Wednesday, 29 May 2013

नक्सली हिंसा : अपना-अपना नजरिया




भारत, जैसा कि नाम से ही अभिव्यंजित होता है, बुध्दिमानों का देश है। इसीलिए इस विशाल भूमंडल पर ऐसी कोई भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान चुटकी बजाते इस देश के वासी न कर सकें। हर व्यक्ति जैसे अपने साथ रामबाण औषधियों की पेटी लेकर चलता है। मुश्किल तब होती है जब एक बीमारी के लिए हजार तरह के इलाज तजवीज़  किए जाने लगते हैं और ऐसा कोई भी हकीम नहीं होता जो अपने फार्मूले को दूसरे से बेहतर न मानता हो। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन की पुस्तक 'द आर्ग्युमेंटिव इंडियन' की ऐसे में इसलिए याद आती है कि उन्होंने अंतहीन बहस करने की जिस प्रवृत्ति को भारतीयों का सद्गुण बताया है वही नाजुक मौकों पर देश के लिए सिरदर्द बन जाता है जब बहस कांव-कांव का रूप ले लेती है। पहले सार्वजनिक बहसें अखबारों तक सीमित थीं अब टीवी और सोशल मीडिया के चलते शोर इतना बढ़ जाता है कि बहस कहीं भी पार नहीं लगती।

देश में खासकर छत्तीसगढ़ में माओवाद अथवा नक्सलवाद के रूप में जो समस्या पिछले कई सालों से चली आ रही है उसका भी यही हाल है। 25 मई को दरभा (बस्तर) के पास कांग्रेस के काफिले पर हमला कर जो अभूतपूर्व हिंसा नक्सलियों ने की उसके बाद एक तरफ जिम्मेदार लोग यदि समझदारी के साथ नपे-तुले शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ऐसा मंजर बन गया है, जिसमें कोई तर्कसम्मत बात शायद संभव ही नहीं है। समझदारी और नासमझी के बीच जो फर्क है उसे स्पष्ट देखा जा सकता है। केन्द्रीय रक्षा मंत्री व वरिष्ठ कांग्रेसी ए.के. एंटोनी ने दिल्ली में साफ-साफ कहा कि बस्तर में सेना नहीं भेजी जाएगी। ठीक इसी तरह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री व प्रमुख भाजपा नेता डॉ. रमनसिंह ने भी यही कहा कि नक्सल समस्या से निपटने के लिए सेना की जरूरत नहीं है। उन्होंने इसके आगे कहा कि यह कोई सीमा पार की लड़ाई नहीं है। मैं याद दिलाना चाहता हूं कि ऐसे विचार मुख्यमंत्री पहले भी व्यक्त कर चुके हैं।

जब अलग-अलग पार्टियों से संबंध रखने वाले व अपने-अपने दायरे में निर्णयकारी भूमिका निभाने वाले दो जिम्मेदार नेता एक बिंदु पर सहमत हैं तब उसके बारे में क्या कम से कम इस समय प्रतिक्रिया देने का कोई औचित्य है? यह सब जानते हैं कि भाजपा में एक बड़ा वर्ग है जो नक्सलियों से लड़ने के लिए सेना का इस्तेमाल करना चाहता है। ऐसे जन अपने निजी विचार रखने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन क्या उन्हें अपनी ही पार्टी के चुने हुए मुख्यमंत्री को मौका नहीं देना चाहिए कि वह अपनी सोच के अनुसार फैसले ले सके? यही बात उन कांग्रेस समर्थकों पर भी लागू होती है, जो कांग्रेस अध्यक्ष व प्रधानमंत्री दोनों की संयमित प्रतिक्रिया के बावजूद राष्ट्रपति शासन और मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। कहने का आशय यह कि यह जरूरी नहीं कि आप अपने निजी विचारों को बिना मौके व्यक्त करते रहें।

पिछले दो-तीन दिन से राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर जो बहस चल रही है उसमें एक सुझाव की ओर मेरा ध्यान खासकर गया। सुश्री किरण बेदी का मैं न तो कभी प्रशंसक रहा हूं और न कभी उनसे सहमत, लेकिन उन्होंने नक्सलवाद से निपटने के लिए जो सुझाव दिया वह गौरतलब है। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार को विशेष सचिव (गृह) जैसे वरिष्ठ अधिकारी का पद बस्तर में निर्मित करना चाहिए ताकि वह वहीं बैठ समस्या के समाधान के लिए समन्वित कार्यनीति बनाकर उसे प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। उन्होंने इसके साथ यह भी कहा कि जो सिविल सोसायटी संगठन इस क्षेत्र में प्रयत्नशील हैं उन्हें भी बस्तर में रहकर समस्या को सुलझाने में अपना समय देना चाहिए। मुझे यह सुझाव इसलिए ठीक लगा क्योंकि स्वयं मैंने आज से कुछ साल पहले राय सरकार को सुझाव दिया था कि राय के मुख्य सचिव स्तर का एक अधिकारी बस्तर में तैनात किया जाए जिसकी कर्तव्यनिष्ठा, संवेदनशीलता और कार्यक्षमता असंदिग्ध हो और जो सिर्फ मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह हो। मैंने ऐसे दो-तीन अफसरों के नाम भी सुझाए थे। यह अलग बात है कि राय सरकार ने इस प्रस्ताव पर गौर करना जरूरी नहीं समझा।

किरण बेदी और मेरे सुझाव में कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन लक्ष्य संभवत: एक ही है। रायपुर, भोपाल अथवा दिल्ली में बैठकर चर्चाएं बहुत हो सकती हैं, निर्णय लिए जा सकते हैं, कार्ययोजना अथवा रणनीति भी बनाई जा सकती है, लेकिन यक्ष प्रश्न है कि उसे लागू कौन करे? आप बस्तर में चाहे सशस्त्र बलों की कार्रवाई कर रहे हैं, चाहे विकास कार्यों को बढ़ाना चाहते हैं, यदि जमीनी स्तर के अधिकारियों एवं कर्मचारियों में अपने को सौंपे गए दायित्वों के प्रति उत्साह नहीं है, वे भयाक्रांत हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, खरीद लिए गए हैं,  या कि बस्तर को ''पनिशमेंट पोस्टिंग'' मान रहे हैं तो सरकारी इरादों की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं सकती। पच्चीस मई की घटना से स्पष्ट है कि बस्तर का सरकारी अमला इसी तरह की मानसिकता में जी रहा है। यह सोचने की बात है कि देश के सीमांत क्षेत्रों में हमारा सूचनातंत्र सौ में से शायद पंचयानवे बार सफलतापूर्वक कार्य करता है, लेकिन बस्तर से बार-बार सूचनातंत्र के विफल होने की खबर ही क्यों मिलती है? अगर इसी मुद्दे पर और गौर किया जाए तो यह विचार उभरता है कि बस्तर में सेना तैनात करने की नहीं, बल्कि पुलिस व प्रशासनतंत्र को मजबूत करने की है, जिसे एक सक्षम  नेतृत्व की तलाश है। 

सिविल सोसायटी संगठनों के बारे में भी मैं समझता हूं कि सुश्री बेदी ने कोई गलत बात नहीं कही है, लेकिन इसे संदर्भ सहित समझने की जरूरत है। यदि राजसत्ता सिविल सोसायटी को अपना दुश्मन मानकर चलेगी, उनकी सकारात्मक भूमिका को मानने से इंकार कर देगी, उन्हें हद से बाहर जाकर प्रताड़ित करेगी तो फिर ऐसे संगठन वहां काम कैसे कर पाएंगे? किरण बेदी को संभवत: यह स्मरण नहीं है कि छत्तीसगढ़ में सिविल सोसायटी के छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं की बात तो दूर, देश के जाने-माने बुध्दिजीवियों के साथ पिछले बरसों में क्या सलूक किया गया है। मैं नोट करना चाहूंगा कि जयप्रकाश नारायण के सहयोगी रह चुके वरिष्ठ पत्रकार (स्व.) अजीत भट्टाचार्य सलवा जुड़ूम के अध्ययन के लिए यहां आए तो मैं कोशिश करके भी उनकी भेंट प्रदेश के मुखिया से नहीं करवा सका। इसी तरह प्रोफेसर यशपाल ने देश के साथ-साथ इस प्रदेश की विशेषकर जो सेवा की, उसे भूल कर उनके साथ भी यथोचित व्यवहार नहीं किया गया। आज की परिस्थिति में यदि मुख्यमंत्री सिविल सोसायटी की भूमिका के बारे में पुर्नविचार करने को राजी हों, तो किरण बेदी की सलाह मानने योग्य हो सकती है।

मैं इस बात को थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूंगा। जिसे हम सिविल सोसायटी कहते हैं वह नागरिक समाज का वह अंग है जो राजसत्ता से हटकर लोक महत्व के विभिन्न मुद्दों पर एक वैकल्पिक सोच प्रस्तुत करता है। राजसत्ता उसके विचारों को माने या न माने, उन्हें सुनने का धीरज और संयम तो उसमें होना ही चाहिए। यह संभव है कि ऐसे कार्यकर्ताओं में कुछ लोगों का रवैया व्यवहारिक न हो, रूमानियत का हो, कुछ हो सकता है कि सरकार को ही एक तरफा दोषी मानते हों, यहां तक कि यह भी संभव है कि कुछ लोग नक्सलियों से बौध्दिक सहानुभूति रखते हों, लेकिन यदि ऐसे लोग जनतांत्रिक मर्यादा के भीतर रहकर बात कर रहे हों, तो तमाम असहमति और असहजता के बावजूद इनकी उपस्थिति को स्वीकार करना चाहिए।

मैं स्वयं सिविल सोसायटी के उन कार्यकर्ताओं से सहमत नहीं हूं जो नक्सलियों की अविचारित हिंसा का खुलकर नहीं बल्कि सशर्त विरोध करते हैं। हमारी व्यवस्था में जो कुछ भी खामियां हों, उनका प्रतिकार जनतांत्रिक व अहिंसक तरीके से ही करना चाहिए। यदि आपको कांग्रेस अथवा भाजपा पसंद नहीं है तो आप कम्युनिस्ट पार्टी को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। यदि आप उनसे भी निराश हैं तो कोई और राजनीतिक संगठन बना लीजिए। जो बंदूक की नली से परिवर्तन लाना चाहते हैं, उन्हें जनतांत्रिक राजनीति में भाग लेने के लिए आह्वान कीजिए। अगर नेपाल में प्रचंड और बाबूराम भट्टराई सशस्त्र अभियान छोड़कर जनतांत्रिक राजनीति में आ सकते हैं तो भारत के माओवादियों को इसके लिए राजी क्यों नहीं किया जा सकता? इस बिन्दु पर केन्द्र, राय, राजनीतिक दल व सिविल सोसायटी- इन सबके बीच गंभीर चर्चा होना चाहिए। जो मीडिया में अपनी अक्लमंदी दिखाना चाहते हैं, दिखाते रहें।


देशबंधु में 30 मई 2013 को प्रकाशित 

4 comments:

  1. ललित जी ने जो बातें कहीं हैं उनसे सहमति है। निश्चित ही बंदूक से किसी समस्‍या का हल नहीं निकलता है। और समस्‍या का हल दिल्‍ली में बैठकर भी निकलेगा।

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  2. मैं आपकी लगभग सभी मान्यताओं और स्थापनाओं से सहमत हूं। जिन दिनों दिवंगत डॉ . सुदीप बनर्जी बस्तर के संभागायुक्त हुआ करते थे, उन दिनों पूरे नक्सल-प्रभावित क्षेत्र में एक भी हिंसा की वारदात नहीं हुई, न राज्य की ओर से और न ही नक्सलियों की ओर से। मात्र एक संवेदनशील प्रशासनिक अधिकारी अपने व्यक्तिगत और प्रशासनिक प्रयासों से लगभग 3 वर्ष तक ऐसे क्षेत्र में शांति बनाए रख सका तो राजनैतिक सूझ-बूझ, संवेदनशीलता और इच्छा-शक्ति के बल पर सारे नक्सल-प्रभावित क्षेत्र को संघर्ष-रहित क्षेत्र भी बनाया जा सकता है। सरकार की अपनी विकास-सम्बंधी मान्यताएं हो सकती हैन. किंतु स्थानीय नागरिकों की इच्छा और सहमति के विरुद्ध जा कर उन्हें लागू करने की ज़िद अंतहीन संघर्ष को जन्म दे सकती है, यह बात तथाकथित 'विकास' के समर्थकों को समझनी ही होगी। श्री जयराम रमेश का क्षेत्र में खनन गतिविधियों पर एक दशक तक रोक लगाने का सुझाव वास्तव में क्षेत्र के लिए युगांतरकारी सिद्ध हो सकता है।

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  3. बंदूक से किसी समस्‍या का हल नहीं निकलता है।

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  4. struggle for livelihood and equality

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