मैंने पिछले लेख में इस तथ्य का जिक्र किया था कि 1952 में पहले आम चुनाव के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। सवाल उठता है कि जो पार्टी या जो विचारधारा 1952 में कांग्रेस के विकल्प के रूप में मौजूद थी वह उस जगह से अपदस्थ कैसे हुई और उग्रराष्ट्रवादी हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने वामपंथी ताकतों को धीरे-धीरे कर भारतीय राजनीति के हाशिए पर क्यों कर धकेल दिया। यह एक प्रकट वास्तविकता है और इसका सामना करने का साहस वामदलों में होना चाहिए। मेरा मानना है कि आम चुनाव के समय क्षेत्रीय दलों से अल्पकालीन गठजोड़ करने से वामपंथी ताकतें मजबूत नहीं बल्कि और कमजोर ही होंगी। मेरा यह भी मानना है कि आज के वैश्विक परिदृश्य को समझने की क्षमता भारत में या तो कांग्रेस में है या फिर वामपंथियों में; और अपनी तार्किक क्षमताओं का मैदानी कार्रवाई में रूपांतरण करने से ही वाममोर्चा 1952 में या उससे बेहतर स्थिति में पहुंच सकता है।
मैंने अपने लेख में कुछ बिन्दुओं का संक्षिप्त उल्लेख किया था। शायद उन पर विस्तार से लिखने से अपनी बात बेहतर कह सकूंगा, लेकिन अखबार के कॉलम की भी अपनी सीमाएं हैं। बहरहाल, मैं अपने वाम मित्रों से आग्रह करूंगा कि वे सबसे पहले तो 1967 की स्थिति का फिर से जायजा लें। डॉ. लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था, जिसके चलते भारतीय जनसंघ, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि कांग्रेस विरोधी दलों ने परस्पर हाथ मिला लिए थे। उत्तरप्रदेश का तो मुझे भलीभांति स्मरण है, लेकिन अन्य प्रांतों में भी जो संविद सरकारें बनीं उनमें लोहियावादियों और जनसंघियों के साथ साम्यवादी भी शामिल हो गए थे। उत्तरप्रदेश में जुझारू कम्युनिस्ट नेता झारखंडे राय व रूस्तम सैटिन के नाम मुझे अभी तक याद है, लेकिन इसके बाद क्या हुआ? कुछ समय के लिए सरकार में शामिल हो जाने से वामदलों की ताकत में कोई इजाफा नहीं, बल्कि आगे चलकर नुकसान ही हुआ।
सच पूछिए तो वामपंथ की राजनीतिक ताकत इस लंबे अरसे में सिर्फ तीन प्रांतों में ही देखने मिली है। केरल जहां 1957 में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई यद्यपि उसे दो साल बीतते न बीतते कांग्रेस सरकार ने भंग कर दिया, फिर बंगाल जहां 1967 में योति बसु एक मिलीजुली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने तथा आगे चलकर वाममोर्चे के मुख्यमंत्री, और फिर त्रिपुरा जहां अभी भी वाममोर्चे का राज है। इनके अलावा कम्युनिस्ट पार्टियों ने समय-समय पर देश के अनेक प्रांतों में अपनी उपस्थिति का परिचय दिया ज् ारूर है, लेकिन उन्हें अपना जनाधार मजबूत करने में कोई खास सफलता नहीं मिली। इस वास्तविक स्थिति की अतीत राग से मुक्त होकर सम्यक विवेचना की जाए तभी आगे की राह निकल सकती है।
यह फिर से याद करना उचित होगा कि 1996 में प्रधानमंत्री पद वाममोर्चे के हाथ से आकर निकल गया। अटल बिहारी वाजपेयी व ज्योति बसु के बीच चयन होना था, लेकिन देश की जनता के एक बड़े हिस्से के प्रबल आग्रह की अनदेखी माकपा ने कर दी और ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनने से रोक दिए गए। इस तरह वाममोर्चे को अपने सीमित प्रभावक्षेत्र से बाहर निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित करने का जो ऐतिहासिक अवसर मिला था वह उसने गंवा दिया। इसके बरक्स जब राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में भाकपा के इन्द्रजीत गुप्त गृहमंत्री बने तो उन्होंने थोड़े ही समय में अपनी सादगी और कार्यक्षमता से जनता को प्रभावित कर लिया था। केरल में सी.के. अच्युत मेनन और ई.के. नयनार को लोग आज भी याद करते हैं। इसी तरह जब वामदलों के नेता टीवी पर आते हैं तो उनकी स्पष्ट और तार्किक बातों से श्रोता प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। मेरे कहने का आशय यह है कि विचारों की इस पूंजी का निवेश एक बेहतर राजनीतिक विकल्प तैयार करने के लिए जिस तरह से किया जाना चाहिए था वह नहीं किया गया। अपनी ही शक्ति से अपरिचित वामदल बिना जरूरत दूसरों का कंधा पकड़कर ऊपर चढ़ने की कोशिश में लगे हुए हैं।
2004 में वामदलों के पास एक अवसर था कि वे कांग्रेस के साथ सरकार में शामिल होते और उसे नेहरूवादी नीतियों पर चलने को मजबूर करते। इस तरह एक सुनहरा अवसर और खो दिया गया। बाहर से समर्थन देते हुए जिस दिन पता चला कि कांग्रेस नवउदारवादी आर्थिक नीति अपना रही है उस दिन वाममोर्चा समर्थन वापस ले सकता था। यहां उसने एक बार फिर चूक की। इन प्रसंगों को सुविधापूर्वक भूलते हुए यदि वामपंथी दल नित नए राजनीतिक समीकरण बनाने में लगे रहेंगे तो इससे उन्हें आने वाले समय में और भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। एक समय वाममोर्चे के लिए चन्द्रबाबू नायडू वैश्विक पूंजी के एजेंट थे। क्या श्री नायडू के विचारों में सचमुच कोई परिवर्तन आया है? यदि नहीं तो फिर उनके साथ मिलकर मोर्चा बनाने से किसे लाभ होगा?
उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव राज कर रहे हैं। वे कभी माकपा के बहुत प्रिय थे, लेकिन उनके साथ दोस्ती करने से वाम मोर्चे को क्या हासिल होगा? कल अगर वे तीसरे मोर्चे में शामिल हो जाते हैं तो इससे वामपंथ कैसे मजबूत होगा? इससे तो बेहतर होगा कि बसपा के साथ गठजोड़ किया जाए। जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई वाममोर्चा लड़ रहा है वह मुख्यत: उन लोगों के लिए ही तो है जो आज बसपा के वोटर हैं। अगर कोई तालमेल होना है, तो इन दोनों के बीच क्यों नहीं? फिर बिहार की बात है तो आज नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे के मान्य नेता हो सकते हैं, लेकिन कल अगर वे सत्ता में आ गए, तब भी क्या यह स्थिति बनी रहेगी? अभी तो हम यह भी नहीं जानते कि जदयू के भीतर शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच कैसे समीकरण हैं!
यह उन कुछ प्रांतों की बात है जहां क्षेत्रीय, जातिवादी, परिवारवादी राजनीतिक दल, तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना जताते हैं, लेकिन उन प्रांतों का क्या जहां कांग्रेस और भाजपा प्लस के बीच सीधी-सीधी टक्कर है? ध्यान से सोचें तो इन रायों में कुल मिलाकर जो पार्टी बढ़त लेगी, तीसरा मोर्चा अपने आप साथ हो जाएगा। कांग्रेस को अगर बढ़त मिली तब तो ठीक, लेकिन अगर भाजपा को बढ़त मिली और तीसरे मोर्चे ने उसका साथ देना तय किया तब वामदल कहां जाएंगे? इन सब बातों पर सोचते हुए मुझे लगता है कि अगर वामदल सचमुच एक प्रगतिशील विकल्प तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए अव्वल तो उन्हें एक युवा नेतृत्व तैयार करना होगा और दूसरे टीवी स्टूडियो से बाहर निकलकर आम जनता के बीच दुबारा पहुंचना होगा। याद करके देखिए कि ए.बी. वर्धन के बस्तर प्रवास को छोड़कर वाम मोर्चे के किस नेता की किसी हिन्दी भाषी प्रदेश में हाल के वर्षों में कोई बड़ी आमसभा हुई हो!!
देशबंधु में 16 मई 2013 को प्रकाशित
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