तीसरे मोर्चे का स्वप्न फलित होगा या नहीं, इस पर माथापच्ची करने से पहले जो आज की हकीकत है थोड़ा उसका जायजा ले लिया जाए। भारत में आजादी के प्रारंभ से लेकर अब तक एक छोटा अरसा छोड़कर लगातार कांग्रेस पार्टी का राज रहा है। 1996 से 2004 के प्रारंभ तक भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार ही एकमात्र अपवाद है। यूं तो 1977 से 80 के दरम्यान देश में जनता पार्टी का शासन था, लेकिन वह कांग्रेस से सिर्फ इस हद तक अलग था कि उसके दो बड़े मंत्री वाजपेयीजी और अडवानीजी तत्कालीन जनसंघ के प्रतिनिधि थे। प्रधानमंत्री मोरारजी भाई तथा उनके दो प्रमुख मंत्रिमण्डलीय सहयोगी चौधरी चरणसिंह व बाबू जगजीवन राम दोनों पुराने कांग्रेसी थे। कुल मिलाकर उस सरकार की बनावट पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों से बहुत भिन्न नहीं थी। इसके बाद चरणसिंह, चन्द्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल- ये सभी प्रधानमंत्री भी कांग्रेस की परम्परा में दीक्षित राजनेता ही थे।
देश के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस का विकल्प तैयार करने की कोशिशें जब भी हुर्इं उसमें सफलता कम ही मिली और जब मिली तो वह दीर्घजीवी नहीं हुई। कांग्रेस का अपना चरित्र समावेशी रहा जिसमें रूढ़िवादियों को जगह मिली तो प्रगतिशीलों को भी, वामपंथियों को तो दक्षिणपंथियों को भी, समाजवादियों को तो पूंजीवादियों को भी, यहां तक धर्मनिरपेक्ष के साथ-साथ साम्प्रदायिक सोच वालों को भी। यह बात तो तभी स्पष्ट हो गई थी जब 1947 में स्वतंत्र देश की पहली सरकार बनने जा रही थी। इसके बावजूद कांग्रेस से अलग होकर अपने राजनीतिक विचारों के अनुरूप पार्टियां बनाने का सिलसिला भी उसी समय से प्रारंभ हो गया था।
आजादी के प्रारंभिक दौर में तीन धड़े स्पष्ट दिखाई देते थे। बीच में कांग्रेस, उसके एक तरफ कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी तरफ हिन्दू महासभा। यद्यपि कांग्रेस समाजवादियों का भी एक दल कृषक मजदूर प्रजा पार्टी के नाम से उसी समय बन गया था, लेकिन कांग्रेस और इस नए दल के बीच बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। इसी तरह हिन्दू महासभा से अलग होकर रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ का गठन हुआ, लेकिन इन तीनों दक्षिणपंथी पार्टियों का वैचारिक धरातल एक ही था। यहां उल्लेखनीय है कि 1952 के पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, समाजवादी पार्टी को सीमित सफलता मिली थी व जनसंघ की सफलता तो लगभग शून्य थी। इसके बाद के समय में समाजवादी पार्टी कितनी बार टूटी कितनी बार बनी, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। कम्युनिस्ट पार्टी भी आधा दर्जन से अधिक खेमों में बंट गई। जनसंघ का विकास भाजपा के रूप में हुआ तथा रामराज्य परिषद व हिन्दू महासभा समाप्त ही हो गए।
आज राजनीतिक क्षितिज पर फिर तीन प्रमुख गठजोड़ दिखाई देते हैं। कांग्रेस हाल में आए दक्षिणपंथी झुकाव के बावजूद अभी भी मध्य में है। उसके एक तरफ भाजपा के नेतृत्व में शिवसेना और अकाली दल हैं और दूसरी तरफ सीपीआईएम के नेतृत्व में वाममोर्चे के चार दल। प्रश्न उठता है कि जिस तीसरे मोर्चे की बात उठ रही है वह कैसे बनेगा? जो न कांग्रेस को चाहते और न भाजपा को, क्या वे वाममोर्चे का साथ लेने-देने के लिए तैयार हैं, और क्या आज की सीपीआईएम में क्षमता है कि वह नए सिरे से कोई ऐतिहासिक भूमिका निभा सके? सच तो यह है कि जो लोग तीसरे विकल्प की बात कर रहे हैं वे इन तीनों को छोड़कर एक असंभव से दिखने वाले चौथे विकल्प की खोज में लगे हुए हैं। उनकी आशाएं तीनों राष्ट्रीय गठबंधनों से हटकर प्रादेशिक दलों पर टिकी हुई है।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने एक समय गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था, जिसकी परिणति 1967 के आम चुनावों के बाद अनेक प्रदेशों में अभूतपूर्व ढंग से दल बदलकर संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारों के गठन में हुई थी। इसकी पहल डॉ. लोहिया के अनुयायियों ने ही की थी, जो नाम तो गांधी का लेते थे, लेकिन सत्ता का साध्य हासिल करने के लिए साधन की पवित्रता के विचार को जिन्होंने तिलांजलि दे दी थी। अनेक प्रांतों में गठित इन संविद सरकारों से आगे चलकर किसी को फायदा हुआ तो वह तत्कालीन जनसंघ और वर्तमान भाजपा ही थी; जबकि समाजवादी और साम्यवादी दोनों को इससे ऐसा नुकसान हुआ जिसकी भरपाई आज तक नहीं हुई। आज की तारीख में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह इस समाजवादी विचारधारा के ही वंशज हैं।
पिछले तीन-चार दशकों के दौरान कांग्रेस को भी अपने अहंकार के चलते बहुत नुकसान उठाना पड़ा है। इस दौरान जो क्षेत्रीय दल उभरकर आए हैं वे किसी हद तक कांग्रेसी विचारधारा से ही प्रेरित थे, लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व की अहम्मन्यता उन्हें सदैव भयभीत करती रही और केन्द्र के करद रहने के बजाय उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में ही बुध्दिमानी समझी। यह उचित होगा कि इस पृष्ठभूमि में ही तीसरे मोर्चे के प्रस्ताव का अध्ययन किया जाए। जो दल कांग्रेस व भाजपा दोनों से दूरी बनाकर चलना चाहते हैं वे क्या सचमुच कभी एक साथ चल पाएंगे? एक पल के लिए अगर मान लें कि शरद पवार कांग्रेस का पल्ला छोड़कर इनके साथ आ जाएंगे तो भी क्या उनमें इतनी क्षमता है, और क्या उनका स्वास्थ्य इजाजत देता है कि वे क्षेत्रीय दलों का व्यापक गठबंधन तैयार कर उसके सर्वमान्य नेता बन सकें?
एक समय समझा जाता था कि फारूख अब्दुल्ला तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करेंगे। फिर कभी एन.टी.रामाराव का नाम आया तो कभी रामकृष्ण हेगड़े का तो कभी करुणानिधि का। आज भी मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, जयललिता और ममता बनर्जी ऐसे कम से कम पांच नेता तो हैं जो तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने के लिए बेताब नजर आ रहे हैं। क्या वाममोर्चा भानुमति के इस कुनबे को अपना समर्थन देने के लिए तैयार होगा? हम याद दिलाएं कि सीपीआईएम ने अपने सबसे सम्मानीय नेता ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था। कहते हैं पार्टी में उस समय गहन विचार मंथन हुआ था। क्या आज की स्थितियां तब से बेहतर हैं?
मान लीजिए कि ऐसा गठबंधन बन भी जाता है, लेकिन वह कब तक चल पाएगा? क्या देश का मतदाता 1996 और 97 की स्थिति में लौटने के लिए तैयार है या वह एक अन्य सरकार चाहता है? थोड़ा ध्यान गणित पर भी देना चाहिए। ये सारे क्षेत्रीय दल कुल मिलाकर कितनी सीटें जीत पाएंगे। जब त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति आएगी तब ये कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चलाएंगे या भाजपा के और ये दोनों दल अपने समर्थन की क्या कीमत मांगेंगे? मान लीजिए भाजपा तीसरे मोर्चे के सामने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की शर्त रखती है, तो क्या उसे यह शर्त मंजूर होगी?
मैं इस पृष्ठभूमि में अपनी दृष्टि से जितना विश्लेषण कर पाता हूं उसमें मुझे लगता है कि हमें तीसरे मोर्चे की जरूरत नहीं है। मतदाता को कांग्रेस और भाजपा के बीच में ही चुनाव करना चाहिए। यदि स्पष्ट बहुमत न मिले तो सर्वाधिक संख्या वाला दल छोटे दलों के सहयोग से सरकार बनाएं लेकिन उनके अनुचित दबाव में न आए। वही उचित होगा लेकिन क्या ऐसा संभव है?
देशबंधु में 9 मई 2013 को प्रकाशित
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