छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में शराबबंदी को एक महत्वपूर्ण बिन्दु बनाया था। सरकार बन जाने के बाद कर्जमाफी जैसे कुछ मुद्दों पर अमल होना शुरू हो गया है। किन्तु शराबबंदी पर प्रतीत होता है कि अभी सरकार के भीतर सोच-विचार जारी है। स्वाभाविक ही अपदस्थ भारतीय जनता पार्टी इसे वादाखिलाफी निरूपित कर रही है, किन्तु मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस पर कटाक्ष करते हुए माकूल जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि वे नोटबंदी की तर्ज पर शराबबंदी नहीं करना चाहते और यह काम पूरी तैयारी के बाद ही होगा। राज्य सरकार ने इसके बाद इतने अहम मसले पर विचार करने के लिए दो कमेटियां गठित करने की भी घोषणा कर दी है। हम उम्मीद करना चाहेंगे कि पिछली सरकार द्वारा इसी मुद्दे पर गठित समिति की तरह ये समितियां शीर्षासन नहीं करेंगी।
भारत में पिछले दो-तीन दशकों के भीतर मद्यपान का चलन खूब बढ़ा है। खूब याने कई-कई गुणा बढ़ोतरी हुई है। इस नई चलन का दुष्प्रभाव सामाजिक और पारिवारिक जीवन में देखने मिल रहा है। एक तरफ टेक्नालॉजी के विकास के साथ बढ़ती हुई इच्छाएं, बाजार और विज्ञापन के प्रलोभन, मीडिया और सोशल मीडिया के षड़यंत्र से बढ़ते हुए मनोविकार, दूसरी ओर बढ़ती हुई आबादी, आनुपातिक रूप से घटती हुई आमदनी, और उसमें असली-नकली जहरीली शराब का सेवन इन सबने मिलकर पारिवारिक जीवन का ताना-बाना छिन्न-भिन्न करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी है। इस नए वातावरण का सर्वाधिक दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों को झेलना पड़ रहा है। हिंसा, अपराध, और दुर्घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है; और जैसा कि मैं कहते आया हूं भारतीय समाज एक क्रुद्ध व संशयग्रस्त समाज में तब्दील होते जा रहा है।
भारतीय समाज में आई इस प्रदूषित मानसिकता पर हम आगे कभी विचार करेंगे। फिलहाल शराबबंदी पर चर्चा करते हुए स्पष्ट जान पड़ता है कि चुनाव में वोट हासिल करने जनता के बीच जाने वाले राजनेता मदिरापान के दुष्प्रभावों से अनभिज्ञ नहीं हैं। दो साल पहले ही तो बिहार में नीतीश कुमार ने शराबबंदी का वायदा किया, उस पर अमल भी किया जिसके लिए उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिली। लेकिन यह सच्चाई अपनी जगह है कि व्यापक रूप से फैली एक सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर नहीं रोका जा सकता। हमारे देश में कानूनों की कमी नहीं है। लेकिन इन कानूनों पर अमल करने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक संकल्पबद्धता की आवश्यकता है वह फिलहाल नहीं है। इसका कारण है कि राजनीतिक दलों ने लोक शिक्षण के प्राथमिक दायित्व से अपने हाथ खींच रखे हैं।
यह हमें पता है कि सुरापान की परिपाटी आज की नहीं, बल्कि प्राचीन इतिहास काल से चली आ रही है। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि हर मनुष्य को कोई न कोई लत अवश्य लगी रहती है। लेखकों, कलाकारों के बारे में तो कहा जाता है कि वे ऐसा कोई शौक अवश्य पाले रहते हैं जिससे उनकी कल्पना व रचनाशीलता को पंख लगते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि कोई भी लत, आदत या शौक अगर सीमा से बाहर बढ़ जाए तो उससे व्यक्ति को नुकसान ही होता है। मनुष्य चूंकि सामाजिक प्राणी है इसीलिए व्यक्ति को होने वाला नुकसान निजी न होकर किसी मात्रा में सामाजिक हानि के दायरे में आ जाता है।
शराबबंदी के सिलसिले में कुछ दृष्टांत ध्यान में आते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1920 के दशक में मद्यनिषेध कानून लागू किया गया था। कहते हैं कि उसके बाद शराब की अवैध बिक्री का व्यापार खूब बढ़ा और उसके चलते ही माफिया की ताकत बहुत अधिक बढ़ी। हमारे यहां गुजरात में सत्तर साल से मद्यनिषेध लागू है किन्तु गुजरात का कोई भी इलाका नहीं है जहां शराब की अवैध बिक्री न होती हो। गुजरात से लगे राजस्थान में कोई पाबंदी नहीं है सो साधनसम्पन्न गुजराती माऊंट आबू आदि जाकर छककर मदिरा सेवन करते हैं और वापस अपने प्रदेश लौट आते हैं। तमिलनाडु में आजादी के बाद ही मद्यनिषेध कानून लाया गया था लेकिन कुछ सालों बाद खत्म कर दिया गया। केरल में अभी कुछ साल पहले कानून आया और फिर उसमें छूट देना पड़ी। यही स्थिति लगभग चालीस साल पहले महाराष्ट्र में हुई जब छूट मिलने के बाद चलती ट्रेनों में बीयर की बिक्री होने लगी।
अभी बिहार से भी कानून को तोड़़ने की खबरें लगातार आ रही हैं। कुछ अन्य राज्यों में भी कानून लागू है, लेकिन वहां भी इसे शिथिल करने पर विचार किया जा रहा है। कानून बनाने उसे शिथिल करने या पूरी तरह से उठा लेने की प्रक्रिया में गोया लुका-छिपी का खेल चल रहा है। इसके दो कारण जाहिरा तौर पर समझ आते हैं। एक तो शराब बिक्री से प्राप्त पृथक राजस्व याने आबकारी कर का मोह कोई सरकार नहीं छोड़ना चाहती। यह हमने साठ साल पहले तमिलनाडु में देखा था। दूसरे, अवैध व्यापार के चलते कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने का भय भी सरकार के सामने बना रहता है। दूसरी ओर पचास फीसदी आबादी याने महिलाओं के वोटों का आकर्षण शराबबंदी के पक्ष में माहौल बनाता है। यह एक दुविधापूर्ण स्थिति है। इससे बाहर कैसे निकला जाए और क्या कोई स्थायी समाधान खोजना संभव है? ये सवाल हमारे सामने खड़े हैं। मेरी समझ में सरकार को आबकारी कर से प्राप्त आय का लालच नहीं करना चाहिए। इससे जो राजस्व प्राप्त होता है उससे कई गुना अधिक व्यय शराब से उपजी बीमारियों और दुर्घटनाओं के उपचार में हो जाता है।
शराब के अत्यधिक सेवन के कारण स्वयं शराबी की सेहत को तो नुकसान पहुंचता ही है; घर और बाहर सिर फूटने, हड्डियां टूटने और मरने तक के हादसे होते हैं। शराब पीकर दंगे-फसाद भी होते हैं जिसमें पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी के समय व साधन जाया होते हैं। याने बैलेंसशीट बनाएं तो राजस्व कम और व्यय कई गुना अधिक।
मेरा अपना अध्ययन कहता है कि अमेरिका की अविचारित सोच के चलते जब से अन्य मादक द्रव्यों पर रोक लगाई गई है तब से मयनोशी की बुराई अधिक बढ़ी है। हमारे यहां और पूरी दुनिया में अफीम, भांग, गांजा, चरस इनका इस्तेमाल बहुत पहले से होता आया है। इसे रोकने के चक्कर में ड्रग माफिया और ड्रग कार्टेल पैदा हो गए। अब अमेरिका को समझ आई है तो धीरे-धीरे ये प्रतिबंध समाप्त हो रहे हैं। ये ऐसे नशे हैं जिनसे बड़ी सामाजिक क्षति नहीं होती। मैं समझता हूं कि इस पर हमारी सरकारों को भी विचार करना चाहिए। मेरी दूसरी राय है कि यदि शराब माफिया को खत्म करना है तो शराब बिक्री के लिए लाइसेंस प्रणाली में बड़ी छूट दी जाना चाहिए; नहीं तो माफिया ही सरकार चलाते रहेंगे। तीसरी बात, देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में भी ऐसे अनेक सामाजिक समूह हैं जिनके लिए मदिरापान उनके सामाजिक संस्कारों का अभिन्न अंग है। देखना यह होगा कि पेसा क्षेत्र में व्यवसायिक शराब बिक्री की अनुमति बिल्कुल न हो। मेरा अंतिम सुझाव छत्तीसगढ़ सरकार को है कि प्रदेश में जल्दी बड़े पैमाने पर इस मुद्दे पर पारदर्शी ढंग से जनसुनवाइयों का आयोजन हो। इस व्यापक परामर्श से ही आगे का रास्ता निकलेगा।
(प्रयास, रायपुर द्वारा 18 जनवरी को ''शराबबंदी: अवधारणा व औचित्य'' विषय पर आयोजित संगोष्ठी में दिए अध्यक्षीय वक्तव्य का संवर्द्धित रूप)
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