Thursday, 10 January 2019

एक अदद बंगले की तलाश



क्या आपने कभी सोचा है कि लोग घर क्यों बनाते हैं? खासकर उन लोगों के बारे में सोचिए जो या तो अकेले हैं या जिनका परिवार सीमित है, फिर भी वे बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं या आलीशान कोठियों में रहते हैं। उदाहरण के लिए मुंबई की सत्ताइस मंजिल की अट्टालिका को देखें जिसमें शायद चार या पांच लोग ही रहते हैं। कौन सी सोच है जो इस वैभव प्रदर्शन के पीछे है? विश्वविख्यात दार्शनिक और लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी एक पुस्तक 'पावर' में विस्तारपूर्वक इसकी चर्चा की है। वे कहते हैं कि एक इमारत का निर्माण शक्ति प्रदर्शन का ही एक पहलू है। राजे-महाराजे इसीलिए भव्य राजमहल खड़े करते हैं, धनकुबेर कोठियां तामीर करते हैं; और जतलाते हैं कि वे आम जनता से ऊपर हैं, उनके पास ताकत है; और जनता की भलाई इसी में है कि वह उनकी ताकत को स्वीकार करे और उनसे दूर रहे।

पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ के अखबारों में पक्ष-विपक्ष के नेताओं को सरकारी बंगले अलॉट करने या न करने के बारे में लगातार खबरें छप रही हैं। मेरे युवा पत्रकार मित्रों को शायद लग रहा है कि यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है। वे शायद अनजाने में ही यह आकलन कर रहे हैं कि मंत्रियों, नेताओं और अफसरों की हैसियत अंतत: उनके बंगले से ही तय होती है। प्रकारांतर से वे लॉर्ड रसेल के विचारों की ही ताईद कर रहे हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में यही स्थिति है। छत्तीसगढ़ अपवाद नहीं, बल्कि नियम का अंग है। लगभग दो साल पहले ही तो तेलंगाना के प्रथम मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव के बारे में पढ़ा था कि कैसे उन्होंने भव्य मुख्यमंत्री निवास बनवाया है जिसके चारों ओर बारह फीट ऊंची दीवार खड़ी की गई है। कोशिश यह कि बाहर से कोई भी मुख्यमंत्री निवास में ताक-झांक न कर सके।

आज की स्थिति पर दृष्टिपात करते हुए मेरा ध्यान अनायास ही नवंबर 1956 पर चला जाता है जब नए मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद नागपुर से हटकर राजधानी भोपाल आई थी। उस समय सरकारी कर्मचारियों के लिए बहुत तेजी के साथ साउथ टी.टी. नगर में मकान बनाए गए थे। मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के लिए भोपाल रियासत के दौर के कुछ पुराने मकान उपलब्ध कराए गए थे। लाल घाटी पर आईना बंगला में मुख्यमंत्री का आवास बना था। कहने को तो बंगला था, किन्तु जहां तक मुझे याद है उसमें भव्यता का कोई चिन्ह नहीं था। कई मंत्री तो ऐसे मकानों के वासी थे जिनके दरवाजे सीधे सड़क पर खुलते थे और जिनमें कोई बगीचा वगैरह भी नहीं था। विधायकों के लिए विश्रामगृह बनाए गए थे। सत्र समाप्ति के बाद विधायकगण अपने-अपने क्षेत्र में वापिस चले जाते थे। धीरे-धीरे कर यह स्थिति बदली। सत्ताधीशों का अपनी ताकत पर जैसे-जैसे विश्वास बढ़ता गया उसी अनुपात में उनके आवासों की भव्यता और जनता से दूरी भी बनती गई।

मैं सन् 2000 पर आता हूं जब छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ और रायपुर को राजधानी का दर्जा मिला। मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपने लिए पुराना कलेक्टर बंगला चुना। इसके पीछे शायद भावनात्मक कारण रहा हो, क्योंकि इसी बंगले में जिलाधीश की हैसियत से उन्होंने दो या तीन साल बिताए थे। तब आनन-फानन में कुछ अन्य बड़े अफसरों के बंगले भी खाली करवाए गए थे ताकि उनमें उनसे भी बड़े ओहदेदार आकर अपना निवास बना सके। मुझे तब यह देखकर अच्छा लगा था कि मंत्री सत्यनारायण शर्मा और मंत्री अमितेष शुक्ल ने ऐसे किसी बंगले पर आधिपत्य जमाने के बजाय अपने पुराने घर में रहना ही बेहतर समझा था। अमितेष तो पहले से ही अपने सर्वसुविधायुक्त पुश्तैनी बंगले में रहते थे, लेकिन श्री शर्मा की तारीफ करना होगी कि उन्होंने शहर के बीच एक गली में बसे अपने मकान को नहीं छोड़ा। आम जनता से अपना रिश्ता बनाए रखने के लिए प्रतीकात्मक ही सही, यह एक स्वागत योग्य पहल थी।

इसके साथ यह भी ध्यान आता है कि जोगी केबिनेट ने अपनी गाड़ियों पर से लालबत्ती उतारने का निर्णय ले लिया था। वित्त मंत्री डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव एक कदम और आगे थे। उन्होंने सरकार के लिए नई गाड़ियां खरीदने के बजाय किराए पर गाड़ियां लेने का फैसला लिया था ताकि जनता के धन का दुरुपयोग न हो। सिंहदेवजी स्वयं मंत्री रहते हुए एक छोटे से बंगले में रहे आए और बाद में उन्होंने विधायक के रूप में सिंचाई कालोनी के एक छोटे से क्वार्टर में रहना पसंद किया। उनके जैसी सादगी और मितव्ययिता दुर्लभ है। लेकिन वे न अपनी पार्टी के लिए और न विरोधियों के लिए अनुकरणीय आदर्श बन सके। डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में जब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी तो केबिनेट का पहला निर्णय मंत्रियों के वाहनों पर दुबारा लालबत्ती लगाने का हुआ। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने आगे जाकर इस कुप्रथा पर पूरी रोक लगा दी।

रायपुर के जिस बंगले में पहले संभागायुक्त का आवास होता था वह मुख्य सचिव को आबंटित हो गया था, लेकिन अपने को मुख्यमंत्री से कभी कम न समझने वाले मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने फौरी कार्रवाई करते हुए अरुण कुमार को वहां से बेदखल कर अपना कब्जा जमा लिया। अब शायद उन्हें यहां से कहीं और जाना पड़े! बृजमोहन की छवि एक लोकप्रिय जनप्रतिनिधि की रही है। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि उन्हें अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की क्या जरूरत थी। यदि पिछली विधानसभा पर निगाह डालें तो पता चलता है कि अनेक विधायकों व मंत्रियों के पास रायपुर में खुद के निवास थे। इसके बावजूद उन्होंने अपने लिए सरकारी आवास आबंटित कराए। बृजमोहन की ही भांति चंद्रशेखर साहू भी एक लोकप्रिय नेता हैं। वे अगर सरकारी बंगला न लेते तो शायद उनके लिए श्रेयस्कर ही होता। हमारे वरिष्ठ लोकसभा सदस्य रमेश बैस का भी अपना सुविधाजनक घर है। समझ नहीं आता कि उन्हें सांसद होने के नाते अलग से सरकारी मकान लेने की क्या आवश्यकता थी। अजय चंद्राकर, राजेश मूणत आदि के भी अपने नए बंगले बन चुके थे। वे भी समय रहते अपने निजी घर में शिफ्ट हो जाते तो शायद अच्छा होता।

अब जब नई सरकार आ गई है तब भी बंगलों को लेकर जो मारामारी हो रही है वह तर्कबुद्धि से परे है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की किसान और मजदूर हितैषी सरकार को अन्य उपायों के साथ उन प्रतीकात्मक कदमों पर भी विचार करना चाहिए जिससे सरकार और आम जनता के बीच दूरी कम होती दिखाई दे। मेरी अपनी राय में जिनके पास रायपुर में अपने निजी घर हैं यथा मोहम्मद अकबर, शिवकुमार डहरिया, गुरु रुद्रकुमार आदि, वे यदि सरकारी बंगलों में जाने का मोह त्याग सकें तो यह एक स्वागत योग्य बात होगी।

जैसी कि खबर है पिछली सरकार में संभवत: सामान्य प्रशासन विभाग ने चुनावों के बाद नए सिरे से गठित होने वाले मंत्रिमंडल के लिए नई कारें खरीद ली थीं। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसे पसंद नहीं किया है, बल्कि नाराजगी ही प्रकट की है। यह अच्छा है। नई सरकार जितनी अधिक सादगी बरत सके और तामझाम व दिखावे से दूर रह पाए, उसी में उसकी बड़ाई है। विश्व समाज में गैरबराबरी लगातार बढ़ रही है। भारत उससे मुक्त नहीं है। इस सच्चाई को जानते हुए हर लोकप्रिय सरकार की यह महती जिम्मेदारी है कि वह जनता से दूरी बनाने के बजाय करीबी रिश्ता कायम करें। आम नागरिक के मन में विश्वास पैदा हो कि यह सरकार उसकी है।

देशबंधु में 10 जनवरी 2019 को प्रकाशित

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