Thursday 17 January 2019

पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल


पत्रकारिता ऐसा पेशा है जिसमें जोखिम बहुत है। हाल के वर्षों में इसमें लगातार इजाफा हुआ है। यहां मुझे पचास साल से कुछ ऊपर हुए बिहार में अपराधिक तत्वों द्वारा एक पत्रकार की हत्या करने की वारदात याद आती है जिसके बाद मेरी एक सहपाठी ने चिंता व्यक्त करते हुए सलाह दी थी कि मुझे पत्रकारिता छोड़ कोई और काम कर लेना चाहिए। यह एक निजी प्रसंग है, लेकिन भारत में पत्रकारिता पर खतरा तो उसके जन्मकाल से ही चला आ रहा है। देश के पहले समाचारपत्र 'द बंगाल गजट' के स्वामी और संपादक जेम्स आगस्टस हिक्की को तत्कालीन वायसराय लार्ड वारेन हेस्टिंग्स ने जेल में डाल दिया था। इस घटना को सवा दो सौ साल हो गए हैं। इसके बाद उपनिवेशवादी सरकार ने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट याने भाषायी समाचारपत्र कानून लागू किया जिसकी चपेट में आकर भारतीय भाषाओं के कितने ही अखबारों पर ताला लग गया। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान प्रेस पर लगातार आक्रमण होते रहे। उस दौरान महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की भी साम्प्रदायिक दंगों के दौरान शांति स्थापना की कोशिश के बीच एक दंगाई ने हत्या कर दी थी। देश आजाद होने के बाद स्वस्थ, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के विकास की उम्मीदें की गई थीं।

 पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र पत्रकारिता के सच्चे अर्थों में हिमायती थे। लेकिन आजादी की संधि वेला में ही वृंदावन में आयोजित श्रमजीवी पत्रकार सम्मेलन में आशंका व्यक्त की गई थी कि पत्रकारिता पर पूंजीपतियों का कब्जा हो जाएगा और स्वस्थ पत्रकारिता का उन्नयन आकाश कुसुम सिद्ध होगा। बाबूराव पराडकर व बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे वरिष्ठ संपादकों ने बिना लाग-लपेट के इस बारे में मंतव्य व्यक्त किए थे। हुआ भी वैसा ही। प्रथम प्रेस आयोग ने स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए कुछ व्यवहारिक उपाय प्रस्तावित किए थे जिन्हें आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने अखबार मालिकों की मुनाफा कमाने की स्वतंत्रता को तब मौलिक अधिकार के समकक्ष निरूपित किया था।

परिणाम यह हुआ कि शनै: शनै: प्रेस पर पूंजी का आधिपत्य बढ़ते चला गया। प्रेस की शान में चाहे जितने कसीदे लिखे गए हों, सच्चाई यह थी कि पत्रकारिता पूंजी की दासी बनती चली गई। वैसे आपातकाल लगने के पूर्व तक केन्द्र और राज्यों में कार्यरत कांग्रेसी सरकारों का रवैया प्रेस के प्रति किसी हद तक मैत्रीपूर्ण था। उसका कारण यह था कि उस दौर के अधिकतर पत्रकारों की पृष्ठभूमि स्वाधीनता आंदोलन की थी इसलिए राजनेताओं और पत्रकारों के बीच किसी हद तक परस्पर सम्मान का भाव था। यद्यपि 1975 के पहले के सामान्य वातावरण में भी ऐसे प्रसंग घटित हुए हैं जब किसी मुख्यमंत्री ने किसी अखबार से नाराज होकर उसके विज्ञापन बंद कर दिए हों या अपने चहेते अखबारों को मनमाने लाभ दिए हों। कुछेक राजनेता, जिनमें दो-चार मुख्यमंत्री भी शामिल थे, पत्रकारिता की पृष्ठभू्मि से ही आए थे इसलिए उनके अपने अखबारों को तो राजपत्र होने का अघोषित दर्जा हासिल था।

आपातकाल के दौरान दिल्ली और अनेक प्रदेशों में प्रेस और पत्रकारों के साथ सरकार ने जो बर्ताव किया उसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल समाप्त होने के बाद लालकृष्ण आडवानी ने प्रेस पर जो टीका की थी, वह भी सबको याद होगी। 1977 के बाद पत्रकारिता के स्वरूप में एक के बाद एक बदलाव आना शुरू हो गए। अनेक मामलों में प्रेस को पुनर्प्राप्त स्वतंत्रता देखते ही देखते उच्छृंखलता में बदल गई। दूसरी ओर प्रेस ने अपना ध्यान राजनीति से इतर विषयों पर भी केन्द्रित किया। तीसरा परिवर्तन टेक्नालॉजी के विकास के साथ आया। कुल मिलाकर यह समय देश में पत्रकारिता बहुत अच्छा न सही, अच्छा तो अवश्य था।

1991 में कथित उदारीकरण के साथ राजनीति और अर्थनीति में जो युगांतरकारी परिवर्तन आया, प्रेस उससे अछूता न रहा। प्रेस संज्ञा का स्थान जल्दी ही मीडिया ने ले लिया। पुराने समय के जूट प्रेस में संपादकों और पत्रकारों का जो कुछ भी सम्मान था वह नए मीडिया मालिकों के निजाम में तिरोहित हो गया। मुनाफाखोर मीडिया मालिक और आत्मकेन्द्रित राजनेताओं के बीच एक नया गठबंधन हो गया जिसके बाद पत्रकारिता में न तो स्वतंत्रता की गुंजाइश रही, न निष्पक्षता की, और निर्भीकतापूर्वक काम करना तो अपराध ही बन गया। हमने ऐसे-ऐसे मुख्यमंत्री और अन्य सत्ताधीश देखे जिन्हें अपनी रंचमात्र आलोचना भी बर्दाश्त नहीं थी। ऐसे में दो ही रास्ते थे- या तो समर्पण कर दो या फिर दंड झेलने के लिए तैयार रहो। केन्द्र और राज्य में जहां अलग-अलग दलों की सरकार थी वहां स्वयं को बचाने की क्षीण आशा थी; लेकिन जहां ऐसा नहीं था वहां सिर पर तलवार ही लटक रही थी। हमने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में आंतरिक अशांति के दौर में देखा था कि पत्रकार बिरादरी को कितनी भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद को समाप्त करने के नाम पर सलवा जुड़ूम नाम से जो सरकार समर्थित मुहिम चलाई गई इसके बाद यहां भी ऐसी ही स्थिति बनने लगी। लेकिन हां, इसके पहले अजीत जोगी सरकार के दौरान जो हुआ उसे भी याद रखने की आवश्यकता है जब राजनारायण मिश्र, नंदकुमार बघेल और लीला जैन को उनकी लेखनी के कारण प्रताड़ित किया गया।

 रमन सरकार में जो हुआ वह आज हमें एक दु:स्वप्न की तरह प्रतीत होता है। बस्तर में कितने ही पत्रकार जेल में डाल दिए गए और सरकार ने इनके प्रकरणों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता भी नहीं समझी। मालिकों पर दबाव डालकर पत्रकारों को बर्खास्त करवाया गया या प्रदेश के बाहर उन्हें फेंक दिया गया। राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों ने भी इस मामले में सरकार के साथ समझौते का रुख अपनाया। कार्पोरेट मीडिया व चाटुकार मीडिया और सरकार की जुगलबंदी इस दौरान खूब चली। इस परिपाटी का समाप्त होना संदिग्ध है। इस पृष्ठभूमि में पत्रकार सुरक्षा अधिनियम की बात उठी। कांग्रेस ने जब घोषणा पत्र बनाना शुरू किया तो प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से पत्रकारों ने मांग की और उसे घोषणापत्र में शामिल किया गया। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सत्ता में आने के बाद इस वचनबद्धता को दोहराया है कि कांग्रेस की सरकार बनने पर पत्रकार सुरक्षा कानून लाया जाएगा। प्रदेश के पत्रकार जगत के सामने जो कटु अनुभव हैं उनको ध्यान में रखते हुए यह मांग उचित लगती है, लेकिन विचारणीय है कि क्या कानून बन जाने मात्र से पत्रकार सुरक्षित हो जाएंगे! एक मौजूं प्रश्न यह भी है कि पत्रकारों की अपनी एकजुटता और श्रमजीवी पत्रकार संघ, प्रेस क्लब इत्यादि संगठनों की क्या भूमिका होना चाहिए।

मेरा सोचना है कि जवाहरलाल नेहरू की पार्टी अगर नेहरू नीति पर चलती है तो ऐसे कानून की शायद आवश्यकता नहीं होगी। यदि बस्तर में शांति स्थापित हो जाती है तो आज जिस तरह पत्रकारों को दो पाटों के बीच पिसना पड़ता है वह स्थिति अपने आप खत्म हो जाएगी। हम यह न भूलें कि नक्सलियों ने पत्रकारों की हत्या तक की हैं। उन पर तो कोई कानून लागू होता नहीं है। दूसरी बात यह है कि पत्र जगत को सुरक्षा से कहीं अधिक आवश्यकता सम्मान की है। यह दायित्व लोकहितकारी सरकार का बनता है कि वह ऐसे वातावरण और नीति का निर्माण करे जिसमें पत्रकारिता का स्वस्थ विकास हो और पत्रकार सहज गति से अपना कर्तव्य निर्वहन कर सके। पंडित नेहरू ने ही कहा था कि मैं पत्रकारिता को उसकी कमजोरियों के साथ भी स्वीकार करता हूं। राहुल गांधी और उनकी टीम से भी मैं इसी सिद्धांत पर चलने की अपेक्षा करता हूं।

देशबंधु में 17 जनवरी 2019 को प्रकाशित

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