Wednesday 30 January 2019

प्रियंका गांधी : उदात्त राजनीति की संभावना

प्रियंका गांधी 19 मार्च 2008 को वैल्लोर, तमिलनाडु के केंद्रीय कारागार पहुंचीं थीं। मकसद था बंदिनी नलिनी से भेंट करना। हत्यारों के जिस गिरोह ने लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरन के आदेश पर राजीव गांधी की हत्या की थी, नलिनी उसकी एक सदस्य थी। प्रियंका ने उससे मुलाकात की और अपने व अपने परिवार की ओर से उसे क्षमा कर देनेेे का संदेश दिया। भारत के राजनैतिक इतिहास में यह एक अनूठी घटना थी। आज जब प्रियंका गांधी औपचारिक तौर पर राजनीति के मंच पर आ गई हैं और कांग्रेस पार्टी के एक महासचिव का पद संभाल लिया है, तब ग्यारह साल पुराने इस प्रसंग को याद रख लेना चाहिए। क्योंकि इसके निहितार्थ गहरे व दूरगामी हैं। आज भले ही प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने को आसन्न लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा हो; मुझे लगता है कि इसमें कहीं राजनीति की क्षुद्रता से उठकर उसे उदारवादी स्वरूप देने की चाहत छुपी हुई है। पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक की राजनीतिक यात्रा का अध्ययन करने से बात कुछ साफ हो सकेगी।
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जवाहरलाल नेहरू को ऋतुराज की उपाधि दी थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में ही वे विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बन चुके थे। वे प्रधानमंत्री बने तब उन्हें अजातशत्रु कहा गया। महान इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने कहा कि जब राजनीति के परिष्कार की आवश्यकता होती है तब नेहरू जैसे राजनेता का उदय होता है। पं. नेहरू के निधन के बाद इंदिरा गांधी की राजनीति में आने की कोई इच्छा नहीं थी। वे तब अपनी इंग्लैंडवासी सहेली को पत्र लिखकर कहीं ठीक-ठाक रोजगार की तलाश कर रहीं थीं। यह एक विडम्बना भरा संयोग था कि शास्त्रीजी के आकस्मिक निधन के बाद उन्हें एक कमजोर राजनेता मानकर प्रधानमंत्री पद की पेशकश की गई, ताकि कांग्रेस के घुटे हुए नेताओं का सिंडीकैट अपनी मनमर्जी शासन कर सके। बेशक आगे चलकर इंदिराजी का एक कठोर स्वरूप सामने आया। उन्होंने पार्टी के भीतर व बाहर अपने विरोधियों को पस्त करने के लिए हर तरह के उपाय किए, फिर भी मैं कहूंगा कि अपने जटिल व्यक्तित्व के बावजूद देशहित उनके लिए सर्वोपरि था और देश की जनता से उन्हें सच्चा प्रेम था।
जैसा कि हम जानते हैं राजीव गांधी भी अनिच्छा से राजनीति में आए थे। उनकी अनुभवहीनता और निश्छल स्वभाव का अनुचित लाभ उनके करीब समझे जाने वाले दोस्तों व सहयोगियों ने उठाया, जिसकी परिणति 1989 के चुनावों में हार के साथ हुई। वे दो साल बाद जीतकर लौटने की राह पर थे, तभी लिट्टे को सामने कर उनकी हत्या कर दी गई। अगर वे दुबारा प्रधानमंत्री बनते तो हमें उनका एक नया रूप देखने मिलता। उनके निधन के बाद सोनिया गांधी ने लंबे समय तक राजनीति से दूरी बनाए रखी। सात साल बाद जब उन्हें लगा कि उनके आए बिना पार्टी बिखर जाएगी तब 1998 में बेमन से वे सक्रिय राजनीति में आईं। यहां एक कम चर्चित प्रसंग का उल्लेख करना वांछित होगा। लाभ का पद मामले में जब तमाम संबंधित राजनेता अपनी कुर्सी बचाने की जोड़तोड़ में लगे थे, तब सोनिया गांधी अकेली थीं, जिन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और उपचुनाव जीतकर दुबारा सदन में लौटीं। और यह तो सर्वविदित है कि इसके पूर्व 2004 में उन्होंने प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया था।
राहुल गांधी की अब तक की यात्रा पर गौर करें तो भी यही अनुभव होता है कि वे राजनीति में आने के इच्छुक नहीं थे। पिछले पंद्रह साल में इसको लेकर राहुल का उपहास करने में विपक्षियों ने कोई कसर बाकी नहीं रखी, किंतु अन्यत्र निरपेक्ष भाव से यह विश्लेषण भी किया गया है कि अपनी दादी और फिर अपने पिता की नृशंस हत्या देख लेने के कारण वे राजनीति से दूर ही रहना चाहते थे। जयपुर में कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत होने के बाद उन्होंने सोनिया गांधी के हवाले से राजनीति को जहर भी निरुपित किया था। इस पृष्ठभूमि में यदि प्रियंका भी राजनीति से सायास दूरी बनाकर चल रही थीं तो यह समझ में आने वाली बात है। उनके आगमन को भी इस परंपरा के विस्तार में देखा जाना उपयुक्त होगा। विगत वर्षों में वे सोनिया गांधी व राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र में ही यथा आवश्यक भूमिका निभाती रहीं हैं। अब देखना खास दिलचस्प होगा कि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का निखार किस तरह होता है।
राहुल गांधी ने हाल-हाल में जाहिर किया है कि वे शिव के उपासक हैं। सामान्य तौर पर यह भी ज्ञात है कि वे बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित हैं और विपश्यना आदि में उनकी रुचि है। प्रियंका गांधी के बारे में भी उपलब्ध जानकारी यही है कि वे बौद्ध धर्म को मानती हैं। क्या अपने पिता की हत्या के अपराध में शामिल नलिनी को माफ कर देने के पीछे गौतम बुद्ध द्वारा प्रदत्त करुणा का प्रभाव रहा होगा! भारतीय मनीषा के व्यापक संदर्भ में देखें तो उसका निर्माण और विकास करुणा, क्षमा, अहिंसा, समन्वय, सद्भाव और सहानुभूति से हुआ है। प्रश्न यह है कि प्रियंका गांधी देश की राजनीति में इन उदात्त मूल्यों की अभिवृद्धि करने में कितनी सफल भूमिका निभा पाती हैं।
जहां तक तात्कालिक राजनीति व लोकसभा चुनावों की बात है, यदि उसमें प्रियंका गांधी अपनी पार्टी की ओर से जिम्मेदारी संभाल रही हैं तो उसमें किसी को भी ऐतराज क्यों होना चाहिए? जो लोग इस संदर्भ में तरह-तरह के आरोप लगा रहे है, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि वे संकीर्ण मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। खुले मन से विचार करें तो इस सच्चाई को जानना कठिन नहीं है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जो प्रचंड विजय मिली थी उसे दोहराना अब संभव नहीं है। श्री मोदी को तब मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने अवतारी पुरुष की तरह देखा था, जिसके दामन पर कोई दाग नहीं लग सकता, जो अपराजेय है और जो भारत में किसी मिथिकीय स्वर्णयुग को वापिस लाएगा। समय के साथ यह विराट छवि टूटती गई है। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक-हर मोर्चे पर मोदी सरकार की नीतियां असफल होते जा रही हैं। सरकार की सोच का दायरा अत्यंत सीमित है। एक के बाद एक निर्णय गलत और हाहाकार मचाने वाले सिद्ध हुए हंै।
हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने मोदी नीति का खोखलापन सिद्ध कर दिया है। भाजपा को पांच साल पहले दुर्लभ संयोग से उत्तर प्रदेश में तिहत्तर सीटें मिल गई थीं। सभी विपक्षी दल मिलकर इस मिट्टी के किले को ढहा देना चाहते हैं। स्वयं कांग्रेस के लिए आवश्यक है कि वह उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करे तथा क्षेत्रीय दलों की कृपा पर जीवित न रहे। पार्टी अध्यक्ष होने के नाते राहुल गांधी को पूरे देश में धुआंधार दौरे करना पड़ेंगे। उ.प्र. में कांग्रेस के पास फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका बाईस करोड़ की आबादी वाले विशाल प्रदेश में व्यापक प्रभाव हो। याद रखें कि चुनावी नजरिए से कांग्रेस ने प्रदेश को दो हिस्सों में बांट दिया है। और दो युवा नेताओं ज्योतिरादित्य सिंधिया व प्रियंका गांधी को एक-एक की जिम्मेदारी दे दी है। यह एक सुविचारित रणनीति प्रतीत होती है। कांग्रेस को यदि इसका लाभ मिलता है तो देश की राजनीति में एक नए युग की शुरूआत होगा। इस हेतु हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए।
#देशबंधु में 31 जनवरी 2019 को प्रकाशित

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