लाला जगदलपुरी और शानी को भी याद किया है जिन्होंने अपनी रचनाओं में बस्तर के दर्द को समेटा था। परन्तु ये आज अभी की कविताएं ऐसी निर्मम सच्चाई का बयान करती हैं जिसकी हमने आज से तीस-चालीस साल पहले कल्पना भी नहीं की थी।
बचा रह जाएगा बस्तर में एक सुंदर लंबी कविता है- नि:शब्द खटकते हैं महुआ फूल। इस कविता का दूसरा पैराग्राफ मैं उद्धृत करना चाहता हूं-
हर पेड़ का अपना टपकता समय है
गीदम में बैंक के सामने रोज सुबह साढ़े आठ बजे
टपकता है महुआ!
जिसके बाजू में है, चाय का ठेला
आ जाती है काम वाली डोकरी फूलो
बर्तन मांजना छोड़कर उसे बीनने
या फिर कुचल जाते हैं, महुआ फूल
आती-जाती ट्रक के भारी पहियों के बीच!!
कवि जब ट्रक के भारी पहियों के बीच महुआ फूलों के कुचल जाने की बात कहता है तो मुझे एकाएक लगता है जैसे वह आदिवासियों के कुचले जाने की बात कह रहा हो।
'नए जनतंत्र' में उनका दूसरा कविता संग्रह है। मुझे इस संग्रह के शीर्षक पर आपत्ति है। क्योंकि उससे एक भ्रम उत्पन्न होता है। इस संकलन की एक कविता है ''कविता के नए जनतंत्र में"। इसका आधा हिस्सा लेकर पुस्तक को शीर्षक दे दिया गया। यह आधा शीर्षक एक व्यापक पृष्ठभूमि का बोध कराता है, जबकि कविता लेखक और पाठक के आपसी रिश्ते पर एक चुटीला व्यंग्य करती है याने वह एक सीमित विषय पर रची गई है। बहरहाल इस संकलन की अधिकतर कविताएं कुछ लंबी हैं और जिनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय है-
''मां ने सोते हुए बच्चो के सपनों में पहली बार प्रवेश किया था।''
यह शीर्षक असामान्य रूप से लम्बा है और विनोद कुमार शुक्ल की याद दिलाता है। बहरहाल, इसका यह अंश पढि़ए-
छोटे के सिर को सहलाया था,
मंझले को डांटा था
बड़ी को समझाया था
देख तू ऐसा करके मेरा दिल मत दुखाया कर!
मां ने सोते हुए बच्चो के
सपनों में
पहली बार
प्रवेश किया था!!
यह अत्यंत मार्मिक कविता है। मां के गुजर जाने के बाद घर की क्या हालत होती है, बच्चों पर क्या बीतती है, मासूम देखते ही देखते कैसे बड़े हो जाते हैं, इन सारी स्थितियों का सूक्ष्म और चित्रात्मक वर्णन कवि ने किया है। इसमें घर की बड़ी बेटी ने कैसे मां के चले जाने के बाद जिम्मेदारियां संभाल ली थी, उसका विश्लेषण कवि ने बड़ी गहराई व आत्मीयता के साथ किया है। इस कविता का अंतिम अंश दृष्टव्य है-
रात को सबसे आखिर में
सोने से पहले
मां की तरह बहन ने ग्रिल के फाटक पर
ताला जड़ा था!
और बिस्तर पर आने से पहले
छूटा हुआ होम वर्क पूरा कर रही थी,
मां ने बच्चो के सपनों में आना
अब छोड़ दिया था!!
इस संकलन की कपड़े का आदमी, उसका इतिहास, दोषी और निर्दोष इत्यादि कविताएं भी उल्लेखनीय हैं। संकलन में "स्त्री पढ़ रही है" शीर्षक कविता मुझे बहुत कमजोर प्रतीत हुई। यह एक रूमानी सोच की कविता है जिसकी कल्पना तो अच्छी लगती है, लेकिन जो सच्चाई से बहुत दूर है।
दोनों संकलनों में कुछ कविताएं ऐसी हैं जो या तो साहित्यिक मित्रों को समर्पित हैं या जिसमें उनके नामों का उल्लेख हुआ है। मुझे लगता है कि यहां कवि पर व्यक्ति शाकिर हावी हो गया है। कविता में दोस्तों का उल्लेख हो सकता है, लेकिन वह किसी वृहत्तर संदर्भ में उद्देश्यपूर्ण ढंग से हो तो ठीक है। सिर्फ मित्रता के निर्वाह के लिए या कृतज्ञता ज्ञापन के लिए ऐसा उल्लेख कविता को कमजोर बना देता है। हो सकता है कि शाकिर अली मेरी राय से सहमत न हों। मेरा यह भी कहना है कि दोनों संकलनों का संपादन कुछ बेहतर तरीके से किया जा सकता था। कविताओं पर गिने-चुने लेखकों की राय या उनके पत्र, इन सबको शामिल करने की आवश्यकता नहीं थी। इसके अलावा मेरी हर लेखक को राय है कि संकलन प्रकाशित करते समय हर कविता या कहानी का रचनाकाल अवश्य उल्लेख करना चाहिए। शाकिर अली को किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। उन्हें अपनी रचना की ताकत पर भरोसा रखना चाहिए थे। जो भी हो, मुझे प्रसन्नता है कि शाकिर अली की कविताएं अब संकलन के रूप में एक साथ उपलब्ध हैं। मैं इनमें एक बार फिर बस्तर पर केन्द्रित कविताओं का उल्लेख करना चाहूंगा। वे अपने समय की एक भीषण सच्चाई का दस्तावेज हैं और इसलिए वे आने वाले समय के लिए बेहद मूल्यवान हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि हमें शाकिर अली की ताजा कविताएं भी जल्दी पढऩे मिलेंगी।
अक्षर पर्व दिसंबर 2018 अंक की प्रस्तावना
बचा रह जायेगा बस्तर (कविता संग्रह)
कवि- शाकिर अली
प्रकाशक- उद्भावना, एच-55, सेक्टर-23, राजनगर, गाजियाबाद, मो. 9811582902
पृष्ठ- 80
मूल्य- 125 रुपए
****
नये जनतंत्र में (कविता संग्रह)
कवि- शाकिर अली
प्रकाशक- उद्भावना, एच-55, सेक्टर-23, राजनगर, गाजियाबाद, मो. 9811582902
पृष्ठ- 80
मूल्य- 125 रुपए
No comments:
Post a Comment