Wednesday, 22 May 2013

चलो, लंगर में चलते हैं




दो
पहर का वक्त है, यही कोई एक-दो बजे का, बहुत लोगों के लिए यह ''लंच अवर है''; या शायद समय शाम का है, चार-पांच बजे के आसपास ''टी टाइम'' या फिर घर लौटने का वक्त। इसी समय सड़कों पर आवाजाही लगी हुई है। जितनी संभव हो उतनी तेज रफ्तार से गाड़ियां दौड़ रही हैं, लेकिन इससे निर्लिप्त सड़क किनारे शामियाना सजा हुआ है। नाली के ऊपर मच्छर-मक्खियां उड़ रहे हैं। आवारा कुत्ते भी पंडाल के आसपास सुस्ता रहे हैं। एक तरफ भट्ठी सुलगी हुई है और पूड़ी, सब्जी, बूंदी, जलेबी उतारी जा रही है। एल्युमीनियम के बड़े-बड़े गंजों में सामग्री रखी है, पंडाल में किराया भंडार से आई दो -तीन बेढब डाइनिंग टेबलें बिछी हैं, वहीं से पत्तल-दोनों में खाद्य सामग्री का वितरण हो रहा है। एक तरफ लोहे के पुराने ड्रम में सड़क के नल से ही भरा हुआ पानी है, ये ड्रम और घड़े कभी धुलते भी  हैं या नहीं, इसकी किसी को चिंता नहीं है और न आसपास के माहौल की। यह कोई शादी की दावत नहीं बल्कि आज फिर अपना परलोक सुधारने के लिए ईश्वर के किसी भक्त ने लंगर खोला है। 

पंडाल के सामने अच्छी खासी भीड़ है: चारों तरफ से लोग उमड़े चले आ रहे हैं- आदमी, औरत, बूढ़े, बच्चे। पैरों में या तो पुरानी हवाई चप्पल है या फिर नंगे पैर। बहुतों के हाथ में घर से लाया एकाध कटोरदान भी है। बन पड़ेगा तो थोड़ा प्रसाद, थोड़ी मिठाई घर भी ले जाएंगे, लेकिन पकवान की आस में जुटे ये सारे लोग अशक्त, लाचार, घर से निकाले गए, भीख मांगने के लिए बेबस जन ही हों, ऐसा नहीं है। इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जिनके घर पास में ही हैं। बरसात में टपकने वाली झोपड़ी नहीं, बल्कि पक्के मकान। घर में बिजली भी है, शायद टीवी का कनेक्शन भी। अब वे दिन नहीं जब लोग रविवार की शाम मुहल्ले के किसी धनी धोरी के घर जाकर दूरदर्शन पर फिल्म देखने के लिए ललचते थे। ये वे लोग हैं जो किसी न किसी तरह की मेहनत-मजदूरी करते हैं। कोई सरकार तीन रुपए किलो तो कोई एक रुपया, दो रुपया किलो में गेहूं-चावल भी देती है, फिर भी ये लंगर में अपने हाथ पसारे खड़े हुए हैं।

यहां वे लोग भी हैं जो थोड़ी देर पहले पास के किसी दूसरे मोहल्ले में जाकर प्रसाद पा चुके हैं और इस लंगर की खबर पाकर दौड़ते-भागते यहां आए हैं। लेकिन यह क्या? पंडाल के सामने से स्कूटी और बाइक वाले क्यों खडे हैं? ये करीने से पेंट-शर्ट पहने हैं। इनकी कलाई पर घड़ी बंधी हुई है। फिर इन्हें यहां रुकने की क्या जरूरत थी? क्या ये लंगर सेवा करने वाले, सेठ का परलोक सुधारने वाले देवदूत हैं, जो प्रसाद का एक कण पाकर तृप्त हो जाएंगे और दुआएं मांगेंगे या फिर इनके मन में भी वही लालच है कि आज बढ़िया तर माल खाने मिल रहा है! यह तस्वीर शायद हिन्दुस्तान के हर शहर में, हर कस्बे में देखी जा सकती है और  हे पाठक!  इसे आपने भी कई बार देखा होगा। कहते हैं कि मनुष्य जीवन बड़ी तपस्या से मिलता है- चौरासी लाख योनियों में सिर्फ एक बार। इस जीवन पर, अपने होने पर, अपने दो हाथों पर जिन्हें भरोसा और अभिमान होना चाहिए वे क्यों इस तरह से अपने आपको नीचे गिरा रहे हैं?

बहुत बात होती है कि आजादी के पैंसठ साल बाद भी यह नहीं हो सका या वह नहीं हो सका। बड़े-बड़े दावे होते हैं कि हम अगर सत्ता में आ गए तो सब कुछ बदल डालेंगे। जैसे किसी बल्ब के विज्ञापन में हास्य अभिनेता असरानी कहता था-''सबके सब बदल डालूंगा'', लेकिन सचमुच में क्या हो रहा है। केन्द्र हो या राज्य, सैकड़ों बल्कि हजारों योजनाएं वक्त-वक्त पर चलाई गई होंगी- बच्चों के लिए, औरतों के लिए, विकलांगों के लिए, मजदूरों के लिए, बाबूओं के लिए, अध्यापकों के लिए किन्तु कुल मिलाकर इनका क्या हश्र है। इस बीच एक दौर यह भी आया, जब कहा गया कि नागरिकों के अधिकार सुनिश्चित किए जाएंगे- सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, भोजन का अधिकार वगैरह-वगैरह। अधिकार अपनी जगह पर दुरुस्त हैं, योजनाएं भी लागू हैं, फिर भी कितने सारे लोग क्यों उस लंगर की ओर दौड़े चले जा रहे हैं, जो शायद अपने पापों को छिपाने के लिए किसी हत्यारे, तस्कर, मिलावटखोर या कालाबाजारी ने खुलवाया होगा!

यह गोरखधंधा कुछ समझ नहीं आता। कभी एपीएल या बीपीएल की परिभाषा को लेकर बहस चलती है, तो कभी इस बात पर बखेड़ा खड़ा होता है कि एक आदमी को जीवन निर्वाह के लिए प्रतिदिन कम से कम कितने रुपए चाहिए, कभी किसी प्रदेश के किसी खास इलाके से रोजी-रोटी की तलाश में लोगों के पलायन की खबर आती है, तो कभी सरकारी दावा कि पलायन करने वाले किसी समूह को वापस गांव भेज दिया गया है, तो कभी यह भी कि आंध्र के या उत्तरप्रदेश के ईंट भट्ठे में अथवा कश्मीर व उत्तराखंड के किसी सड़क के मरम्मत में लगे आप्रवासी मजदूरों के हालात कितने बदतर हैं कि उन पर कैसे अत्याचार होते हैं। फिर कभी पता चलता है कि इलाज के लिए दिए गए स्मार्ट कार्ड का पैसा डॉक्टर और अफसर मिलकर हड़प कर जाते हैं, तो कभी यह कि स्मार्ट कार्ड के बदले मिलने वाली क्षतिपूर्ति की रकम पूरी नहीं पड़ती इसीलिए कि डॉक्टर साहब इलाज ही नहीं करेंगे। कभी गरीबों के सिर पर छत मुहैय्या करने की बात चलती है, तो कभी यह पता चलता है कि ठेकेदार ने इतने खराब मकान बनाए कि ढह गए और दर्जनों गरीबों के लिए उनका आश्रय ही कब्रगाह में बदल गया। 

भिनभिनाते मच्छरों और मक्खियों के बीच सड़क किनारे चल रहे शानदार लंगर और नई-पुरानी राजधानियों के नए पुराने सरकारी दफ्तरों में दस-दस दरवाजों के पीछे, सौ-सौ पहरेदारों के घेरे में सुरक्षित बैठकर ''लंच अवर'' और ''टी टाइम'' का आनंद उठाने वाले नीति निर्माताओं के बीच क्या किसी तरह का संबंध है और क्या उसे जानने की कोशिश उन विद्वानों ने कभी की है जो रोज शाम को टीवी पर अपना चेहरा देखकर और अपनी बातें सुनकर मुग्ध होते रहते हैं। वे ही क्यों, अखबार के दफ्तर में बैठकर अपनी कलम का जौहर दिखाने वाले पत्रकार भी अपने बारे में कितना सोचते हैं? अखबार की ऐसी हैडलाइन्स पर जरा गौर कीजिए- फलाने कार्य के लिए दस करोड़ की राशि स्वीकृत, अमुक स्थान के लिए बीस करोड़ की योजनाओं की मंजूरी, पचास करोड़ के विकास कार्यों की सौगात, शिक्षा अभियान के लिए दस अरब का प्रावधान, जिला अस्पताल को मिलेंगे पांच करोड़ आदि-आदि। ऐसी तमाम घोषणाएं संसद व विधानसभा के भीतर होती हैं और बाहर भी। इनके लिए सालाना बजट में भी प्रावधान होता है, लेकिन फिर क्या होता है? आज खबर छापी, कल भूल गए! कितना पैसा सचमुच आया, कितनी राशि सचमुच खर्च हुई, कितनी कमीशन में बंट गई, कितनी कालातीत हो गई इन सबकी कड़ियां कैसे जोड़ी जाएं- इन सब पर ध्यान नहीं जाता।
ऐसे में क्या होता है? यह नहीं कि सिर्फ लंगर खोलने वाला ही जनता को हाथ पसारने के लिए कह रहा है। यहां तो देश-प्रदेश की सरकारें भी मनुष्य के नागरिक होने का गर्व चूर-चूर कर उसे भिखारी बनने पर मजबूर कर रही हैं। मनरेगा में साल में सौ दिन रोजगार मिले, डेढ़ सौ दिन भी मिले, ठीक है किन्तु क्या सचमुच ऐसा हो रहा है? राशन दूकान से एक रुपया या दो रुपए में गेहूं-चावल मिले, वह भी ठीक है, लेकिन वही अनाज उसी दूकान में वापिस, सात या आठ रुपए में बेच दिया जाए, तो क्या इसे भी ठीक माना जाए? कॉलेज के विद्यार्थियों को लैपटाप दें, बात समझ में आती है, लेकिन वही लैपटाप दो घंटे बाद दुबारा बाजार में बिकने आ जाए तो फिर क्या? मेरे सामने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिताजी के हाल में अखबारों में छपाए गए चार-चार पेजों के विज्ञापन हैं। वे विद्यार्थियों को लैपटाप दे रही हैं, लड़कियों को शादी के लिए सोने के आभूषण, गरीबों को सस्ता अनाज, गड़रियों, ग्वालों को गाय, बकरी और भेड़ और गृहणियों को बिजली का पंखा, मिक्सर और ग्राइंडर। हर जगह कुछ न कुछ ऐसा ही चल रहा है। जिन्हें हमने चुनकर भेजा उनका कद इतना ऊंचा कि आम आदमी उनके सामने घास का तिनका। वे सौगात दे रहे हैं आप हाथ पसारकर लेते रहिए और इसके बाद कुछ मत बोलिए। अपनी मेहनत से जो कुछ कमा रहे हैं, उसकी दारू पी लीजिए। घर में भात तो मिल ही जाएगा, मुंह मीठा करने के लिए किसी पापात्मा के लंगर में जाकर खड़े हो जाइए। जिन्हें अपने सम्मान की रक्षा करना नहीं आता वे भीख मांगें यहीं उनकी नियति है।


देशबंधु में 23 मई 2013 को प्रकाशित 

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