छत्तीसगढ़ राज्य की पांचवी विधानसभा का उद्घाटन कल 4 जनवरी 2019 को होगा। नवगठित सभा पूर्ववर्तियों से कई दृष्टियों से भिन्न होगी। इसे लेकर प्रदेशवासियों के मन में एक नये उत्साह और रोमांच का भाव है। एक नया विश्वास भी है। विधानसभा का शीतकालीन पहला सत्र सात दिनों का होगा किंतु हम उम्मीद कर रहे हैं कि आने वाले सत्र पर्याप्त अवधि के होंगे; लोक महत्व के तमाम विषयों पर निर्वाचित सदन में गंभीर बहसें होंगी; कार्रवाई के नाम पर महज खानापूरी न होगी; आरोप-प्रत्यारोप में ही सारा समय जाया नहीं होगा; और सबसे बढ़कर यह कि तीन दिन के लिए आहूत सत्र को डेढ़ दिन में समेट लेने जैसा प्रपंच नहीं होगा। देश की सबसे पुरानी पार्टी के प्रचंड बहुमत वाले सदन में सत्तारूढ़ दल के सामने एक नायाब अवसर होगा कि वह संसदीय जनतंत्र की क्षीण और मृत होती परंपराओं को पुनर्जीवन प्रदान कर देश के सामने एक उदाहरण पेश कर सके। इस तीन-चौथाई बहुमत ने सदन के नेता याने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी डाल दी है कि कार्यपालिका के साथ-साथ विधायिका की खोई गरिमा को वे नए सिरे से स्थापित करें।
नई विधानसभा के गठन को सरसरी तौर पर देखें तो कुछ दिलचस्प तस्वीरें सामने आती हैं। छत्तीसगढ़ का यह सदन भारत के बहुलतावादी, अनेकता में एकता वाले स्वरूप का एक लघु प्रतिबिंब होगा। इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई हम सब हैं भाई-भाई का उद्घोष साकार होगा। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी वर्गों के प्रतिनिधि यहां अपनी उपस्थिति दर्ज करेंगे। सामान्य धारणा है कि चुनाव जीतना एक बेहद खर्चीला उपक्रम है। किंतु यह सदन इस आम धारणा को झुठलाता है। सदस्यों के जीवन- वृत्त व पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानने से बात स्पष्ट हो जाएगी। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि मुख्यमंत्री किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। आज की तारीख में देश के सभी उनतीस राज्यों में भूपेश ही संभवत: एकमात्र मुख्यमंत्री हैं जो फार्म हाउस वाले नहीं, बल्कि सही मायने में कृषकपुत्र हैं। (मैं जब यह कॉलम लिख रहा हूं तब तक नेता प्रतिपक्ष का नाम तय नहीं हुआ है। संभव है कि वे भी कृषक परिवार से ही आएं!)
एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इस सदन में प्रदेश के दो भूतपूर्व मुख्यमंत्री एक साथ उपस्थित रहेंगे- अजीत जोगी और रमन सिंह। एक इंजीनियर, एक डॉक्टर। पहली बार पति-पत्नी का जोड़ा भी विपक्ष की बैंचों पर दिखाई देगा। इस बार एक भी निर्दलीय विधायक नहीं होगा, लेकिन पहिली बार एक साथ चार राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व देखने मिलेगा। कांग्रेस, भाजपा और बसपा, इन तीन राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दल छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) के विधायक भी यहां शोभायमान होंगे। यह भी ध्यान आता है कि अजीत जोगी को चौवन साल की आयु में मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला था। डॉ. रमनसिंह ने इक्यावन वर्ष की उम्र में यह महती दायित्व संभाला था। जबकि भूपेश बघेल सत्तावन वर्ष के हो जाने पर इस पद पर चुने गए हैं। गो कि युवकोचित संघर्षशीलता उनकी आयु को झुठला देती है। प्रसंगवश उल्लेख करूं कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ बहत्तर वर्ष के हैं।
ये सारी दिलचस्प झलकियां रिकॉर्ड के लिए हैं। लेकिन मैं सोचता हूं कि जब ये तमाम नब्बे विधायक सदन में पहली बार प्रवेश कर अपना आसन ग्रहण करेंगे तब उसकी दीवालें और छत देखकर उनके मन में क्या विचार उठेंगे! जब सभापति की आसंदी से कार्रवाई प्रारंभ करने की घोषणा होगी और सदस्यगण बोलने के लिए खड़े होंगे, तब क्या छत और इन दीवारों के साथ उनका कोई मौन वार्तालाप होगा, जिसे अन्य कोई न सुन सकेगा? क्या अपनी नई पार्टी के सुप्रीमो अजीत जोगी को याद आएगा कि नया राज्य गठित होने के बाद राजकुमार कॉलेज में अस्थायी विधानसभा स्थापित की गई थी और उन्होंने बड़ी हसरतों और वायदों के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी? क्या वे सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ कि मात्र तीन साल बाद प्रदेश की जनता ने उनके नेतृत्व को नकार दिया? क्या विधानसभा की दीवालों के मौन में उन्हें कोई उत्तर मिल पाएगा? सदन में दुबारा लौटने पर भी वे विपक्ष की बैंच पर बैठे हैं, यह जानकर उनका मन उनसे क्या कहता होगा?
क्या जोगीजी को यह याद रहा होगा कि जब उनकी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत था, तब उन्होंने दल-बदल का खेल खेलने की आवश्यकता क्यों महसूस की थी और जनमानस में उसकी अंतत: क्या प्रतिक्रिया हुई? इस सदन में जोगीजी के साथ उनके विश्वस्त धरमजीत सिंह भी होंगे जो स्थापित परंपरा को तोड़कर विधानसभा के उपाध्यक्ष बनाए गए थे। क्या आज धरमजीत सिंह के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि क्षणिक पद-लाभ के लोभ में उन्होंने तब क्या खो दिया था? वे सदन में दुबारा लौट आए हैं और अपनी पार्टी के विधायक दल के नेता भी मनोनीत हो गए हैं, किंतु सदन के कोलाहल के बीच इस प्रखर विधायक के मन की खलिश कहीं दीवालों से टकराकर लौटती हो तो इसमें आश्चर्य नहीं। डॉ. श्रीमती रेणु जोगी निवर्तमान सदन में विपक्ष की उपनेता थीं। वे इस बार भी अपनी पार्टी की उपनेता होंगी। पिछले साल चुनावी चर्चाओं के दौरान उनकी तुलना श्रीमती सुचेता कृपलानी से की गई थी। उन्हें कोटा से अपनी जीत का संतोष तो निश्चित होगा लेकिन क्या उनके मन के दरवाज पर यह विचार दस्तक दे रहा होगा कि सुचेता कृपलानी का अनुकरण करने में कहां कमी रह गई!
डॉ. रमन सिंह पंद्रह वर्ष बाद पहली बार विपक्ष में बैठेंगे। उनके साथ चौदह अन्य सदस्य भी होंगे। पक्ष-विपक्ष के बीच एक असंतुलन की स्थिति होगी। आज विधानसभा का जो आंतरिक अथवा बाह्य स्वरूप बना है उसके निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह सदन मौन साक्षी है कि मात्र इक्यावन साल के अपेक्षाकृत युवा मुख्यमंत्री के स्वभाव में छयासठ साल की प्रौढ़ अवस्था की ओर कदम बढ़ाते हुए कैसे-कैसे परिवर्तन आते गए हैं। दिल्ली के अंग्रेजी पत्रकार डॉ. रमन को ''बेबी फेस'' की संज्ञा देते थे। उस बालसुलभ सौम्य कोमलता पर धीरे-धीरे कर कठोरता की पपड़ी जमती गई; मितभाषिता का स्थान किसी हद तक मुखरता ने ले लिया। उनसे बेहतर आकलन कौन करेगा कि यह रूपांतरण कब-कैसे हो गया? सदन में बैठे हुए क्या वे यह सिंहावलोकन करेंगे? किसानों के लिए बैंक ब्याज दर में भारी कटौती, एक रुपए किलो चावल, वन अधिकार पट्टे, भीषण गर्मी में प्रदेश का धुआंधार दौरा, जैसे कदमों पर सलवा जुड़ूम, ताडमेटला, झलियामारी, पत्रकारों पर अत्याचार, अखबारों से पक्षपात जैसे तत्व कब हावी हो गए, क्या इनका कोई उत्तर वे खोज पाएंगे? और यह भी कि जिन पर उन्होंने आंख मूंदकर विश्वास किया, आज आम जनता में और मीडिया में खुलकर नामोल्लेख कर उन्हें क्यों कोसा जा रहा है।
नई-नवेली विधानसभा में नए-नवेले विधायकों की संख्या अच्छी खासी होगी। उनके साथ दो बार से लेकर आठ बार तक जीते जनप्रतिनिधि भी होंगे। यह अच्छी लगने वाली बात है कि सबसे वरिष्ठ दो विधायक आदिवासी समाज से आते हैं। सत्तापक्ष से रामपुकार सिंह, और विपक्ष से ननकीराम कंवर। दोनों पहली दफा 1977 में मध्यप्रदेश में विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। रामपुकार सिंह कल प्रोटैम स्पीकर की भूमिका में होंगे। लेकिन यह सवाल इन दोनों के मन में गूंज रहा होगा कि जिस प्रदेश में आदिवासियों की आबादी चौंतीस प्रतिशत है, क्या वहां सही मायनों में आदिवासियों का हित संरक्षण हो सका है? और यदि नहीं तो उसके लिए कौन, किस हद तक दोषी है? वरिष्ठ और अनुभवी प्रतिनिधियों में सत्यनारायण शर्मा, रवींद्र चौबे, बृजमोहन अग्रवाल, कवासी लखमा आदि भी होंगे। इन सबके मन में भी भावनाओं का अदृश्य ज्वार उमड़ कर सदन की छत तक पहुंच रहा होगा। क्या सोच रहे होंगे ये सारे लोग? अतीत के बारे में? भविष्य के बारे में? या सिर्फ वर्तमान के बारे में? भाग्यशाली देवव्रत सिंह के मन में क्या होगा? जिसने उन्हें तिरस्कृत करने में कोई कमी नहीं की, आज उसी के संग-साथ बैठना एक नया अनुभव होगा!
सदन के नेता याने मुख्यमंत्री, साथ-साथ उनके पूरे मंत्रिमंडल के लिए एक ओर जहां आत्मसंतोष का, निजी गौरव का क्षण होगा, वहीं झीरम घाटी त्रासदी का दर्द उन्हें साल रहा होगा। फिर आने वाले दिनों की चुनौतियां भी सामने होंगी। नब्बे हजार करोड़ या अधिक का बजट तो बन जाएगा, लेकिन उसे विवेकपूर्ण ढंग से लागू करने में क्या अड़चनें आएंगी यह भारी सवाल मुंह बाए खड़ा होगा। प्रदेश की जनता ने राहत महसूस की है कि उसके गले में फंसा फंदा खुल गया है, लेकिन इस प्रारंभिक राहत को स्थायी किस विधि से बनाया जाए, यह माथापच्ची तो होगी ही। जनता की आशाएं प्रज्ज्वलित हो गई हैं। इन्हें व्यवस्थित कैसे किया जाए, प्राथमिकताएं कैसे निर्धारित हों, अधिकतम जन को अधिकतम संतुष्टि कैसे मिले, इन सारी बातों पर बेहद सावधानी के साथ निर्णय लेना होंगे। लोकसभा चुनाव सामने है। उनका भी ध्यान रखना ही है। पराए निकट आएं और अपने नाराज या दुखी होकर दूर न चले जाएं यह भी देखना है। अस्तु, सबके प्रति शुभकामनाएं।
#देशबंधु में 03 जनवरी 2018 को प्रकाशित
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